Thursday, March 28, 2024

पुण्यतिथिः साहित्य में दलित और स्त्री को विमर्श तक ले आने वाले राजेंद्र यादव विवादों से कभी हारे नहीं

हिंदी साहित्य को अनेक साहित्यकारों ने अपने लेखन से समृद्ध किया है, लेकिन उनमें से कुछ नाम ऐसे हैं, जो अपने साहित्यिक लेखन से इतर दीगर लेखन और विमर्शों से पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हुए। कथाकार राजेंद्र यादव का नाम ऐसे ही साहित्यकारों में शुमार होता है। वे जब तक जीवित रहे हिंदी साहित्य में उनकी पहचान, जीवंत और चर्चित साहित्यकार के तौर पर होती रही।

28 अगस्त, 1929 को उत्तर प्रदेश के आगरा में जन्में राजेंद्र यादव की कहानी, कविता, उपन्यास और आलोचना समेत साहित्य की तमाम विधाओं पर समान पकड़ थी। उन्होंने अपनी जिंदगी के आखिर तक खूब लिखा। ‘देवताओं की मूर्तियां’, ‘खेल खिलौने’, ‘जहां लक्ष्मी कैद है’, ‘छोटे-छोटे ताजमहल’, ‘टूटना’ जहां राजेंद्र यादव के प्रमुख कहानी संग्रह हैं, तो ‘सारा आकाश’, ‘उखड़े हुए लोग’, ‘शह और मात’, ‘एक इंच मुस्कान’ (पत्नी मन्नू भंडारी के साथ सह लेखन), ‘अनदेखे अनजान पुल’ उनके उपन्यास हैं।

प्रेमचंद द्वारा साल 1930 में प्रकाशित पत्रिका ‘हंस’ के पुनर्प्रकाशन की जिम्मेदारी, 31 जुलाई 1986 से एक बार जो उन्होंने अपने कंधे पर ली, तो इसके प्रकाशन का दायित्व उन्होंने अपने मरते दम तक 28 अक्टूबर, 2013 यानी पूरे 27 साल निभाया। ‘हंस’ के जरिए उन्होंने लगातार भारतीय समाज और साहित्य में हस्तक्षेप करने का काम किया। ‘मेरी-तेरी उसकी बात’ के तहत ‘हंस’ में प्रस्तुत राजेंद्र यादव के संपादकीय का पाठक और लेखक दोनों ही इंतजार करते थे। गोया कि इन सपांदकीय से भी कई बार नए विमर्श पैदा हुए। वाद-विवाद और संवाद हुआ। यही उनकी खासियत थी।

‘हंस’ में छपे उनके संपादकीय ‘कांटे की बात’ के अंतर्गत बारह खंडों में प्रकाशित हुए हैं। कहानी, उपन्यास के अलावा राजेंद्र यादव ने आलोचना और निबंध भी लिखे। ‘कहानी: स्वरूप और संवेदना’, ‘कहानी: अनुभव और अभिव्यक्ति’, ‘प्रेमचंद की विरासत’, ‘अठारह उपन्यास’, ‘औरों के बहाने’, ‘आदमी की निगाह में औरत’, ‘वे देवता नहीं हैं’, ‘मुड़-मुड़के देखता हूं’, ‘अब वे वहां नहीं रहते’, ‘काश, मैं राष्ट्रद्रोही होता’ आदि उनकी आलोचना और निबंधों की किताबें हैं।

वे ‘नई कहानी’ के प्रर्वतकों में से एक थे। उन्होंने अपने खास दोस्तों कमलेश्वर और मोहन राकेश के साथ मिलकर ‘नई कहानी’ आंदोलन को नई धार दी। वर्तमान में प्रचलित कई विमर्शों मसलन स्त्री, अल्पसंख्यक, आदिवासी और दलित विमर्श को साहित्य के केंद्र में लाने और उसे निर्णायक स्थिति पर पहुंचाने में भी राजेंद्र यादव का बड़ा योगदान था।

राजेंद्र यादव और विवादों का हमेशा चोली-दामन का साथ रहा। विवादों के बिना राजेंद्र यादव का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता था। चाहे वे अपनी पत्रिका में संपादकीय लिखें, या कहीं कोई व्याख्यान दें या फिर ‘हंस’ की सालाना गोष्ठी का मौका हो, कोई न कोई विवाद उनके साथ जुड़ ही जाता था। विवादों ने मरते दम तक उनका साथ नहीं छोड़ा। स्त्री और दलित विमर्श को लेकर तो वे हमेशा मुखर रहते थे। स्त्री और दलित विमर्श के पीछे उनकी खुद की क्या सोच और मंशा थी?, इसका जवाब उन्होंने अपने कई इंटरव्यू में विस्तार से दिया था। उनके बारे में कोई भी राय बनाने से पहले, इसे जानना बेहद जरूरी है।

