Saturday, April 20, 2024

तरक्की पसंद तहरीक का ब्लू प्रिंट है सज्जाद जहीर का उपन्यास ‘लंदन की एक रात’

‘‘इंसानी ज़िंदगी का दायरा सिर्फ इश्क और मुहब्बत तक महदूद नहीं। क्या इसके अलावा और बहुत से मसाइल और बहुत सी दिलचस्प और गैर दिलचस्प चीजें नहीं हैं, जिनसे हम बावस्ता हैं? इन चीजों को छोड़कर हम खला-ए-महज में रहकर इश्क नहीं कर सकते।’’ ‘लंदन की एक रात’ में उपन्यास के हीरो हीरेन के अपनी मेहबूबा शीला ग्रीन से उपन्यास के इख़्तिताम में कहे गए यह जज्बात केवल हीरेन के ही नहीं, बल्कि इंसानी जिंदगी से मुतआल्लिक सज्जाद ज़हीर के हैं, जिसकी बिना पर वह ताज़िंदगी चले।

बहरहाल जब ज़िंदगी की यह समझ बनी, तो वह एक बड़े मक़सद को सरअंजाम देने के लिए बरतानिया से हिंदुस्तान वापिस आ गए। लंदन में अपने चंद तरक्क़ीपसंद दोस्तों के साथ अंजुमन तरक्कीपसंद मुसन्निफीन की जो उन्होंने दागबेल डाली थी, वह हिंदुस्तान में फैलकर एक बड़ी तहरीक बन गई। जिसका बिलआखिर मकसद मुल्क की आजादी और जम्हूरियत की बहाली था। ‘न्यू कॉलेज ऑक्सफोर्ड’ में अपनी पढ़ाई के दौरान अंग्रेजों की हिकारत के शिकार रहे, सज्जाद ज़हीर ने एक मजबूत इरादे के साथ लंदन छोड़ा था, जिसका कि जिक्र ‘लंदन की एक रात’ के क्लाईमेक्स में भी मिलता है। उपन्यास के हीरो हीरेन का किरदार यदि देखा जाए, तो यह उनकी ज़ाती ज़िंदगी से बहुत हद तक मेल खाता है। दरअसल ‘लंदन की एक रात’ के कई किरदार हकीकतनिगारी के चलते सच्चाई के बेहद करीब लगते हैं। यथार्थ की बेबाक अक्काशी से उपन्यास की जो जमीन तैयार हुई है, वह वाकई काबिले तारीफ है। तिस पर काबिले गौर बात है कि यह सज्जाद ज़हीर का पहला और आखिरी उपन्यास था। बावजूद इसके इसकी समग्र प्रभावशीलता इसे हर दौर में नये मायने देगी। उपन्यास की यही प्रासंगिकता इसे क्लासिकी के दर्जे में रखती है।

उपन्यास लिखने के परमंजर में यदि जाएं, तो सज्जाद ज़हीर ने जब यह उपन्यास लिखा तो लेखन के तजुर्बे के नाम पर उनके पास साल 1932 में कहानी संग्रह ‘अंगारे’ में शाया हुए कुल जमा तीन अफसाने और एकांकी ‘बीमार’ था।

‘लंदन की एक रात’ लिखने के बारे में सज्जाद ज़हीर ‘रोशनाई’ में लिखते हैं, ‘‘भला चंद कहानियां और एक नाटक लिखना एक बात और लेखक बनना दूसरी बात थी। ‘अंगारे’ की मकबूलियत लंदन के हिंदुस्तानियों तक पहुंच चुकी थी। मुझे इसकी तो खुशी थी कि साहित्य क्षेत्र में मेरे प्रारंभिक प्रयत्नों ने पूर्ववर्तियों की दाढ़ियां झुलसा दी थीं। इससे भी बड़ा इत्मिनान था कि अब्दुल हक़ ने उर्दू में इन अफसानों को अच्छा कहा था, लेकिन अपनी साहित्यिक योग्यता के बारे में मुझे किसी प्रकार का भ्रम नहीं था। इस साहित्यिक हलचल में अपनी आत्मा की निष्ठा को बचाने के लिए मैंने ‘लंदन की एक रात’ शुरू किया।’’

