Friday, April 19, 2024

प्रो. तुलसी राम: एक अम्बेडकरवादी कम्युनिस्ट

आज प्रो. तुलसी राम के व्यक्तित्व व वैचारिकी के ढेर सारे प्रशंसक मौजूद हैं, मैं भी उन्हीं में से एक हूँ। प्रो. तुलसी राम से मेरी पहली मुलाकात गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्रे़क्षागृह में डॉ. अम्बेडकर के विचारों पर आयोजित सेमिनार में 2002 में हुई थी। इस कार्यक्रम का आयोजन तत्कालीन विद्यार्थी नेता श्रवण कुमार निराला ने विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों, शिक्षकों व गोरखपुर शहर में कार्यरत विभिन्न विभागों के अनुसूचित जाति/जनजाति के कर्मचारियों व अधिकारियों के सहयोग से किया था। इस आयोजन से पूर्व प्रो. तुलसी राम से मेरी फोन पर कई बार बात हुई थी।

उस समय हम लोग दलित कर्मचारियों व छात्रों में डॉ. अम्बेडकर के विचारों के प्रचार-प्रसार हेतु पर्चे निकालते थे व तात्कालिक तौर पर महत्त्वपूर्ण विषयों पर छोटी-छोटी विचार गोष्ठियाँ करते थे। इस क्रम में प्रो. तुलसी राम का एक लेख ‘दलित बनाम दलित’ जो राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हुआ था, का पर्चा छपवाकर व्यापक पैमाने पर वितरण किया गया था तथा उसमें उठाये गये मुद्दों पर विचार-गोष्ठी भी हुई थी। मेरी प्रो. तुलसी राम से पहली टेलीफोन से बातचीत इस पर्चे को छपवाने के दौरान हुई थी। इसके पश्चात् टेलीफोनिक बातचीत, दिल्ली जाने पर मुलाकात व उनके गोरखपुर आने पर मुलाकातों का सिलसिला चलता रहा।

इसी दौरान मुझे गोरखपुर विश्वविद्यालय से शोध कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ तो मैंने ‘समकालीन दलित चिन्तकों’ के विचारों पर शोध करने का मन बनाया और इस सम्बन्ध में प्रो. तुलसी राम से भी चर्चा किया। प्रो. तुलसी राम बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने इस कार्य में हर प्रकार के सहयोग का आश्वासन दिया। कहना न होगा कि मेरे शोध कार्य में उनका सहयोग व मार्गदर्शन अविस्मरणीय रहा है।

प्रो. तुलसी राम का व्यक्तित्व बहुत ही सहज एवं सरल था। व्यस्तताओं व प्रतिकूल स्वास्थ्य के बावजूद वे बड़े प्रेम से टेलीफोन पर बात करते थे और जेएनयू या घर जाने पर बड़ी आत्मीयता से मिलते थे। उनके अन्दर समानता का भाव कूट-कूटकर भरा थ। मैं उनसे उम्र में बहुत छोटा था तथा उस समय शोध कार्य कर रहा था फिर भी जेएनयू जाने पर वे अपने सहकर्मियों से मेरा परिचय अपने मित्र के रूप में कराते थे। समयानुसार नाश्ता व चाय का इन्तजाम भी बड़ी आत्मीयता से करते थे। यह उनके वृहद व्यक्तित्व का द्योतक था। प्रतिकूल स्वास्थ्य के बावजूद भी दलित मुद्दों पर आयोजित कार्यक्रमों में सम्मिलित होने के लिए सहर्ष तैयार हो जाते थे। ऐसा लगता था कि वे बुद्ध और अम्बेडकर के विचारों को प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाने के लिए लालायित हैं। इसलिए वे ऐसा कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे, चाहे स्वास्थ्य कितना भी प्रतिकूल क्यों न हो।

