आदिवासी अपने जल, जंगल, जमीन और जानवरों से जुड़ाव के लिए जाने जाते हैं। अपनी अलग सभ्यता-संस्कृति के लिए पहचाने जाते हैं। प्रकृति से उनका घनिष्ठ नाता रहा है। प्रकृति पूजन की उनकी परंपरा रही है। पर आज के बाजारीकरण के दौर और राजनीतिक हस्तक्षेप ने आदिवासियों के निजी जीवन को डिस्टर्ब किया है। हालांकि आदिवासी अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए हमेशा संघर्षरत रहे हैं पर कहीं न कहीं उन पर बाजार और देश की राजनीति का दबाव बढ़ रहा है। यह चिंता का विषय है।
कवि हरिराम मीना जनजातीय चेतना के प्रहरी हैं। यही कारण है कि एक तरफ आदिवासियों की समृद्ध परंपरा को अपनी कविता का विषय बनाते हैं, साथ ही आज की राजनीति के प्रभाव को भी अपनी कविताओं में दर्ज करते हैं।
कवि हरिराम अपनी भूमिका में कहते हैं ‘कितने बदल गए आदिवासी’ में अधिकांश कविताएं जनजातीय चेतना पर आधारित हैं।…अपनी रीति-रिवाज, परपंपरा, भाषा, वेशभूषा, औषधि ज्ञान, परिवार-समाज की जड़ से जुड़े रहना, नई पीढ़ी को भी पुराने संस्कारों से जोड़ना और अवगत कराना इत्यादि यह समाज के लिए जरूरी है।”
इस संग्रह में कुल 82 कविताएं हैं। इन कविताओं में प्रेम या रति, प्यार की पींगे बढ़ाना, मीत का मिलना, प्रियतम की झलक देखना, श्रृंगार के प्रतिबिंब, नायिका की क्रीड़ा, रति की महक, नई नवेली दुल्हन का प्रेम और उसका प्रतिरूप, नायिका का नख-शिख वर्णन, संयोग वियोग श्रृंगार आदि का वर्णन है तो वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था द्वारा शिक्षा से समाज को वंचित करना और वर्ण व्यवस्था को थोपना पर भी कवि अपनी कलम चलाता है। जरूरत की वस्तुओं को घर में तैयार करना, बरसाती कीड़ों की व्याख्या, वहशीपन, हरे कबूतर की खासियत, वसंत ऋतु के आगमन का सच, चौमासे की गर्मी, जंगली पौधा हिंगोट, बरगद के पेड़ की छाया, गूलर के पेड़ का आश्रय, कैर का झाड़ीनुमा पेड़, ऊंट यानी रेगिस्तान के जहाज की सजावट, मीना जाति के विनाश की कथा, बिखरता परिवार, बेटी की मुस्कान, बेटा चाहने की लालसा, खेत में चिंटावड का होना आदि का वर्णन भी कवि ने किया है।
इसके अलावा इस संग्रह में यह भी संदेश दिया गया है कि जनजातीय समाज का धर्म परिवर्तन एवं स्वार्थवश किए गए कार्य समाज को अवनति की ओर ले जा रहे हैं।
उन्होंने कुछ ऐतिहासिक आदिवासी नायकों पर भी कविताएं लिखी हैं जैसे टंटया मामा उर्फ आदिवासियों को रॉबिन हुड, बिरसा मुंडा की शहादत, महाराणा प्रताप और भील, मानगढ़ की शहादत और भील आदि।
टंटया मामा पर लिखी कवि की कविता ‘आदिवासियों का रॉबिनहुड’ मार्मिक बन पड़ी है। वह जिस तरह से अमीरों को लूटकर गरीबों की मदद करता था, उसे पशु-पक्षियों की बोलियां समझ आती थीं। विभिन्न जड़ी-बूटियों की उसे जानकारी थी। वह छापामार युद्ध में माहिर था। वह धनुर्विद्या की विलक्षण प्रतिभा का धनी था।
पुस्तक का नाम : कितने बदल गए आदिवासी
कवि : हरिराम
प्रकाशक : अधिकरण प्रकाशन
मकान संख्या 19, भूतल, खसरा
संख्या- 65, गली नं. 1,
निकट बालाजीप्रॉपर्टी ऑफिस
कौशल पुरी, चौहान पट्टी,
दिल्ली-110090
प्रथम संस्करण : 2024
मूल्य : 365 रुपये
पृष्ट संख्या : 120
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर, संविधान दलितों को भी उन्होंने अपनी कविताओं का विषय बनाया है। उनकी कविताओं के शीर्षक हैं ‘बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का आह्वान’, ‘बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर और संविधान’, ‘संविधान का शासन’, ‘दलित-आदिवास’ आदि।