उन्हीं के अल्फाजों में, ‘‘साहित्य में इस तरह का विमर्श कोई नई बात नहीं है। यह बहुत दिनों से चला आ रहा है। साहित्य हमेशा उन्हीं पक्षों के बारे में बात करता है, जो दबे-कुचले शोषित वर्ग हैं। साहित्य हमेशा उन्हीं लोगों की आवाज बनता है, जिनके पास आवाज नहीं। लिहाजा मैंने कोई नया काम नहीं किया। मैंने वही किया, जो मुझे करना चाहिए था। यह विमर्श बहुत दिनों से चला आ रहा है। हमारा मध्यकालीन साहित्य इसका प्रमाण है। हमारा जो दलित साहित्य है, वह हमेशा श्रम को प्रधानता देता है।

‘हंस’ के माध्यम से मैंने कोशिश यह की कि उन्हें एक प्लेटफॉर्म दिया और उन्हें एक सैद्धांतिक आधार दिया। हमारा जो अभी तलक का साहित्य था, उसमें बाहर के लोगों का कोई प्रवेश नहीं था। इसमें दलित और स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध था। साहित्य भी बड़े-बड़े केंद्रों जैसे दिल्ली, बनारस, इलाहाबाद आदि बड़े शहरों तक ही सीमित था। विषय बहुत सीमित थे। हमने साहित्य का लोकतांत्रिकीकरण किया। हमने हिंदी साहित्य के दरवाजे सबके लिए खोले। फिर हमने केवल स्त्री दलित विमर्श ही नहीं किया।

हमने भाषा का विमर्श किया, सांप्रदायिकता पर विमर्श किया। सांप्रदायिकता के जो सवाल हैं, हमने उन्हें प्रमुखता से उठाया। कई नए विमर्श किए। लेकिन यह कुछ समस्याएं थीं, जो विषय लोगों को बहसों में परेशान किए हुए थे। उनके दिमाग में जो चल रहा था, हमने उनको आवाज दी। हुआ यह कि हमें कुछ लोगों ने केवल दलित, स्त्री और अल्पसंख्यक विमर्शों के खाते में बांध दिया। साहित्य में एक वर्ग का आधिपत्य था।

जब दूसरे वर्ग साहित्य में आए, तो उन्हें लगा कि अरे, यह तो हमारे क्षेत्र में हस्तक्षेप है। यह साहित्य में क्यों आ रहे हैं? यह तो घुसपैठिए हैं। गर यह साहित्य में आ गए, तो हमारा क्या होगा? स्त्री और दलित की जो समस्याएं हैं, ये दोनों लगभग एक जैसी समस्याएं हैं। यह दोनों नाभिनाल की तरह जुड़े हुए हैं। जिन पर हमने अभी तक ध्यान नहीं दिया था। हमने उन पर ध्यान दिया।’’

राजेंद्र यादव जब तक ‘हंस’ के संपादक रहे, उन्होंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की कि यह पत्रिका, हिंदी जगत में सिर्फ साहित्यिक पत्रिका के तौर पर नहीं पहचानी जाए, बल्कि यह गंभीर विमर्श की पत्रिका के तौर पर पढ़ी जाए। इससे नवोदित रचनाकार और पाठक दोनों कुछ न कुछ सीखें। सच बात तो यह है कि रचनात्मकता के साथ जुड़ी अनेक समस्याओं को, जो एक संवेदनशील लेखक-पाठक को प्रभावित करती हैं, उन्होंने उसे दीगर संपादकों के बनिस्बत ज्यादा बेहतर तरीके से जाना-समझा और उन्हें अपनी पत्रिका में अहमियत के साथ जगह दी।

उनके इस काम की वजह से उन पर कई इल्जाम भी लगे। मसलन ‘‘स्त्री विमर्श के नाम पर वे अपनी पत्रिका में सिर्फ देह ही देह प्रस्तुत करते हैं!, या फिर दलित विमर्श के नाम पर गालियां दी जा रहीं हैं!’’ अपनी इन आलोचनाओं और छींटाकशी पर राजेंद्र यादव जरा सा भी विचलित नहीं होते थे। आलोचना का जवाब, वे इतनी तार्किकता से देते कि विरोधी भी उनका लोहा मान लेते थे।

दलित विमर्श की आलोचना पर उनका जवाब होता था, ‘‘दलित जब अपनी बात रखेगा, तो वह अपनी तरह की बात होगी। दलितों के जो पक्षकार हैं, जब वह अपनी बात रखते हैं, तो उन्हें लगता है कि यह कैसी बात है? इस तरह का तो हमारे पास कोई एजंडा ही नहीं था। जाहिर है, दलित जब खुद अपनी बात रखेगा, तो वह बात अलग तरह की होगी। उसके भटकाव, उसके रास्ते अलग होंगे। उसकी शैली, सब बातें अलग होंगी।’’

उनकी यह बात सोलह आना सच भी है। एक दलित साहित्यकार और एक गैर दलित साहित्यकार दोनों का साहित्य उठा लीजिए, इनमें फर्क साफ दिखलाई दे जाएगा। राजेंद्र यादव, किसी विषय पर अपना जो स्टैंड लेते, उस पर आखिर तक कायम भी रहते थे। किसी विचारधारा, दबाव या प्रलोभन में उन्होंने अपना स्टैंड बदला हो, ऐसी मिसाल बहुत कम मिलती है। इन मसलों पर उनका बेशुमार लेखन, इस बात की गवाही भी देता है।