‘निर्भीकता’ उनके व्यक्तित्व का एक और प्रमुख गुण था। वे अपने विचारों को बड़े ही निर्भीकतापूर्वक रखते थे। लेख हो, सेमिनार हो या किसी भी तरह का आयोजन हो, वे अपने विचारों को बड़े ही तार्किक व वैज्ञानिक ढंग से रखते थे। तथ्यों का प्रयोग भी जाँच परख कर करते थे। निर्भीकता किसी भी बुद्धिजीवी का आवश्यक गुण होता है। इस आधार पर वे एक सच्चे बुद्धिजीवी थे। वे दलित आन्दोलन से निकली बसपा द्वारा बहुजन महापुरुषों के नाम पर बनवाये गये स्मारकों की तारीफ भी करते थे लेकिन ‘बहुजन से सर्वजन’ या ‘हाथी नहीं गणेश’ जैसे नारों की आलोचना भी करते थे। उनकी आलोचना की तलवार सपा, कांग्रेस, भाजपा और कम्युनिस्ट सभी राजनीतिक दलों के क्रियाकलापों पर बगैर किसी भेदभाव के, मुद्दों व विचारों के आधार पर चलती रहती थी। वे सत्ता प्रतिष्ठानों का पिछलग्गू बनना तो दूर, तनिक लगाव भी नहीं रखते थे। उनकी प्रतिबद्धता केवल विचारों तक थी।

धन, पद व प्रतिष्ठा की लिप्सा से प्रो. तुलसी राम कोसों दूर थे। उनके मन में लालच का भाव था ही नहीं। बातचीत से पता चलता था कि वे कई बार विश्वविद्यालयों के कुलपति, यू.जी.सी. के चेयरमैन या तमाम अकादमिक संस्थाओं के प्रमुख पद का प्रस्ताव ठुकरा चुके थे। ऐसा लगता है कि वे कबीर के दर्शन को अपना जीवन आदर्श मानते थे, जिसमें कहा गया है कि ‘‘साईं इतना दीजिए जामें कुटुम्ब समाय, मैं भी भूखा ना रहू साधु न भूखा जाय।’’ वे कई समाजसेवी संस्थाओं को नियमित आर्थिक मदद भी करते थे। इनका व्यक्तित्व करुणा, मैत्री व भाईचारा का अनूठा संगम था।

प्रो. तुलसी राम को पुस्तकों से बड़ा लगाव था। इनका निजी पुस्तकालय बहुत ही समृद्ध था। इनके पुस्तकालय में धर्म, राजनीति, साहित्य से लेकर विविध विधाओं की पुस्तकें थीं। वे गम्भीर अध्येता थे। लेखन व भाषणों में दिए गये सन्दर्भों से प्रो. तुलसी राम के ज्ञान का विस्तार व गहराई का अन्दाजा लगाया जा सकता है। उनके द्वारा दिए गये सन्दर्भों में बौद्ध साहित्य, वेदों, उपनिषदों, स्मृतियों, जैन धर्म के साहित्य, डॉ. अम्बेडकर के ग्रन्थों के साथ तमाम विदेशी लेखकों के साहित्यों की भरमार देखने को मिलती है। इनकी भाषा में विद्वता व सहजता का अनूठा मिश्रण दिखाई पड़ता है। डॉ. अम्बेडकर के पश्चात दलित समाज में पैदा होने वाले एक गम्भीर अध्येता, जिसका सामाजिक सरोकार भी उतना ही गहरा हो, की खोज की जाय तो सम्भवतः प्रो. तुलसी राम का नाम ही उभरकर सामने आयेगा। इनके लेखन में निर्भीकता, वैज्ञानिकता, तर्कशीलता, सामाजिक प्रतिबद्धता आदि तत्त्व विद्यमान हैं।

प्रो. तुलसी राम की वैचारिक यात्रा मार्क्सवाद के अध्ययन से प्रारम्भ हुई थी। इन्होंने अम्बेडकर के विचारों और बौद्ध साहित्य का भी गहरा अध्ययन किया। इन्होंने बुद्ध की दृष्टि से मानवीय दुःखों को समझा। पूँजीवादी शोषण के अमानवीय चेहरे का परिचय इनको मार्क्सवाद ने कराया। डॉ. अम्बेडकर के विचारों के अध्ययन से ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के घिनौने चरित्र का उत्स उजागर हुआ जिसके कारण भारत के दलित, आदिवासी, अन्य पिछड़े वर्ग सहित करोड़ों महिलायें भी अमानवीय जीवन जीने को मजबूर थीं। इस प्रकार प्रो. तुलसी राम के विचारों पर बुद्ध, मार्क्स तथा अम्बेडकर का गहरा प्रभाव है।

