अशोक भौमिक एक जन पक्षधर,एक्टिविस्ट कलाकार हैं। मूलतः वे विज्ञान के छात्र थे,लेकिन कला को जन आंदोलनों और जन संघर्षों से जोड़ने की मुहिम को लेकर कला की दुनिया में आए। अकसर यह माना जाता है,कि एक कलाकार एकाकी जीवन जीकर ही उत्कृष्ट कला को रच सकता है,लेकिन अशोक भौमिक ने जन के बीच रहकर उनके संघर्षों को निकट से देखा तथा उसे अपनी कला में अभिव्यक्त किया। उनके चित्रकला की शुरुआत पोस्टरों को बनाने से हुई,जो आंदोलनों में भी काम आया। वे न केवल चित्रकार हैं, बल्कि उत्कृष्ट कला लेखक और समीक्षक भी हैं, उन्होंने कला पर अनेक किताबें और ढेरों लेख लिखे।
उनकी यह पुस्तक ‘चित्रकला,चित्र और चित्रकार’ कला पर उनके द्वारा क़रीब तीस वर्षों में लिखे गए महत्वपूर्ण निबंधों काएक संग्रह है,जिसमें यूरोपीय और भारतीय कला के विविध आयामों को समझते हुए उनकी विकास यात्रा को दिखलाया गया है। प्रस्तुत पुस्तक में केवल चित्रकला ही को नहीं,बल्कि कला के अन्य अनेक आयाम जैसे-मूर्तिकला एवं फोटोग्राफी को भी दर्शाने का प्रयास किया है। उन्नीस अध्यायों में बँटी इस पुस्तक में कला के उन आयामों को भी समेटने की कोई की है,जिस पर आम लोगों की निगाह नहीं पड़ती।
पुस्तक के अपने पहले ही निबंध ‘एंड्रयू वॉथय की चित्र : क्रिस्टीना की दुनिया’ में वे बीसवीं सदी के उस अनोखे अमेरिकी चित्रकार एंड्रयू वॉथय द्वारा बनाए गए क्रिस्टीना की दुनिया श्रृंखला के चित्रों की सृजन प्रक्रिया पर चर्चा करते हुए वे उन चित्रों के समग्र वातावरण को खोलते हैं,जिनमें सपाट मैदान में अपने शरीर घिसटते हुए घर लौटने की कोशिश करती उस अकेली और असहाय लड़की की वेदना और जिजीविषा के भीतर पूरा समय ठहर गया है। दृश्य के सूक्ष्म ब्यौरे,चित्रित समय और एक जीवित संसार की अकथ करुणा किस तरह इन चित्रों को कालजयी कृतियों में बदल देती है,इसका विवेचन वे करते हैं।
अपने एक और निबंध‘युद्ध की विभीषिका और एक चित्र की कहानी’ में वे लिखते हैं,“पिछली सदी के दो विश्वयुद्धों की विभीषिका ने की चित्रकारों को स्वत: स्फूर्त ढंग से चित्र रखने के लिए प्रेरित किया,पर लगभग हर युद्धरत रात की ओर से बड़ी संख्या में कलाकारों को युद्ध के चित्र बनाने के लिए भेजा गया।” हालाँकि प्रथम युद्ध से पहले ही फोटोग्राफी का आविष्कार हो चुका था तथा इनको बड़े पैमाने पर पत्रकारिता में इस्तेमाल भी किया जा रहा था, परन्तु उस दौर में चित्रकारों द्वारा बनाए गए चित्र,न केवल युद्ध की भयानक विभीषिका को दिखाते हैं, बल्कि अमन और शांति का भी संदेश देते हैं,सच्चे अर्थों में ये चित्र युद्धविरोधी थे।
- जॉन सिंगर सार्जेंट का चित्र ‘गैस्ड’ ऐसा ही एक चित्र है। 21अगस्त 1918 को अरास और डालिन्स प्रांतों से सटी सैनिक छावनी पर जर्मन सेना ने मस्टर्ड गैस के गोलों से हमला किया। प्रथम युद्ध के दौरान रासायनिक शस्त्रों के रूप में जर्मनी ने एक गैस का प्रयोग किया था,तेज सरसों की महक के कारण इसका नाम मस्टर्ड गैस पड़ा,यह गैस शरीर के जिस भी हिस्से में आती है,उसकी कोशिकाओं को नष्ट कर देती है,इसका असर आँखों पर पड़ते ही व्यक्ति अंधा हो जाता है,फेफड़े नष्ट हो जाते हैं और सैनिक खून की उल्टियां करता हुआ मौत का शिकार हो जाता है। हमले की ख़बर मिलते ही वे घटनास्थल पर पहुँचे और उन्होंने वह खौफ़नाक दृश्य देखा,जिसके चलते विश्व के युद्धचित्रों के इतिहास की महान कृति ‘गैस्ड’ की रचना हो सकी।
- इस पुस्तक के एक अन्य अध्याय ‘गेर्निका और पिकासो’ में वे पिकासो के रचना प्रक्रिया की चर्चा करते हुए उनकी महान युद्धविरोधी कृति ‘ग्वेर्निका’ के बारे में वे लिखते हैं, “ग्वेर्निका के बास्क शहर में 26 अप्रैल 1937 को जर्मन और इटली के बमवर्षक विमानों द्वारा हमला हुआ,वास्तव में इसी बमबारी से ही द्वितीय विश्वयुद्ध के आरम्भ होने का बिगुल बज उठा था।” पिकासो ने केवल बमबारी की घटना को ही नहीं किया,बल्कि उस आतंक के दौर की त्रासदी को काले,सफ़ेद और इन दोनों रंगों के बीच विभिन्न घनत्व के धूसर रंग की छटाओं का प्रयोग किया। निश्चय ही ग्वेर्निका पिकासो की सबसे महत्वपूर्ण कृतियों में से एक है। एक चित्र के रूप में यह न केवल उत्कृष्ट कला की एक मिसाल है , बल्कि अपनी प्रतिबद्धता के चलते यह एक महत्वपूर्ण युद्धविरोधी चित्र है।
