(भारतीय इतिहास, परंपरा और उसकी संस्कृति में बहुत सारी चीजें विवादित रही हैं। उनमें सर्वाधिक विवाद उसकी पौराणिक कथाओं को लेकर रहा है। क्योंकि न तो उनका कोई साक्ष्य मिलता है और न ही तथ्यों की कसौटी पर वे खरी उतरती हैं। ऐसे में उसे इतिहास का दर्जा भी नहीं मिल पाता है। लिहाजा अपनी सुविधानुसार या फिर अपने मनमाफिक उसकी व्याख्या के लिए लोगों के पास अपार अवसर होता है। और इस लिहाज से हर पौराणिक ग्रंथ में अगर सैकड़ों कहानियां हैं तो उनकी हजारों व्याख्याएं हैं। समय, काल, परिस्थिति और जगह के हिसाब से उनमें भी परिवर्तन होता रहता है।
उदाहरण स्वरूप रामायण को लेकर ही तमाम किस्म के विवाद हैं। कहा तो यहां तक जाता है कि कुल 300 रामायण लिखी गयी हैं। और इन सभी के बीच काफी अंतर है। मसलन वाल्मीकि की रामायण कुछ है तो तुलसीदास की रामायण में उससे इतर बातें कही गयी हैं। कुछ बातें छुपायी गयी हैं तो कई नयी बातें जोड़ भी दी गयी हैं। ऐसे में इनकी व्याख्या भी अलग-अलग होती रही है। इसी संदर्भ में दो अलग-अलग नजरियों से रामायण और उनके चरित्रों पर दो लोगों ने लेख लिखे हैं। उनके लेखों को यहां प्रकाशित किया जा रहा है। इसके साथ ही यहां एक बात और स्पष्ट कर देना बेहतर रहेगा कि यह लेखकों के अपने निजी विचार हैं। जनचौक का उनसे सहमत होना कोई जरूरी नहीं है-संपादक)
अतिवाद से साम्यवाद का पाठ पढ़ाता दशहरा
रामयण की कहानी का मुख्य खलनायक रावण है। वह ब्राह्मण है। वह उद्भट विद्वान है, ज़बरदस्त साधक है, दुर्धर्ष बलशाली है। लेकिन, वह दुष्ट है, इतना दुष्ट कि वह राक्षस है। राक्षस, यानी राजा के रक्षा वाली परंपरा का विरोधी प्रवृत्ति वाला शख़्स है।वह दुनिया के नियम को बदलना चाहता है। वह चाहता है कि स्वर्ग में सीढ़ी लगा दी जाये, ताकि स्वर्ग का रास्ता दुष्कर न रहे। वह ऐसा उल्टा-पुल्टा काम सोचता है, जो आम जीवन का सामान्य हिस्सा नहीं है। ऐसा हम आम ज़िंदगी में भी देखते हैं कि जिसके पास अकूत संपदा होती है, वह ऐसा ही उल्टा-पुल्टा सोचता है। अकूत संपदा बिना शोषण के इकट्ठा नहीं की जा सकती। रावण की संपदा भी दमन और शोषण के आधार पर ही बनी है। उसकी सोने की लंका है। ज़ाहिर है, सोने की लंका-यानी अपार वैभवशाली राजधानी और भवन।
यहां रियल स्टेट से लेकर आईटी तक का काम रहा होगा, क्योंकि उसके पास एक से बढ़कर एक अस्त्र-शस्त्र थे, जिनका निर्माण भी किया जाना था। उसका अस्त्र कभी ध्वनि से चलता है, तो कभी प्रकाश से चलता है, यहां तक कि मन में सोच लेने से भी वह प्रक्षेप हो जाता है। दमन-शोषण से चलने वाली अकूत संपदा वाली सत्ता (सियासत से लेकर कॉर्पोरेट तक) के पास हमेशा रोज़गार के अवसर होते हैं। इसी अवसर की आड़ में यह सत्ता जनता की एक फ़ौज तैयार करती है। रावण के पास भी ऐसी ही फ़ौज है। मगर, दूसरी तरफ़ राम के पास कुछ भी नहीं। विभीषण तो एक बार डर ही जाता है कि रावण तो रथी है, मगर राम तो विरथी हैं, कैसे सामना कर पायेंगे। तुलसी ने बड़े ही आसान शब्दों में विभीषण के इस डर के बीच निडरता की अद्भुत डोर गढ़ी है:
