Friday, March 29, 2024

स्मृति आलेख: अंतिम उड़ान पर निकल गए ‘पाखी’ के प्रेम

                                                                                                                                                                                     त्रासद इत्तेफाक है कि जिसे रंगों, फागुन और होली से बेइंतहा लगाव रहा हो-उसका जिस्मानी अंत रंगों के पर्व होली के दिन हो गया। साहित्यकार, संपादक और पत्रकार प्रेम भारद्वाज के जाने की उम्र नहीं थी लेकिन वह (घड़ी की सुइयों के मुताबिक) 10 मार्च के पहले पहर के प्राथमिक क्षण शुरू होते ही अलविदा कह गए। लगभग एक साल पहले कैंसर जैसी नामुराद बीमारी ने घेरा लेकिन जानलेवा ब्रेन हैमरेज हुआ। 

मृत्यु एक तरह से बहुत समय से उनका दरवाजा खटखटा रही थी, परिचित-परिजन-दोस्त लगातार आशंकित, चिंतित और घबरा रहे थे कि अंततः उनके सदा के लिए चले जाने का दुखद समाचार मिला। अब वह ‘हैं’ नहीं बल्कि ‘थे’। प्रेम भारद्वाज यकीनन बहु प्रतिभाशाली संपादक, साहित्यकार और पत्रकार थे। अब उनका नाम उन युवा यशस्वी सांस्कृतिक-व्यक्तित्वों में शुमार हो गया है जिन्होंने कमोबेश युवावस्था में कुछ शानदार मिसालें कायम करके तथा अंतिम हस्ताक्षर करके, जिंदगी की आखिरी राह अख्तियार कर ली-जिसका दूसरा नाम ‘मौत’ है।                            

साहित्यिक पत्रिकाओं की दुनिया में दो दशक से नियमित मासिक पत्रिकाओं में ‘हंस’, ‘कथादेश’, ‘नया ज्ञानोदय’ और ‘वागर्थ’ का बोल बाला-दबदबा है। ‘पहल’, ‘तद्भव’, ‘अकार’, ‘परीकथा’, ‘आलोचना’, ‘आधारशिला’, ‘दोआब’, ‘बया’, ‘नया पथ’ और ‘लम्ही’ आदि पत्रिकाएं अपना विशिष्ट स्तर व स्थान रखती हैं लेकिन ये त्रैमासिक या अनियत कालीन हैं। तकरीबन डेढ़ दशक पहले अपूर्व जोशी के मार्गदर्शन एवं स्वामित्व में एक नई मासिक साहित्यिक पत्रिका ‘पाखी’ ने व्यापक हिंदी समाज का ध्यान अपनी और खींचा। 

कुंठित और निराशावादी हिंदी बुद्धिजीवियों की तरफ से पहले अंक के साथ यह सवाल भी दरपेश हुआ कि इस पत्रिका का भविष्य क्या होगा यानी इसकी जीवनयात्रा कितनी जल्दी, कितने अंकों के बाद खत्म हो जाएगी? ‘पाखी’ का विमोचन करने वाले राजेंद्र यादव तक इसे लेकर घोषित रूप से आशंकित थे। प्रेम भारद्वाज पहले ‘पाखी’ के कार्यकारी संपादक थे और फिर पूर्ण संपादक बना दिए गए। इसके बाद पत्रिका के भविष्य को लेकर की जातीं तमाम नागवार ‘भविष्यवाणियां’ और आशंकाएं खुद-ब-खुद दफन होती गईं। पत्रिका ने जड़ें जमाईं। ‘पाखी’ ने कामयाबी की जबरदस्त उड़ान भरी। 

इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि प्रेम भारद्वाज का बेहद सशक्त, धारदार और बेबाक संपादकीय पत्रिका की जान और पहचान बन गया। उन दिनों ‘हंस’ के साथ ऐसा था कि बहुतेरे लोग इसे महज राजेंद्र यादव का संपादकीय पढ़ने के लिए खरीदते थे। ‘पाखी’ की बाबत भी ऐसा हुआ कि इसे प्रेम भारद्वाज के संपादकीय के लिए विशाल पाठक समुदाय खरीदता था। बेशुमार पाठकों ने प्रेम भारद्वाज के संपादकीय लेखों की बाकायदा फाइलें बनाकर संभाल रखीं हैं। (वैसे, उनके संपादकीय लेखों का एक संग्रह प्रकाशित है और दूसरा प्रकाशनाधीन है)। 

समकालीन क्रूर यथार्थ, अमानवीय सामाजिक विसंगतियों, कत्लगाहों और यातना शिविरों में तब्दील होते जनविरोधी सियासी खेमों व साहित्यिक-सांस्कृतिक ‘बाजार’ के अंधेरों पर उनकी लेखनी जमकर प्रहार करती थी। प्रेम भारद्वाज के ‘पाखी’ में लिखे संपादकीय लेख पढ़कर अक्सर लगता था कि उनके लफ्ज़ कई बार तेजाब बन जाते हैं। फिर थोड़ा रुक कर लगता था कि इन सबके पीछे एक विवेकवान, चिंतक, अतिरिक्त संवेदनशील, जागरूक, लोकवादी बुद्धिजीवी का अपना तार्किक ‘विजन’ है जो बेहोश अथवा उपभावुकता की बजाए ‘बाहोश’ होकर काम कर रहा है। उनका यह विजन (विपरीत परिस्थितियों के बीच) ‘पाखी’ से जुदा होने के बाद भी कायम रहा।                                         

प्रेम भारद्वाज और ‘पाखी’ एक-दूसरे के लगभग पूरक रहे। ‘पाखी’ ने लगभग एक साल पहले उन्हें बेरोजगारी का दंश भी दिया। वह भावनात्मक और रचनात्मक तौर पर बेहद गहरी शिद्दत से इस पत्रिका से जुड़े हुए थे। इससे अलगाव उनका चयन हरगिज़ नहीं था बल्कि इसे उन्होंने हादसे के तौर पर लिया जो उनके लिए स्वाभाविक रूप से असहनीय  था । बेशक ‘पाखी’ के मालिक-प्रकाशक और प्रेम भारद्वाज के अभिन्न मित्र रहे अपूर्व जोशी की अपनी (आर्थिक) दुश्वारियां, मुश्किलें और कतिपय दबाव थे, जिन्होंने एक झटके में प्रेम और ‘पाखी’ का रिश्ता तोड़ दिया। प्रेम ने ‘पाखी’ को बनाया था और ‘पाखी’ ने प्रेम को। 

हालांकि इस पत्रिका को शिखर उन बेशुमार स्थापित-नवोदित लेखकों और स्तंभकारों ने भी दिया जिन्होंने अपनी बहुचर्चित एवं महत्वपूर्ण रचनाएं पहले-पहल वहां छपवाईं। अपूर्व जोशी के आर्थिक संसाधन और व्यापक संपर्क तंत्र तथा मार्गदर्शन का भी महती योगदान था। बावजूद इसके प्रेम भारद्वाज की संपादक पद से विदाई के बाद निकले ‘पाखी’ के (बदलाव लिए) अंक ने ही बखूबी बता दिया कि अब यह पत्रिका वह नहीं रह गई है जो पहले थी। जैसे डॉ. धर्मवीर भारती के बाद ‘धर्मयुग’, रघुवीर सहाय के बाद ‘दिनमान’, कमलेश्वर के बाद ‘सारिका’, मनोहर श्याम जोशी के बाद ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, सुरेंद्र प्रताप सिंह के बाद ‘रविवार’, राजेंद्र यादव के बाद ‘हंस’ में बहुत कुछ खत्म/नष्ट हो गया- ठीक ऐसे ही प्रेम भारद्वाज के बाद तथा बगैर ‘पाखी’ में। इसे उनके आलोचक भी मानते हैं।                                           

‘पाखी’ का संपादक होने के साथ-साथ प्रेम भारद्वाज इसी समूह के समाचार साप्ताहिक ‘द संडे पोस्ट’ के कार्यकारी संपादक थे। यह साप्ताहिक मूलत: उत्तराखंड में बेहद मकबूल रहा है। उत्तराखंड की पत्रकारिता में इस साप्ताहिक की निर्भीकता और तथ्यात्मक खोज परक रिपोर्टिंग ने कई बार निरंकुश सत्ता को भी थर्राया। सत्ता-माफिया-अपराधी नापाक गठजोड़ ने कई बार ‘द संडे पोस्ट’ को ध्वस्त करने की कोशिशें कीं लेकिन यह साप्ताहिक अखबार झुका नहीं। प्रेम भारद्वाज के अडिग और बेबाक पत्रकारीय तेवर यहां भी बदस्तूर पूरी प्रतिबद्धता के साथ कायम रहे। हिंदी पत्रकारिता का इतिहास भी उन्हें इसलिए सदा याद रख सकता है कि प्रेम भारद्वाज का ‘पत्रकार’ न कभी झुका और न दलाल संस्कृति के निकट से गुजरा।                                  

‘इंतजार पांचवें सपने का’ और ‘फोटो अंकल’ उनके महत्वपूर्ण कथा-संग्रह हैं। इनकी कहानियां जीवन की जटिलताओं की मुखर रचनात्मक अभिव्यक्ति हैं। अद्भुत शिल्प संरचना, हथियार जैसी भाषा और गजब का प्रवाह! इन्हें पढ़कर लगता है कि संपादन तथा पत्रकारिता की मसरूफियत न रही होती तो प्रेम भारद्वाज हिंदी कथा साहित्य के पहली कतार के कहानीकारों में निश्चित तौर पर शुमार होते। इन दिनों वह एक उपन्यास पर काम कर रहे थे। वह अधूरा रह गया। खैर, उनका बहुत कुछ वैसे भी अधूरा था। जैसे उनके ख्वाब। 25 अगस्त 1965 को बिहार के छपरा जिले में जन्म लेने वाले प्रेम भारद्वाज का 10 मार्च 2020 तक चला जीवन अजब संघर्षों की भी गाथा है। 

इनमें निजी और सांसारिक दोनों किस्म के संघर्ष हैं। बचपन, किशोरावस्था और युवावस्था में साथ-साथ चले बेइंतहा आर्थिक अभाव। जब मृत्यु ने कसकर दामन पकड़ लिया तब भी आर्थिक अभावों की चादर वह ओढ़े हुए थे। इसलिए भी कि नौकरी से अर्जित पूंजी जीवन संध्या में कैंसर व अन्य बीमारियों ने लील ली। वह भी उस आलम में जब वह पूरी तरह बेरोजगार हो गए। अलबत्ता दोस्तों का साथ जरूर रहा पर वह भी नाकाफी साबित हुआ। पत्नी की असामयिक मृत्यु ने उन्हें भीतर से तोड़ दिया था।

मां से बेइंतहा लगाव था, वह पहले ही छोड़ गईं थीं। बेऔलाद थे। सो अकेलापन कहीं न कहीं गहरे अवसाद में भी तब्दील हो गया था। जिजीविषा थी कि इस अवसाद से उन्होंने साहित्य, संपादन और पत्रकारिता में अतिरिक्त सक्रिय होकर लड़ाई लड़ी। निजी लड़ाई के इस मोर्चे पर वह आखिरी दम तक डटे रहे। ‘पाखी’ से टूटकर उन्होंने अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका ‘भवंति’ का संपादन-प्रकाशन शुरू किया। साल में दो अंक निकले। दोनों पर प्रेम-छाप थी। लगता था कि प्रेम भारद्वाज लौट रहे हैं। मृत्यु से पहले तीसरे अंक की तैयारी वह कर रहे थे।      

प्रसंगवश, जिंदगी और कुदरत के तमाम रंगों से गहरा प्रेम, रिश्ता रखने वाला तथा उनकी हिफाजत के लिए लड़ने वाला यह शख्स इन दिनों एक किताब का बहुत जिक्र किया करता था। अपनी एक संपादकीय टिप्पणी में भी उन्होंने इसे अपनी बेहद पसंदीदा किताब बताया था और दोस्तों से चर्चा में तो कहा ही करते थे। वह किताब है खालिद जावेद की ‘मौत की किताब!’

(अमरीक सिंह जनचौक के रोविंग करेस्पांडेंट हैं और आजकल जालंधर में रहते हैं।)

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