Thursday, April 18, 2024

दिल्ली के बदहाल सिनेमाहाल!

कुंवर सीपी सिंह

नई दिल्ली। कभी दिल्ली के लोगों के लिए मनोरंजन का मुख्य साधन रहे सिनेमाघर अब बदहाली के दौर से गुजर रहें हैं। मनोरंजन के लिए पूरी तरह सिनेमाघरों पर निर्भर रहने वाले दर्शक अब मनोरंजन के दूसरे साधनों को भी तलाश रहे हैं। दिल्ली के कई जाने-माने सिनेमाघर दर्शकों के अभाव में या तो बंद हो गए हैं या फिर बंद होने की कगार पर हैं। 1932 में बना राजधानी का पहला प्राइम सिंगल स्क्रीन थिएटर ‘रीगल’ 85 साल बाद सिनेप्रेमियों से हमेशा के लिए विदाई ले चुका है। रीगल सिनेमा दिल्ली के सिने प्रेमियों के साथ-साथ बॉलीवुड सितारों का भी चहेता हॉल हुआ करता था। बॉम्बे से आने वाले ज़्यादातर सितारे दिल्ली के रीगल में ज़रूर हाज़िरी लगाया करते थे। खासकर आरके बैनर के फिल्मों का इससे खास लगाव रहा… खुद राज कपूर भी अपनी फिल्मों का प्रीमियर रीगल सिनेमा हॉल में ही करते थे। रीगल सिनेमा पर आरके बैनर तले बनी लगभग सभी फिल्में रिलीज हुई और कई फिल्मों ने यहां सिल्वर जुबली का जश्न भी मनाया। रीगल के पर्दों में बॉलीवुड की अनेकों प्रेम कहानियां कैद हैं। राज कपूर -नरगिस से शुरू कर अमिताभ -रेखा और फिर शाहरुख- कजोल से लेकर अंत में अनुष्का – दिलजीत की भी प्रेम कहानी का साक्षी रीगल बना…!!

रीगल थिएटर के सबसे उम्रदराज कर्मचारी अमन सिंह वर्मा 1977 से बतौर अकाउंटेंट काम देख रहे हैं। उन्होंने कहा कि 694 सीटों से सजा रीगल केवल इसलिए ऐतिहासिक नहीं था कि वह इतने लंबे समय तक देश का बड़ा सिंगलस्क्रीन सिनेमा हॉल बना रहा। रीगल की ख़ास बात यह भी थी की 80 और 90 के दशक में जब रीगल की प्रतिष्ठा गिरने लगी थी तब भी यह चलता रहा और कनॉट प्लेस की जान बना रहा। अगर रीगल को भारत में सिनेमा हाल्स ग्रैंड ओल्ड मैन कहा जाए तब भी गलत नहीं होगा। 

1931 में जब भारत में सिनेमा टॉकीज आया तब कई सिनेमा हॉल्स दिल्ली में खोले गए रीगल, रिवोली, ओडियन, और इंडियन टॉकी हाउस जो बस थोड़े ही समय चल पाया। रीगल को 1932 में जाने माने लेखक और पत्रकार खुशवंत सिंह के पिता सरदार शोभा सिंह ने खोला था। आर्किटेक्ट वाल्टर स्काई जॉर्ज ने इसे डिजायन किया और शोभा सिंह के हाथों में थमा दिया। तभी से रीगल न केवल कनॉट प्लेस बल्कि दिल्ली की भी शान बना रहा। मज़े की बात यह है की कनॉट प्लेस के उस पूरे ब्लॉक को ही अब रीगल बिल्डिंग के नाम से जाना जाता है। हालांकि रिवोली भी हमेशा वहां रहा पर रीगल जैसी शान कभी न बटोर पाया…!!

वही फिल्म बाहुबली: द कनक्लूज़न के प्रदर्शन का अधिकार नहीं मिलने के बाद पहले से वित्तीय संकट झेल रहा पुरानी दिल्ली का ऐतिहासिक शीला सिनेमा 2017 में बंद हो चुका है। इस पर शीला सिनेमा के मालिक उदय कौशिक ने कहा कि शहर में मल्टीप्लेक्स कल्चर तेजी से फैल चुका हैं। दर्शक अब ज्यादा पैसे देकर ही सही आधुनिक सुविधाओं वाले मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखना पसंद करता है। सिंगल स्क्रीन सिनेमाहॉलों की बदहाली का एक कारण उनको अपडेट न किया जाना भी है।

नंदन, निशांत और अप्सरा ने अपने यहां आधुनिक तकनीक अपनाई और सुविधाएं दीं तो वह आज भी चल रहे हैं। जो अपने आपको नहीं बदल पाए वे बंद हो गए या बंद होने की कगार पर हैं। वहीं दिल्ली शहर का एक और मशहूर सिनेमाहाल ओडियन जहां एक जमाने में सुपरहिट फिल्म शोले देखने के लिए यहा लोगों का हुजूम लगा रहता था। आलम ये था कि लोग घंटों लंबी कतारों में खड़े होकर टिकट मिलने का इंतजार करते थे।

लेकिन वक्त ने कुछ ऐसी करवट ली कि कभी हाउसफुल रहने वाला यह सिनेमाहॉल आज अपने ही दर्शकों के दीदार के लिए तरस रहे हैं। ये बदहाली की दांस्ता सिर्फ ओडियन सिनेमाहाल की ही नहीं है… बल्कि दिल्ली शहर के तमाम सिनेमाघरों का कमोबेश यही हाल है… मल्टीप्लेक्स कल्चर के हावी होने और सरकार की उपेक्षा की वजह से पुराने सिनेमाघरों की हालत बदतर होती चली गई…!! कभी दिल्ली शहर के नामचीन रहे सिनेमाहालों की गाड़ी आज डी-ग्रेड फिल्मों के सहारे चल रही है। आखिर सिनेमाघरों की इस हालत के लिए कौन जिम्मेदार है ?