“रावण रथी विरथ रघुवीरा ।
देख विभीषण भयऊ अधीरा।।
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना ।
केहि विधि जितब वीर बलवाना।।
सुनहुं सखा कह कृपानिधाना ।
जेहि जय होई सो स्यंदन आना ।।
सौरज,धीरज तेहि रथ चाका ।
सत्य, शील दृढ़ ध्वजा पताका ।।
बल विवेक दम परहित घोरे ।
क्षमा , कृपा समता रजु जोरे ।।
ईस भजन सारथी सुजाना ।
विरती चर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि शक्ति प्रचण्डा।
वर विज्ञान कठिन को दण्डा ।।
अमल अचल मन त्रोन समाना ।
सम जम नियम सिलीमुख नाना ।।
कवच अभेद, विप्र गुरु पूजा ।
एहि सम विजय उपाय न दूजा । ।
सखा धर्ममय असरथ जाके ।
जीतन कहं न कतहुं रिपु ताके
राम के पास रथ नहीं है, रावण के मुक़ाबले उनके पास सैनिक नहीं हैं। मगर, राम के पास नैतिक बल है, घोर जंगलों के बीच रहने का अनुभव है, अभाव को स्वभाव बना लेने का अद्भुत गुण है, हिंसक जीवों के बीच से गुज़रने का ग़ज़ब का तजुर्बा है, दुष्टों से लड़ने और नष्ट करने का अनूठा अतीत है, पत्थरों पर सर रखकर सोने की आदत है। इन तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी उनके पास मुस्कुराने की कला है, क्षमा करने का असामान्य धैर्य है। रावण इसके ठीक विपरीत है।
वह बातों-बातों में तमतमाता है, अधैर्य हो जाता है। शायद इसलिए कि उसे यह भ्रम है कि उसके पास अकूत पैसे हैं, तो वह कुछ भी कर सकता है, अपने चाहने वालों को मालामाल कर सकता है, किसी को कंगाल बना सकता है, पैसे को किसी भी आपदा का ढाल बना सकता है, लेकिन वह भूल जाता है कि जिसके पास नैतिक बल है, भले ही वह अकिंचन हो, अगर वह खड़ा हो जाये, तो वह अवाम को ही सैनिक बना सकता है। राम का भालू, रीछ, वानर का सैनिक बना लेना राम की प्रबंधन क्षमता का अद्भुत नमूना है।
युद्ध होता है और राम, रावण पर भारी पड़ते हैं। ठीक है कि राम को इसके लिए लम्बा इंतज़ार करना पड़ता है। चौदह सालों का इंतज़ार। मगर राम लगातार अपने मिशन पर काम करते रहे, अपने लिए नहीं, लोगों के लिए। उस विद्वान, ऐश्वर्यवान ब्राह्मण के ख़िलाफ़, जिसने उस समय की कुल संपत्ति का बहुत बड़ा हिस्सा हड़प लिया था।ठीक उसी तरह, जिस तरह दुनिया के कुछ कारोबारियों ने दुनिया की संपत्ति के बहुत बड़े हिस्से पर आजकल कब्ज़ा किया हुआ है।
रामायण महर्षि वाल्मीकि ने रचा है। वाल्मीकि आदि कवि माने जाते हैं। जिस परिवार में वाल्मीकि का जन्म हुआ था, वह निषाद परिवार था। मगर, स्वयं वाल्मीकि या उनकी रचना रामायण कभी भी इसलिए अलोकप्रिय नहीं रहे कि वे निषाद परिवार में जन्मे थे। भारतीय परंपरा में जो ऋचायें रचता है, वह ऋषि होता है। वाल्मीकि ने महाकाव्य रचा, तो वे महर्षि कहलाये।