बहरहाल अपने दिल की आवाज़ और मुआशरे के प्रति उनकी बेलाग निष्ठा ने ‘लंदन की एक रात’ को जन्म दिया। एक लिहाज से देखें, तो ‘लंदन की एक रात’ में सज्जाद ज़हीर ने अपनी आने वाली जिंदगी का एक ऐसा ब्लू प्रिन्ट तैयार किया था, जिसे सरअंजाम उन्होंने हिंदुस्तान वापसी पर दिया।

अपने उपन्यास में लंदन में रह रहे हिंदुस्तानी तालिबे-इल्मों के मार्फत सज्जाद ज़हीर ने जज्बात का जो इज़हार किया है, वह उनकी सोच को जाहिर करता है। वे उपन्यास में ‘राव’, ‘एहसान’, ‘हीरेन’ की शक्ल में बार-बार पाठकों से मुखातिब होते हैं। किरदारों के मन्तिक (तर्क) हमें सोचने को मजबूर करते हैं। उपन्यास में राव और आजम के बीच बातचीत के दौरान राव जिस तरह से हिंदुस्तान की लीडरशिप पर तंज करता है वह काबिलेगौर और मआनीखेज भी जान पड़ता है। ‘‘वतन की भलाई के लिए कोशां हैं! जरा मुझे बताइये तो सही, कौन? किसी को यह तक तो मालूम नहीं कि वतन की भलाई है किस चिड़िया का नाम। उसके लिए कोशां होना, तो दरकिनार। जनाना बनकर चर्खा कातने में वतन की भलाई है या महात्मा गांधी की तरह सच की खोज करने में वतन की भलाई है? या सोशल रिफॉर्म और अछूत कॉफ्रेंस में हिस्सा लेने में वतन की भलाई है? सरकारी मुलाजमत में वतन की भलाई है? या हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग में काम करने में वतन की भलाई है? हर शख्स के पास वतन की भलाई का एक नुस्खा है। हर शख्स मालूम होता है, वतन की भलाई के लिए कोशां है! हर शख्स पुकार-पुकार कर कहता है कि वतन की भलाई के लिए काम कर रहा है। हद हो गई इनकी देखा-देखी अंग्रेजी गवर्मेंट तक कहने लगी कि वह भी हिंदुस्तान की भलाई चाहती है! और मुल्क की हालत क्या है? एक तरफ तो गुरबत और भूख का साया मुल्क पर फैलता जा रहा है, दूसरी तरह जुल्मो जब्र का जाल चारों तरफ से हमको जकड़ता जा रहा है। क्या अच्छे हमारे भलाई करने वाले हैं।’’ राव का यह संवाद दर्शाता है कि सज्जाद ज़हीर हिंदुस्तान में चल रही उस समय की सियासी हलचल से पूरी तरह वाकिफ भी थे और वाबस्ता भी।

मुल्क की बेहतरी के लिए मुख्तलिफ विचारधारा वाले सियासतदानों ने जो रास्ते अख्तियार किए थे, वे किसी से भी पूरी तरह से मुतमइन नहीं थे। वहीं हिन्दुस्तान की आजादी के लिए अपनाए जा रहे तौर-तरीकों से भी वे नाखुश थे।

सज्जाद जहीर।

उपन्यास में हालात से मजबूर हो समझौता कर लेने की राव की खीज और अहसान के बागियाना अंदाज के तेवर कई जगह पर एक नई जंग के आगाज़ को आवाज़ देते हैं। अहसान और हीरेन सज्जाद ज़हीर के तसव्वुर के नायक हैं। अहसान के राव और करीमा बेगम के साथ जिरह करते हुए मन्तिक (तर्क) उस दौर के हालात पर जबरदस्त चोट करते हैं। अहसान के जेहन में एक ऐसे निजाम का तसव्वुर है, जिसमें मजदूरों, दलितों, औरतों, पिछड़ों को भी उनके हक, इंसाफ और हुकूक मिलें। जाहिरा तौर पर उपन्यास में अहसान की बातें इश्तिराकियत (साम्यवाद) की ओर इशारा करती हैं। जो कि बिलागरज उस वक़्त के हालात और मौजूदा दौर में भी बेहद जरूरी जान पड़ती हैं।

