Saturday, April 20, 2024

पुण्यतिथि पर विशेषः साहिर का ‘वह सुबह कभी तो आएगी…’ बन गया था मेहनतकशों का तराना

साहिर लुधियानवी एक तरक्कीपसंद शायर थे। अपनी ग़ज़लों, नज़मों से पूरे मुल्क में उन्हें खूब शोहरत मिली। अवाम का ढेर सारा प्यार मिला। कम समय में इतना सब मिल जाने के बाद भी साहिर के लिए रोजी-रोटी का सवाल वहीं ठिठका हुआ था। मुल्क की आजादी के बाद, अब उन्हें नई मंजिल की तलाश थी। साहिर लुधियानवी की ये तलाश फिल्मी दुनिया पर खतम हुई। वे साल 1949 में सपनों की नगरी मुंबई आ गए। माया नगरी में जमना उनके लिए आसान काम नहीं था। संघर्ष के इस दौर में आजीविका के लिए साहिर ने कई छोटे-मोटे काम किए।

साहिर की लिखावट बहुत अच्छी थी। इसी लिखावट का फायदा उन्हें यह मिला कि निर्माता, फिल्म की पटकथा उनसे लिखवाने लगे, ताकि हीरो-हीरोईन उसे सही तरह से पढ़ सकें। पटकथा के पेजों के हिसाब से साहिर अपना मेहनताना लेते थे। इस काम का फायदा उन्हें यह मिला कि वे कई फिल्म निर्माताओं के सीधे संपर्क में आ गए। मौका देख कर वे उन्हें अपनी रचनाएं भी सुना दिया करते। आखिरकार वह दिन भी आया, जब उन्हें फिल्मों में गीत लिखने का मौका मिला। ‘आजादी की रात’ (साल 1949) वह फिल्म थी, जिसमें उन्होंने पहली बार गीत लिखे। इस फिल्म में उन्होंने चार गीत लिखे, लेकिन अफसोस! न तो ये फिल्म चली और न ही उनके गीत पसंद किए गए।

बहरहाल फिल्मों में कामयाबी के लिए उन्हें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। साल 1951 में आई ‘नौजवान’ उनकी दूसरी फिल्म थी। एसडी बर्मन के संगीत से सजी इस फिल्म के सभी गाने सुपर हिट साबित हुए। खास तौर पर लता मंगेशकर की सुरीली आवाज में ‘ठंडी हवाएं, लहरा के आएं…’’ गीत आज भी फिल्म संगीत के चाहने वालों को अपनी ओर आकर्षित करता है। ‘नौजवान’ फिल्म के गीतों की कामयाबी के बाद, फिर नवकेतन फिल्म्स की फिल्म ‘बाजी’ (साल 1952) आई, जिसने साहिर को फिल्मी दुनिया में बतौर गीतकार स्थापित कर दिया। इत्तेफाक से इस फिल्म का भी संगीत एसडी बर्मन ने ही तैयार किया था।

आगे चलकर एसडी बर्मन और साहिर लुधियानवी की जोड़ी ने कई सुपर हिट फिल्में दीं। ‘जाल’ (साल 1952), ‘टैक्सी ड्राइवर’ (साल 1954), ‘हाउस नं. 44’ (साल 1955), ‘मुनीम जी’ (साल 1955), ‘देवदास’ (साल 1955), ‘फंटूश’ (साल 1956), ‘पेइंग गेस्ट’ (साल 1957) और ‘प्यासा’ (साल 1957) वे फिल्में हैं, जिनमें साहिर और एसडी बर्मन की जोड़ी ने कमाल का गीत-संगीत दिया है। फिल्म ‘प्यासा’ को भले ही बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी न मिली हो, लेकिन इसके गीत खूब चले। ये गीत आज भी इसके चाहने वालों के होठों पर जिंदा हैं। फिल्मी दुनिया में साहिर को बेशुमार दौलत और शोहरत मिली। एक वक्त ऐसा भी था कि उन्हें अपने गीत के लिए पार्श्व गायिका लता मंगेशकर से एक रुपये ज्यादा मेहनताना मिलता था।

हिंदी फिल्मों में साहिर लुधियानवी ने दर्जनों सुपरहिट गाने दिए। उनके इन गानों में भी अच्छी शायरी होती थी। साहिर के आने से पहले हिंदी फिल्मों में जो गाने होते थे, उनमें शायरी कभी-कभार ही देखने में आती थी, लेकिन जब फिल्मी दुनिया में मजरूह सुलतानपुरी, कैफी आजमी और साहिर आए, तो फिल्मों के गीत और उनके अंदाज भी बदले। गीतों की जुबान बदली। हिंदी, उर्दू से भाषा से इतर यह गीत हिंदुस्तानी जुबान में लिखे जाने लगे। इश्क-मोहब्बत के अलावा फिल्मी नगमों में समाजी-सियासी नजरिया भी आने लगा। इसमें सबसे बड़ा बदलाव साहिर ने किया।

