Friday, March 29, 2024

पंकज बिष्ट: आक्रोश, प्रतिवाद एवं प्रतिरोध को स्वर देता एक प्रबुद्ध संपादक

( साहित्यकार, संपादक और लेखक पंकज बिष्ट कल 75 वर्ष के हो रहे हैं। इसके साथ ही उनके संपादकत्व में निकलने वाली मैगनजीन ‘समयांतर’ भी अपना 20वां साल पूरी कर रही है। पंकज बिष्ट के जीवन का बड़ा हिस्सा पत्रकारिता, लेखन और समाजकर्म को समर्पित रहा है। हिंदी जगत में उन्हें समझौता न करने और अपने सिद्धांतों पर अड़े रहने वाली शख्सियत के तौर पर जाना जाता है। उन्होंने अपना जीवन जिस शिद्दत और ईमानदारी से गुजारी है उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी। इस मौके पर जनचौक ने उनसे और उनकी पत्रिका ‘समयांतर’ से जुड़े कुछ लेख प्रकाशित करने का फैसला किया है। पेश है उसी की कड़ी में यह पहला लेख-संपादक)   

हिंदी की वैचारिक पत्रकारिता का कोई भी पाठक शायद ही इससे इंकार कर पाए इस समय निकलने वाली पत्रिकाओं में सिर्फ समयांतर ही एक ऐसी पत्रिका है, जो हिंदी समाज के आक्रोश, प्रतिवाद और प्रतिरोध को स्वर दे रही है और सत्ता के विविध रूपों से टकरा रही है। ‘तीसरी दुनिया’ के बंद हो जाने और ‘फिलहाल’ की गुणवत्ता के कमजोर पड़ जाने के बाद, सच तो यह है कि हिंदी की प्रगतिशील वैचारिकी को मुद्रित रूप में स्वर देने की सारी जिम्मेदारी समयांतर के कंधे पर आ गई है। इसका निहितार्थ यह है कि समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट के कंधे पर आ गई है। 20 फरवरी को 75 वर्ष पूरे करता यह कंधा बखूबी यह जिम्मेदारी उठा भी रहा है।

वर्षों की गणना में बूढ़ा कहे जा सकने वाला यह संपादक अपनी ऊर्जा, अपने तेवर, मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता, गतिशीली प्रगतिशील वैचारिक और समय की धड़कनों को सुनता, अच्छे-अच्छे युवाओं को मात देता है। सच तो यह है कि 75 वर्षीय यह युवा संपादक समयांतर के माध्यम से हिंदी समाज की धड़कन है। डिजिटल माध्यमों से विभिन्न संस्थान और व्यक्ति अहम भूमिकाएं निभा रहे हैं, लेकिन मैं यहां मुद्रित संस्करण के संदर्भ में बात कर रहा हूं। यहां यह याद रखना जरूरी है कि विभिन्न वामपंथी संगठनों-ग्रुपों की पत्रिकाएं, हिंदी समाज का सामूहिक स्वर कम अपने-अपने संगठनों के मुखपत्र ज्यादा हैं, जो कहीं-न-कहीं वैचारिक जड़ता का शिकार होने के चलते कमोवेश अपने संगठन के अनुयायियों तक ही अक्सर सीमित रहते हैं।

समयांतर जहां एक ओर सत्ता के जन विरोधी चरित्र को साहस  के साथ उजागर करती है, वहीं सत्ता विरोधी वैकल्पिक स्वरों की वैचारिक-संगठनात्मक कमजोरियों को भी उतने ही तीखे तरीके से सामने लाती है । समयांतर पत्रिका के किसी भी नियमित पाठक को इस तथ्य का अहसास होगा कि समयांतर के संपादक को एक साथ कई मोर्चों पर टकराना पड़ता है। सत्ता के जनविरोधी चरित्र से उनकी टकराहट तो निरंतर जारी ही रहती है, उन्हें जनपक्षधर कही जाने वाली शक्तियों से भी झगड़ा मोल लेना पड़ता है और उन तथाकथित प्रगतिशीलों की भी खबर लेने पड़ती है, जिनके लिए विचार अवसरवाद एवं स्वयं की प्रतिष्ठा का सिर्फ लबादा हैं। पंकज बिष्ट को, पवित्र समझी जाने वाली जनता की बर्बर मूल्य-मान्यताओं को भी विमर्श का विषय बनाना पड़ता है, जातिवादी एवं मर्दवादी सोच इसके सबसे मुखर नमूने हैं।

