Friday, March 29, 2024

कवि केदारनाथ सिंह होने के मायने

वह एक कविता थे, लंबी सी

इक तस्वीर थे, खूबसूरत सी

वह एक कहानी थे, सुंदर सी

एक शिक्षक थे, बेहतरीन से

एक इंसान थे, उम्दा से

एक नागरिक थे, सजग से

वह एक मुकम्मल व्यक्ति थे

केदारनाथ सिंह की एक कविता है – मुक्ति, जो उन्होंने अपने निधन से 31 बरस पहले 1978 में लिखी थी। इस कविता में उन्होंने लगभग वो सारी बातें लिख दीं जो उनके गुजर जाने के बाद भी जीवित हैं, जीवित रहेंगी, सबकी ‘परम मुक्ति’ तक। वो कविता है :

मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला

मैं लिखने बैठ गया हूँ

मैं लिखना चाहता हूँपेड़

यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है

मैं लिखना चाहता हूँपानी

आदमी‘ ‘आदमी‘ –

मैं लिखना चाहता हूँ एक बच्चे का हाथ

एक स्त्री का चेहरा

मैं पूरी ताकत के साथ

शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ

यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा

मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका

जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है

यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा

मैं लिखना चाहता हूँ….

दिवंगत कवि प्रोफेसर केदारनाथ सिंह को नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) में पढ़ाई जाने वाली देशी–विदेशी भाषाओं के ही नहीं ‘सामाजिकी’, ‘पर्यावरण’, ‘अंतरराष्ट्रीय संबंध’ और ‘कम्प्यूटर विज्ञान’ पाठ्यक्रम के भी सब छात्र, शिक्षक, लाइब्रेरी, कैंटीन और होस्टल कर्मचारी भी केदार जी ही बोलते थे। हम खुद कभी उनके शिष्य नहीं रहे। पर उनसे जेएनयू में छात्र जीवन और बाद में पत्रकारिता में भी सम्पर्क बना रहा। इसका कारण ये भी था कि वो मेरे छात्र जीवन की साथी, बाद में पत्नी बनी सहपाठी संध्या चौधरी के शिक्षक ही नहीं ‘हिंदी लघु पत्रिका आंदोलन पर 1982-84 में किये शोध के गाइड भी थे। वे इस पर कुछ नाराज थे कि उन्होंने इस पर एम.फिल. करने के बाद सरकारी नौकरी हाथ लग जाने पर पीएचडी पूरी नहीं की। 1980 के दशक में लंदन में बसे भारतीय मूल के प्रसिद्ध उपन्यासकार की लिखी पुस्तक सैटेनिक वर्सेस पर भारत में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाने से यह मामला सियासत, मीडिया और साहित्य में जोर पकड़ने लगा। यूनाइटेड न्यूज इंडिया (यूएनआई) समाचार एजेंसी कम्पनी की हिंदी सेवा ‘वार्ता’ के सम्पादक काशीनाथ जोगलेकर ने एक सुबह कार्यालय आते ही मुझ पर नज़र पड़ने के बाद मुझे बातचीत के लिये अपने केबिन में बुलाया। उन्होंने इस मामले पर हिंदी अखबारों के पाठकों के लिये विस्तृत रिपोर्ट लिखने को कहा। वह अपनी मातृभाषा मराठी ही नहीं अंग्रेजी, हिंदी और बनारस में सीखी संस्कृत के भी विद्वान थे। वह आल इंडिया रेडियो की सेवा से रिटायर होने के बाद वार्ता के सम्पादक बने थे। मेरी पत्रकारीय नौकरी के लिये इंटरव्यू उन्होंने ही लिया था। इसलिये जानते थे कि मैं जेएनयू में चीनी भाषा एवं साहित्य के एम.ए. कोर्स का छात्र रहा था। मैंने उनके निर्देश पर तुरंत हामी भर कहा कि रिपोर्ट लिखने के लिये कुछेक भारतीय सियासी नेताओं और साहित्यकारों के अलावा सलमान रुश्दी से भी लंदन में खर्चीले ट्रंक काल से फोन पर बात करना बेहतर होगा। जोगलेकर जी ने हरी झंडी दे दी। फिर कहा – ‘जाओ ग्राउंड रिपोर्ट तैयार करो। चाहो तो उसी दिन फोन आदि खर्च के लिये अकाउंट विभाग से एड्वांस रकम ले लो।’ उन्होंने चलते-चलते पूछा: ‘जेएनयू जाकर किन साहित्यकार का इंटरव्यू करोगे ?’ मैंने चलते ही कहा : ‘कवि केदारनाथ सिह’, उन्होंने कहा : ‘बहुत बढ़िया रहेगा’ केदार जी ने उस प्रतिबंध का प्रबल विरोध करते हुए कहा था – ‘दुनिया में कहीं भी किसी साहित्यिक कृति पर सरकारी या और किसी तरह का प्रतिबंध नहीं लगना चाहिये।’

