Wednesday, April 17, 2024
गीतांजलि श्री
गीतांजलि श्रीhttps://www.janchowk.com/
(गीतांजलि श्री हिन्दी की जानी मानी कथाकार और उपन्यासकार हैं।)

मास्क वाले केंचुए…

हमारे बचपन की बात। हाल तक लगता नहीं था कि इतनी भी पुरानी बात है, पर अचानक, अब, लगता है बहुत पहले की बात है। इसलिए नहीं कि लम्बा सफ़र तय कर चुकी हूँ और कहाँ से कहाँ आ गयी हूँ, बल्कि इसलिए कि वक़्त के दूसरे छोर पर हूँ, यह अंदेशा होने लगा है। अंत की तरफ़।
उस बचपन में भूले भटके दूर कहीं घुर्राहट-सी सुनायी पड़ती। आसमान में, जो नीला था उन बचपन के दिनों में। हम बाहर दौड़ पड़ते और उमंग से ऊपर देखते। चिड़िया की जैसी फैले पंखों वाली मशीन, दूर ऊपर, बादलों परे, दूर उड़ती, दूर जगहों को जाती। अनजान देश को। हमको ललसाते देश। जहाँ हम नहीं पहुँचने वाले, मगर फिर भी।
हवाईजहाज़ हवाईजहाज़, हम बच्चे चिल्ला पड़ते।
वो कोई साधारण घुर्राहट नहीं थी। वो हमारे सपनों और इच्छाओं का बादलों में झपझपाना था। उमड़ना घुमड़ना। हमारे मन की उड़ानों का अंतरिक्ष।

आज। फिर वही। आसमान में घुर्राहट। पहले सी कभी कभी। बिरली भूली सी आवाज़। जैसी हमारे बचपन में। आकाश वैसा ही नीला। पर मैं उछल के बाहर नहीं जाती। जा भी नहीं सकती। बेकार से क़दमों से खिड़की पर जाती हूँ, या बाल्कनी पे, आजकल का मेरा बाहर, लॉकडाउन के ये दिन। नज़र ऊपर करती हूँ, थोड़ी थकी सी, शायद उदास भी, इच्छा शायद बाक़ी, पर सपनों की फूँक पिचके फुग्गे वाली। वही मशीन, बचपन वाली, पंखों वाली, दूर उड़ती जाती, अनजान देशों को।
उन देशों को जो मेरी पहुँच में आ गए थे, मगर शायद निकल गए हैं अब, हमेशा के लिए।

क्षितिज दूर था तब। जिसमें अलग जादू था। स्वप्नों में सम्भावनाओं की झूलन।

पर इंसान तेज़ था, आत्म विश्वास से परिपूर्ण, मेहनती और पुरलगन। हर बाधा से आगे निकलता चला गया। वेग बढ़ाता। चतुर होता जाता। आत्म विश्वास से अभिमानी होता जाता, संघर्ष से महत्वाकांक्षी होता। और महा महत्वकांक्षी होता। निरंकुश निर्बाध निर्दयी। कोई रोड़ा न मानूँगा अपनी राहों में।
उसके इस अतिरिक्त साहसी रुख के कुछ परिणाम मुझे भी भाए। उसने विज्ञान और तकनीक में अपना जलवा दिखाया और नए ज़रिए ईजाद किए, जो मुझे उन अनजान जगहों में पहुँचा गए जो क्षितिज पार हुआ करते थे। ख़्वाब साकार हुए। अजूबे अपने हुए।
सब कुछ सम्भव हो गया। सब कुछ पहुँच के भीतर आ गया। सब कुछ मेरे नीचे बिछ गया। मेरे बचपन के ऊँचे पेड़ जो हमारे घर को छांव देते थे बौने हो गए, जिन पर मेरा मल्टी स्टोरी स्थित फ़्लैट और पड़ोसी फ़्लैट ऊँचाइयों से अब झाँकते थे।
इंसान, सब का मालिक, दोस्त किसी का नहीं।
बाज़ार में। वैश्वीकरण की होड़ में। सरहद परास्त करने में। शहर में, गाँव में, केंद्र में, अम्बर में, जल में, और स्पेस पर भी अपनी हुकूमत क़ायम करने को तत्पर।

हमने अपने ज़ोर से पूरी कायनात को हिला दिया था और इस पर झूम उठे। मैं भी अपने क़दमों में नयी, चमक भड़क की दुनिया पे चौंधिया के, अतिरिक्त ऊर्जा से दनदनाती हवा पर लट्टू हो गयी और ख़ुद भी लट्टू ही बन गयी। हर समय किसी तेज़ चकराते झूले पर सवार, धम धम बजते मज़े में, भागमभाग, दौड़मदौड़, जगमग के बीच। रफ़्तार निरंतर तेज़ और तेज़, उससे भी ज़्यादा तेज़।

पर सब कुछ को हिला देने के मायने हैं सब कुछ का हिलना।
वह सब कुछ सप्राण था। हम किसी निष्प्राण जगत से नहीं खेल रहे थे, कि काग़ज़ लकड़ी के खिलौने हिला दिए। हम जीवित पृथ्वी से खेल रहे थे, वह हिल उठी। धरा। जल। हवा। ग्रह। पर्वत। कीड़े। केंचुए।
जीवाणु।