‘‘ये तब्दीली, ये समझ यकबारगी किसी में पैदा नहीं होती, बल्कि वर्षां की दिमागी और जिस्मानी मशक्कत का नतीजा होती है। मजदूर की समझ में तो ये बात आसानी से आ जाती है कि उसकी मेहनत का फल उसको मिलना चाहिए, मगर अमीर आदमी की समझ में इस बात का आना बहुत मुश्किल है। इस वजह से नहीं कि ये कोइ बड़ी पेचीदा बात है, बल्कि इस वजह से कि इसमें उसका नुकसान है, लेकिन इस गिरोह के वो इक्के-दुक्के लोग जो मेहनत और मजदूरी करने वालों के इंकलाबी नज़रिए को कुबूल करके उस पर अमल करने के लिए भी आमादा होते हैं, ज्यादातर तलिबे-इल्मों ही के तबके में से निकलते हैं। क्या ये बहुत बड़ी गलती न होगी, अगर हम इस बात की कोशिश भी न करें कि हम उन तलिबे-इल्मों को जो हमारे नये ख्यालात को कुबूल करने की सलाहियत रखते हैं, वो जिनके दिल मुर्दा नहीं हो चुके हैं और जिनके दिमाग मुअत्तल नहीं है और जिनके जिस्म काम करने से नहीं भागते, हम उनको उस रास्ते की तरफ लाने में मदद दें, जिधर जिंदगी की रोशनी है, जिधर तकलीफ और मुसीबत, मुश्किल तो जरूर है लेकिन मौत का घटाटोप अंधेरा नहीं, जिधर हर बेहूदा बेहिसी का नाम खुशी नहीं बल्कि जिधर मसर्रत का एक नया अहसास है, कुदरत की अंधी ताकतों को जेर करने की मसर्रत, इंसानों को बेशऊरी, बद-नज़्मी और खुदगर्जी की बरबरियत से निकालकर एक मुनज्जम, मुहज्जब और मुतमद्दिन दुनिया बनाने की मसर्रत, काम की मसर्रत, मेहनत और मशक्कत की मसर्रत।’’

सज्जाद ज़हीर को मजदूरों, नौजवान तालिबेइल्मों में ही उम्मीद की लौ दिखती है। उनका मानना था कि दुनिया का कोई भी बड़ा बदलाब नौजवानों की हिस्सेदारी के बिना मुमकिन नहीं।

‘लंदन की एक रात’ में मुख्य किरदार हीरेन का दाखिला उपन्यास के आखिर में होता है। आखिरी सफों पर जिस तरह उस किरदार और उसके जज्बात, ख्यालों की अक्काशी सज्जाद ज़हीर ने की है, वह पाठकों पर पुरजोर असर करती है। हीरेन की मेहबूबा शीला ग्रीन, नईम को जब अपने माज़ी और ज़ाती ज़िंदगी में दाखिला देते हुए हीरेन और अपनी कहानी सुनाती है, तब उपन्यास की असल कहानी खुलती चली जाती है। सज्जाद ज़हीर ने इसके लिए फ्लैश बैक का सहारा लिया है। उपन्यास में यह फ्लैश बैक कहीं भी शिथिल या बोझिल नहीं लगता, बल्कि हीरेन के आते ही पाठकों की उपन्यास में जो बेताबी बरकरार थी, वह अपने अंजाम को पहुंच जाती है।

पाठक हीरेन पाल और शीला ग्रीन की कहानी से पूरी तरह जुड़ जाते हैं। शैली के नजरिये से देखा जाए, तो यहां सज्जाद ज़हीर बिल्कुल वर्जीनिया वूल्फ की शैली का अनुसरण करते हैं। स्विटजरलैंड की वादियों का कलात्मक ब्योरा, लंदन की रात की लाजवाब अक्कासी, इंसानी जज्बात का उपन्यास में शिद्दत से इज़हार और शीला ग्रीन-हीरेन पाल की नाकाम पाक मोहब्बत पाठकों के दिलो-दिमाग पर माकूल असर डालती है।