जहां तक स्त्री विमर्श की बात है, तो इस पर उनका स्पष्ट तौर पर यह मानना था, ‘‘स्त्री को हमने देह के अलावा कुछ नहीं समझा है। शुरू से लेकर आज तक। हमारे संस्कृत साहित्य को ही ले लें। ‘नायिका भेद’ हो या वात्सायान का ‘कामसूत्र’, उसमें नायिका के रंग-रूप का नख से लेकर शिखर तक का ही चित्रण मिलता है। हमने स्त्री को बता दिया है कि वह शरीर के अलावा कुछ नहीं। हमने हजारों साल पहले उसे जो संस्कार दिए, जब हम उसे तोड़ेंगे, तो पुरुषों को परेशानी होगी।

आदमी अपनी बेड़ियां वहीं तोड़ता है, जहां उसे सबसे ज्यादा जकड़ा गया है। जो उसे सबसे ज्यादा पकड़े हुए हैं। स्त्री के लिए उसकी देह एक पिंजरा है। आज भी जो सौंदर्य प्रतियोगिताएं होती हैं, टीवी, फिल्में वहां हर जगह सिर्फ देह ही देह है। वहां कोई अपना निर्णय करने वाली स्त्री नहीं दिखलाई देती। जो अपना निर्णय खुद करे। अपने ढंग से निर्णय करे। पुरुष के ढंग से निर्णय नहीं। पुरुष के ढंग से निर्णय करने वाली, तो हमें बहुत दिख जाएंगी।

हम चाहते हैं कि परिवर्तन हो, चीजें बदलें। जब वे चीजें वैसे नहीं बदलतीं, जैसा कि हम चाहते हैं, तो परेशानी होती है। दरअसल, परिवार और समाज को उन्हीं स्त्रियों ने आगे चलाया है, जिन्होंने अपने निर्णय खुद लिए और अपने हिसाब से लिए। मैंने कभी यह नहीं कहा कि देह ही अंत है, लेकिन देह पहली सीढ़ी है। इसे हमें जीतना होगा। तभी हम इससे आगे बढ़ेगें।’’

विपुल लेखन, लेखक और पाठकों में जबर्दस्त लोकप्रियता के बावजूद, राजेंद्र यादव को सत्ता से वह मान-सम्मान नहीं मिला, जिसके कि वे वास्तविक हकदार थे। न ही वे कभी किसी पुरस्कार या सम्मान के पीछे भागे। बहरहाल सम्मान या पुरस्कार की बात करें, तो उन्हें हिंदी अकादमी, दिल्ली ने साल 2003-04 में अपने सर्वोच्च सम्मान ‘शलाका सम्मान’ से सम्मानित किया था।

हिंदी साहित्य में तमाम बड़े-बड़े पुरस्कार पाने वाले आज कितने ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्हें राजेंद्र यादव जैसी लोकप्रियता और पाठकों का प्यार मिला है? इस मामले में, डॉ. नामवर सिंह ही अकेले उनका मुकाबला करते थे। इन दोनों के बीच रिश्ता भी अजीब था। राजेंद्र यादव ने नामवर सिंह के बारे में कुछ भी टिप्पणी की हो, या नामवर ने राजेंद्र के बारे में, मजाल है कि इन टिप्पणियों से दोनों के रिश्तों में कोई खटास आई हो। बल्कि यह रिश्ता और भी ज्यादा मजबूत हो जाता था। देश भर में ऐसे न जाने कितने साहित्यिक आयोजन होंगे, जिसमें दोनों ने एक साथ मंच को शेयर किया था। दोनों का ही अपना-अपना प्रभामंडल था और फैन फॉलोवर्स हैं।

राजेंद्र यादव अकेले अदीब ही नहीं थे, बल्कि एक बेदार दानिश्वर भी थे। नए विमर्शों के पैरोकार थे, जिनकी नजर में दीगर मसलों की भी उतनी ही अहमियत थी, जितनी अदब की। कोई भी संवेदनशील रचनाकार, उनसे अंजान रह भी नहीं सकता। यही वजह है कि वे वक्त आने पर एक्टिविस्ट के रोल में आ जाते थे और यही अदा उनके चाहने वाले पसंद करते थे। लघु पत्रिकाओं को अकेले छोड़ दीजिए, देश में दीगर पत्र-पत्रिकाओं में भी आज कितने ऐसे संपादक हैं, जो खम ठोककर अपनी बात रखते हैं?

(मध्य प्रदेश निवासी लेखक-पत्रकार जाहिद खान, ‘आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ समेत पांच किताबों के लेखक हैं।)

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Deepak Vohra
Deepak Vohra
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6 months ago

Zahid Khan sahab is really a fantastic and excellent writer. Whatever he writes is worth reading. I really appreciate his efforts.

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