Friday, April 19, 2024

भारत के वॉल्टेयर(पेरियार)किताब: हिंदी पट्टी के लिए एक बौद्धिक पूंजी

‘पेरियार ई. वी. रामासामी, भारत के वॉल्टेयर’ किताब रूप में लेखक ओमप्रकाश कश्यप ने हिंदी पट्टी को एक बड़ी बौद्धिक पूंजी सौंपी है, जिसकी हिंदी पट्टी को बहुत जरूरत थी।

सामाजिक तौर पर हिंदी पट्टी भारत के सबसे पतनशील सांस्कृतिक-वैचारिक मूल्यों का गढ़ है-  वर्ण-जाति और पितृसत्ता आधारित मध्यकालीन बर्बर सांस्कृति-वैचारिक मूल्य इस पट्टी के रीढ़ हैं, जो यहां के जीवन के सभी रूपों में पग-पग पर दिखाई देते हैं। यहां की आम जनता ही नहीं, बौद्धिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक आंदोलनों की अगुवाई करने वाला बहुलांश हिस्सा यानि इस पट्टी का बहुलांश बौद्धिक वर्ग वर्ण-जाति और पितृसत्ता के कीचड़ में धंसा हुआ है और जाने-अनजाने इन्हीं मूल्यों-विचारों को पल्लवित-पुष्पित करता है। हिंदी पट्टी का वामपंथी वैचारिक-सांस्कृति और साहित्यिक आंदोलन भी इस दायरे से बाहर नहीं निकल पाया। जो चंद लेखक चुपचाप इस पट्टी की वैचारिक जड़ता को तोड़ने की निरंतर कोशिश कर रहे हैं, उनमें ओमप्रकाश कश्यप एक हैं। अभी हाल में आई उनकी किताब पेरियार ‘ई. वी. रामासामी, भारत के वॉल्टेयर’ इसका मुकम्मल साक्ष्य प्रस्तुत करती है।

ई.वी. रामासामी नायकर ‘पेरियार’ भारत की प्रगतिशील श्रमण बहुजन-परंपरा के ऐसे लेखक हैं जिन्होंने उत्तर भारत के द्विजों की आर्य श्रेष्ठता और मर्दवादी दंभ, राष्ट्रवाद, ब्राह्मणवाद, वर्ण-जाति व्यवस्था, ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और शोषण-अन्याय के सभी रूपों को चुनौती दी। वर्चस्व, अन्याय, असमानता और दासता का कोई रूप उन्हें स्वीकार नहीं था। उनकी आवेगात्मक अभिव्यक्ति पढ़ने वालों को हिला देती है। तर्क-पद्धति, तेवर और अभिव्यक्ति की शैली के चलते उन्हें यूनेस्को ने 1970 में “दक्षिणी एशिया का सुकरात” कहा था।

इस किताब की भूमिका में अध्येता कंवल भारती ने इस किताब की मूल अंतर्वस्तु को रेखांकित करते हुए लिखा है कि “ पेरियार के संपूर्ण जीवन-संघर्ष को यदि एक नाम देना हो, तो वह उनका ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ है। और लेखक के इस महत्वपूर्ण शोध-ग्रंथ के मूल में भी मुख्य रूप से ‘ आत्मसम्मान आंदोलन’ है। हिंदी में यह वस्तुत: पहला ग्रंथ है, जिसमें इतने विस्तार से इस क्रांतिकारी आंदोलन को रेखांकित किया गया है।”

पेरियार ने बहुजनों में आत्मसम्मान भरने के लिए 1925 से आत्मसम्मान आंदोलन (सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट) चलाया। कुछ अध्येता इसकी औपचारिक शुरूआत 1926 मानते हैं। सच यह है कि पेरियार के लेखन और संघर्ष का केंद्रीय तत्व बहुजनों में आत्मसम्मान भरना था। पेरियार इस तथ्य से अच्छी तरह अवगत थे कि यदि किसी व्यक्ति या समुदाय में लेशमात्र भी दासता, गुलामी या खुद को दोयम दर्जे का समझने का भाव है, तो वह पूरी तरह आत्मसम्मान (सेल्फ रिस्पेक्ट) हासिल नहीं कर सकता है। पूरी तरह आत्मसम्मान हासिल करने का मतलब है, खुद को मानवीय गरिमा के संदर्भ में किसी से भी कमतर न समझना। इसके लिए जरूरी है कि हर इंसान खुद को और दूसरे इंसान को समान रूप से स्वतंत्र और बराबर का समझे और उसे अपना बंधु स्वीकार करे। वही व्यक्ति या समुदाय पूरी तरह आत्मसम्मान की स्थिति हासिल कर सकता है, जो सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक तौर पर किसी के अधीन न हो और न किसी के प्रभुत्व एवं वर्चस्व को स्वीकार करता हो।