पारिभाषिक शब्दावलियों में कहें तो पंकज बिष्ट समयांतर पत्रिका को हिंदी पुनर्जागरण की दिशा देने वाली पत्रिका के रूप में कायम रखने के लिए जहां एक ओर वर्गीय वर्चस्व और उत्पीड़न के विविध स्वरूप सामने लाते  हैं, तो वहीं  उच्च जातीय वर्चस्व को चुनौती देने वाले विचारों और जाति एवं पितृसत्ता के विनाश के बिना भारतीय समाज एक आधुनिक समाज नहीं बन सकता, इसे रेखांकित करने वाले लेखों को भी उतनी ही जगह देते हैं। डॉ. आंबेडकर, जोतिराव फुले, सावित्रीबाई फुले और पेरियार जैसे नायकों को बराबर जगह देने, आरक्षण का समर्थन करने, जातीय भेदभाव और जाति विनाश से जुड़े लेखों को पर्याप्त जगह देने के चलते कई बार उच्च जातियों और कुछ प्रगतिशीलों की ओर से फुसफुसाहट में सही, यह सुनने को मिलता है कि लग रहा है पंकज जी भी आंबेडकरवादी हो रहे हैं।  

पंकज बिष्ट को इस तथ्य गहरा अहसास है कि पितृसत्ता को चुनौती दिए बिना भारत को मध्यकालीन बर्बरता से बाहर निकालना नामुमकिन है, पितृसत्ता को चुनौती देने वाले लेख आप निरंतर समयांतर में देख सकते हैं। आदिवासियों के शोषण-उत्पीड़न की व्यथा-कथा अन्य वर्गों एवं समुदायों से गुणतात्मक तौर पर भिन्न है, और उनके प्रतिवाद एवं प्रतिरोध के स्वर भी भिन्न हैं, इसे समयांतर बार-बार रेखांकित करता है, खुद को माओवादी समर्थक कहलाने की हद तक। समयांतर को पढ़ते हुए बराबर इस बात का अहसास होता है कि इसका संपादक किसी रूढ़िगत वैचारिकी से बधा नहीं है। वह सिर्फ एक चीज से बधा है, न्याय, समता, स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से। इसका परिणाम यह कि इस संपादक का कोई खेमा नहीं है, क्योंकि यह प्रबुद्ध संपादक किसी न किसी समय हर खेमें और उनके नेतृत्वकर्ताओं से टकराता रहता है। 

पंकज बिष्ट के संपादकीय लेखों और पत्रिका के लिए लेखों के चयन को देखकर कोई भी समझ सकता है कि उन्हें इस तथ्य का गहरा असहास है कि भारतीय समाज में शोषण-उत्पीड़न एवं अन्याय का स्वरूप बहुस्तरीय है। जाति ने इस बहुस्तरीयता को और भी जटिल बना दिया है। इस बहुस्तरीयता के चलते खुद के लिए न्याय एवं समता की मांग करने वाला एक वर्ग या तबका, दूसरे के संदर्भ में गैरबराबरी एवं अन्याय का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थक बन जाता है।

लंबे समय तक वामपंथी आंदोलन के अगुवा तत्वों द्वारा जातीय वर्चस्व पर आधारित शोषण एवं उत्पीड़न की, जाने-अनजाने उपेक्षा इसका एक ऐतिहासिक उदाहरण है, लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं, खुद के लिए जातीय वर्चस्व एवं अन्याय से मुक्ति के लिए संघर्षरत समुदाय या तबके महिलाओं पर पुरूषों के वर्चस्व पर चुप्पी साध जाते हैं या वर्ग के आधार पर होने वाले अन्यायों को अनदेखा कर देते हैं, इस पर भी पैनी नजर समयांतर के संपादक की बनी रहती है।

सच तो यह है कि एक संपादक के रूप में पंकज बिष्ट किसी को बख्शते नहीं हैं, खुद को भी नहीं। एक जन बुद्धिजीवी के के रूप में हमेशा उनकी चिंता का विषय यह रहता है किस तरीके से व्यापक भारतीय जन को हजारों वर्ष की वंचना एवं अन्याय से मुक्ति मिल सकती है और कैसे एक ऐसे भारत का निर्माण किया जा सकता है, जिसमें हर व्यक्ति भौतिक एवं आत्मिक तौर पर गरिमामय जीवन जी सके। इस संदर्भ में वे बार-बार अपने संपादकीय लेखों में इस तथ्य को रेखांकित करते हैं, तीन चीजों के रहते वंचना, अन्याय और शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति नहीं मिल सकती है।

पहली जाति व्यवस्था, दूसरी पितृसत्ता और तीसरा पूंजीवादी विकास का मॉडल। जाति व्यवस्था को तो वे भारतीय समाज की बीमारी की मूल जड़ मानते हैं, वे यहां तक कह जाते हैं कि सभी प्रगतिशील एवं समता, स्वतंत्रता, न्याय एवं लोकतंत्र में विश्वास करने वालों को आने वाले 25-30 वर्ष जाति के विनाश के लिए समर्पित कर देना चाहिए।

