Thursday, April 25, 2024

अन्याय और अत्याचार विरोध का स्थायी प्रतीक बन चुकी हैं फूलन

ईमानदारी से यह स्वीकार करूंगा कि फूलन देवी से मेरा पहला परिचय बैंडिट क्वीन फ़िल्म से ही हुआ। यह भी कि यदि मैं साधारणीकरण नहीं कर रहा हूँ तो एक बहुत बड़ी आबादी से फूलन देवी का परिचय इस फ़िल्म द्वारा ही हुआ। बाद में चलकर धीरे-धीरे बहुजन नायक-नायिकाओं को खोज-खोजकर पढ़ने की आदत डाली तो फूलन देवी के बारे में भी जानना हुआ। 1994 में जब बैंडिट क्वीन फ़िल्म रिलीज़ हुई, तब ही, शेखर कपूर द्वारा ‘रियल’ को ‘रील’ में तब्दील करने के फेर में बलात्कार के दृश्यों का बार-बार चित्रण विवादों के घेरे में आ गया था।

स्वाभाविक है कि पब्लिक भी इतना बोल्ड कंटेंट पचाने को तैयार नहीं थी। फूलन देवी को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि फ़िल्म में बलात्कार के दृश्यों को दिखाया जाएगा क्योंकि अपनी आत्मकथा (जिसे माला सेन ने लिखी है) में उन्होंने केवल ठाकुरों का मज़ाक कहकर बात को टालने की कोशिश की। जाहिर है वह नहीं चाहती थीं कि उनके शोषण को दिखाया जाए। ऐसे में सेंसर बोर्ड के अलावा स्वयं फूलन देवी भी फ़िल्म के रिलीज़ को लेकर नाराज़ थीं। उन्होंने अपनी अपील में कहा था कि इस तरह का उनका चित्रण उनके लिए जान का खतरा बन सकता है। आत्मदाह तक की उन्होंने धमकी दी। 

अरुंधति रॉय ने भी अपने लेख में ‘द ग्रेट इंडियन रेप ट्रिक, भाग-एक और भाग दो’ में इसका उल्लेख किया। रॉय ने फ़िल्म और माला सेन द्वारा लिखी गई आत्मकथा का अध्ययन करने के बाद कहा कि फूलन पर हुए अत्याचार से कहीं अधिक भयावह है, फूलन की असहमति के बावजूद फ़िल्म का रिलीज होना। कपूर जहां गाँवों में औरतों पर होने वाले अत्याचार को दिखाना अपनी मंशा बता रहे थे वहीं रॉय मानती हैं कि इसके साथ कॉमर्स भी जुड़ा हुआ था।  खैर सभी जानते हैं की शेखर कपूर की फ़िल्म रिलीज़ हुई। कपूर को विदेशी कम्पनी चैनल 4 का साथ मिला था। इस मुद्दे को लेकर वे भारत सरकार से ही भिड़ गए। वे इतनी दूर आ चुके थे कि स्वयं फूलन की चिंता को भी ज़रूरी नहीं समझा। 

ज़रा फूलन देवी के जीवन पर भी एक सरसरी नज़र दौड़ा लीजिये। सभी जानते हैं कि मल्लाह जाति में 10 अगस्त 1963 को उत्तर-प्रदेश, जालौन जिला के पुरवा गाँव में जन्मीं फूलन बचपन से ही विद्रोही स्वभाव की रहीं। इसका खामियाजा उन्हें उठाना पड़ा। बचपन से ही वह घरेलू हिंसा की शिकार हुईं, माँ उन्हें और उनकी छोटी बहन को बहुत पीटा करती थीं। कभी गाँव का प्रधान या कभी उनका चाचा ही उनकी खूब पिटाई कर देता। फूलन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मुझे लगता था कि मेरा जन्म ही मार खाने के लिए हुआ है। 15 साल तक होते-होते फूलन को यह समझ में आने लगा था कि दरअसल उनकी माँ अपनी निस्सहायता का सारा गुस्सा उन पर निकालती है। 11 साल की उम्र में ही उनकी शादी कर दी गई। पर जिस पुत्ती लाल के साथ शादी हुई, वह भी एक तरह से बलात्कारी ही निकला।