भारतीय संस्कृति आलोचना की रही है, तो रामायण भी आलोचना से परे नहीं रहा।रामायण की आलोचना इसलिए होती रही है, क्योंकि राम का व्यक्तित्व भी आलोचना की परिधि में है। रामायण में बार-बार इस बात का ज़िक़्र है कि राम का व्यक्तित्व विराट है, इतना विराट कि वे नारायण यानी ईश्वर बन जाते हैं, लेकिन वे तब भी नर हैं। वह संपूर्ण नहीं हैं।आदर्श हैं, इतना आदर्श कि उनके आदर्शवाद की बलि स्वयं उनकी पत्नी, यानी जगत जननी सीता चढ़ जाती हैं।सामान्य जीवन में भी आदर्शवादी व्यक्ति का परिवार कष्ट भोगता है। राम के किसी भी कार्य का लक्षण असामान्य नारायणों वाला नहीं है। वह समय आने पर ग़ुस्सा भी होते हैं, रोते हैं, विलाप करते हैं, मगर ज़्यादातर समय मुस्कुराते रहते हैं।
वह विकट से विकट परिस्थितियों में भी हार नहीं मानते। आशावाद उनके व्यक्तित्व का अनोखा हिस्सा है। यही कारण है कि राम उनके चरित्र की गाथा कहने वाला महाकाव्य, यानी रामायण कुल मिलाकर एक ऐसी पुस्तक माना जाता रहा है, जो आम लोगों को प्रेरणा देती है, निराशाओं में उम्मीद जगाती है, घोर विपरीत परिस्थितियों को भी बेहतर काम के अवसर बना लेने का आह्वान करती है, गिलहरी प्रयास को भी महत्वपूर्ण मानती है और उसे चिह्नित करती है, वह पशु-पक्षी-नदी-नालों-तालाबों-पेड़-पौधों-पर्वत-पहाड़ियों को भी एक शख़्सियत बख़्शती है। इस रामायण का नायक कुल मिलाकर इस हद तक समावेशी है कि उनका विकास पर्यावरण के नाश पर आधारित नहीं है, बल्कि एक दूसरे के पूरक होने पर आधारित है।
नर के रूप में इस नारायण के व्यक्तित्व में कुछ मानवगत कमज़ोरियां भी हैं, मगर मज़बूती और विशेषतायें इतनी है कि वह नर होकर भी नारायण हो जाते हैं। मगर, नारायण होने से साधारण नर बने राम की आलोचना इसलिए नहीं छोड़ दी जाती कि वह अकूत विशिष्टताओं से जड़ित-मंडित हैं। ख़ूबसूरत बात है कि राम की अपनी आलोचना से निजात पाने की छटपटाहट दूसरों को हानि पहुंचाने की बनिस्बत स्वयं उन्हें नुकसान पहुंचाता है। शंबूक वध इस नारायण के व्यक्तित्व पर एक गहरा दाग़ है। वाल्मीकि अपने इस अपूर्व नायक की कथा से शंबूक वध को नहीं हटा पाते।
आधुनिक नज़रों से देखें तो रामायण रचने वाले वाल्मीकि ने इसलिए एक ब्राह्मण को खलनायक बना दिया, क्योंकि वे ख़ुद जिस पृष्ठभूमि से आये थे, वहां शोषण या दमन रहा होगा और उसका मुख्य सूत्रधार ब्राह्मण रहा होगा। लेकिन, ग़ौरतलब है कि उनका नायक क्षत्रिय था। वही क्षत्रिय, जो ब्राह्मणों को महत्वपूर्ण मानने वाला वर्ण रहा है।मौजूदा परिस्थितियों के आईने में इसे सियासी तौर पर क्षत्रिय-ब्राह्मण संघर्ष का नाम भी दिया जा सकता है।
लेकिन, जिस भाषा और जिन परिस्थितियों की पृष्ठभूमि को रचकर वाल्मीकि ने रामायण की रचना की है, उससे इन बातों के बीच यह बात भी उभरती है कि राम और रावण, वर्ण से अधिक वर्ग के प्रतिनिधित्व के प्रतीक हैं। राम वीरथी हैं, रावण रथी हैं।अपनी राजकीय पृष्ठभूमि होने के बावजूद सब कुछ त्याग कर देने वाले राम साधनहीन हैं, रावण अपनी तमाम साधना और विद्वता की पृष्ठभूमि के साथ ऐश्वर्यशाली और अतिसंपन्न है। यह कहानी बताती है कि संपन्नता बुरी चीज़ नहीं, मगर अतिसंपन्नता, संवेदना की विपन्नता पैदा करती है। जैसे-जैसे साधनों और संपन्नता का गैप बढ़ता है, दमन और शोषण के बल पर ही संपन्नों का व्यक्तित्व नकारात्मक होता चला जाता है।