समयांतर का संपादक न तो अतीत में खोया रहता है, न तो भविष्य की खाम-खयाली में समय गुजारता है, वह अपने समय के ज्वलंत सवालों से जूझता है। इसका  उदाहरण समयांतर का सबसे ताजा अंक ( फरवरी अंक-2020) भी प्रस्तुत करता है। यह अंक हिंदुत्ववादी राजनीति के बर्बर चरित्र को उजागर करने के साथ इसके प्रतिरोध में उठे खड़े हुए जनांदोलनों पर केंद्रित है। संपादकीय की पहली तीन पंक्तियां ही हिंदुत्व की राजनीति द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों और बेहतर भविष्य की आशा पैदा करते प्रतिरोध की आवाजों को इन शब्दों में प्रस्तुत करती है- “ प्रधामंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की दूसरी पारी का पहला वर्ष पूरा होने में अभी पांच महीने बाकी हैं। अचानक हवा में एक साथ कई तिनके मंडराने लगे हैं।

ये अपने आप में खतरा नहीं हैं पर जिस तरह से घिर रहे हैं, तूफान के आने का अंदेशा जरूर कहे जा सकते हैं।” अपने ज्वलंत समय का कितना सधा और सटीक आकलन। ऐसा आकलन जन से गहरे जुड़ाव, परिपक्व वैचारिकी, इतिहासबोध और किसी गतिशील यथार्थ की सामर्थ्य एवं सीमाओं को समझने की बारीक दृष्टि की मांग करता है। इस अंक के लेखों का चुनाव उनकी इस संपादकीय दृष्टि को सामने लाता है कि किसी भी वैचारिक पत्रिका का कार्यभार अपने समय एवं इतिहास को दिशा देने वाले ज्वलंत संघर्षों के विविध आयामों को सामने लाना है। उनकी ताकत और कमजोरियों को उजागर करना है।

फरवरी अंक का पहला समाचार संदर्भ इस्लामोफोबिया की राजनीति पर है, जो संघ-भाजपा की सबसे बड़ी ताकत बना हुआ है। पत्रिका का पहला वैचारिक लेख हिंदू शब्द और हिंदू शब्द की राजनीति की तथ्यपरक ऐतिहासिक पड़ताल करता है। दूसरा लेख हिंदू राष्ट्र की परियोजना के विरोध में उठे खड़े हुए भारतीय जनमानस की ताकत को सामने लाता है और बताता है कि शाहीन बाग कैसे उन सभी शक्तियों की एका का मंच बन गया है, जो बर्बर उच्च जातीय मर्दवादी हिंदू राष्ट्र की परियोजना के खिलाफ हैं। एक पूरा का पूरा लेख शाहीन बाग पर केंद्रित है, जो इसे नए तरह के नवजागरण के रूप में देख रहा है। नागरिकता कानून पर तो लेख हैं ही।

           पंकज बिष्ट जनदबाव में आकर धारा के साथ स्वर में स्वर मिलाने वाले संपादक नहीं हैं। जहां देश का बड़ा हिस्सा निर्भया के बलात्कारियों को जल्द से जल्द फांसी देने के लिए उतावला है, यहां तक कि मानवीय अधिकारों और कानूनी प्रक्रिया को भी ताक पर रख दिया जाए, इसकी मांग कर रहा है और सब कुछ ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है, जैसे निर्भया के बलात्कारियों को फांसी देते ही बलात्कार रूक जायेगा।

पंकज जी इस सब के खिलाफ जाने का साहस रखते हैं, वे इसी अंक में पीयूडीआर द्वारा मृत्यु दंड के खात्मे की मांग को न केवल प्रकाशित करते हैं, बल्कि ‘ मृत्युदंड: सामाजिक चेतना का सवाल’ शीर्षक से वरिष्ठ सुप्रीम कोर्ट के वकील रवींद्र एस. गढ़िया का लेख प्रकाशित कर मृत्यु दंड और अपराध के रिश्ते पर विमर्श को आगे बढ़ाते हैं। इस अंक में जेएनयू में विरोध की संस्कृति और अनुराग कश्यप का साक्षात्कार भी संपादक के सरोकारों का जीता-जागता उदाहरण है।