इनके अलावा वे महात्मा फुले, पेरियार ई.वी. रामास्वामी नायकर के विचारों व आन्दोलन से भी प्रभावित थे। प्रो. तुलसी राम एक उच्च कोटि के अध्येता के साथ-साथ कार्यकर्ता भी थे। इनका सामाजिक जीवन मार्क्सवादी आन्दोलन के कार्यकर्ता के रूप में प्रारम्भ हुआ था जो कालान्तर में दलित आन्दोलन की तरफ झुकता गया। बौद्ध दर्शन के अध्ययन ने इनके व्यक्तित्व व विचारों को इतना समृद्ध कर दिया कि वे सामाजिक परिवर्तन की सभी धारा के कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों के लिए समान रूप से मार्गदर्शक के रूप में स्थापित हो गये।

प्रो. तुलसी राम को हिन्दी पट्टी में उनकी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ व ‘मणिकर्णिका’ के प्रकाशित होने के पश्चात ज्यादा शोहरत मिली। आत्मकथा के प्रकाशन के पूर्व वे एक राजनीतिक-सामाजिक चिन्तक के रूप में स्थापित हो चुके थे। हालाँकि उनके सामाजिक-राजनीतिक चिन्तन की कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है लेकिन इन विषयों पर इनके लेख राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होते रहे हैं। अकादमिक सेमिनारों, गोष्ठियों व सामाजिक कार्यक्रमों में वे अपने विचार व्यक्त करते रहे हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे इनके लेखों में भारत की वर्णव्यवस्था-विरोधी चिन्तन परम्परा की झलक मिलती है।

प्रो. तुलसी राम उन चिन्तकों में से हैं जो स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व व न्याय जैसे मानवीय मूल्यों पर आधारित समाज बनाना चाहते हैं। इस रूप में प्रो. तुलसी राम डॉ. अम्बेडकर के चिन्तन को आगे बढ़ाते हैं। प्रो. तुलसी राम मानते हैं कि भारत की सबसे बड़ी समस्या वर्ण-व्यवस्था व हिन्दू धर्म की वैचारिकी है। वर्ण-व्यवस्था के कारण न केवल दलितों को, बल्कि शूद्रों और महिलाओं को भी अपमान एवं क्रूरता का दंश झेलना पड़ा। दलितों को अमानवीय परिस्थिति में जीवन-यापन करने को बाध्य होना पड़ा। ज्ञान, सम्पत्ति तथा शस्त्र से विहीन होना पड़ा। वर्ण-व्यवस्था के आदर्शों का प्रभाव भारतीय जनमानस में इतना व्याप्त है कि गैर दलित आज भी दलितों को मनुष्य मानने को तैयार नहीं हैं।

महिलाओं को भी भारतीय समाज पुरुषों के समान मानने को तैयार नहीं है क्योंकि वर्ण-व्यवस्था में महिलायें शूद्र वर्ण में रखी गयी हैं। वर्ण-व्यवस्था का सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि भारत एक देश के रूप में सदैव कमजोर बना रहा जिसके कारण सदियों तक विदेशियों ने इसे पराधीन बनाकर रखा। प्रो. तुलसीराम वर्ण-व्यवस्था की तुलना साम्राज्यवाद से करते हैं। जिस प्रकार साम्राज्यवादी देश अपने से कमजोर देश का शोषण-उत्पीड़न करता है उसी प्रकार वर्ण-व्यवस्थावादी समाज अपने से कमजोर समाज का शोषण-उत्पीड़न करता है। उनके शब्दों में ‘‘वर्ण-व्यवस्था सदियों से चली आ रही एक आन्तरिक सवर्ण उपनिवेशवाद है, जो दलितों के शोषण पर कायम है।