और आख़िरकार इतना नकारात्मक हो जाता है कि वह भूल ही जाता है कि वह भी इसी दुनिया का साधारण मनुष्य है, जिसकी भी मृत्यु संभव है। इस भ्रम में वह भारतीय परंपरा का ‘राक्षस’ बन जाता है। अति सर्वत्र वर्जयेत। अति रावण बनाता है। वही अति किसी रावण को उसके अंत की ओर भी ले जाता है और अंत वही करता है, जिसे वनों में भटकने वाला भिखारी यानी विपन्न माना जाता है। रावण पूंजीवाद का प्रतीक है और राम उस साधनविहीन वर्ग का, जिसके हिस्से पर रावण ने कब्ज़ा कर लिया है। रामायण अपने कई विरोधाभासों के बावजूद साम्यवाद की कहानी कहता एक सुंदर महाकाव्य है, जो बताता है कि चोटी की साधना और समझ के बावजूद अगर ऐश्वर्य की अति होती है, तो ऐश्वर्य की वही अति रावण होने की तरफ़ ले जाता है। संसार भर की संपत्ति का मुट्ठी भर लोगों के बीच घनीभूत होना ठीक नहीं, क्योंकि रामायण हमें यही तो चेताता है।
(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)
सुग्रीव की सेना का लंकादहन कांड ‘सलवा जुडूम’ की पहली घटना है
जिन कथित नक्सलियों, माओवादियों पर काबू पाने में स्टेट की भलीभांति प्रशिक्षित और अत्याधुनिक हाई क्वालिटी मशीनगन और अंडर बैरल ग्रेनेड लांचर जैसे हथियारों से सुसज्जित राज्य पुलिस और केंद्रीय बल को नाकों चने चबाने पड़े। उन्हें ठिकाने लगाने के लिए छत्तीसगढ़ की तत्कालीन सरकार ने 4 जून, 2005 को ‘सलवा जुडूम’ रणनीति की शुरुआत की। 4 जून, 2005 को सरकार के संरक्षण में शुरू हुए इस अभियान में बड़ी संख्या में आदिवासियों को हथियार थमाए गए थे और उन्हें स्पेशल पुलिस ऑफिसर यानी एसपीओ का दर्ज़ा दे कर माओवादियों से लड़ने के लिए मैदान में उतार दिया गया था।
सरकारी आंकड़ों की मानें तो सलवा जुडूम के कारण दंतेवाड़ा के 644 गांव खाली हो गए। उनकी एक बड़ी आबादी सरकारी शिविरों में रहने के लिये बाध्य हो गई। कई लाख लोग बेघर हुये और सैकड़ों लोग मारे गए। आदिवासियों के हाथों आदिवासियों के मार-काट का ये खेल 5 जुलाई, 2011 को सलवा जुडूम को पूरी तरह से खत्म करने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक चलता रहा था। इस साल 4 जून को ‘सलवा जुडूम’ के 15 साल हो गए।
अपने ही वर्ग समुदाय के लोगों को अपना दुश्मन बनाकर उनकी हत्या करने में वीरता की अनुभूति देने वाले ‘सलवा जुडूम’ के बीज ‘रामायण’ में मिलते हैं। जब सुग्रीव और हनुमान जैसे आदिवासी योद्धाओं ने ‘राम सेना’ बनकर लंका में क़त्ल-ओ-ग़ारत मचाया था। और सलवा जुडूम के सेनानी आदिवासियों को एसपीओ का दर्ज़ा देने की तर्ज़ पर ही उन्हें ‘राम सेना’ का दर्ज़ा दिया गया था।