अपने आत्मसम्मान-आंदोलन के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए पेरियार लिखते हैं, “आत्मसम्मान आंदोलन का मकसद उन ताकतों का पता लगाना है, जो हमारी प्रगति में बाधक बनी हुई हैं। यह उन ताकतों का मुकाबला करेगा, जो समाजवाद के खिलाफ काम करती हैं। यह समस्त धार्मिक प्रतिक्रियावादी ताकतों का विरोध करेगा।”

पेरियार भविष्य की एक ऐसी दुनिया की कल्पना करते हैं, जिसमें हर मनुष्य की गरिमा का समान महत्व हो। कोई किसी का शोषण-उत्पीड़न न करे, न ही किसी की गरिमा को किसी भी आधार पर रौंदे। पेरियार का भविष्य की दुनिया का सपना मार्क्स-एंगेल्स के साम्यवाद के सपने से मेल खाता है। अपने लेख ‘भविष्य की दुनिया’ में अपने आदर्श समाज की परिकल्पना प्रस्तुत करते हुए उन्होंने तमिल पुस्तक इनि वारुम उल्लगम में लिखा : नए विश्व में किसी को कुछ भी चुराने या हड़पने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। पवित्र नदियों जैसे कि गंगा के किनारे रहने वाले लोग उसके पानी की चोरी नहीं करेंगे। वे केवल उतना ही पानी लेंगे, जितना उनके लिए आवश्यक है। भविष्य के उपयोग के लिए वे पानी को दूसरों से छिपाकर नहीं रखेंगे। यदि किसी के पास उसकी आवश्यकता की वस्तुएं प्रचुर मात्रा में होंगी, तो वह चोरी के बारे में सोचेगा तक नहीं। इसी प्रकार किसी को झूठ बोलने, धोखा देने या मक्कारी करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। क्योंकि, उससे उसे कोई प्राप्ति नहीं हो सकेगी। नशीले पेय किसी को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे। न कोई किसी की हत्या करने का ख्याल दिल में लाएगा। वक्त बिताने के नाम पर जुआ खेलने, शर्त लगाने जैसे दुर्व्यसन समाप्त हो जाएंगे। उनके कारण किसी को आर्थिक बरबादी नहीं झेलनी पड़ेगी।’’

वह आगे लिखते हैं, ‘‘पैसे की खातिर अथवा मजबूरी में किसी को वेश्यावृत्ति के लिए विवश नहीं होना पड़ेगा। स्वाभिमानी समाज में कोई भी दूसरे पर शासन नहीं कर पाएगा। कोई किसी से पक्षपात की उम्मीद नहीं करेगा। ऐसे समाज में जीवन और काम-संबंधों को लेकर लोगों का दृष्टिकोण उदार एवं मानवीय होगा। वे अपने स्वास्थ्य की देखभाल करेंगे। प्रत्येक व्यक्ति में आत्मसम्मान की भावना होगी। स्त्री-पुरुष दोनों एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करेंगे और किसी का प्रेम बलात् (जबरन) हासिल करने की कोशिश नहीं की जाएगी। स्त्री-दासता के लिए कोई जगह नहीं होगी। पुरुष सत्तात्मकता मिटेगी। दोनों में कोई भी एक-दूसरे पर बल-प्रयोग नहीं करेगा। आने वाले समाज में कहीं कोई वेश्यावृत्ति नहीं रहेगी।”