इससे खतरनाक फासिस्ट व्यवस्था कभी कहीं और स्थापित नहीं हुई। ऐसा सिर्फ भारत में है। …साम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद सिर्फ विदेशी ही नहीं होता, यह आन्तरिक भी होता है, अन्यथा अनेक देशों में आज भी अपने ही शासकों के विरुद्ध लोग क्यों लड़ते ? बुरा व्यवहार सिर्फ विदेशी ही नहीं करता है। भारत के दलितों के साथ जिस तरह का व्यवहार यहाँ के सवर्ण करते हैं वैसा व्यवहार करने के लिए कभी किसी विदेशी की जरूरत नहीं पड़ी।’’

प्रो. तुलसी राम के अनुसार वर्ण-व्यवस्था न केवल भारत में फैले अन्धविश्वास, सामाजिक  भेदभाव के लिए उत्तरदायी है, बल्कि दलितों एवं पिछड़ों की आर्थिक विपन्नता के लिए भी उत्तरदायी है। प्राचीन काल में वर्ण-व्यवस्था के सिद्धान्तों के आधार पर ही शूद्रों तथा अस्पृश्यों को ज्ञान, सम्पत्ति तथा शस्त्र से वंचित रखा गया था। मनुस्मृति जैसे धर्मग्रन्थों में यह प्रावधान किया गया कि शूद्र और अस्पृश्य सम्पत्ति नहीं रख सकते यदि वे सम्पत्ति रखने का प्रयास करते हैं तो उनकी सम्पत्ति राजा द्वारा छीन ली जायेगी। भारत में पूँजीवाद की स्थापना भी वर्ण-व्यवस्था द्वारा डाली गयी नींव पर ही की गयी।

यह पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था भी वर्ण-व्यवस्था के सिद्धान्तों पर ही चलायी जा रही है। प्रो. तुलसी राम के शब्दों में, ‘‘हमारे देश का पूँजीवाद, वर्ण-व्यवस्था की ही देन है। वर्ण-व्यवस्था ने ही यहाँ बनिया वर्ग को पैदा किया तथा ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों को समस्त धन सम्पदा का ईश्वरीय स्वामी घोषित किया। सर्वोपरि वर्ण-व्यवस्था ने ही दलितों को हमेशा के लिए धन से वंचित करने का समस्त धर्मग्रन्थों में ‘ईश्वरीय प्रावधान’ प्रस्तुत किया। अतः धर्म ने भारत में सिर्फ तैंतीस करोड़ देवताओं को ही नहीं पैदा किया, बल्कि पूँजीवाद, गरीबी, अशिक्षा एवं बेरोजगारी को भी पैदा किया। वर्ण-व्यवस्था सदियों से निरन्तर जारी रहने वाला दलित विरोधी गृह ‘युद्ध’ है।’’ यूरोप की तरह भारत में पूँजीवाद, सामन्तवाद से संघर्ष करके स्थापित नहीं हुआ बल्कि भारत में पूँजीवाद की स्थापना में सामन्तवाद सहायक की भूमिका में था। जिसे प्रो. तुलसी राम रेखांकित करते रहे हैं।

आज भी भारत में सस्ते श्रम की उपलब्धता का मुख्य कारण वर्ण-व्यवस्था ही है। अत्यधिक कम मजदूरी पर सफाई कर्मी यदि भारत में उपलब्ध हैं तो इसका एक मात्र कारण वर्ण-व्यवस्था ही है। आज भी सरकारी या निजी संस्थायें सबसे कम मजदूरी सफाईकर्मियों को ही देती है। वर्ण-व्यवस्था श्रम के शोषण की घिनौनी व्यवस्था है। भारत में पूँजीवाद ने वर्ण-व्यवस्था के शोषक चरित्र को भी अपना लिया है। इसीलिए प्रो. तुलसी राम, डॉ. अम्बेडकर की तरह ही पूँजीवाद व ब्राह्मणवाद दोनों के विरुद्ध संघर्ष की आवश्यकता पर बल देते हैं। 