रसैल स्कवायर के अन्डरग्राउंड स्टेशन पर आजम द्वारा अपनी प्रेमिका जे़न के इंतजार से हुई उपन्यास की इब्तिदा आहिस्ता-आहिस्ता अपनी मंजिले मकसूद पर पहुंचती चली जाती है। मंजिले मकसूद है हिंदुस्तान, हिंदुस्तानी अवाम और उसकी आजादी। लंदन में ऊंची तालीम हासिल करने के बाद सिविल सर्विसेज में नौकरी के ख्वाब बुनते हिंदुस्तानी नौजवानों को अपने वतन से दूर रहकर इस बात का एहसास होता है कि वह हिंदुस्तान में रहें या इंग्लिस्तान, वह जब तक गुलाम रहेंगे अंग्रेजों की नज़र में नेटिव्ज, काले, ब्लैकी ही रहेंगे। गुलामी का यह टीका, मुल्क की आजादी के साथ ही उनकी पेशानी से छूटेगा। उपन्यास में लंदन की वह एक रात फैसले की रात है।

सज्जाद ज़हीर ने जिस कलात्मक अंदाज और शैली से उपन्यास का जो शिल्प खड़ा किया है, उससे कहीं से भी नहीं जान पड़ता कि यह उनका पहला ही उपन्यास है। उपन्यास की भाषा, उनके कहन को और भी जोरदार तरीके से पेश करती है, लेकिन कलात्मक अंदाज, भाषा शैली, शिल्प से इतर इस उपन्यास की रूह इसका सशक्त कथ्य और सज्जाद ज़हीर की नज़र है, जिसमें कि वे आखिर तक कामयाब रहे हैं।

हिन्दुस्तानी तहजीब, अदब, ललित कलाओं, रूहानियत के नुक्तों पर और अवाम के तमाम मसलों पर वह जिस तरह से अपने ख्यालात का इज़हार करते हैं, बहुत हद तक वही तो खास हैं। इसमें उनके तरक्कीपसंद नजरिये का साफ-साफ दीदार होता है। हीरेन की शीला ग्रीन से हिंदुस्तानी रूहानियत के बारे में की गई बातें खास तौर से कबिले गौर है, ‘‘मैं तुमसे उस मुल्क के बारे में क्या कहूं! हमारे यहां दुनिया की हर अच्छाई और दुनिया की हर बुराई इंतिहा तक पहुंच गई है। नहीं, मैंने गलत कहा, मुझे यूं कहना चाहिए हिंदुस्तान में दुनिया की तमाम खूबियां अपनी हद तक पहुंचाई जा सकती हैं, लेकिन बुराईयां अपनी हद तक अभी से पहुंच गई हैं। तुमने बाज लोगों को यह कहते हुए सुना होगा कि हिंदुस्तान में रूहानियत का बहुत जोर है। यह बिल्कुल झूठ है। रूहानियत के दो मानी हो सकते हैं। एक तो माद्दियत के बरखिलाफ यानी माद्दी चीजों की परवाह न करना। दीनदारी, खुदापरस्ती, अखिरत की बातों को दुनियावी चीजों पर तरजीह देना।’’

‘‘और दूसरे मानी रूहानियत के क्या हैं?’’ मैंने पूछा।

‘‘दूसरे मानी रूहानियत के यह हो सकते हैं कि इसी दुनियावी जिन्दगी में लालच, हवस, दूसरों पर जब्रो-जुल्म करने की ताकत, जहालत, बदअक्ली, बददियानती को खत्म करना और जिंदगी के सोए हुए नगमों को जगाना, जिनके सुनने के लिए हमें एक बड़ा दिल, एक बेदार दिमाग और एक तंदुरूस्त जिस्म चाहिए। रूहानियत की दोनों किस्में हमारे यहां बिल्कुल मफ़क़ूद हैं।’’

मैंने उसे छेड़ने के लिए कहा, ‘‘आप तो बड़े माद्दियतपरस्त बनते थे। आज रूहानियत का क्यों आप पर दौरा है?’’

‘‘मैं तो माद्दियतपरस्त हूं, लेकिन वो इसलिए कि इंसान की जेहनी और रूहानी तरक्की को मुमकिन करने में मदद दूं। आज जो लोग रूहानियत का नाम लेते हैं, इनको इस चीज से कहीं दूर का भी तआल्लुक नहीं। रूहानियत है क्या? मजहब में डूबा हुआ दिमाग!’’ हीरेन कहने लगा, ‘‘तुम अखबारों में पढ़ती होगी कि हमारे यहां हिंदू, मुसलमान और सिख एक दूसरे से लड़ते रहते हैं। मजहबी सवालात की बिना पर, लेकिन इसके क्या ये मानी हैं कि उनमें रूहानियत या मजहबियत भरी हुई है? बिल्कुल नहीं! चंद महजबी लीडर जो भूलकर भी ख़ुदा को याद नहीं करते गवर्नमेंट में रूतबे हासिल करने के लिए जिनमें सिर्फ उनका ज़़ाती फायदा है, जरा-जरा सी बातों पर बेकुसूर गरीब लोगों को मजहब का नाम लेकर आपस में लड़ा देते हैं। मजहब और रूहानियत से उनका कोई वास्ता नहीं। रह गई दूसरी किस्म की रूहानियत। जो कौम गुलाम हो, जिसमें अस्सी फीसदी इंसानों को पेट भर खाना न मिलता हो, जिसमें मरज, वबा, बीमारी इस क़दर फैली हो कि सारे मुल्क में मुश्किल से तंदुरूस्त इंसान नज़र आते हों, जहां इल्म गिनती के लोगों तक महदूद हो, जहां बच्चे तक कुम्हलाए हुए फूलों की तरह हों, अक्सर लोगों के चेहरों पर भूख, फाका, गुरबत मुसीबत लिखी हुई हो और बाकियों के चेहरों से सुस्ती, हिमाकत, जहालत और एक मकरूह किस्म की खुशहाली नज़र आती हो, वहां जिंदगी के इन रंगीन तोहफों की तलाश करना सरासर हिमाकत है।’’

हिंदुस्तानी रूहानियत जिसको कि पूरी दुनिया में इज्जतो-ऐतबार, एहतराम के साथ देखा जाता है, उस रूहानियत को जिस तरह मजहब, सियासत के ठेकेदारों ने अपने जाती फायदे के लिए इस्तेमाल किया, सज्जाद ज़हीर इसके बरखिलाफ थे। वे ऐसी रूहानियत पर कई सवाल उठाते हैं, जो इंसान को इंसान के हक छीनने पर मजबूर कर देती है। रूहानियत पर उनके पेश किए हुए नुक्ते आज भी हमें उतने ही मौजू लगते हैं, जितने कि उपन्यास लिखने के समय। माद्दियतपरस्त होने के बावजूद उन्हें हिन्दुस्तानी रूहानियत और फलसफे से कोई गुरेज नहीं था, बल्कि वो उसे अवाम तक उसके हक़ीक़ी चेहरे-मोहरे में पहुंचाए जाने के हिमायती थे। सज्जाद ज़हीर एक लेखक में आज़ादी और लोकतांत्रिक अधिकारों की चेतना को सबसे अहम मानते थे फिर वह चाहे किसी मज़हब या विचारधारा का मानने वाला हो।

सज्जाद ज़हीर ने अपनी जिंदगानी और अवाम की जानिब जो उसूल तय किए थे, वे उन पर मरते दम तक चले। तंगनज़र, फिरकापरस्त लोगों को वह मुल्क का खुला दुश्मन और तरक्की की राह में रोड़ा मानते थे। ऐसी ताकतों की उन्होंने हमेशा खुलकर मुखालफत और जमकर मजम्मत की। उनके लिखे तमाम मजामीन इस बात के सबूत हैं।

‘लंदन की एक रात’ दुनिया और उसकी तमाम मख्लूक की जिस्मानी और जेहनी आज़ादी, उनके हक, इंसाफ और हुकूक का अव्वलतरीन दस्तावेज है, जिसे सज्जाद ज़हीर ने अपने खूने-जिगर से लिखा था। यदि रूसो, वाल्तेयर, दिवेरो 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के अगुआ थे, इटली में अंतोनियो ग्राम्शी का जो मुकाम है और रूस मे जारशाही के खिलाफ पुश्किन, बेलिंस्की, तुर्गनेव, शेद्रिन, तॉलस्तॉय, दोस्तोएवस्की, चेखव, गोर्की, चेर्नीशेवस्की का अहम योगदान है, तो हिंदुस्तान की आजादी में सज्जाद ज़हीर, तरक्कीपसंद तहरीक और उनके मुसन्निफीन के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।

(मध्यप्रदेश निवासी लेखक-पत्रकार जाहिद खान, ‘आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ समेत पांच किताबों के लेखक हैं।)

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