भविष्य के जिस समाज का सपना पेरियार देखते हैं, उसकी भारत में स्थापना की पहली शर्त वह अंबेडकर की तरह जाति के विनाश को मानते थे। उनका मानना था कि वर्ण-जाति की रक्षा के लिए हिंदू-धर्म की स्थापना की गई। वर्ण-जाति की रक्षा के लिए जन्म लेने वाले ईश्वरों को गढ़ा गया है और मनुस्मृति, रामायण, गीता और पुराणों की रचना की गई है। उन्होंने लिखा, “इस जाति-व्यवस्था ने भारतीय समाज को जड़ और बर्बर समाज में तब्दील कर दिया है।” 1959 में उन्होंने लिखा, “हमारे देश में जाति के विनाश का मतलब है- भगवान, धर्म, शास्त्र और ब्राह्मणों (ब्राह्मणवाद) का विनाश। जाति तभी खत्म हो सकती है, जब ये चारों भी खत्म हो जाएं। यदि इसमें से एक भी बना रहता है, तो जाति का विनाश नहीं हो सकता।”

लेकिन ब्राह्मणों के खात्मे से उनका सीधा मतलब ब्राह्मणवाद के खात्मे से है। इस संदर्भ में वह लिखते हैं कि उन्हें “ब्राह्मण-प्रेस द्वारा ब्राह्मण-विरोधी के रूप में चित्रित किया गया है। किन्तु, मैं व्यक्तिगत रूप से किसी भी ब्राह्मण का दुश्मन नहीं हूं। एकमात्र तथ्य यह है कि मैं ब्राहमणवाद का धुर-विरोधी हूं। मैंने कभी नहीं कहा कि ब्राह्मणों को खत्म किया जाना चाहिए।” पेरियार ने गैर-द्विजों और महिलाओं से आह्वान किया कि वे “उस ईश्वर को नष्ट कर दें, जो तुम्हें शूद्र कहता है। उन पुराणों और महाकाव्यों को नष्ट कर दो, जो हिंदू ईश्वर को सशक्त बनाते हैं।”

पेरियार पितृसत्ता के मूल ढांचे को सीधी चुनौती देते हैं। पेरियार की क्रांतिकारी प्रगतिशील सोच सबसे ज्यादा उनके स्त्री संबंधी चिंतन में सामने आती है। पेरियार महिलाओं की ‘पवित्रता’ या स्त्रीत्व की दमनकारी अवधारणा के कटु-विरोधी थे। उनका कहना था कि “यह मान्यता कि केवल महिलाओं के लिए पवित्रता आवश्यक है, पुरुषों के लिए नहीं; इस विचार पर आधारित है कि महिलाएं पुरुषों की संपत्ति हैं। यह मान्यता वर्तमान में महिलाओं को निकृष्ट दर्जे का साबित करने की द्योतक है।” पेरियार महिलाओं के शिक्षा प्राप्त करने, काम करने, अपने ढंग से जीने और प्यार करने के अधिकार के जबरदस्त समर्थक थे।

श्रम और पूंजी के संघर्ष में पेरियार श्रमिक वर्ग के साथ खड़े होते हैं। वह साफ शब्दों में लिखते हैं कि “यह श्रमिक ही है, जो विश्व में सब कुछ बनाता है। लेकिन, यह श्रमिक ही चिंताओं, कठिनाइयों और दुःखों से गुजरता है।” पेरियार ने एक ऐसे समाज की कल्पना की जिसमें शोषण और अन्याय का नामो-निशान नहीं होगा। उस दुनिया का खाका खींचते हुए वह लिखते हैं, “एक समय ऐसा आएगा, जब धन-संपदा को सिक्कों में नहीं आंका जाएगा। न सरकार की जरूरत रहेगी। किसी भी मनुष्य को जीने के लिए कठोर परिश्रम नहीं करना पड़ेगा। ऐसा कोई काम नहीं होगा, जिसे ओछा माना जाए या जिसके कारण व्यक्ति को हेय दृष्टि से देखा जाए।”

12 अध्यायों में बंटी ओमप्रकाश कश्यप  करीब 600 पृष्ठों की यह किताब पेरियार के व्यक्तित्व, चिंतन और संघर्ष के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण सामग्री हिंदी में उपलब्ध कराती है।

किताब- पेरियार ई. वी. रामासामी, भारत के वॉल्टेयर

लेखक- ओमप्रकाश कश्यप

प्रकाश- सेतु प्रकाशन

मूल्य- 595

(लेखक और वरिष्ठ पत्रकार डॉ. सिद्धार्थ की समीक्षा।)

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