Wednesday, April 24, 2024

जयंती पर विशेष: तत्वदर्शी संत रविदास, यानी एक समाज वैज्ञानिक रविदास

मनुष्य जब गहरी चिंतन-प्रक्रिया से गुज़रते हुए चेतना के साथ उच्चतर होता जाता है, तब उसकी आत्मा, उस परम सत्य का अहसास करती है, जिससे पूरी प्रकृति सृजित हुई है, तो वह प्रकृति के कण-कण के साथ आंदोलित हो उठता है; छोटा से छोटा अनाचार उसके भीतर हाहाकार मचा देता है; छोटी से छोटी पीड़ा उसके भीतर चीत्कार कर उठती है; वह जिस सूक्ष्मता के साथ एकाकार हो जाता है,वह भावात्मक तथा संवेदनात्मक स्तर पर खिल रहा होता है, लेकिन विज्ञान उस सूक्ष्मता को हमेशा स्थूलता में पकड़ना चाहता है। यही कारण है कि विज्ञान से पहले कोई भी थियरी, फ़िलॉस्फ़ी के फॉर्म में आती है।

फ़िलॉस्फ़ी यानी दर्शन वह चेतना है, जिसके आधार पर वैज्ञानिक अपने आविष्कार को लेकर चिंतन करता है और उस चिंतन प्रक्रिया से गुज़रकर वह आविष्कार वस्तु के रूप में हमारे सामने आते हैं। ज़हिर है, विज़िबल वस्तु ही सिर्फ़ विज्ञान नहीं है, बल्कि विज्ञान वह इनविज़िबल यानी अदृश्य सोच भी है होता है, जिसमें रूपांतरण की क्षमता होती है। दुनियाभर के वैज्ञानिक जिस परम तत्व यानी सुप्रीम एलीमेंट की खोज में लगे हुए हैं, अनायास नहीं उसे गॉड पार्टिकल कहा जाने लगा है।

गॉड पार्टिकल यानी ऐसा पार्टिकल,जो दुनिया की तमाम चीज़ों का मूल है; जिसका विखंडन तो संभव नहीं, जिसे जलाया जाना, सुखाया जाना भी संभव नहीं, वह कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसा गीता के एक श्लोक में कहा गया है-

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः

इस परम सत्य की ख़ूबसूरती ही यही है कि यह प्राकृतिक, अजन्मा, अविनाशी, सर्वव्यापी, सर्वकालिक, सर्वजनीन आदि-आदि है; जाति-धर्म-संप्रदाय-रंग-शांति-जंग सब कुछ इसके सामने बेरंग है। ऐसा इसलिए कि ये सब चालाक, मगर कमज़र्फ़ मनुष्य के बनाये वे चोचले हैं, जो मनुष्य को बार-बार फांसते हैं, मगर परम् सत्य का दर्शन यानी फ़िलॉस्फ़ी इन चोचलों से उबारती है। उसके दर्शन से सर्वश्रेष्ठ जाति, सर्वश्रेष्ठ धर्म-मज़हब, सर्वेश्रेष्ठ नस्ल, अविजित होने का भ्रम टूट कर बिखर जाता है; दलित, शमित, विजित होने का अहसास का अंत हो जाता है। इसी अंत के साथ मनुष्य संत भी बन जाता है। 1450 ईस्वी में आज ही के दिन एक ऐसे ही संत, रविदास हुए थे। रविदास उसी घर में पैदा हुए थे, जिसे आजकल दलित कहा जाता है। पिता का कारोबार चमड़े का था, तो स्वाभाविक रूप से देख-देखकर उन्होंने भी वही पेशा अपना लिया।

रविदास का पेशा मोची का था। जूते बनाने का कारोबार। कारोबार और सोच-विचार का कोई रिश्ता नहीं होता। ठीक वैसे ही जैसे, घोटाले और भ्रष्टाचार से पर्दा उठाने वाले पेशे पत्रकारिता के साथ जुड़े लोग भी घोटालेबाज़ और भ्रष्टाचारी हो सकते हैं; लोकसेवा के लिए चुने जाने वाले लोकसेवक यानी सिविल सर्वेंट लोक विरोधी हो जाते हैं; किसी दलित के घर जन्म लेने वाला कोई शख़्स, किसी पुरोहितों के घर पैदा होने वाले किसी कर्मकांडी से कहीं अधिक ब्राह्मण अर्थात् विद्वान् या तत्वदर्शी हो सकता है। बहरहाल,रविदास जैसे तत्वदर्शी ने जूते बनाने का पेशा चुना, तत्वदर्शी की भाषा सीधी और सपाट होती है, लिहाजा उसमें एक मारक क्षमता होती है, क्योंकि वह हर विडंबनाओं के विरुद्ध गॉड पार्टिकल की बात करता है, सो रविदान ने भी वही बात कही

रविदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच

नकर कूं नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच।।

संत रविदास को लेकर एक किस्सा हमेशा कहा-सुना जाता है कि एक बार कोई व्यक्ति गंगा स्नान के लिए जा रहा था।उसने गंगा यात्रा पर जाने से पहले रविदास से एक जोड़ी जूते की मांग की। संत रविदास ने एक जोड़ी सुंदर जूते बनाकर देते हुए उस शख़्स को एक कौड़ी भी दी और कहा कि वह कौड़ी संत रविदास की ओर से गंगा को समर्पित कर दे।उस शख़्स ने वैसा ही किया। ऐसा करते हुए गंगा प्रकट हुईं और रत्नजड़ित एक सुंदर सोने की कंगन भेंट करते हुए कहा कि वह गंगा की तरफ़ से संत रविदास को दे दे।मगर कंगन को देखते ही वह शख़्स बदल गया।उसने वह कंगन रविदार के बदलने राजा को दे दिया। राजा ने रानी को दे दिया। रानी ने राजा से उसकी जोड़ी लगाने की मांग रख दी।

राजा ने कंगन देने वाले शख़्स को बुलाया,कहा- इसकी जोड़ी लाकर दो,या फिर फ़ांसी पर चढ़ो। वह शख़्स दौड़ा-दौड़ा रविदास के पास गया।कहा-इसकी दूसरी जोड़ी दे दो,वर्ना मैं फ़ांसी पर चढ़ा दिया जाऊंगा। उस समय रविदास एक कठौती में अपने काम का मचड़ा धो रहे थे।रविदास बिना किसी शिकायत के उस शख़्स पर द्रवित हो उठे। उसी चमड़े वाले कठौती से रविदास ने गंगा को प्रकट किया और गंगा रिवादास को एक और कंगन सौंपते हुए अंतर्ध्यान हो गयीं। उस शख़्स ने उस कंगन को राजा को देकर अपनी जान बचायी और रविदास ने भारत के हिन्दी-ऊर्दू भाषा-भाषी हर धर्म-जातियों के लिए एक मुहावरा दे दिया-

मन चंगा,कठौती में गंगा

भारत की एक विशेषता रही है कि उसका इतिहास, पुराणों, आख़्यानों और बढ़ी-चढ़ी कथाओं में कुछ इस तरह लिपटा रहा है कि असली इतिहास का गॉड पार्टिकल मिलना ढूंढना मुश्किल है। ठीक वैसे ही, जैसे उपर्युक्त कहावत के पीछे पौराणिक शैली में गढ़ी गयी इस कथा के पीछे की असली हक़ीक़त, क्योंकि जो रविदास तत्वदर्शी हों, उन्हें इस कहानी की भला क्या दरकार। लेकिन कर्मकांडियों के लिए उनका यही तत्व दर्शन एक बड़ी चुनौती था और इसे ख़त्म किये जाने के लिए आवश्यक था कि पौराणिक शैलियों का ही उन्हें हिस्सा बना लिया जाय। यही हुआ। मगर उनके गीत, कवितायें, दोहे आज भी कह रहे हैं कि वे पौराणिक नहीं, तत्वदर्शी थे; आने वाली सदियों में लोकतांत्रिक खांचे में सियासी धूर्तों के लिए भी एक बड़ी चुनौती हैं-

ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन,

पूजिए चरण चंडाल के जो होने गुण प्रवीन।।

जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।

रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।

प्रभुजी तुम चंदन हम पानी।

जाकी अंग अंग वास समानी।।

प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा।

ऐसी भक्ति करै रैदासा।।

(यह लेख वरिष्ठ पत्रकार उपेंद्र चौधरी के फेसबुक पेज से लिया गया है।)

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