केदार जी के शिष्यों के अनुसार कविता पढ़ने में उनका कोई जवाब नहीं था। उन्होंने खासकर छायावाद प्रवर्तक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और जयशंकर प्रसाद को मनोयोग से अपने शिष्यों को समझाया। उनका कहना था : ‘कविता को सही बल और ठहराव देकर पढ़ा जाए तो वो अपना अर्थ खोल देती है।’ उनके शिष्य रहे कोलकाता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी का कहना है : गुरूवर केदारनाथ सिंह से मैंने बहुत कुछ सीखा, मुझे अपने छात्रों के प्रति समानतावादी रूख और कक्षा को गंभीर अकादमिक व्यवहार के रुप में देखने की दृष्टि उनसे मिली। निर्विवाद सत्य है, कविता पढ़ाने वाला उनसे बेहतरीन शिक्षक हिंदी में नहीं हुआ।  एक मर्तबा नामवर सिंह ने एम.ए. द्वितीय सेमेस्टर की कक्षा में कविता पर बातों के दौरान हम लोगों से पूछा – ‘आपको कौन शिक्षक कविता पढ़ाने के लिहाज से बेहतरीन लगता है?’ अनेक ने नामवर जी को श्रेष्ठ शिक्षक माना।

मैंने प्रतिवाद कर कहा – ‘केदार जी अद्वितीय काव्य शिक्षक हैं।’ मैंने जो तर्क दिये गुरूवर नामवर जी उनसे सहमत थे। केदार जी को ये बात पता चली तो उन्होंने मुझे बुलाकर कॉफी पिलाई और पूछा – ‘नामवर जी के सामने मेरी इतनी प्रशंसा क्यों की?’ मैंने कहा कि ‘छात्र चाटुकारिता कर रहे थे। वे गुरु प्रशंसा और काव्यालोचना का अंतर नहीं जानते। वे काव्य व्याख्या को समीक्षा समझते हैं।’ मानवाधिकारवादी कवि केदारजी का सबसे मूल्यवान गुण था उनके अंदर का मानवाधिकार विवेक। कविता और मानवाधिकार के जटिल संबंध की जो बारीक समझ केदार जी ने दी वह हिंदी में विरल है। लोकतंत्र के प्रति तदर्थवादी नजरिए से हिन्दी में अनेक कविता लिखी गयीं, पर गंभीरता से मानवाधिकारवादी कविता कम लिखी गयी है। यही बात उनको लोकतंत्र का बड़ा कवि बनाती है। वे हिंदी के कवियों में से एक कवि नहीं बल्कि मानवाधिकारवादी कविता के सिरमौर हैं।

केदार जी के अमेरिका में बस गए शिष्य अरुण प्रकाश मिश्र ने बताया : ‘मैं 1976 में जेएनयू आया। वे  1977 में जेएनयू हिन्दी विभाग में आये। उन्होंने हमें निराला की ‘राम की शक्ति-पूजा’ और जयशंकर प्रसाद रचित कामायनी का ‘चिन्ता’ सर्ग पढ़ाया। हमने उस कोर्स में शोध पत्र ‘स्वच्छन्दतावाद और छायावाद’ पर लिखा। उन्होंने 1978 में एम.फिल. में तुलनात्मक साहित्य पढ़ाया जिसकी बदौलत उनके शिष्यों में साहित्य की सही समझ विकसित हुई और समाज को बेहतर समझने की दृष्टि मिली। उनके छात्र और ऑयल इंडिया में हिन्दी अधिकारी रहे उमाशंकर उपाध्याय का कहना है जब कभी नीम की पत्तियां झरने लगेंगी, जब कभी जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र के प्रोफेसरों में सबसे सुन्दर मानव की याद की जाएगी तब केवल तुम और केवल तुम ही याद आओगे।

