Thursday, March 28, 2024

जन्मदिन विशेषः पेरियार ललई सिंह यादव थे बुद्ध, पेरियार और आंबेडकर की वैचारिकी के वाहक

कांग्रेस (1885) द्वारा ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ संघर्ष शुरू करने से करीब एक दशक पहले जोतीराव फुले (11 अप्रैल, 1827-28 नवंबर, 1890) ने वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत कर दी थी। 1873 में प्रकाशित फुले की किताब ‘गुलामगिरी’ वर्ण-जाति व्यवस्था को पोषित करने वाले ब्राह्मणवाद से मुक्ति का पहला घोषणा-पत्र थी। धीरे-धीरे पूरे देश में वर्ण-जाति व्यवस्था और उसे पोषित करने वाली विचारधारा ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष शुरू हो गया।

दक्षिण भारत के तमिलनाडु में इसकी मजबूत नींव आयोथी थास ( 20 मई 1845-1915) ने डाली, तो केरल में इसकी नींव श्रीनाराणय गुरु ने डाली। तमिलनाडु में आयोथी थास के आंदोलन को पेरियार ईवी रामासामी (17 सितंबर,1879-24 दिसंबर, 1973) ने एक नई ऊंचाई और विस्तार दिया, तो केरल में श्रीनाराणय गुरु ((20 अगस्त, 1856 – 20 सितंबर, 1928) के आंदोलन को अय्यंकली ( 28 अगस्त 1863-18 जून 1941) ने क्रांतिकारी आंदोलन में बदल दिया, जिसने केरल के सामाजिक जीवन में उथल-पुथल पैदा कर दिया।

पश्चिमोत्तर भारत में फुले दंपत्ति द्वारा शुरू किए गए ब्राह्मणवाद विरोधी संघर्ष को शाहू जी महराज (26 जून, 1874-6 मई, 1922) ने अपने राज्य कोल्हापुर में जमीन पर उतार दिया, तो डॉ. आंबेडकर (14 अप्रैल,1891–6 दिसंबर, 1956) ने उसे एक नई ऊंचाई और व्यापक विस्तार दिया और राष्ट्रव्यापी स्तर पर वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता विरोधी आंदोलन के नायक बने।

उत्तर भारत भी ब्राह्मणवादी विरोधी राष्ट्रव्यापी आंदोलन से अछूता नहीं रहा है। स्वामी अछूतानंद ( 6 मई, 1879-20 जुलाई, 1933)  और चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ (1885- 12 जनवरी, 1974) ने काउ वेल्ट ( उत्तर भारत) में वर्ण-जाति व्यवस्था विरोधी आंदोलन की नींव रखी। इस आंदोलन को ललई सिंह यादव ने एक नई ऊंचाई एवं विस्तार दिया। उनकी वैचारिकी के निर्माण में उत्तर भारत के बहुजन नायकों स्वामी अछूतानंद और चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ ने प्राथमिक भूमिका अदा की, लेकिन उसे एक नई गहराई एवं उंचाई पेरियार ईवी रामसामी, डॉ. आंबेडकर और गौतम बुद्ध के विचारों ने प्रदान किया। सच तो यह है कि ललई सिंह यादव की वैचारिकी की आधारशिला गौतमबुद्ध, पेरियार ईवी रामासामी और डॉ. आंबेडकर के वैचारिकी से निर्मित हुई।

ललई सिंह यादव ने अपना पूरा जीवन बुद्ध, पेरियार और डॉ. आंबेडकर की वैचारिकी को प्रसारित-प्रचारित करने में लगा दिया, क्योंकि उनका मानना था कि यही वैचारिकी भारत को मध्यकालीन सामाजिक व्यवस्था ( वर्ण-जाति व्यवस्था) और मानसिकता से बाहर निकाल सकती है, वर्ण-जाति की पोषक विचारधारा ब्राह्मणवाद से मुक्ति दिला सकती है और एक आधुनिक भारत का निर्माण कर सकती है।

पेरियार ईवी रामासामी की ‘सच्ची रामायण’ और डॉ. आंबेडकर की किताब ‘सम्मान के लिए धर्मपरिवर्तन’ को प्रकाशित करने के चलते उन्हें एक दशक तक अदालतों में मुकदमें का सामना करना पड़ा, क्योंकि इन दोनों किताबों के प्रकाशित होते ही, उत्तर प्रदेश सरकार ने इन्हें प्रतिबंधित कर दिया। ब्रिटिश सत्ता और आजाद भारत की दोनों सत्ताओं ने ललई सिंह यादव की किताबों को प्रतिबंधित किया है। ब्रिटिश सत्ता उनकी किताब ‘सिपाही का विद्रोह’ को 1947 में ही प्रतिबंधित करके जब्त कर चुकी थी।