इस पुस्तक के एक अन्य लेख ‘श्रम का सौन्दर्य और चित्रकार जूल्स ब्रेटन’ 19वीं सदी में यूरोप और अमेरिका में यथार्थवादी कला का युग शुरू हुआ, जिसमें महान अमेरिकी चित्रकार जूल्स ब्रेटन प्रमुख थे,उनका मानना था कि “युगों से चित्रकला देवताओं के महिमामंडन के लिए आरक्षित रही है।”और इसलिए अपने चित्रों में वे मेहनतकश किसान-मज़दूरों को केन्द्र में ला एक नयी कला के आगमन का घोषणा करते हैं। ब्रेटन एवं उनके जैसे अन्य कलाकार अपने चित्रों में मज़दूर-किसानों को चित्रित करने के साथ-साथ श्रम की गरिमा को भी प्रतिष्ठित किया है,इस प्रयास में हम सर्वत्र महिलाओं की बराबर की हिस्सेदारी को रेखांकित होते पाते हैं। किसानी पर आधारित जूल्स ब्रेटन के सभी चित्रों में हम महिलाओं को चित्र के केन्द्र में देख सकते हैं और अगर किसी चित्र में पुरुष दिखते भी हैं,तो चित्रों की पृष्ठभूमि में उनकी अस्पष्ट उपस्थिति ही दिखती है। जूल्स ब्रेटन सर्वहाराओं के चित्रकार होने के ऐतिहासिक दायित्व को निभाते हुए आने वाली पीढ़ी के कलाकारों का मार्गदर्शन करते हैं।
एक अन्य निबंध ‘चित्रकला में प्रतिरोध’ में वे बताते हैं,“भारत में चित्रकला का इतिहास बहुत पुराना है, लेकिन ज़्यादातर हिस्सा राजा-रानियों और देवी-देवताओं ने घेर रखा है। अब अगर कला में आम आदमी नहीं होगा,तो उसका प्रतिरोध कहाँ से दिखेगा।” लम्बे समय तक पश्चिमी कला जगत में भी आम आदमी के चित्र नहीं दिखे,लेकिन बाद में जॉनर पेंटिंग के नाम से एक स्वतंत्र कलाधारा विकसित हुई,जहाँ आम लोगों के जीवन की आम घटनाओं का चित्रण दिखा,यह धारा विशाल आकार में राजाओं और सामंतों की कथाओं पर निर्मित हिस्ट्री पेंटिंग के समयांतर थी। हिस्ट्री पेंटिंग में सीमित विषयों की पुनरावृत्ति के कारण उनके प्रति एक ऊब उत्पन्न हुई,वहीं जॉनर पेंटिंग में विषय की विविधता और दैनिक जीवन के चित्रों से लोग अपने को सहज ही सके। इस विधा में ढेरों किसान-मज़दूरों के चित्र के साथ-साथ युद्ध की विभीषिका के चित्र भी बनाए गए। कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े चित्रकार ‘चित्तप्रसाद’ भी इसी धारा के चित्रकार थे,उन्होंने जनसंघर्षों के ढेरों चित्र बनाए।
इस पुस्तक के विभिन्न अध्यायों में भारतीय चित्रकला की विकास-यात्रा का भी विशद चित्रण किया है,जिसमें वे अजन्ता,एलोरा तथा बाघ की गुफाओं से होते हुए,जनजाति की लोककला को समेटते हुए यथार्थवादी और राष्ट्रवादी कला तक पहुँचते हैं। आज कॉरपोरेट जगत,कला बाजार,आर्ट गैलरियों और कलाकार के बीच कुछ बिचौलियों का जो एक ‘लीला संसार’ विकसित हुआ है,उस स्थिति के चलते कैसे समाज का जन साधारण इस कला जगत के लिए अप्रांसगिक होता चला गया है। वे बहुत तकलीफ़ के साथ इस सच्चाई को रेखांकित करते हैं कि,“अख़बारों और पत्रिकाओं में प्रोफेशनल ‘कला–समीक्षक’ के नाम से कैसे कलाकार और कॉरपोरेट के बीच कला की दलाली करने वाला यह नया वर्ग उभरा है,जिसके यहाँ कला–समीक्षा एक भाषायी लफ़्फाजी बनकर रह गई है।” संभव है कि समकालीन कला जगत में अशोक भौमिक के इन तर्कों से एक वर्ग की असहमति दिखाई दे,पर लेखक ने जिन मुद्दों को अपनी चर्चा के केन्द्र में रखा है,क्या यह सच नहीं कि उन पर बात करने से हमारे कला जगत के ‘पेशेवर समीक्षक’ या ‘कला मर्मज्ञ’ आँखें चुराते रहे हैं।
निस्संदेह अशोक भौमिक के निबंधों की यह कला पुस्तक एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। नया केवल कला के छात्रों के लिए बल्कि उन सभी के लिए बहुत उपयोगी है, जिन्हें जनता से जुड़ी कला में रुचि है।
लेखक का नाम: अशोक भौमिक
पुस्तक का नाम: चित्रकला,चित्र और चित्रकार’
प्रकाशक का नाम: परिकल्पना प्रकाशन, दिल्ली
(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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