दरअसल आर्यों के भारत में घुसपैठ करने के बाद लगातार लंबे कालखंड तक आर्यों और मूलनिवासी असुरों के बीच संघर्ष होता रहा। देवासुर संग्राम की गाथाओं से तमाम पुराण भरे पड़े हैं। असुरों द्वारा बार-बार देवताओं को परास्त करके सत्ताच्युत करने का ज़िक्र भी पुराणों में है। आर्यों में इतना बाहुबल था ही नहीं है कि वो असुरों से सीधे टकराते और उन पर विजय हासिल करते। अतः उन्होंने छल और युक्ति से महिषासुर, हिरण्याक्ष हिरण्याकश्यप, बाली, शुंभ-निशुंभ, रक्तबीज, मधु-कैटभ, भस्मासुर, लवणासुर आदि की हत्याएं की और करवाई।
धीरे-धीरे आर्यों की जनसंख्या बढ़ी तो चुनौती भी। अब उनमें सत्ता के लिए आपसी संघर्ष भी होने लगा था। अतः अब उनके सामने दो चुनौतियां थीं। पहली चुनौती अपने राज्य का विस्तार करना और दूसरी चुनौती मूल निवासी असुर प्रजातियों के प्रतिरोधी संघर्ष को ख़त्म करके उन्हें अपना गुलाम बनाना।
मूलनिवासी असुरों से सीधे टकराने का अर्थ था अपने संसाधनों की व्यापक क्षति और संभावित हार। स्पष्ट है कि बाहर से आने वाला कोई भी आक्रमणकारी समुदाय बहुत संसाधन संपन्न नहीं हो सकता। ऐसे में उनके सामने एक ही विकल्प होता है, दुश्मन के संसाधनों में सेंधमारी करके उन्हें उनके खिलाफ़ ही इस्तेमाल करना।
‘वनवास’ आर्यों का उत्तर से दक्षिण की ओर राज्य विस्तार का अभियान था
दो प्रमुख हिंदू पुराणों रामायण और महाभारत में ‘वनवास’ का ज़िक्र मिलता है। और दोनो ही पुराणो में राज्य के लिए पारिवारिक सत्ता-संघर्ष को ‘वनवास’ का कारण बनता हुआ दर्ज़ किया गया है।
राम का वनवास दरअसल उत्तर क्षेत्र से दक्षिण क्षेत्र में आर्यों की सांस्कृतिक और भौगोलिक राज्य विस्तार योजना का क्रियान्वयन है। राम वनवास के पूरे काल के घटनाक्रम को यदि देखा जाए तो राम वन्यक्षेत्रों में पड़ने वाले तमाम असुरों को लगातार एक के बाद एक येन केन प्रकारेण मारते, उनकी हत्या करते हुए आगे बढ़ते हैं। पहले ताड़का, फिर कबंध, खर, दूषण, त्रिशरा, बाली, सुबाहु, मारीच, विराध, अहिरावण, कालनेमि और रावण, मेघनाथ, कुम्भकर्ण की हत्याएं राम वनवास के दौरान ही होती हैं।
राम के जीवन में दो बार वनवास आता है, पांडवों के जीवन में भी दो बार वनवास का जिक्र मिलता है। राम जहाँ पहली बार ब्राह्मणवादी संस्कृति की रक्षा के बहाने वनक्षेत्र में प्रवेश करते हैं और ताड़का व सुबाहु की हत्या करते हैं तो वहीं पांडव भी पहली बार वन क्षेत्र में जाने पर ब्राह्मण परिवार की जान की रक्षा के बहाने हिडिम्बासुर की हत्या करते हैं। राम और पांडवों दोनों का पहला वनवास जहां अल्पावधि का होता है वहीं दूसरा वनवास अपेक्षाकृत लंबे समय काल का होता है।
आर्यों ने राजा बनाने का लालच देकर भाई का इस्तेमाल भाई के खिलाफ़ किया