अपने शायराना गीतों को फिल्मों में रखने के लिए उन्होंने कई बार फिल्म प्रोड्यूसर और डायरेक्टर से लड़ाई भी की। अपने फिल्मी गीतों की किताब ‘गाता जाए बंजारा’ की भूमिका में साहिर लिखते हैं, ‘‘मेरी हमेशा यह कोशिश रही है कि यथासंभव फिल्मी गीतों को सृजनात्मक काव्य के नजदीक ला सकूं और इस तरह नए सामाजिक और सियासी नजरिये को आम अवाम तक पहुंचा सकूं।’’ साहिर की ये बात सही भी है। उनके फिल्मी गीतों को उठाकर देख लीजिए, उनमें से ज्यादातर में एक विचार मिलेगा, जो श्रोताओं को सोचने को मजबूर करता है।

‘वो सुबह कभी तो आएगी..’ (फिर सुबह होगी), ‘जिन्हें नाज है हिंद पर वह कहां हैं…’, ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…’ (प्यासा), ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा…’ (धूल का फूल), ‘औरत ने जन्म दिया मर्दों को…’ (साधना) आदि ऐसे उनके कई गीत हैं, जिसमें जिंदगी का एक नया फलसफा नजर आता है। ये फिल्मी गीत अवाम का मनोरंजन करने के अलावा उन्हें शिक्षित और जागरूक भी करते हैं। उन्हें एक सोच, नया नजरिया प्रदान करते हैं। एक अच्छे लेखक, शायर की पहचान भी यही है।

साहिर एक गैरतमंद शायर थे। अपने स्वाभिमान से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। फिल्मी दुनिया में अब तो ये जैसे एक रिवायत बन गई है कि पहले संगीतकार गीत की धुन बनाता है, फिर गीतकार उस धुन पर गीत लिखता है। पहले भी ज्यादातर संगीतकार ऐसा ही करते थे, लेकिन साहिर लुधियानवी अलग ही मिट्टी के बने हुए थे। वे इस रिवायत के बरखिलाफ थे। अपने फिल्मी करियर में उन्होंने हमेशा गीत को धुन से ऊपर रखा। पहले गीत लिखा और फिर उसके बाद उसका संगीत बना।

उनके फिल्मी करियर में सिर्फ एक गीत ऐसा है, जिसकी धुन पहले बनी और गीत बाद में लिखा गया। ओपी नैय्यर के संगीत निर्देशन में फिल्म ‘नया दौर’ का ‘मांग के साथ तुम्हारा, मैंने मांग लिया संसार…’ वह गीत है। अपनी फिल्मी मसरुफियतों की वजह से साहिर लुधियानवी अदब की ज्यादा खिदमत नहीं कर पाए, लेकिन उन्होंने जो भी फिल्मी गीत लिखे, उन्हें कमतर नहीं कहा जा सकता। उनके गीतों में जो शायरी है, वह बेमिसाल है। जब उनका गीत ‘वह सुबह कभी तो आएगी….’ आया, तो यह गीत मेहनतकशों, कामगारों और नौजवानों का गीत बन गया।

इस गीत में उन्हें अपने जज्बात की अक्कासी दिखी। मुंबई की वामपंथी ट्रेड यूनियनों ने इस गीत के लिए साहिर को बुलाकर, उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया और कहा, ‘‘यह गीत हमारे सपनों की तस्वीर पेश करता है और इससे हम बहुत उत्साहित होते हैं।’’ जाहिर है कि एक गीत और एक शायर को इससे बड़ा मर्तबा क्या मिल सकता है। ये गीत है भी ऐसा, जो लाखों लोगों में एक साथ उम्मीदें जगा जाता है,
वह सुबह कभी तो आएगी
बीतेंगे कभी तो दिन आखिर, यह भूख के और बेकारी के
टूटेंगें कभी तो बुत आखिर, दौलत की इजारेदारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी
वह सुबह हमीं से आएगी
जब धरती करवट बदलेगी, जब कैद से कैदी छूटेंगे
जब पाप घरौंदे फूटेंगे, जब जुल्म के बंधन टूटेंगे
उस सुबह को हम ही लाएंगे, वह सुबह हमीं से आएगी
मनहूस समाजी ढांचों में जब जुर्म न पाले जाएंगे
जब हाथ न काटे जाएंगे, जब सर न उछाले जाएंगे
जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलाई जाएगी
वह सुबह हमीं से आएगी
संसार के सारे मेहनतकश, खेतों से मिलों से निकलेंगे
बेघर, बेदर, बेबस इंसा, तारीक बिलों से निकलेंगे
दुनिया अम्न और खुशहाली के फूलों से सजाई जाएगी
वह सुबह हमीं से आएगी