एक बेहतर संपादक के पास सहमति-असहमति और स्वीकृति-अस्वीकृति का साहस अनिवार्य है। यदि उसे अपने समय के सत्ता के अन्यायी चरित्र के प्रतिरोध में खड़ा होना होता है, तो खुद के लेखकों के वैचारिक आग्रहों-दुराग्रहों  का प्रतिवाद भी करना पड़ता है। पंकज जी अपने लेखकों को पर्याप्त लोकतांत्रिक स्पेस तो देते हैं और खुद से उनकी असहमतियों का भी आदर करते हैं, लेकिन वे लेखकों के दबाव में नहीं आते, चाहे वह कितना बड़ा लेखक ही क्यों न हो। 

अक्सर देखने में आता है कि बहुत सारे संपादक स्थापित नामी-गिरामी लेखकों के सहारे अपनी पत्रिका को संचालित करते हैं, जिसके परिणाम अक्सर इस रूप में आता है कि पत्रिका जड़ और बासी बन जाती है। समयांतर का संपादक नए से ऩए लेखक को सहर्ष जगह देता है, यहां तक कि नए लोगों को लिखने के लिए प्रोत्साहित भी करता है और कई बार तो नए लेखकों की कॉपियों की पुनर्संरचना भी करता है, ऐसा इसलिए क्योंकि उन लेखों के शिल्प भले ही कमजोर हों,लेकिन उनमें देखने-समझने की नई दृष्टि होती है। कितने नए-ऩए लेखक समयांतर ने बनाए हैं, यह हिंदी समाज के सामने जगजाहिर है। 

यह सब पंकज बिष्ट इसलिए कर पाते हैं,क्योंकि समयांतर पत्रिका उनके लिए न तो करियर बनाने का साधन है, न तथाकथित प्रतिष्ठित लोगों में शामिल होने की आकांक्षा से प्रेरित है और न कोई भौतिक लाभ प्राप्त करने की लालसा इसके पीछे है। उनके सरोकार के केंद्र में उनके पाठक होते हैं। वे सिर्फ और सिर्फ उनका खयाल करते हैं।

वे खुद भी समय के साथ अपने देखने-समझने के तरीकों पर विचार करते रहते हैं, उसमें जरूरी बदलाव करते हैं, इसका प्रमाण कोई भी उनके संपादकीय लेखों में और लेखों के चयन में ढूंढ सकता है। इसका सबसे ज्यादा फायदा नए लेखकों को होता है, जो नई दृष्टि लेकर समयांतर के पास आते हैं। स्वाभाविक है कि इससे पाठकों को अपने समय की समस्याओं और चुनौतियों को देखने की नई दृष्टि मिलती है। 

‘लेकिन दरवाजा’, ‘उस चिड़िया का नाम’ और ‘पंखवाली नाव’ जैसे उपन्यासों, ‘पंद्रह जमा पच्चीस’, ‘बच्चे गवाह नहीं हो सकते?’ ‘टुंड्रा प्रदेश’,और ‘पंकज बिष्ट की संकलित कहानियां’ जैसे कहानी संग्रहों, ‘खरामा-खरामा’  और ‘शब्दों के लोग’ जैसे संस्मरण संग्रहों, ‘गोलू और भोलू’ जैसे बाल उपन्यास, ‘हिंदी का पक्ष’ और ‘कुछ सवाल कुछ जवाब’ जैसे लेख संग्रहों का लेखक अपने सामाजिक सरोकारों के चलते अपने सृजनात्मक साहित्य जैसे अपने प्रिय विधा को कमोबेश स्थगित कर 1998 में अच्छी-खासी सरकारी नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले लेता है और अक्टूबर 1999 में मासिक पत्रिका समयांतर निकालने लगता है, और निरंतर 20 वर्षों से निकाल रहा है।

भले ही उन्होंने घोषित न किया हो, लेकिन समयांतर को पढ़ने पर लगता है कि उसका उद्देश्य जाति एवं पितृसत्ता और मध्यकालीन कूपमंड़ूकता के पंक में डूबे हिंदी भाषा-भाषी समाज को इससे बाहर निकालना है और गाय पट्टी में पुनर्जागरण की दिशा में समयांतर के रूप में एक दीपक जलाए रखना है। यह दीपक लगातार 20 वर्षों से जल रहा है, इसका संपादक 20 फरवरी को 75 वर्ष का हो रहा है। ऐसे संपादक को सलाम जिसने पिछले वर्षों से अपनी सारी प्रतिभा, ऊर्जा और सृजनात्मकता, हिंदी समाज के नवजागरण के लिए लगा दी। अमर तो कोई न होता, लेकिन ऐसा संपादक और ऐसी पत्रिका हिंदी समाज के पास अगले 20 वर्षों तक बनी रहे, ऐसी उम्मीद हम कर सकते हैं। यह उम्मीद  बेहतर भविष्य का संबल देती है। मेरे मित्रवत शिक्षक समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट को सलाम।

                                        (डॉ. सिद्धार्थ लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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