फिर आया वह वर्ष 1968 का समय था। तब पूरे उत्तर भारत में कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि हिंदुओं के आराध्य राम के खिलाफ कोई किताब भी प्रकाशित हो सकती है और यदि प्रकाशित हुई तो उसका हश्र क्या होगा, लेकिन यह हुआ और नामुमकिन लगने वाले इस सच को साबित किया था ललई सिंह यादव (1 सितंबर, 1911–7 फरवरी, 1993) ने। उन्होंने ईवी रामासामी पेरियार की किताब सच्ची रामायण का अनुवाद 1968 में हिंदी में प्रकाशित किया। बाद में उन्होंने आंबेडकर की किताब ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन’ का भी प्रकाशन किया। ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ उनके इस अदम्य साहस का ही परिणाम रहा कि उन्हें पेरियार की उपाधि भी मिली।

9 दिसंबर, 1969 को उत्तर प्रदेश सरकार ने ईवी रामासामी ‘पेरियार’ की अंग्रेजी पुस्तक ‘रामायण: अ ट्रू रीडिंग’ और उसके हिंदी अनुवाद ‘सच्ची रामायण’ को ज़ब्त कर लिया, और इसके प्रकाशक पर मुक़दमा कर दिया था। इसके हिंदी अनुवाद के प्रकाशक ललई सिंह यादव थे और इसका अनुवाद राम आधार जी ने किया था। उत्तर भारत के पेरियार नाम से चर्चित हुए ललई सिंह ने जब्ती के आदेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी। वे हाईकोर्ट में मुकदमा जीत गए।

सरकार ने हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई तीन जजों की खंडपीठ ने की। खंडपीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति वीआर कृष्ण अय्यर थे तथा दो अन्य न्यायमूर्ति पीएन भगवती और सैयद मुर्तज़ा फ़ज़ल अली थे। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले पर 16 सितंबर 1976 को सर्वसम्मति से फैसला देते हुए राज्य सरकार की अपील को खारिज कर दिया। इस तरह से करीब सात वर्षों बाद ललई सिंह यादव को अंतिम जीत मिली।

इसी तरह 26 अगस्त 1970 को उत्तर प्रदेश सरकार ने डॉ. आंबेडकर के भाषणों के पुस्तकाकार संकलन ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ को जब्त करने का आदेश दिया था। इसके प्रकाशक आरएन शास्त्री तथा डॉ. भीमराव आंबेडकर साहित्य समिति के अध्यक्ष, ललई सिंह यादव थे। इन दोनों ने सरकारी आदेश को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी। कोर्ट में डब्ल्यू ब्रूम, वाई नंदन, एस मलिक की खंडपीठ ने सरकारी आदेश को अनुचित करार दिया और प्रतिबंध को निरस्त करने का न्यायादेश दिया।

इन दो किताबों के अतिरिक्त पेरियार ललई सिंह यादव द्वारा लिखी किताब ‘आर्यों का पोल प्रकाश’ को भी प्रतिबंध का सामना करना पड़ा। सच्ची रामायण को संदर्भ सहित व्याख्यित करने के लिए पेरियार ललई सिंह यादव ने ‘सच्ची रामाणय की चाभी’ लिखी, उस किताब पर भी उत्तर प्रदेश सरकर ने प्रतिबंध लगा दिया और उन्हें मुकदमा लड़ना पड़ा।

गौतम बुद्ध, डॉ. आंबेडकर और पेरियार ईवी रामासामी के विचारों को प्रसारित-प्रचारित करने के लिए ललई सिंह यादव ने कई पुस्तिकाएं और किताबें तैयार कीं। ‘बुद्ध की मानसिक परिवर्तन की अवधारणा’, ‘तथागत बुद्ध का धर्मदर्शन’, ‘कमाल सूत्र स्वतंत्र चिंतन का घोषणा-पत्र’, ‘तथागत बुद्ध को क्या पसंद था और क्या नापसंद था’? और ‘ईश्वर, आत्मा और वेदों में विश्वास अधर्म है’ आदि उनकी बुद्ध पर महत्वपूर्ण पुस्तिकाएं और किताबें हैं।

‘डॉ. आंबेडकर का व्यक्तित्व एवं कृतित्व’, ‘डॉ. आंबेडकर और उनका धर्म-दर्शन’ और ‘ब्राह्मणी समाज रचना’ आदि उनकी डॉ. आंबेडकर के विचारों को केंद्र में रखने वाली किताबें-पुस्तिकाएं हैं। ललई सिंह यादव ने पेरियार की किताब प्रसिद्ध किताब सच्ची रामाणय के साथ ही उनके भाषणों को भी पुस्तिका के रूप में हिंदी में प्रकाशित किया, जिसमें पेरियार द्वारा लखनऊ और कानपुर में दिया गया उनका भाषण भी शामिल हैं।