इस गीत के अलावा फिल्म ‘नया दौर’ के एक और गीत में वे मेहनतकशों को खिताब करते हुए लिखते हैं,
साथी हाथ बढ़ाना
एक अकेला थक जाएगा
मिलकर बोझ उठाना
माटी से हम लाल निकालें, मोती लाएं जल से
जो कुछ इस दुनिया में बना है, बना हमारे बल से
कब तक मेहनत के पैरों में दौलत की जंजीरें?
हाथ बढ़ाकर छीन लो अपने ख्वाबों की तस्वीरें

आजादी के बाद मुल्क के सामने अलग तरह की चुनौतियां थीं। इन चुनौतियों का सामना करते हुए साहिर ने कई अच्छे गीत लिखे, लेकिन उनके सभी गीतों में एक विचार जरूर मिलेगा। जिस विचार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता थी, उसी विचार को उन्होंने अपने गीतों के जरिए आगे बढ़ाया। उनके एक नहीं, कई ऐसे गीत है, जिसमें उनकी विचारधारा मुखर होकर सामने आई है। फिल्मी दुनिया में भी रहकर उन्होंने अपनी विचारधारा से कभी समझौता नहीं किया। मेहनतकशों और वंचितों के हक में हमेशा साथ खड़े रहे।

अब कोई गुलशन न उजड़े, अब वतन आजाद है
रूह गंगा की, हिमालय का वतन आजाद है
दस्तकारों से कहो, अपनी हुनरमंदी दिखाए
उंगलियां कटती थीं जिस की, अब वो फन आजाद है

(फिल्म- मुझे जीने दो, साल-1963)

साहिर लुधियानवी को फिल्मों में जहां भी मौका मिला, उन्होंने अपनी समाजवादी विचारधारा को गीतों के जरिए आगे बढ़ाया। आज फिल्मों में इस तरह के गीतों का तसव्वुर भी नहीं कर सकते। यदि कोई शायर या गीतकार इस तरह के गीत लिखना भी चाहे, तो सेंसर बोर्ड उस पर पाबंदी लगा दे। कट्टरपंथी, संकीर्णतावादी गीत के खिलाफ फतवे जारी कर दें। यह हाल तब है, जब हमारे मुल्क में हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हासिल है। यह उसका संवैधानिक अधिकार है।

धरती मां का मान, हमारा प्यारा लाल निशान!
नवयुग की मुस्कान, हमारा प्यारा लाल निशान
पूंजीवाद से दब न सकेगा, ये मजदूर किसान का झंडा
मेहनत का हक लेके रहेगा, मेहनतकश इंसान का झंडा
इस झंडे से सांस उखड़ती चोर मुनाफाखोरों की
जिन्होंने इंसानों की हालत कर दी डगर ढोरों की
फैक्टरियों के धूल-धुंए में हमने खुद को पाला
खून पिलाकर लोहे को इस देश का भार संभाला
मेहनत के इस ‘पूजाघर’ पर पड़ न सकेगा ताला
देश के साधन देश का धन है, जान ले पूंजी वाला

यह साहिर लुधियानवी की कोई गैर फिल्मी नज्म नहीं, बल्कि एक गीत है, जो फिल्म ‘समाज को बदल डालो’ में इस्तेमाल हुआ था। खैर! वह दौर कुछ और था, यह दौर कुछ और है!

साहिर लुधियानवी साम्रज्यवाद और पूजीवाद के साथ-साथ सांप्रदायिकता के भी कड़े विरोधी थे। अपनी नज्मों और फिल्मी गीतों में उन्होंने सांप्रदायिकता और संकीर्णता का हमेशा विरोध किया। अपने एक गीत में वे हिंदुस्तानियों को एक प्यारा पैगाम देते हुए लिखते हैं,
तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा
मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया
हमने उसे हिंदू या मुसलमान बनाया
कुदरत ने तो बख्शी थी हमें एक ही धरती
हमने कहीं भारत
, कहीं ईरान बनाया
जो तोड़ दे हर बंद, वह तूफान बनेगा
इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा

(फिल्म- धूल का फूल, साल 1959)

