हम से ना होई बनिहरिया ए मालिक, हम से न होई!

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जिन लोगों को अफ़सोस है कि शारदा सिन्हा अपने गायन को समाज बदलने का हथियार नहीं बना पायीं, उन्हें सबसे पहले शारदा सिन्हा की संगीत यात्रा के संघर्ष की कहानी जाननी चाहिए, क्योंकि गायन में मशहूर होने से पहले किसी गायक या गायिका की संघर्ष कथा होती है। शारदा सिन्हा सवर्ण थीं, लेकिन वह महिला भी थीं, ज़ाहिर है कि उनका पहला संघर्ष समाज की पितृ सत्ता से होना था। पितृ सत्तात्मक समाज कितना मज़बूत और रूढ़ है, इसका अंदाज़ा महिला आरक्षण बिल की बहदाली से भी लगाया जा सकता है।

बहरहाल, अपनी संगीत शिक्षा को आगे बढ़ाने की राह में सबसे पहले उन्हें इसी पितृसत्ता का सामना करना पड़ा था। लेकिन, पिता ने कठोर सामाजिक ताने के सामने अपनी संकल्प शक्ति रख दी और शारदा सिन्हा निरंतर संगीत की शिक्षा पाती रहीं। शादी के बाद ससुराल की परंपरागत बहू की भूमिका निभाने की पारिवारिक सामाजिक ज़िद के सामने उनके पति अड़ गए। 

उनकी आवाज़ में जहां शास्त्रीय प्रशिक्षण की लयात्मकता मिलती है, वहीं कड़े संघर्ष में तपने के घनीभूत शब्दों के स्वरों में ढलने की जीवंतता भी महसूस होती है।

आज नृत्य और गायन के कई प्लेटफॉर्म के मौजूद होने के दौर में किसी को लग सकता है कि सवर्ण होने मात्र से संगीत की शिक्षा आसान रही होगी, तो शायद उन्हें नहीं पता कि चंद दशक पहले ही सवर्ण घरों में लड़कियों या महिलाओं को खुलकर ठहाके लगाने, नाचने और गाने की इजाज़त नहीं थी। यही वजह है कि संगीत से जुड़ी ज़्यादातर महिला हस्तियां तवायफ़ रहीं। 

शारदा सिन्हा ने पिता और पति की मदद से पितृ सत्तात्मकता के ख़िलाफ़ अपने विद्रोह को अंजाम तक ले जाने के लिए संगीत को माध्यम बनाया।

यह ठीक है कि उनकी आम पहचान छठ के गीतों से है, मगर उन्हें इस बात का भी श्रेय दिया जाना चाहिए कि जिस दौर में लोकगीतों के भीतर पॉप संस्कृति अपसंस्कृति की घुसपैठ ही नहीं बल्कि पुरपैठ हो चुकी हो, उस दौर में शारदा सिन्हा सोहर,समदावन,कोहबर,सामा-चकवा, झिझिया आदि गीतों से पारंपरिक लोकगीत शैली को ज़ोरदार तरीक़े से आगे बढ़ाती रहीं। 

शारदा सिन्हा को एक श्रेय और दिया जाना चाहिए कि भोजपुरी (अब तो मैथिली, अंगिका, मगही और वज्जिका में भी) जिस फूहड़ता ने लोक शैली को गली शैली में तब्दील कर दिया है, शारदा सिन्हा उन्हीं बोली या भाषा में शब्दों की लड़ी ऐसी पिरोयी कि पगडंडियों पर पैदल चलते पिया और सांझ-सबेरे कल्पनाओं में उतरती-चढ़ती विरहन के जिया को इतने भद्र शब्द और लय मिल गए कि उन्हें कहीं और किसी के सामने गुनगुनवाया जा सकता है।

जिन्हें गुमान है कि बिना लटके-झटके और अश्लील हुए युवाओं में लोकप्रिय नहीं हुआ जा सकता, शारदा सिन्हा उन्हें शालीन चुनौती देते हुए श्रोताओं की उम्र की तमाम सीमाओं को तोड़ देती हैं। विद्रोह सिर्फ़ शोर और हवा में तनी मुट्ठियों से ही अभिव्यक्त नहीं होता, बल्कि लय और सुर के ज़रिए भी अभद्र भाषा और गायन की देह शैली के ख़िलाफ़ सशक्त और कामयाब बग़ावत की जा सकती है।   

शारदा सिन्हा ने सिर्फ़ छठ और भक्ति संगीत ही नहीं गाये हैं, बल्कि विद्रोह और मज़दूरों के अहसास को भी अपना स्वर दिया है। 

यह अलग बात है कि जिस दौर में शारदा सिन्हा हुईं, उस दौर में लोगों ने उनसे विद्रोह के गीत के बजाय भक्ति गीत को सुनना पसंद किया। शायद इसलिए कि इक्की-दुक्की घटनाओं को छोड़ दें, तो समाज बदल चुका है। अब ‘मालिक’ जैसे शब्द या संबोधन ताने और व्यंग्य के पर्याय बन चुके हैं और अर्थव्यवस्था की तरह भारतीय समाज और पारिवारिक रिश्ते का भी उदारीकरण हो चुका है।

अगर आपको शारदा सिन्हा के गीतों में विद्रोह के दर्शन नहीं होते, तो मान लिया जाना चाहिए कि विद्रोह उस पारंपरिक रूप में अब ज़िंदा नहीं है, जिसे आप देखने को आतुर या आदि रहे हैं। ज़माना बदल गया है, विद्रोह का ताना-बाना भी बदल गया है, इसलिए विद्रोह करने वाले भी शायद इस तरह के गीत सुनना पसंद नहीं करते, जिस तरह के विद्रोह का गाना शारदा सिन्हा दशकों पहले गा चुकी थींः हम से ना होई बनिहरिया ए मालिक, हमसे न होई

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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