अपनी आत्मकथा में वह जो लिखतीं हैं,  वह इतना भयावह है कि उसका जिक्र करना भी यहाँ मुनासिब नहीं। शादी निभी नहीं और वापस घर मायके आना पड़ा। लेकिन पुलिस ने डांट-डपट कर फिर उसी अत्याचारी के यहाँ जाने को उन्हें मजबूर किया। आज भी खंगालिए तो गाँवों में लगभग यही हालात मिलेंगे। दोष हमेशा लड़की का होगा। सो फूलन के साथ भी ऐसा ही हुआ। पति ने दूसरी शादी और फूलन को घर से निकाल दिया। सारा दोष फूलन के सिर मढ़ दिया गया। बीस साल की होने तक उनके साथ कई बार छेड़खानी हुई। कभी ठाकुर जमींदारों द्वारा तो कभी पुलिस द्वारा। बिना कारण, सवर्णों द्वारा चोरी के झूठे इल्जाम लगा दिए जाते और बार-बार जेल में बंद कर दिया जाता। उनके साथ बलात्कार होते रहे, शोषण होता रहा। ज़ाहिर है सब के पीछे फूलन का विद्रोही और कभी न झुकने वाला तेवर रहा होगा। फूलन यह समझ चुकी थीं कि जिसके पास ताकत है उसी के पास न्याय भी।   

इसके बाद डकैतों के एक समूह ने उनका अपहरण कर लिया। (या वे स्वेच्छा से गईं इसे लेकर विवाद है)।  जो थोड़ा बहुत भी समाज से जुड़ाव था वह भी ख़त्म हो गया। जिन डकैतों के समूह में वह गईं उसका सरगना बाबू गुज्जर था, जिसे मारकर विक्रम मल्लाह उस समूह का सरगना बना, बाबू गुज्जर को मारने का कारण भी फूलन ही बनीं। बाद में चलकर ऊँची जाति के लोगों ने विक्रम मल्लाह को आपसी रंजिश में मार गिराया। फूलन को बेहमई ले जाया गया और उनका बलात्कार किया गया। यह बलात्कार एक सन्देश था कि छोटी जाति के लोगों को अपनी चादर जितना ही पैर पसारना चाहिए। 

इस घटना ने फूलन को उस फूलन में तब्दील कर दिया जिसे आज मिथकीय दर्जा प्राप्त है। उन्होंने मुसलमान डकैतों के एक समूह को खड़ा किया। उन सभी ने फूलन को एक मर्दाना नाम ‘फूलन सिंह’ दिया, यह प्रतिज्ञा भी ली कि वे कभी उन्हें एक औरत की नज़र से नहीं देखेंगे। यही फूलन सिंह बाद में फूलन देवी और चम्बल की रानी कहलाई। फूलन के मन में मर्दों के लिए इतनी घृणा भर गई थी कि उन्होंने खुद को औरत मानने से इनकार कर दिया और जिस किसी ने भी उनके साथ बलात्कार किया था, उनसे बदले की आग ने उन्हें बेचैन कर दिया। वह ऊँची जाति के जमींदारों से लूटकर ग़रीबों में बाँट देतीं।

पुलिस से लेकर सत्ता के गलियारों तक उनका भय तारी हो गया। कई ऐसी घटनाएं हैं जो फूलन ने अपनी आत्मकथा में बताई है जिसमें फूलन का लार्जर दैन लाइफ इमेज हमें देखने को मिलता है। वे कहती हैं कि जिस गाँव में भी औरतों के साथ अत्याचार होता वह फूलन का नाम लेती और कहती कि फूलन इस अत्याचार का बदला लेगी, और फूलन ऐसा करती भी। 1981 में फूलन ने बेहमई के 22 ठाकुरों की हत्या को मानने से इनकार कर दिया। लेकिन उस समय की प्रधानमन्त्री इंदिरा गाँधी से बातचीत के बाद उन्होंने 1983 में मध्य-प्रदेश में आत्मसमर्पण कर दिया। अर्जुन सिंह बातचीत के मुख्य सूत्रधार बने। 

 सशस्त्र विद्रोह को छोड़कर कर 11 बरस उन्होंने जेल में बिताये और 1994 में जेल से रिहा हुईं। 1996 को समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा और विजयी हुईं। मिर्जापुर से उनकी जीत रिकॉर्ड वोटों से हुई थी। उन्होंने अपने प्रतिरोधी तेवर को जाहिर करते हुए बौद्ध धर्म को ग्रहण कर लिया। 1998 का चुनाव वो हार गईं और पुनः 1999 में जीतकर उन्होंने अपनी वापसी की। 2001 के चुनाव से ठीक पहले उनके दिल्ली निवास के बाहर दो अज्ञात बंदूकधारियों ने उनकी हत्या कर दी।