जब कभी लड़कियों के गोदावरी हॉस्टल के नजदीक शाम में अचानक कोई पकड़कर पूछ बैठेगा “का हो उपधिया जी गांवे ना गइलह” तब अपने सबसे सहज संसार की याद आएगी। ऐसे लोग भुलाए नहीं भूलते। केदारनाथ सिंह ने शुरुआत गीतों से की थी और पडरौना के एक कॉलेज में प्राचार्य थे। बाद में वे जेएनयू आ गए और लोकप्रिय शिक्षक और यशस्वी कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए। 2013 में उन्हें ज्ञानपीठ सम्मान से विभूषित किया गया था। 

हिंदी दैनिक भाष्कर में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेंद्र पांडेय के अनुसार केदार जी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गाँव में जन्मे थे। केदार जी हिंदी के ऐसे ख़ास कवि हैं जिनकी कविताओं का दुनिया की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। केदार जी दशकों तक दिल्ली में रहे। पर वो गाँव को कभी भुला नहीं पाए।  पैतृक गाँव चकिया उनकी यादों में समाया रहा। उन्होंने गाँव और शहर के बीच अद्भुत तालमेल बना रखा था। यह तालमेल उनके संस्मरणों की पुस्तक ‘चकिया से दिल्ली तक में आसानी से दिखती है। केदार जी लिखते हिंदी में थे, पर उन्हें पूरी दुनिया में पढ़ा गया, उन्होंने अपनी मूल भाषा भोजपुरी को भी अपना बनाए रखा। उनके व्यापक रचना संसार से उन्हें कई राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिले। 2013 में उन्हें हिंदी का सर्वश्रेष्ठ ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया।

कवि केदारनाथ के बारे में अशोक वाजपेयी ने लिखा : वह  हिन्दी के शायद सबसे जेठे सक्रिय कवि थे। कोमलकान्त पर सशक्त, सबसे अधिक पुरस्कृत पर विनयशील और आत्मीय, बहुतों के सहचर-मित्र, बहुतों के सहायक, बहुतों के दुःख-दर्द में शरीक। अपनी प्रतिबद्धता में स्पष्ट और दृढ़, पर उसे आस्तीन पर चढ़ाये सबको बार-बार दिखाने की वृत्ति से हमेशा दूर। मितभाषी, पर थोड़े अधीर। प्रगतिशील होते हुए भी अज्ञेय के निकट और उनके प्रशंसक। हाथ से कुछ कंजूस, पर दिल से बेहद उदार। वे उन कवियों में से थे जिनकी नागरिक आधुनिकता में कोई झोल कभी नहीं पड़ा, पर जिन्होंने अपने ग्रामीण अंचल को कभी भुलाया नहीं। जैसे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को अपने बचपन की कुआनो नदी याद रही वैसे ही केदार को माँझी का पुल।

उनकी कविताओं में तालस्ताय से लेकर नूर मियाँ जैसे चरित्र आवाजाही सहज भाव से करते रहें। वे उन आधुनिकों में से भी थे, ख़ासे बिरले, जिन्होंने अपनी आरंभिक गीतिपरकता को कभी छोड़ा नहीं और उसे आधुनिक मुहावरे में तब्दील किया। उनकी कविता का बौद्धिक विश्लेषण होता आया है, पर उन्होंने बौद्धिकता का कोई बोझ अपनी कविता पर कभी नहीं डाला। उनसे पहली मुलाक़ात इलाहाबाद में 1957 में हुए साहित्यकार सम्मेलन में हुई थी। यह भी याद आता है कि उस समय वे ब्रिटिश कवि डाइलेन टामस, अमरीकी कवि वालेस स्टीवेन्स और फ्रेंच कवि रेने शा के प्रेमी थे। कुछ का अनुवाद भी उन्होंने किया था। अपने क़िस्म की सजल गीतिपरकता शायद उन्होंने इन कवियों की प्रेरणा में पायी होगी। उनके पहले संग्रह का नाम, जिसे इलाहाबाद से कथाकार मार्कण्डेय ने अपने प्रकाशन से छापा था, ‘अभी, बिल्कुल अभी’ था। उसकी ताज़गी और एक तरह की तात्कालिकता उनकी कविता में बाद में भी बराबर बनी रही। वे साधारण वस्तुओं, चरित्रों आदि को कविता में बहुत आसानी से लाकर काव्याभा से दीप्त कर देते थे। एक अर्थ में उनकी कविता हमेशा ही ‘अभी, बिल्कुल अभी’ बनी रही।