चेतावनियाँ आती रहीं, शोध से, इतिहास से। सब कुछ ज़लज़ला रहा है, ज़लज़ला क़यामत ढाएगा। स्पीड नशा है और मारक भी।
पर हमें अपने अमरत्व पर ठोस भरोसा जो था।

वाइरस ने वार किया।

बाढ़ में एक बिच्छू एक तैराक के काँधे पर चढ़ गया और उफनते पानी को सुरक्षित पार करता गया। बीच लहरों में उसने उसी काँधे पर डंक मारा जो उसे निस्तार रहा था। पर बिच्छू निर्दोष था। वो महज़ अपना धर्म निभा रहा था। डंक मारना उसका धर्म।
वाइरस भी। अपना धर्म निभा रहा है। छलाँगते फलाँगते एक तन से दूसरे को संक्रमित कर देना । निर्दोष है।

मगर इंसान? उसका धर्म?
और मैं, चाहे अनचाहे उसी इंसान का अंश, उसके कुकृत्यों कुकारोबार में शिरकती?
क्या ग़लत करते रहे हैं हम? मैं?
और अब उतनी तेज़ दौड़ने के बाद थमें कैसे, और सनसनाती चाल को धीर गम्भीर कैसे बनाएँ? स्पीड की लत पड़ गयी है।
उड़ने की भी, हर क्षितिज पार। तो खुले डैनों को समेटें कैसे और कितना, जब आसमान फाड़ के उड़ना जान लिया है?
जैसे आदमी का ख़ून लग गया तो बाघ आदमखोर हो गया और अब पूरी आबादी के लिए ख़तरा!

पर कुछ तो वार ग़लत गिरा है। हमारे लिए ख़तरनाक क्योंकर हो गया? दुनिया को हमारे इशारों पे नाचना था। हमने उसे बस में कर लिया था। हम उसे चलाते, वो हमें नहीं। और एक अदृश्य भुनगे से भी कम सा वाइरस क़तई नहीं।
अरे बाबा अपन तो रोबोट बना चुके थे, एलीयन को चंगुल में कर रहे थे, प्रयोगशाला में इंसान पैदा करने को आ गए थे, अमरत्व का रसायन तैयार ही हुआ जानिए।
मगर पांसा पलटा सा लग रहा है।

तो क्या हमीं वे एलीयन और रोबॉट्स जो हमने सोचा हम तुम्हें बना के चलाएँगे? तुम, मेरे सामने, मास्क में, और थ्री पीस सुरक्षा सूट में, तुम क्या इंसान हो? मैं इंसान हूँ? एक दूसरे को देखकर छः गज़ दूर उछल जाने वाले, एक दूसरे को देख मुस्कान लापता। न गले मिलना, न छूना, स्नेह और मोहब्बत से लाड़ न करना। प्यार मुस्कान महागुम-महामारी।
सरको, इंसानो, क्योंकि एलीयन और रोबोट आ गए हैं और वे हम हैं।

मैं फँसा फँसा महसूस करती हूँ। भाग जो जाऊँ। तुम फँसे रहो, मेरी बला से।

एक केंचुए ने सारी तबाही के बीच मिट्टी से सिर निकाला। चारों ओर वितृष्णा और निराशा से देखा। यहाँ मेरी ठौर नहीं। उधर एक और केंचुआ मिट्टी से उठा हवा में नज़र आया। यहाँ मेरी ठौर नहीं, पहले ने उससे कहा। और इंसानों की सी, अपने तईँ चिंता में, कहा, मैं तो चला, बेहतर मुक़ामों की ओर, तुम सड़ो यहाँ मेरी बला से।
दूसरा तब जवाब में बोला – उल्लू कहीं के, हम तुम जुड़े हैं। मैं तुम्हारा दूसरा सिरा हूँ। जहाँ तुम वहाँ मैं और जहाँ मैं वहीं तुम। हमारा जीना मरना साथ। यहाँ एक बच जाए ऐसा न होने वाला! तो समझो मैं यहीं पड़ा तो तुम कहीं नहीं जा सकते।
फिर उदास बोला – है भी कौन सी जगह महफ़ूज़ कि जाओ?
लो, उस ने कहा – मानो कोई समाधान यहाँ – मास्क पहनो, मेरे पास दो हैं।

तो – कोई जगह नहीं कि बच निकलें और हवाई जहाज़ बंद और जब चलेंगे तो सपने नहीं, बाज़ार के फ़ायदे उड़ेंगे, और हम उतने ही बेचारे होंगे, केंचुओं का जमाव, यह सिरा या वह, सब उसी हद-तोड़ती होड़ में, दूसरे को पछाड़ अपने को आगे कर देने की ख़ुशफ़हमी में। मुखौटे लगाए।
केंचुए, मास्क डाटे।
और स्पेस सूट और काला चश्मा और दस्ताने और पूरा सिर-ढक टोपी डाटे। नक़ाबपोश। भीतर क़ैद स्नेहात्मा है तो घुट न जाए। स्नेह को दरार ही न मिले कि व्यक्त हो।

गांधी चेताते रहे। अपने को मिस्कीन, आकबतअंदेश, शेखचिल्ली बताते। अब दिख रहा है इतने भी पागल नहीं थे वे।

नहीं, अभी भी नहीं दिख रहा।

(गीतांजलि श्री हिंदी की जानी-मानी कथाकार और उपन्यासकार हैं।)

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