हरिराम ने गांव के विभिन्न दृश्यों को अपनी कविताओं में कैद किया है जैसे गांव के पशु चराने वालों का एक दृश्य देखिए –
चौमासों में सुबह निकले
दिनकर के तेज से
उमस ने टपका दिए हैं पसीने।
ऊंट, बकरी, गाय और भैंस चराने
घर से निकले हैं ग्वाले।
या फिर गांव के रास्ते में बरगद के पेड़ के बारे में कवि लिखते हैं :
बरगद का पेड़
चिलचिलाती धूप में
देता है शीतलता
वह सना रहता है
परिंदों की बींट-मूत से
वह नहीं करता
नफरत और छुआछूत
मनुज की तरह।
स्वार्थी मुनष्यों द्वारा जो प्रकृति का दोहन किया जा रहा है। इसके प्रति कवि चिंतित नजर आता है। वह जल, जंगल, जमीन को फलता-फूलता देखना चाहता है। वह चहुंओर हरियाली देखना चाहता है। किंतु जब वह इसको औद्योगिक विकास के नाम पर उजड़ते देखता है तो चिंतित होता है। कवि की चिंता वाजिब है। प्रकृति के अत्यधिक दोहन के कारण ही आज प्रकृति में असंतुलन बढ़ रहा है। परिणाम यह है कि ग्लोबल वार्मिंग हो रही है, कहीं अत्यधिक सूखा पड़ रहा है तो कहीं अत्यधिक बारिश हो रही है। भूस्खलन हो रहा है। कवि अपनी कविता ‘कटते जंगल’ में कहता है –
काला सोना, पीला सोना
धरती के सीने पर देखो
ये कैसे जल्लाद हुए।
जरूरत से ज्यादा
संशाधनों के दोहन से
ये कितने मालामाल हुए।
आजकल जो संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और एकल परिवार बढ़ रहे हैं। इसको लेकर कवि दुखी है। वह संयुक्त परिवार का पक्षघर है। वह चाहता है कि लोग आपस में मिलजुल कर रहें। इतना ही नहीं वह चाहता है कि आज की युवा पीढ़ी आदिवासियों की पुरानी परंपराओं का सम्मान करे।
आदिवासी महिलाओं में आ रही जागरूकता को भी कवि ने अपनी कविता का विषय बनाया है। उनका एक कविता काबिले-गौर है जिसका शीर्षक है – ‘कमली मीणी के खेत में’।
कमली मीणी करती है
लाज घूंघट में
जेठ, ससुर और रिश्तेदारों की।
साथ ही मीठी सुरीली
कड़क आवाज में
बोल भी देती है
काम की बात।
वह नहीं डरती
कठिन मेहनत के काम से।
सूखी ठंड, तपती गर्मी
और मूसलाधार बरसात से
तूफान के थपेड़ों से।
समाज के नाम पर
वर्णव्यवस्था की दुकान
चलाने वालों से
रात के अंधेरे में घूमते
लुच्चे, लफंगों और भड़वों से।
जाति के नाम पर हो रहे शोषण पर भी कवि की नजर गई है। सब जानते हैं कि हमारे देश में जाति एक सामाजिक बुराई है। जाति को जन्म से जोड़ दिया गया है। यही कारण है कि जाति के आधार पर कथित उच्च जाति के लोग कथित नीची जाति वालों का शोषण करते हैं। यह सिलसिला सदियों से चला आ रहा है। इस सदियों के संताप को देखते हुए कवि कहता है-
सदियों से
नोंचते रहे
हम वंचितों को
रात दिन काम
करने के बावजूद
देा जून की रोटी
के लिए तरसते रहे।
लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों तथा मानवीय गरिमा के लिए बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की विचारधारा का अपनाना जरूरी है। इसलिए कवि अपनी कविता ‘ बाबा साहेब भीमराव का आह्वान’ में कहता है –
बाबा साहेब भीमराव के आह्वान में
तर्क और विज्ञान
शिक्षा से बढ़ेगा मान
जान न्यौछावर करो नारी के सम्मान में
छुआछूत, जाति-भेद
बंद करो ये कुकर्म
पूरा जोर लगाओं भारत की शान में।
इसी प्रकार कवि ‘बना गए भारत का संविधान’ कविता में कहता है-
अवतरित हुए भीम महान
बना गए भारत का संविधान
सदियों से जन बेगारी करते
फिर भी उनके मालिक ने
दिए नहीं परिधान।
कवि की नजर निम्न वर्गीय किसानों पर भी गई है। उसने किसानों की दुर्दशा व्यक्त करते हुए लिखा है –