वर्ण-जाति व्यवस्था आधारित ऊंच-नीच के श्रेणीक्रम, इसे औचित्य प्रदान करने वाले मिथकों-नायकों और इस सबको जायज ठहराने वाले वाले तथ्यों एवं तर्कों को खारिज करने लिए और न्याय एवं समता के विचारों को प्रतिपादित करने के लिए पेरियार ललई सिंह यादव ने नाटकों एवं पुस्तिकाओं की भी रचना की। जिनमें मुख्य हैं- ‘अंगुलीमाल’, ‘शंबूक वध’, ‘वीर संत महामाया बलिदान’ और ‘एकलव्य’। उनकी तीन पुस्तिकाएं अत्यन्त चर्चित हैं- ‘शोषितों पर धार्मिक डकैती’, ‘शोषितों पर राजनीतिक डकैती’ और ‘सामाजिक विषमता कैसे दूर करें’।

उन्हें पेरियार की उपाधि पेरियार की जन्मस्थली और कर्मस्थली तमिलनाडु में मिली। बाद में वे हिंदी पट्टी में उत्तर भारत के पेरियार के रूप में प्रसिद्ध हुए। बहुजनों के नायक पेरियार ललई सिंह का जन्म 1 सितंबर, 1911 को कानपुर के झींझक रेलवे स्टेशन के पास कठारा गांव में हुआ था। अन्य बहुजन नायकों की तरह उनका जीवन भी संघर्षों से भरा हुआ रहा।

वह 1933 में ग्वालियर की सशस्त्र पुलिस बल में बतौर सिपाही भर्ती हुए थे, पर कांग्रेस के स्वराज का समर्थन करने के कारण, जो ब्रिटिश हुकूमत में जुर्म था, वह दो साल बाद बर्खास्त कर दिए गए। उन्होंने अपील की और अपील में वह बहाल कर दिए गए। 1946 में उन्होंने ग्वालियर में ही ‘नान-गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एंड आर्मी संघ’ की स्थापना की, और उसके सर्वसम्मति से अध्यक्ष बने।

इस संघ के द्वारा उन्होंने पुलिसकर्मियों की समस्याएं उठाईं और उनके लिए उच्च अधिकारियों से लड़े। जब अमेरिका में भारतीयों ने लाला हरदयाल के नेतृत्व में ‘गदर पार्टी’ बनाई, तो भारतीय सेना के जवानों को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ने के लिए ‘सोल्जर ऑफ द वार’ पुस्तक लिखी गई थी। ललई सिंह ने उसी की तर्ज पर 1946 में ‘सिपाही की तबाही’ किताब लिखी, जो छपी तो नहीं थी, पर टाइप करके उसे सिपाहियों में बांट दिया गया था, लेकिन जैसे ही सेना के इंस्पेक्टर जनरल को इस किताब के बारे में पता चला, उसने अपनी विशेष आज्ञा से उसे जब्त कर लिया। ‘सिपाही की तबाही’ वार्तालाप शैली में लिखी गई किताब थी। यदि वह प्रकाशित हुई होती, तो उसकी तुलना आज महात्मा जोतिबा फुले की ‘किसान का कोड़ा’ और ‘अछूतों की कैफियत’ किताबों से होती।

जगन्नाथ आदित्य ने अपनी पुस्तक में ‘सिपाही की तबाही’ से कुछ अंशों को कोट किया है, जिनमें सिपाही और उसकी पत्नी के बीच घर की बदहाली पर संवाद होता है। अंत में लिखा है– ‘वास्तव में पादरियों, मुल्ला-मौलवियों-पुरोहितों की अनदेखी कल्पना स्वर्ग तथा नर्क नाम की बात बिल्कुल झूठ है। यह है आंखों देखी हुई, सब पर बीती हुई सच्ची नरक की व्यवस्था सिपाही के घर की। इस नरक की व्यवस्था का कारण है– सिंधिया गवर्नमेंट की बदइंतजामी। अतः इसे प्रत्येक दशा में पलटना है, समाप्त करना है। ‘जनता पर जनता का शासन हो’, तब अपनी सब मांगें मंजूर होंगी।’

इसके एक साल बाद, ललई सिंह ने ग्वालियर पुलिस और आर्मी में हड़ताल करा दी, जिसके परिणामस्वरूप 29 मार्च, 1947 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमा चला, और उन्हें पांच साल के सश्रम कारावास की सजा हुई। नौ महीने जेल में रहे, और जब भारत आजाद हुआ, तब ग्वालियर स्टेट के भारत गणराज्य में विलय के बाद, वह 12 जनवरी, 1948 को जेल से रिहा हुए।

1950 में सरकारी सेवा से मुक्त होने के बाद उन्होंने अपने को पूरी तरह बहुजन समाज की मुक्ति के लिए समर्पित कर दिया। ‘अशोक पुस्तकालय’ और ‘सस्ता प्रकाशन’ की स्थापना की। उन्हें इस बात का गहराई से आभास हो चुका था कि ब्राह्मणवाद के खात्मे के बिना बहुजनों की मुक्ति नहीं हो सकती है। एक सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और प्रकाशक के रूप में उन्होंने अपना पूरा जीवन ब्राह्मणवाद के खात्मे और बहुजनों की मुक्ति के लिए समर्पित कर दिया। 7 फरवरी, 1993 को उन्होंने अंतिम विदा ली।

(लेखक डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)

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