प्रो. तुलसी राम मार्क्सवादी आन्दोलन पर आरोप लगाते हैं कि इसने पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष तो चलाया लेकिन भारतीय सामन्तवाद जिसे ब्राह्मणवाद के रूप में चिन्हित किया जाना चाहिए, के विरुद्ध संघर्ष नहीं छेड़ा। यह मार्क्सवाद की वैचारिक नासमझी थी। मार्क्सवादियों ने एक तरफ तो वर्ण-व्यवस्था विरोधी आन्दोलन भी नहीं चलाया, दूसरे, वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध निरन्तर संघर्ष करने वाले दलित आन्दोलन का समर्थन करना तो दूर, कटु आलोचना भी किया। प्रो. तुलसी राम के शब्दों में, ‘‘भारत में दलित समाज वैदिक कर्मकाण्डी ब्राह्मणों द्वारा निर्मित वर्ण-व्यवस्था की उपज है। अतः बिना वर्ण-व्यवस्था विरोध के दलित मुक्ति की बात करना, वर्ण-व्यवस्था का वंशानुगत समर्थन करना है।

भारत में कम्युनिस्टों के किसी भी दस्तावेज में वर्ण-व्यवस्था का विरोध उल्लिखित नहीं है। यदि कुछ है, तो इक्के-दुक्के प्रस्तावों में खानापूर्ति के लिए मात्र छूआछूत का उल्लेख मिलता है। इसके विपरीत वर्ण-व्यवस्था का समूल नष्ट करने का अभियान चलाने वाले तथा सही मायने में दलित मुक्ति का सूत्रपात करने वाले बाबासाहेब अम्बेडकर के विरुद्ध उन्हें देशद्रोही, गद्दार तथा साम्राज्यवादी एजेण्ट आदि जैसे आरोप विभिन्न कम्युनिस्ट दस्तावेजों में अवश्य मिलते हैं।’’ इसीलिए वर्ण-व्यवस्थावादी निरन्तर शक्तिशाली होते गये और कम्युनिस्ट पार्टियाँ गैर कांग्रेसवाद के नाम पर फासिस्ट शक्तियों का हाथ मजबूत करती रही हैं।

प्रो. तुलसी राम भारतीय जनता पार्टी को वर्ण व्यवस्था समर्थक पार्टी मानते हैं। उनके अनुसार ‘हिन्दुत्व’ तथा ‘राष्ट्रवाद’ वर्ण-व्यवस्था के नये नाम हैं। वर्ण-व्यवस्था हिन्दू धर्म की कण्ठनली है। अतः जिस दिन वर्ण व्यवस्था समाप्त हो जायेगी उस दिन यह धर्म भी अपना अस्तित्व खो बैठेगा। यही कारण है कि हिन्दू दार्शनिक तथा प्रचारक वर्ण-व्यवस्था को ईश्वर की देन कहकर इसे हमेशा अन्धविश्वास का रूप देते रहे हैं। भाजपा वर्ण-व्यवस्था समर्थक पार्टी है। भाजपा जब भी और जहाँ भी सत्ता में आती है, वह सबसे पहले वर्ण-व्यवस्था के संस्थानिक स्तम्भों को धर्म तथा संस्कृति के कंकड़-पत्थर से मजबूत करने में व्यस्त हो जाती है, जिसके लिए उसकी सरकारें सबसे पहले स्कूली पाठ्यक्रमों में मिथकों तथा अन्धविश्वासों पर आधारित इतिहास भंजक पाठों को थोप देती हैं। जैसे गुजरात के नवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में भाजपा के मिथकबाजों ने लिखा है,  ‘‘वर्ण-व्यवस्था, आर्यों द्वारा विश्व मानव समाज को दिया गया सबसे बड़ा उपहार है।’’

‘‘प्रो. तुलसी राम की दृष्टि में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में चलाये गये सामाजिक आन्दोलन एवं उनसे निकले विभिन्न राजनीतिक दल भी वर्ण-व्यवस्था को मजबूत करने का ही कार्य करते हैं। उनके अनुसार लोहियावादी संघ परिवार के निरन्तर सहयोगी रहे हैं। यूरोपीय सोशलिस्टों ने जिस तरह कम्युनिस्ट विरोध के नाम पर फासिस्टों को सहयोग दिया, वैसे ही लोहियावादी सोशलिस्टों ने कांग्रेस विरोध के नाम पर हमेशा हिन्दू फासिस्टों का साथ दिया है।