आर्य राम में एक प्रवृत्ति बारम्बार दिखती है वो है एक भाई के खिलाफ़ दूसरे भाई का इस्तेमाल। पहले बाली के खिलाफ़ सुग्रीव का इस्तेमाल और बाद में रावण के खिलाफ़ विभीषण का इस्तेमाल करके दोनो ही हत्याएं की गईं। सुग्रीव को तो सीधे तौर पर उसके भाई बाली की राजसत्ता पर काबिज़ करवाने और आर्यों की औपनिवेशिक दासता स्वीकार करने तथा लंका पर चढ़ाई के लिए अपनी सेना और सारे संसाधन राम को मुहैया करवाने की शर्त मनवाई जाती है। जिसे सुग्रीव बिना सोचे समझे स्वीकार लेता है।
विभीषण को भी राम लंका का राजा बनाने का लालच देकर अपने खेमे में मिला लेते हैं और फिर विभीषण की मदद से लंका में घुसकर एक-एक करके रावण समर्थक सभी राक्षसों की हत्या कर दी जाती है। और फिर विभीषण को राजा बनाकर प्रत्यक्ष सत्ता के बजाय औपनिवेशिक सत्ता कायम किया। ऐसा करने का फायदा ये हुआ कि भविष्य में आर्यों के ख़िलाफ़ दक्षिण के शक्तिशाली असुर समुदाय की ओर से होने वाले प्रतिवाद को एक तरह से खत्म कर दिया।
लंका-दहन सामूहिक जनसंहार का पहला षड्यंत्र था
आर्यों ने असुर समुदाय के खिलाफ़ आग का व्यापक इस्तेमाल किया। असुरों के नगर-बस्तियों में आग लगाकर पूरे समुदाय को एक साथ जलाकर मार डालने के अभियान का पुराणों में कई बार जिक्र आया है।
लंका दहन संभवतः सामूहिक हत्या का पहला रणनीतिक षड्यंत्र था। जिसमें कई असुरों की जलकर मौत हो गई थी। जो इस दहन से बचकर किसी तरह निकले भी होंगे बाहर हाथों में तलवार लिए खड़ी राम की सेना ने उन्हें मार-काट डाला होगा।
इसी तरह महाभारत में खांडव-वन के नागवंशी असुरों की आग में जला कर हत्या करने का जिक्र मिलता है। पांडवों द्वारा नागवंशी आदिवासियों के नगर खांडव-वन पर हमला करके उसे इंद्रप्रस्थ नाम से अपना राज्य बनाने का जिक्र मिलता है। खांडव-वन को छीनने का बदला लेने के लिए नागवंशी राजा तक्षक ने परीक्षित की हत्या कर दी थी। इसके बाद परीक्षित के पुत्र जनमेजय द्वारा नागवंशी असुरों की समूल हत्या के लिए भीषण अभियान चलाया जाता है जिसमें नागवंशियों को जिंदा पकड़कर अग्निकुंड में झोंक दिया गया, इसे नाग यज्ञ का नाम दिया गया। जनमेजय की उस हत्याकांड में भी नागवंशी राजा तक्षक और कार्कोटक के बच भागने का जिक्र मिलता है।
असुर हिरण्याकश्यप की बहन होलिका को जलाकर मारने की घटना से हम सब वाकिफ हैं ही जिसे आज तक होलिका दहन के नाम से उत्सव का रंग देकर मनाया जाता रहा है।
निहत्था होने पर घेरकर मारने की योजना
असुर राजा के निहत्था होने की स्थिति में घेरकर मारने की योजना को भी कई बार अमल में लाया गया है। पहली घटना की योजना खुद विभीषण बनाता है। जिसके तहत लक्ष्मण अपनी सेना लेकर मेघनाथ को उस समय घेरते हैं जब वो पूजा कर रहा होता है और निहत्था होता है। बिना उसे प्रतिरोध का कोई मौका दिए लक्ष्मण अपनी तलवार से पूजारत मेघनाथ का गला धड़ से अलग कर देते हैं।
दूसरी घटना मथुरा के असुर राजा लवणासुर के साथ अंजाम दी जाती है। राम के सबसे छोटे भाई शत्रुघ्न (रिपुदमन) असुर राजा लवणासुर की हत्या उस वक्त करता है जब वो निहत्था होता है और पूजा कर रहा होता है।
(सुशील मानव जनचौक के विशेष संवाददाता हैं।)