पी. थंकप्पन नायरः इतिहास का अनथक अन्वेषक

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19 जून, 2024 को एक छोटी सी खबर छपीः ‘‘बेयरफुट हिस्टोरियन’ जिन्होंने कोलकाता के इतिहास को दर्ज किया, केरल में 91 साल की उम्र में नहीं रहे।’’ मैंने कोलकाता के इतिहास के संदर्भ में कुछ पुस्तकें देखी थीं, लेकिन उन पुस्तकों में ‘बेयरफुट हिस्टोरियन’ पी. थंकप्पन नायर का जिक्र नहीं पाया। संभव है, वहां उनसे उद्धहरण लिये गये हों, लेकिन उस पर खास जोर न होने से उस नाम पर मेरा ध्यान ही नहीं गया हो।

भारत के आधुनिक इतिहास में कोलकाता और मुंबई, दोनों शहर एक निर्णायक भूमिका का निर्वाह करते हैं। जिस समय अंग्रेज कोलकाता से होते हुए बनारस की ओर बढ़ रहे थे, दिल्ली पतन की ओर बढ़ चला था। यहां बादशाह और उनके शासन की प्रणाली लाल किले तक सिमटने की ओर थी। इतिहास की गौरवशाली इमारतों पर खंडहर हो जाने का अभिशाप चिपक चुका था। उधर कोलकाता ब्रिटिश उपनिवेशवाद का केंद्र बनकर उभर रहा था। यह भारत की नई राजधानी बनकर उभर रही थी।

कोलकाता ही वह जगह है, जहां 1757 के बाद व्यापार और खेती के नियम और प्रबंधन में बदलाव लाने में निर्णायक भूमिका निभाई। जमींदारी प्रथा ने एक तरफ खेतों पर मालिकाने और राजस्व की प्रणाली को बदल दिया। इसने कोलकाता शहर में ऐसे जमींदारों और मुद्रा व्यापार में लगे सूदखोरों का गढ़ भी बना दिया। दूसरी ओर, इस शहर ने गाजीपुर, छपरा, पटना को अफीम उत्पादन, भंडारण और व्यापार का केंद्र बना दिया जिसका नियंत्रण कोलकाता से हो रहा था और इसे चीन और दक्षिण एशिया के देशों में बेचा जा रहा था। कोलकाता अफीम व्यापार का एक बड़ा केंद्र बनकर उभरा जिसमें ब्रिटिश, और बाद में अमेरिकी पूंजीपतियों ने खूब लाभ कमाया और चीन को बर्बादी के कगार पर पहुंचा दिया।

भारत का आधुनिक पूंजीपति कहे जाने वाले जो बड़े नाम हैं, वे भी गुजरात और राजस्थान से चलकर यहीं अपना भाग्य आजमा रहे थे और पूंजी का संग्रहण कर रहे थे। अफीम और सूदखोरी उनके मुख्य स्रोत बने। बाद में उन्होंने अन्य स्रोतों पर हाथ अजमाया। कोलकाता नील की खेती और व्यापार का केंद्र बना। इसके साथ ही यह जूट मील का केंद्र बन गया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर पूर्वांचल में गन्ना और उसके उत्पादों को कोलकाता के घाट पर पहुंचाने का जो सिलसिला शुरू हुआ उसका सीधा असर पूर्वांचल के समाज पर पड़ा। किसानों की विशाल संख्या गिरमिटिया मजदूर बन गया। इसी का एक हिस्सा आज भी पूर्वोत्तर के चाय बगानों में अब भी काम कर रहा है।

कोलकाता जीवन, उसकी प्रत्याशा, हताशा, अकेलेपन और तबाह जिंदगी के साथ-साथ पुनर्जागरण, नई शिक्षा, वास्तुकला, धनाढ्यता और तकनीक का केंद्र भी बना। यहां अपराध की नई श्रृंखला और नये जीवन का मॉडल भी उभरकर आया। धर्म और शिक्षा की नई परिभाषा गढ़ने में कोलकाता ने अग्रणी भूमिका का निर्वाह किया। कोलकाता भारत का पहला मेट्रोपॉलिटन शहर था जो गीतों, कहानियों, पुलिस के रिकार्ड और इतिहास के पन्नों में दर्ज हुआ।