जेएनयू और केदार जी

केदार जी का कहना था उन्हें जेएनयू पर गर्व है। वह इसके कारण जो कुछ कहा जाए सुनने के लिये तैयार हैं। उन्हें कोई देशद्रोही कहे या आतंकवादी। उन्होंने प्रसिद्ध साहित्यकार प्रो. परमानन्द श्रीवास्तव की स्मृति में 26 फरवरी 2016 को गोरखपुर में एक कार्यक्रम में जेएनयू का जिक्र किया। जेएनयू पर लगाए आरापों से आहत केदार जी ने कहा जिस राष्ट्र के बारे में आज बात हो रही है उसके निर्माण में जेएनयू का बहुत योगदान है। उनका कहना था : ‘सौभाग्य से जेएनयू वाला हूँ। जेएनयू का अध्यापक रहा हूँ। याद है 1984 में प्रो. परमानन्द जेएनयू में मेरे आवास पर ठहरे हुए थे। उस समय दिल्ली में सिखों की हत्या हो रही थी। पर जेएनयू के आस-पास ऐसी एक भी घटना नहीं हुई। जेएनयू छात्रों ने सुनिश्चित किया आस-पास कोई घटना न हो। इसके लिए वे पूरी रात इस इलाके में घूमते रहे। छात्र मुझे और परमानन्द जी को भी एक रात साथ ले गए। जेएनयू छात्रों ने यह काम किया, पर उनको अब देशद्रोही कहा जा रहा है। जेएनयू के त्याग को समझना होगा। वे सभी समर्पित लोग हैं।

किसी घटना को पूरे परिदृश्य में देखा जाना चाहिए। आज जिस राष्ट्र के बारे में बात हो रही है उसके निर्माण में जेएनयू का योगदान है। वह राष्ट्र जिस रूप में आज दुनिया में जाना जाता है, उसका बिम्ब गढ़ने में जेएनयू का योगदान है। भारत और उसके बौद्धिक गौरव का जानकार पढ़ा-लिखा संसार मानता है। इस राष्ट्र को बनाने में जेएनयू का भी अंशदान है। नोम चोमस्की आज पूरे परिदृश्य में जेएनयू को याद कर आगाह कर रहे हैं कि इसके विरुद्ध कोई कार्य नहीं होना चाहिए। यह बहुत बड़ा सर्टिफिकेट है। उनकी बात ध्यान से सुना जाना चाहिए। नोम चोमस्की वह हैं जो सच को सच और झूठ को झूठ कहने का माद्दा रखते हैं। ऐसे लोग विरल होते जा रहे हैं। कभी यह काम ज्यां पाल सार्त्र करते थे। ये बौद्धिक हमारी मूलभूत चेतना के संरक्षक हैं। जेएनयू की बात आएगी तो चुप नहीं रह सकता। मुझे उससे जुड़े रहने पर गर्व है।’

उनके शिष्य उदय भान दूबे के अनुसार, “डॉ. केदारनाथ सिंह के दर्शन पहली बार 1980 में जेएनयू में एडमिशन के लिए इंटरव्यू के दौरान हुआ। उन्होंने मुझसे छायावाद पर प्रश्न किए और अंत में एक कविता सुनाने को कहा था। मैंने नागार्जुन की ‘अकाल और उसके बाद’ कविता सुनाई थी। बड़े खुश हुए थे। मुझे लगा जैसे मैंने छक्का मार दिया हो। उसके बाद एम.ए. में उनसे कविताएं तथा एम.फिल. में तुलनात्मक साहित्य पढ़ा। कविताओं में सरोज स्मृति, राम की शक्तिपूजा, कामायनी और शमशेर की कुछ कविताओं पर उनके व्याख्यान मन पर आज भी विद्यमान हैं, तरोताजा लगते हैं। तुलनात्मक साहित्य शायद उतना प्रभावी नहीं था। शायद इसीलिए उसकी कोई याद नहीं है। गुरुदेव एक बार काव्य गोष्ठी में भाग लेने अलवर गए। मुझको साथ ले गए थे।

मुझे फेलोशिप मिलती थी। फिर भी उन्होंने मुझे एक पैसा खर्च नहीं करने दिया। बल्कि उल्टे जबरदस्ती मेरे पॉकेट में 100 रुपए डाल दिए थे, कुछ खर्च करने के लिए। कभी प्रसंगवश बात उठी कि मैं गोपालगंज का हूँ तो उन्होंने बताया उनके दामाद गोपालगंज कॉलेज में प्राध्यापक थे। एक बार उन्होंने पूछा कि घर कब जाना है। मैंने कोई तिथि बताई। उन्होंने कहा एक जरूरी सूचना बेटी के पास पहुंचानी है। तुम 2-3 दिन पहले जा सकते हो क्या ? मैंने कहा कि क्यों नहीं। कोई असुविधा नहीं है। वे आने-जाने के टिकट का पैसा देने लगे। मैंने कहा कि मुझे 2 दिन बाद अपने घर जाना ही है। आप क्यों पैसा दे रहे हैं। किंतु, वे नहीं माने। जबरदस्ती दोनों तरफ का किराए दे दिए। क्या करता, गुरू से झगड़ा तो नहीं कर सकता था। इस तरह की अनेक स्मृतियां हैं। उस समय की डायरी निकालने पर अनेक अच्छी बातें सामने आएगी। कभी बाद में यह कार्य करूंगा।