यह हत्या राजपूत गौरव के नाम पर की गई थी। सभी को पता था कि यह कायराना कृत्य शेर सिंह राणा ने किया था। यही व्यक्ति सहारनपुर दंगों का मास्टर माइंड था। लेकिन एक बेहद जातिवादी व्यवस्था से अधिक उम्मीद की भी नहीं जा सकती थी। अब भी बहुत कुछ बदला है, इसकी गारंटी नहीं ली जा सकती। फूलन देवी की जब हत्या हुई तो वह केवल 38 वर्ष की थीं। कह नहीं सकते कि यदि आज वे होतीं तो उनकी राजनीतिक बेबाकी या तेवर वही होते जो 1996 से लेकर उनकी मृत्यु तक थे।  

फूलन को नाम और शोहरत इसलिए नहीं मिली कि उन्होंने अपने प्रतिरोध में 22 ठाकुरों को मौत के घाट उतार दिया या जातिवाद के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया। बल्कि इसलिए भी की कि उन्होंने नेता बनने के बाद ‘नेता’ शब्द की महत्ता को चरितार्थ किया। ज़मीनी स्तर पर बहुजन तबकों के लिए जेल से रिहा होने के बाद काम किया। बिना लाग-लपेट के जोशो-खरोश से बोलने वाली इस नेत्री ने हाशिये के समाज को प्रभावित किया। उन्हें लैंगिक भेदभाव द्वारा उपजे अन्याय का दमन करने वाली दुर्गा कहा गया। आम जन मानस ने उनको अपनी संवेदना और आदर से नवाज़ा।

  या उनकी प्रसिद्धि, शेखर कपूर कि फ़िल्म का ही नतीजा नहीं थी। फूलन पर माला सेन के द्वारा लिखी गई आत्मकथा के अलावे भी कई लेख और पुस्तकें आ चुकी थीं। जिन्हें आधार बनाकर ही शेखर कपूर ने फ़िल्म बनाई थी।  

बेहमई हत्याकांड और गिरफ्तारी के बाद फूलन को कई विशेषणों से नवाज़ा गया। कुछ ने उन्हें बदसूरत कहा, पब्लिक स्फेयर में रांड कहा, वहीं कुछ ने उन्हें सर आँखों पर रखा, उसे दुर्गा, काली, गरीबों का मसीहा कहा। उनके नाम पर गीत बने। अख़बारों ने फूलन को दस्यु सुंदरी कहा तो कभी अपने आशिक की मौत का बदला लेने वाला कहा। ज़ाहिर है जिसने जो कहा उससे उनके कास्ट लोकेशन का साफ पता चल जाता है। 

ज़रा वर्तमान परिदृश्य को देखिये। फूलन को अपमान, तिरस्कार, मानसिक यातना, दैहिक शोषण, उपहास मिला और आज भी पुरुषों ने फूलन का नाम मज़ाक में किसी भी स्त्री के विद्रोही तेवर के साथ जोड़ दिया है। फिर वहीं दूसरी ओर स्नेह, प्रेम, आदर, प्रसिद्धि भी मिली। इन सबके बीच फूलन देवी ने कभी भी अपनी विनम्रता नहीं छोड़ी। न ही अपनी सादगी। वे बेहद मिलनसार बनीं रहीं।

ऐसी वीरांगना को सलाम। कइयों के लिए आज भी जहाँ वे हिकारत का सबब हैं, वहीं कइयों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी रहीं हैं, आगे भी रहेंगी। विदेशी मीडिया ने उन्हें सराहा और इज्ज़त बख्शी। टाइम मैगजीन ने विश्व की बीस विद्रोही महिलाओं में उन्हें चौथा स्थान दिया। 

(मुजफ्फरपुर, बिहार में जन्मे (22 जून 1979) युवा कवि अनुज कुमार ने हैदराबाद विश्वविद्यालय से पीएचडी की। उसके बाद नागालैंड विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक के रूप में इनकी नियुक्ति हो गयी। कविता लेखन में रुचि होने के कारण इन्होंने दो चिट्ठे- नम माटी एवं  कागज का नमक बनाए और इनके माध्यम से अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की।)

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