20वीं सदी के आरम्भिक दशक तक आते-आते मुंबई एक नई उम्मीद बन चुका था। ब्रिटिश हुक्मरानों के अब वही गेटवे ऑफ इंडिया था। 1911 में दिल्ली की नई ताजपोशी हुई। 1857 के बाद के समय में भारत के बादशाहों और नवाबों के अंतिम सांस के साथ धड़कती जो कुछ यादें बची थीं, उनका भी अंत का समय आ गया था। कोलकाता की गुमनामियों की शुरूआत हो चुकी थी।

1970 के दशक में कोलकाता शहर का पतन दिखना शुरू हो जाता है। महज 20 सालों में यह साफ हो गया अब कोलकाता शहर नये और पुराने दौर के बीच में फंस चुका है। यह शहर आज भी अपनी पहचान के लिए छटपटा रहा है। पिछले दस सालों की राजनीति में इस पहचान का संकट धर्म और संस्कृति के बीच की टकरहाट के तौर पर सामने आ रहा है। बंग-भंग को जिस नींव पर रखा गया था, वह आज भी बंगाल राष्ट्रीयता के बंटवारे के बाद भी बना हुआ है।

शहर अब भी अपनी पुरानी नींव पर नये निर्माण का इंतजार कर रहा है। कोई भी देश, शहर या गांव अपना नया निर्माण इतिहास से भागकर नहीं कर सकता। एक झूठे इतिहास की जमीन पर खड़ा होकर भविष्य हमेशा ही तबाही के लिए अभिशप्त होगा। भारत में एक झूठे इतिहास के निर्माण की कोशिशें लंबे समय से चल रही हैं। यह इस हद तक चली गई हैं जो महज 20 से 30 साल पहले तक के इतिहास को झुठलाकर बच्चों को पढ़ने के लिए मजबूर कर रहे हैं।

ऐसे में ‘बेयरफुट हिस्टोरियन’ पी. थंकप्पन नायर, जिन्हें मैंने उनके गुजर जाने के बाद ही जाना, एक बेहद उम्मीद भरा नाम है। उन्होंने 60 से अधिक किताबें लिखीं हैं। वह, इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक, कोलकाता शहर में 22 साल की उम्र में मद्रास मेल से एक बैग लेकर हावड़ा उतरे। उनके बैग में कुछ कपड़े और पढ़ाई के सर्टिफिकेट थे। उन्होंने एक टाइपिस्टि की नौकरी की। लेकिन, उन्हें कोलकाता शहर की बौद्धिक दुनिया, पुरानी इमारतें, इस पर अतीत के चिन्ह और पटरियों पर चलती जिंदगी ने उन्हें मोह लिया था।

वह नौकरी के लिए गुवाहाटी गये, मुंबई गये लेकिन उनका वहां मन नहीं लगा। वे कोलकाता लौट आये। उन्होंने लगभग 60 साल इस शहर में गुजार दिया। इसके बाद ही वह 86 साल की उम्र में केरल वापस आये। उन्होंने शहर की गलियों, सड़कों, मकानों से लेकर यहां की ऐतिहासिक राजनीतिक गतिविधियों के बारे में लिखा। वह कोलकाता में दो कमरों के मकान में रहते हुए खूब किताबें जमा कीं। उन्होंने 1990 में कोलकाता म्युनिसिपल कॉरपोरेशन को 3000 पुस्तकें दान में दीं।

कोलकाता एक ऐसा शहर है जो आज बुद्धिजीवियों को अपनी ओर खींचता है। आज भी कोलकाता पर शोध लेख, पुस्तकें आना बंद नहीं हुआ है। इस शहर के बुद्धिजीवियों ने कोलकाता के बनने, यहां के दंगों, यहां के पुरबियां लोगों से लेकर यहां की राष्ट्रीयता पर आ रहे संकट, मजदूरों से लेकर ट्राम के तबाह होने के कारणों पर किताबें आनी बंद नहीं हुईं हैं।

1970 में जब कोलकाता संकट के दौर में घुस गया था, सीपीआई और सीपीएम की वर्ग संरचना में कोलकाता का समाज व्याख्यायित नहीं हो रहा था तब रंजीत गुहा जैसे इतिहासकारों ने सबार्ल्टन इतिहास और सुमित सरकार ने सामाजिक इतिहास की नई धारा पेश की। आने वाले समय में कोलकाता इतिहास की नई धारा में एक अग्रिम केंद्र बनकर उभरा।