आज के लोहियावादी समाजवादी नेता संघ के निराकार गुलाम हैं।’’ पिछले  मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी द्वारा दलितों को प्रमोशन में दिये गये आरक्षण का विरोध करना, लोक सभा में समाजवादी पार्टी के दलित सांसद द्वारा प्रमोशन में आरक्षण विधेयक फाड़ देना, डॉ. अम्बेडकर, सन्त रविदास, महात्मा फुले आदि वर्ण-व्यवस्था विरोधी महापुरुषों के नाम पर स्थापित जिलों व संस्थाओं का नाम बदलने जैसे कार्य, लोहियावादी आन्दोलन की दिशा पर प्रो. तुलसी राम के निष्कर्षों की पुष्टि करते हैं। मुलायम सिंह को ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रतिनिधि किंग जार्ज पसन्द हैं लेकिन पिछड़ों के लिए शासन-प्रशासन में आरक्षण के जनक छत्रपति शाहूजी महाराज पसन्द नहीं हैं। प्रो. तुलसी राम मानते हैं कि अन्य राजनीतिक दल जो अपने को प्रगतिशील एवं पन्थ निरपेक्ष मानते हैं वे भी अपनी अज्ञानता एवं नासमझी के कारण या तो यथास्थितिवादी हैं, या जाने-अनजाने में वर्ण-व्यवस्था को ही मजबूत करने का कार्य कर रहे हैं।

प्रो. तुलसी राम वर्ण व्यवस्था व हिन्दू धर्म की वैचारिकी को स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व व न्याय पर आधारित समाज निर्माण में प्रमुख बाधा मानते हैं। वे ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद दोनों के विरुद्ध संघर्ष चलाने का आह्वान करते हैं। वे बुद्धवाद, मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के उद्देश्यों में साम्यता देखते हैं। हालाँकि तीनों महापुरुषों के मार्ग को लेकर बहस की आवश्यकता है। लेकिन इतना तो तय है कि बेहतर समाज का निर्माण का मार्ग इन्हीं महापुरुषों के चिन्तन से निकलेगा जिसमें प्रो. तुलसी राम के विपुल साहित्य की भूमिका अहम होगी।

(डॉ. अलख निरंजन गोरखपुर विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग से पी-एचडी हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन करते हैं। इनकी दो महत्वपूर्ण किताबें- ‘नई राह के खोज में समकालीन दलित चिंतक’ और ‘समकालीन भारत में दलित: विरासत, विमर्श विद्रोह’ प्रकाशित हैं।) 

जनचौक से जुड़े

1 COMMENT

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Mahendra
Mahendra
Guest
9 months ago