साहिर लुधियानवी महिला-पुरुष समानता के बड़े हामी थे। औरतों के खिलाफ होने वाले किसी भी तरह के अत्याचार और शोषण का उन्होंने अपने फिल्मी गीतों में जमकर प्रतिरोध किया। भारतीय समाज में स्त्रियों की क्या स्थिति है, जहां इसका उनके गीतों में बेबाक चित्रण मिलता है, तो वहीं इन हालात के खिलाफ एक गुस्सा भी है। साल 1958 में प्रदर्शित फिल्म ‘साधना’ में साहिर द्वारा रचे गए गीत को स्त्री की व्यथा-कथा का जीवंत दस्तावेज कहा जाए, तो अतिश्योक्ति न होगा,
औरत ने जनम दिया मर्दों को
मर्दों ने उसे बाजार दिया
जब भी चाहा मसला, कुचला
जब जी चाहा दुत्कार दिया
मर्दों के लिए हर जुल्म रवां
औरत के लिए रोना भी खता
मर्दां के लिए लाखों सेजें
औरत के लिए बस एक चिता
मर्दों के लिए हर ऐश का हक
औरत के लिए जीना भी सजा
जिन सीनों ने इनको दूध दिया
उन सीनों का ब्योपार किया
जिस कोख में इनका जिस्म ढला
उस कोख का कारोबार किया
जिस तन में उगे कोंपल बनकर
उस तन को जलीलो-ख्वार किया

यही नहीं फिल्म ‘दीदी’ में वे देश की नई पीढ़ी को समझाते हुए लिखते हैं,
नारी को इस देश ने देवी कहकर दासी जाना है
जिसको कुछ अधिकार न हो
वह घर की रानी माना है
तुम ऐसा आदर मत लेना
आड़ जो हो अपमान की
बच्चों, तुम तकदीर हो कल के हिंदुस्तान की


महिलाओं की मर्यादा और गरिमा के खिलाफ जो भी बातें हैं, साहिर ने अपनी गीतों में इसकी पुरजोर मुखालफत की। वे औरतों के दुःख-दर्द को अच्छी तरह से समझते थे। यही वजह है कि उनके गीतों में इसकी संजीदा अक्कासी बार-बार मिलती है।

मैं वह फूल हूं कि जिसको
गया हर कोई मसल के
मेरी उम्र बह गई है
मेरे आंसुओं में ढल के
(फिल्म- देवदास- 1955)

साल 1957 में प्रदर्शित फिल्म ‘प्यासा’ में साहिर ने खोखली परंपराओं, झूठे रिवाजों और नारी उत्पीड़न को लेकर जो सवाल खड़े किए, वह आज भी प्रासांगिक है,
ये कूचे ये नीलामघर दिलकशी के
ये लुटते हुए कारवां जिंदगी के
कहां हैं
? कहां हैं? मुहाफिज खुदी के?

वहीं फिल्म ‘वह सुबह कभी तो आएगी’ में वे दुनिया की इस आधी आबादी के लिए पूरी आजादी का तसव्वुर कुछ इस तरह से करते हैं,
दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को न बेचा जाएगा
चाहत को न कुचला जाएगा
गैरत को न बेचा जाएगा
अपनी काली करतूतों पर जब यह दुनिया शर्माएगी

किताब ‘गाता जाए बंजारा’ में साहिर लुधियानवी के सारे फिल्मी गीत एक जगह मौजूद हैं। अपने फिल्मी गीतों के लिए साहिर लुधियानवी कई पुरस्कार और सम्मानों से भी नवाजे गए। फिल्म फेयर अवार्ड के लिए वे नौ बार नॉमिनेट किए गए और उन्हें दो बार यह अवार्ड मिला। पहली बार, साल 1964 में फिल्म ‘ताज महल’ के गीत ‘जो वादा किया, वो निभाना पड़ेगा….’ तो दूसरी मर्तबा उन्हें फिल्म ‘कभी-कभी’ के इस गीत ‘कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता है…’ के लिए यह पुरस्कार मिला। फिल्म फेयर अवार्ड की शुरुआत साल 1959 में हुई। साल 1959 ‘औरत ने जन्म दिया… (फिल्म- साधना) और 1960 ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा…’ (फिल्म- धूल का फूल) इन दोनों साल भी साहिर लुधियानवी के गीत फिल्म फेयर अवार्ड के लिए नॉमिनेट हुए, लेकिन बाजी उन्हीं के साथी गीतकार शैलेंद्र ने जीती।

साहिर लुधियानवी के फिल्मी गीतों पर नजर डालने से यह मालूम चलता है कि वे सिर्फ ‘पल दो पल के शायर नहीं थे’, बल्कि वे ‘हर इक पल के शायर’ थे। हर पल को अपने गीतों में ढालने का हुनर उनमें था। यही वजह है कि वे जब तक जिंदा रहे, फिल्मी दुनिया में अव्वल नंबर पर रहे और आगे भी अपने गीतों की बदौलत अव्वल नंबर पर ही रहेंगे। उन जैसे नगमा निगार बार-बार नहीं आते।
जन्म: 8 मार्च 1921       
निधन: 25 अक्तूबर 1980

(जाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल एमपी के शिवपुरी में रहते हैं।)

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