परम्परागत इतिहासकारों से हटकर सुनिति कुमार घोष ने ‘इंडिया एण्ड द राज’ और ‘इंडियाज बिगबुर्जुआ’ लिखकर भारत के राजनीतिक अर्थशास्त्र को इतिहास का ठोस संदर्भ दिया। सुमंतों बनर्जी ने ‘मेमॉयर ऑफ स्ट्रीटः कलकत्ता’, ‘द पार्लर एण्ड द स्ट्रीटः एलीट एण्ड पॉपुलर कल्चर इन नाईटिन्थ सेंचुरी कलकत्ता’, ‘द डैनजरस आउटकास्ट’ जैसी पुस्तकें लिखकर उन्होंने रोजमर्रा के जीवन को अखबारों, पुलिस रिकार्ड, पुस्तकों और जबानी स्रोतों आदि को आधार बनाकर इतिहास लेखन में एक बड़ा हस्तक्षेप किया। ये दोनों ही इतिहासकार नक्सबाड़ी आंदोलन के समर्थक और उस आंदोलन की निर्मिती भी हैं।

हम आये दिन देश के विभिन्न शहरों में इतिहास की इमारतों को धर्म के नाम पर तबाह करने की घटना को हम देख और पढ़ रहे हैं। बहुत सारे शहरों के लोग इतिहास की इमारतों को संजो लेने की बजाय उसे ध्वस्त कर उस पर कब्जा करने में भी लगे रहते हैं। बहुत सारे शहरों में 100 साल पुराने पुस्तकालयों के खत्म हो जाने, ऐतिहासिक सिनेमा हॉलों के नेस्तनाबूद हो रहे हैं। बहुत सारी गलियां देखते-देखते खत्म हो गईं। यहां तक कि राज्य और केंद्र सरकार की योजनाओं में इस तरह के खात्मे को अंजाम दिया गया। इस काम में उस शहर के वासी ही नहीं, वहां के सरकारी इतिहासकार, पुरातत्व विभाग, विकास प्राधिकरण आदि भी शामिल रहते हैं। निश्चित ही उनकी एक इतिहास दृष्टि है जिसका सीधा परिणाम इतिहास के विध्वंस के रूप में अभिव्यक्त होता है।

यह दृष्टि इतिहास को समझने, इतिहास से बने समाज से जुड़ने और भविष्य की ओर जाने की दिशा को बाधित करती है। यह दृष्टि इतिहास के हिस्से को ही नहीं, समाज के धर्म और वर्ग के आधार पर बने हिस्से को भी ठेलकर किनारे, कई बार उन समूहों के अस्तित्व को ही नकार देने, खत्म कर देने में अभिव्यक्त होता है। यह सर्जना को नहीं, विध्वंस को बढ़ावा देता है। शायद यही कारण है कि कलकत्ता 1911 के बाद राजनीति और अर्थव्यवस्था की धुरी के रूप में खत्म होने की ओर बढ़ गया लेकिन वहां का समाज और सांस्कृतिक चेतना ने कोलकाता को जीवंत बनाये रखा।

वहीं, 1911 के बाद दिल्ली एक तेजी से उभरता हुआ शहर था। यह राजनीति का केंद्र बना। बाद के समय में आर्थिक गतिविधियों में मुंबई की बराबरी पर आ गया। लेकिन, यहां की इतिहास चेतना उतनी दूर तक नहीं गई जिससे इस शहर का इतिहास उसी रूप में दर्ज हो सके, जैसा कोलकाता के इतिहासकारों ने किया।

राणा सफवी, स्वप्ना लिडल, विलियम डलरिम्पल, आदिरजा रायचौधरी की कोशिशों ने दिल्ली के इतिहास का एक मानचित्र जरूर दिया है। लेकिन, इस इतिहास की सामाजिक जिंदगी और उसकी सांस्कृतिक चेतना के साथ मिलना अभी बाकी है। इसकी गोद में बैठकर पी. थंकप्पन नायर जैसे इतिहासकारों का बनना अभी बाकी है। किसी शहर के जिंदा रहने के लिए आज भी कोलकाता बनना और पी. थंकप्पन नायर जैसा शहर से प्यार करने वाला होना अभी बाकी है।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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