#पितृसत्तात्मक की एक बानगी…!!
ज्योति मौर्या ने कदम उठाया तो गलत हो गया, यहां तुलसीराम ने किया तब कोई चिल पों नही…
पढ़िए एक बार
यह राधादेवी हैं। साकिन ग्राम-धर्मपुर, पोस्ट-दौलताबाद जिला आज़मगढ़ (उ.प्र.)। हिंदी के मूर्धन्य लेखक ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ जैसी प्रसिद्ध आत्मकथाओं के रचनाकार, प्रोफेसर डॉ. तुलसीराम जी की पहली पत्नी। प्रोफ़ेसर तुलसीरामजी से इनका बाल विवाह 2 साल की उम्र में हो गया था। 10-12 साल की उम्र में जब कुछ समझ आई तो इनका गौना हुआ। उस समय तक तुलसीराम जी मिडिल पास कर चुके थे। घर में विवाद हुआ कि तुलसी पढ़ाई छोड़ हल की मूठ थामें। पढ़ने में होशियार तुलसीराम को यह नागवार गुजरा और उन्होंने इस सम्बंध में अपनी नई-नवेली पत्नी राधादेवी से गुहार लगाई कि वह अपने पिता से मदद दिलायें, जिससे उनकी आगे की पढ़ाई पूरी हो सकें। राधादेवी ने अपने नैहर जाकर यह बात अपने पिता से कही और अपने पिता से तुलसीरामजी को सौ रुपये दिलवाए। इस प्रकार पत्नी के सहयोग से निर्धन और असहाय तुलसीराम की आगे की पढ़ाई चल निकली।
…पति आगे चलकर अपने पैरों पर खड़ा हो जाएगा, उन्हें सुख-दुःख में देगा युवा राधादेवी ने अपने सारे खाँची भर गहने भी उतारकर तुलसीराम को दे दिए, जिनसे आगे चलकर तुलसीरामजी का बनारस विश्वविद्यालय में एडमिशन हो गया। पिता और 5 भाइयों की दुलारी राधादेवी के पति का भविष्य उज्ज्वल हो, इस हेतु राधादेवीजी के मायके से प्रत्येक माह नियमित राशन-पानी भी तुलसीरामजी के लिए भेजा जाने लगा। ससुराल में सास-ससुर देवर-जेठ और ननद-जेठानियों की भली-बुरी सुनती सहती अशक्षित और भोली राधादेवी, संघर्षों के बीच पति की पढ़ाई के साथ-साथ अपने भविष्य के भी सुंदर सपने बुनने लगीं थीं।
उधर शहर और अभिजात्य वर्ग की संगत में आये पति का मन धीरे-धीरे राधादेवी से हटने लगा। गरीबी में गरीबों के सहारे पढ़-लिखकर आगे बढ़ने वाले तुलसीराम को अब अपना घर और पत्नी सब ज़ाहिल नज़र आने लगे। शहर की हवा खाये तुलसीराम का मन अंततः राधादेवीजी से हट गया। बीएचयू के बाद उच्चशिक्षा हेतु तुलसीरामजी ने जेएनयू दिल्ली की राह पकड़ ली, जहाँ वह देश की उस ख्यातिलब्ध यूनिवर्सिटी में पढ़ाई और शोध उपरांत, प्रोफ़ेसर बने और समृद्धि के शिखर तक जा पहुँचे। प्रोफ़ेसर बनने के उपरांत तुलसीरामजी ने राधादेवी को बिना तलाक दिए अपने से उच्चजाति की शिक्षित युवती से विवाह कर लिया और फिर मुड़कर कभी अपने गाँव और राधादेवी की ओर नहीं देखा!!!
राधादेवी आज भी उसी राह पर खड़ी हैं, जिस राह पर प्रोफ़ेसर तुलसीराम उन्हें छोड़कर गए थे। जिस व्यक्ति को अपना सर्वस्व लुटा दिया उसी ने छल किया, इस अविश्वास के चलते परिवार-समाज में पुनर्विवाह का प्रचलन होने पर भी राधादेवी ने दूसरा विवाह नहीं किया। भाई अत्यंत गरीब हैं। सास-ससुर रहे नहीं। देवर-जेठ उन्हें ससुराल में टिकने नहीं देते कि ज़मीन का एकाध पैतृक टुकड़ा जो तुलसीरामजी के हिस्से का है, बंटा न ले इसलिए वे उन्हें वहाँ से वे दुत्कार देते हैं।
…कुछ साल पहले जब तुलसीरामजी का निधन हुआ तो उनके देवर-जेठ अंतिम संस्कार में दिल्ली जाकर शामिल हुए, पर राधादेवी को उन्होंने भनक तक न लगने दी! बहुत बाद में उन्हें बताया गया तो वे अहवातिन से विधवा के रूप में आ गईं, उनके शोक में महीनों बीमार रहीं देह की खेह कर ली किसी ससुराली ने एक गिलास पानी तक न दिया!! बेघरबार राधादेवी आज ससुराल और मायके के बीच झूलतीं दाने-दाने को मोहताज़ हैं!!!
✍️:- Rohit Ramwapuri Nikhil ji

Latest Updates

Latest

स्मृति शेष : जन कलाकार बलराज साहनी

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक...

Related Articles

स्मृति शेष : जन कलाकार बलराज साहनी

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक...