Friday, April 19, 2024

हिंदी प्रकाशक चुरा रहे हैं लेखकों की मेहनत की कीमत

हिंदी के अप्रतिम लेखक विनोद कुमार शुक्ल के ऑडियो और वीडियो से उनके प्रकाशकों द्वारा उनका शोषण किये जाने की घटना के रहस्योद्घाटन से हिंदी जगत का एक हिस्सा काफी हद तक हतप्रभ है और उसने सोशल मीडिया पर गंभीर चिंता व्यक्त की है और इनमें अधिकतर युवा लेखक हैं। हिंदी के लेखक एवं फिल्मकार मानव कौल की सोशल मीडिया पर एक पोस्ट से हिंदी समाज को पता चला कि हिंदी के दो बड़े प्रकाशकों ने शुक्ल के साथ छल किया है और उन्हें उनकी किताबों के प्रकाशन के संबंध में पूरी तरह से रॉयल्टी का हिसाब किताब नहीं दिया है।

शुक्ल ने अपने ऑडियो वीडियो में काफी कातर स्वर में अपनी पीड़ा को व्यक्त किया है। वह हिंदी के इस समय शीर्षथ लेखक हैं और उनकी कई कृतियों यथा “नौकर की कमीज”, “दीवार में खिड़की रहा करती है” तथा “खिलेगा तो देखेंगे” अपने नए कहन शिल्प और भाषा से साहित्य को काफी समृद्ध किया है। उनके समर्थकों का यह भी मानना है कि विनोद कुमार शुक्ल का साहित्य नोबेल पुरस्कार विजेताओं के स्तर का है। विनोद जी की छवि एक अत्यंत सरल, विनम्र और ईमानदार लेखक की रही है जो कभी भी साहित्य के सत्ता विमर्श में शामिल नहीं रहा और तमाम तरह के प्रपंचों और तिकड़मों से दूर रहा। 86 वर्ष के शुक्ल के हार्ट में 4 स्टंट लग चुके हैं। उनके कूल्हे की हड्डी भी टूट गई है और वह कमर में बेल्ट बांध कर जीवन जी रहे हैं। इतना ही नहीं वह मधुमेह के भी मरीज हैं और इस वजह को कोरोना काल में टीके भी लगवा नहीं सके। उनका पुत्र एक अस्थायी नौकरी में हैं।

विनोद जी बाहर आने जाने अदालती भागदौड़ करने की हालत में नहीं है कि वह अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ सके। मीडिया ने भी उनके इस बयान की खोज खबर ली है और अंग्रेजी अखबारों में भी इसकी खबरें छपी हैं लेकिन अभी तक हिंदी के वरिष्ठ लेखक विनोद जी के समर्थन में पूरी तरह सामने नहीं आए हैं और लेखक संगठनों ने भी इस बारे में अभी कोई बयान जारी नहीं किया है। अलबत्ता विवाद में घिरे हिंदी के उन दोनों बड़े प्रकाशकों ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति भी जारी की है, अपनी सफाई दी है। अपना पक्ष रखा है।

रॉयल्टी और पुस्तक प्रकाशन का हिसाब किताब न देने का यह कोई पहला मामला नहीं है। करीब 10 साल पहले हिंदी के प्रख्यात लेखक निर्मल वर्मा के निधन के बाद भी यह मामला उठा था और उनकी कवयित्री पत्नी गगन गिल ने निर्मल जी के किताबों के प्रकाशक के खिलाफ मोर्चा खोला था और अंततः उन्होंने वहां से निर्मल जी की सारी किताबें वापस ले ली थीं  लेकिन तब भी हिंदी के स्थापित और बड़े लेखकों ने तब गगन गिल का साथ नहीं दिया था।

हिंदी के प्रकाशक अक्सर इस बात का रोना रोते हैं कि हिंदी की किताबें बिकती  नहीं है लेकिन दूसरी तरफ हिंदी में नए-नए प्रकाशक सामने आ रहे हैं और बड़ी संख्या में पुस्तकें भी छाप रहे हैं तथा उनके कारोबार में इजाफा भी हो रहा है। वे दिन प्रतिदिन मालामाल होते जा रहे हैं। यह अलग बात है कि छोटे प्रकाशकों  को पहले संघर्ष करना पड़ता है लेकिन वह भी जैसे ही बड़े प्रकाश बन जाते हैं, उनका आचरण और बर्ताव भी बड़े प्रकाशकों जैसा होने लगता है। इस मामले में हिंदी के लेखक संगठन भी खुलकर सामने नहीं आते हैं और उन्होंने भी प्रकाशकों के खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ी जबकि वह सत्ता और व्यवस्था के खिलाफ आए दिन लड़ते रहते हैं।

दरअसल हिंदी साहित्य एक गठजोड़ की तरह काम करता है जिसमें खरीद बिक्री और पुस्तक प्रमोशन का काम चलता रहता है। अगर राजनेता की किताब हुई तो प्रकाशक उसके सामने नतमस्तक रहते हैं, अगर किसी सेलिब्रिटी की किताब हुई तो वह उनके स्वागत में खड़े रहते हैं। अगर किसी पुस्तक का लेखक पुस्तक बिक्री समिति या पाठ्यक्रम समिति का सदस्य है तो हो प्रकाशक उनकी आवभगत में रहते हैं लेकिन स्वाभिमानी ईमानदार लेखकों को संघर्ष करना पड़ता है। हिंदी प्रकाशन जगत मौखिक परंपरा में अधिक काम करता है और वह जल्दी अनुबंध पत्र पर लेखकों से हस्ताक्षर नहीं करता।

प्रकाशक समझता है उसने लेखक की किताबें छाप कर उसे उपकृत किया है।  लेखकों की शिकायत रहती है उनकी किताबों का हिसाब किताब प्रकाशक नहीं देते। हिंदी का लेखक सभी प्रकाशकों से बैर मोल लेने की स्थिति में नहीं है क्योंकि वह कानूनी कार्रवाई करने में सक्षम नहीं है। अपने देश में न्यायपालिका और कानून का जो हाल है, उसमें एक सामान्य व्यक्ति के लिए लड़ाई लड़ना संभव नहीं है। कॉपीराइट के जो नियम कानून बने हैं, उनमें प्रकाशकों के ही हित अधिक सुरक्षित हैं।

इस तरह एक लेखक किताब छपवाकर प्रकाशक का गुलाम बन जाता है। उसके हाथ पांव बन्ध जाते हैं। वह विनोद जी के शब्दों में बंधक बना जाता है।

आखिर इसके क्या उपाय हैं?

क्या लेखकों-प्रकाशकों की लड़ाई इसी तरह चलती रहेगी या इसका कोई कानूनी हाल भी निकल पाएगा? यह भविष्य ही बतायेगा।

(विमल कुमार कवि और वरिष्ठ पत्रकार हैं। आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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