गेंहूं सरसों बिक गए
हाथ में न कुछ आया है।
इससे तो उधारी का
कर्ज चुक नहीं पाया है।
रोते विलखते रह गए
न कोई सामान
घर में आया है।
पूरे साल खटने के बाद भी
वंदा वैसा ही पाया है।…
बोरे में फसल को भर के
सस्ते दामों में खरीदकर
व्यापारियों ने लूट मचाई
पूरे साल की मेहनत के पीछे
किसान ने फिर से मुंह की खाई।
पितृसत्तात्मक समाज में बेटे बेटी में जो भेदभाव किया जाता है। उसको भी कवि ने अपनी कविता का विषय बनाया है। ‘बेटी की पढ़ाई’ कविता में कवि कहता है –
घर में
बेटे के जन्म पर
कुआं पूजन भी करवाया था
बड़ा-सा ढोल भी बजवाया था
पर
बेटी पैदा होने पर
मायूसी छा गई घर में।
कवि समसामयिक घटनाओं पर भी अपनी नजर रखता है। मणिपुर पिछले दो साल से जल रहा है। उस पर कवि ने ‘जंगल की घाटी में’ शीर्षक से कविता लिखी है –
जंगल की घाटी में
मणिपुर की माटी में
देख मही पर मचा हाहाकार है।
मारपीट की ऐसी रीत
मिट गई सारी प्रीत
देखो कितनी बेबस सरकार है।
‘श्रम की मूरत’ कविता उस समय-संदर्भ के बारे में है जब कोरोना काल के दौरान मजदूर पैदल ही अपने गांवों की ओर लौट रहे थे। नींद के मारे मजदूर रेल की पटरियों पर ही विश्राम करने लगे थे जब वे गहरी नींद में थे तभी ट्रेन आ गई थी। इस दुर्घटना में कई मजदूरों की जान चली गई थी। कवि लिखता है –
पूरी रात चला
चांदनी में
जब हुई भोर
सुस्ताने लगा बैठ पटरी पर
आ गई बैरन नींद
एक ओर
पल भर में टुकड़े-टुकड़े
बिखरे पड़े थे
चारों ओर
रोटियां, कपड़े और पैसे
गवाह बन कर
कर रहे थे शोर
शांत हुई है
श्रम की मूरत।
इसके अलावा ग्रामीण महिला की दिनचर्या पर भी कवि ‘भोर हुई है तो जागी है पहले’ शीर्षक से कविता लिखता है।
कवि इस बात पर भी चिंता व्यक्त करता है कि कारपोरेट सेक्टर के लोग आदिवासियों की जल जंगल जमीन पर कब्जा कर रहे हैं और आदिवासी भटकने को मजबूर हैं। ‘भटक रहे आदिवासी’ कविता में कवि लिखता है –
यह खेल नहीं आसान
देख लो भारतवासी
भड़वे माल खा रहे
भटक रहे आदिवासी
चला के चक्कर
देकर टक्कर
आए हैं दमनाशी
खेत, पहाड़ और जंगल के
ये हैं सर्वनाशी।
कवि आदिवासी नायक बिरसा मुंडा को अपनी एक कविता में याद करते हुए कहता हे कि जंगल, जल और मैदानों के लिए बिरसा मुंडा जैसे महानायक की फिर से आज जरूरत है।
एक ओर जहां महाराणा प्रताप और भीलों कवि ने अपनी कविताओं का विषय बनाया है वहीं मीणा युवतियों के रूप-यौवन की भी सजीव चित्रण किया है। इसे कवि की ‘पीली लुगड़ी ओढ़ कर’ कविता में देखा जा सकता है।
आदिवासी समुदाय में से कुछ लोग पढ़-लिख कर शिक्षित होकर राजनीति में चले गए। वे लोग अन्य सीधे-सादे आदिवासियों का इस्तेमाल कर अपनी राजनीति चमकाते हैं और ऐशो-आराम की जिदगी जीते हैं। उन पर कटाक्ष करते हुए कवि अपनी कविता ‘कितने बदल गए आदिवासी’ में लिखता है –
चलते कुटिल चाल पर चाल
होते रहते मालामाल
कितने बदल गए आदिवासी
राजनीति में पड़े आदिवासी।
इस संग्रह की कविताओं को भाषा-शैली की दृष्टि से देखें तो कसावट की कमी नजर आती है। आशा है कवि अपने अगले कविता संग्रह में इसका ध्यान रखेंगे।
जो पाठक आदिवासी सभ्यता-संस्कृति से परिचित नहीं हैं तथा वर्तमान के बाजारीकरण और राजनीति का जो प्रभाव आदिवासियों पर पड़ रहा है उसे जानने में रुचि रखते हैं, उन्हें यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए।
(राज वाल्मीकि अनुवादक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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