ये कुछ बातें हैं जिनसे उनके एक अद्वितीय विद्वान, अनुपम शिक्षक और बेहतरीन इंसान होने की झलक मिलती है। साहित्यकार पंकज चतुर्वेदी ने लिखा है : मैंने 1989 के जुलाई महीने में जेएनयू के भारतीय भाषा विभाग के हिंदी विषय में एडमिशन लिया। कोर्स एम.ए. का था। इससे पहले मैं इलाहाबाद में 2-3 साल बिता चुका था, पूरब के तथाकथित ऑक्सफ़ोर्ड से काफ़ी अच्छी तरह से ऊब चुका था। जेएनयू हिंदी विभाग में एडमिशन के लिए कोशिश का बड़ा आकर्षण नामवर जी, केदार नाथ सिंह और मैनेजर पाण्डेय थे, जो न सिर्फ़ भारतीय भाषा केंद्र के आकर्षण थे बल्कि समाज विज्ञान, इतिहास और विज्ञान के छात्र–छात्राएँ भी अक्सर हमारी कक्षाओं में पाए जाते। इलाहाबाद की रटंत प्रैक्टिस की सालाना परीक्षाओं के विपरीत जेएनयू में बहुत मौज थी। सेमेस्टर शुरू होते ही टर्म पेपर, सेमिनार पेपर और फिर एंड सेमेस्टर का सिलसिला शुरू हो जाता, जो रटंत प्रैक्टिस की तुलना में ज्यादा रोचक था और परीक्षा के भूत से हमें एकदम दूर रखता।

1989 के सत्र का पहला सेमेस्टर जेएनयू के नीचे वाले कैम्पस में ही चला जिसका लोकप्रिय नाम डाउन कैम्पस था। डाउन कैम्पस में घुसते ही बायें हाथ की तरफ़ हमारा हाल था जिसमें एमए की कक्षाएँ चलती थीं। पहले ही सेमेस्टर में केदार जी हमारे निर्विवाद स्टार हो गए। अक्सर कक्षा के लिए लेट लतीफ़ रहने वाले विद्यार्थी भी उनकी कक्षा में समय से पहले पहुँच जाते। कुछ यही रूतबा नामवर जी और मैनेजर जी का भी था। नामवर जी साहित्य के बहाने दुनिया की सैर कराते और मैनेजर जी अपनी मजेदार टिप्पणियों से सबको खूब आनंदित करते। केदार जी का रुतबा तीनों सहकर्मियों में अलहदा था।

नामवर जी उत्तर पुस्तिका देते समय अक्सर यह कहके हमारे प्रतिरोध को स्वर न बनने देते कि ‘आप सबको एक ग्रेड मैंने पहले ही ज्यादा दिए हैं इसलिए कोई शिकायत न करें’। मैनेजर जी समय सीमा का पालन न होने पर ठीक–ठाक तीव्रता के साथ कुपित होते और कई बार उत्तर पुस्तिका को हवा में फेंक भी देते। केदार जी ने शायद ही कभी किसी तरह के नियमों का पालन किया। वे किसी कविता की व्याख्या करते ओडिसी के महान गुरु केलुचरण महापात्र की तरह अपने दाहिने हाथ की अँगुलियों से नृत्य की मुद्राओं का सृजन करते और फिर उनकी आवाज भी धीमी हो जाती।

केदार जी एक श्रेष्ठ अध्यापक भी थे। अध्ययन और अध्यापन के सिलसिले में उन्होंने अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी और इटली समेत कई देशों की यात्राएं भी की थीं। अपने गाँव से शहर, शहर से देश और देश से विदेश तक जो यात्राएं उन्होंने कीं, उसके अनुभवों ने उनकी रचनाओं को एक व्यापक विस्तार और गहराई दी थी। उनके इसी व्यापक रचना-संसार ने उन्हें समय-समय पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित भी करवाया।

(चंद्रप्रकाश झा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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