घंटाघर के नजदीक नादिर अली का सिनेमाघर मेनका जो अपनी बदहाली पर आंसू बहाकर अब बंद हो चुका है। कभी इस सिनेमाहॉल पर दर्शकों की भीड़ रहती थीआज इसके सामने फलों के ठेले लगते हैं। इसकी बदहाल बिल्डिंग आज अपने सुनहरे अतीत की ओर देख रही है। एक वक्त था जब इसी सिनेमाघर में राजा और रंक, जानी दुश्मन, खिलौना जैसी फिल्में दिखाई गईं। शोले तो पूरे एक साल तक इस सिनेमाघर में लगी रही। 1960 से नब्बे के दशक तक शहर के प्रसिद्ध सिनेमा हालों में शुमार रहा फिल्मिस्तान भी आज बुरे हाल में है। एक जमाने में अपने बेहतरीन साउंड सिस्टम के लिए पहचाना जाने वाला ये सिनेमाघर कभी खचाखच भरा रहता था। यहां अनारकली, मुगल-ए-आजम, ताजमहल, दो कलियां, एक मुसाफिर एक हसीना, जुगनू, चांदनी और दिल जैसी चर्चित फिल्में लगीं। उस वक्त ये सबसे ज्यादा बिजनेस करने वाला सिनेमाघर था। इसमें लगीं फिल्में सिल्वर जुबली हो जाती थीं। फागुन, ताजमहल और जुगनू फिल्म शहर में सबसे पहले यहीं लगी थीं। यह फिल्में कई महीनों तक हाऊस फुल चलती रहीं लेकिन आज यह खुद़ नहीं चल पा रहा है और पिछले कई साल से बंद है। केबिल के जरिए चलने वाले पाइरेटिड़ फिल्मों का अवैध कारोबार ने इस सिनेमाघरों से इनकी रौनक छीन ली।  रही सही कसर सेटेलाइट चैनलो ने पूरी कर दी…!!

वहीं दिल्ली शहर के लोगों ने बताया कि मल्टीप्लेक्स में एक ही छत के नीचे लोगों को फिल्म, शापिंग काम्पलेक्स और खाने पीने की तमाम चीजे मिल जाती है जिसकी वजह से लोग अब मल्टीप्लेक्सेस में ही जाना ज्यादा पसंद करते हैं। वहीं एक और मुश्किल ये है कि सिनेमाघरों में मल्टीप्लेक्सेस की तरह दुकानें भी नहीं खोली जा सकती… जिससे आमदनी बढ़ सके। दूसरी तरफ मिडिल क्लास लोगों ने अपने मनोरंजन के कई और साधन भी खोज लिये हैं… डीवीडी और केबल टीवी के इस जमाने में सिनेमा देखने केवल मिडिल क्लास और छोटे तबके के लोग ही आ रहें हैं।

अब सिनेमा इंडस्ट्री में भविष्य की संभावनाएं भी समाप्त हो चुकी हैं… यही वजह है कि पहले के मुकाबले अब लोगों का रूझान सिनेमाहालों की तरफ कम होता जा रहा है… और फिल्मों में प्रतिस्पर्धा तब शुरू हुई जब स्टूडियो सिस्टम खत्म हो गय़ा… पहले वही लोग फिल्में बनाते थे… जिनके पास अपने स्टूडियो थे… कलाकार और टेकनीशियन उस स्टूडियो के कर्मचारी होते थे… ये सिस्टम तब बंद हो गया जब डायरेक्टर सी त्रिवेदी ने अभिनेता एन.मोतीलाल को साइन किया… और स्टूडियो भाड़े पर लेकर फिल्म बनाना शुरु कर दिया… त्रिवेदी को देख कई और डायरेक्टर्स ने इसमें अपने हाथ आजमाए… जिनके पास पैसे तो थे…पर स्टूडियो नहीं थे… ये लोग कलाकारों का चयन करते… स्टूडियो भाड़े पर लेते और फिल्म बनाते थे… इसका प्रभाव दूसरे प्रोडयूसरों पर भी पड़ा… इन सब पड़ावों से गुजरते हुए भारतीय सिनेमा अब व्यापार का रूप ले चुका है… आज फिल्म व्यापार चौतरफा मुसीबत से घिरा है… एक ओर फिल्म का बढ़ता खर्च उसकी रीढ़ तोड़ रहा है तो… दूसरी तरफ वीडियो कैसेट की तस्करी और वीडियो के प्रसार की वजह से मल्टीस्टारर फिल्में तक बाक्स आफिस में मुंह की खा रही हैं। टेलीविजन चैनलों के प्रसार ने भी फिल्मों के व्यवसाय पर काफी असर डाला है। लेकिन सच यह भी है कि 51 सेंटीमीटर का परदा सिनेमाघरों का विकल्प नहीं हो सकता…!!

आज के दौर का सिनेमा अपनी पहचान बचाने के लिए मनोरंजन के दूसरे माध्यमों से भी लड़ रहा है। ऐसे में टीवी और इंटरनेट की चुनौती के सामने उसे अपना दायरा और बड़ा करने की चुनौती है। आज के वक्त में तकनीकी तौर पर तो फिल्में बेहतर बनने लगी हैं लेकिन इनका स्वभाव बदल रहा है। यही वजह है कि मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों की वजह से पुराने सिनेमाघरों का बिजनेस कम हो गया है…!!

(कुंवर सीपी सिंह टीवी पत्रकार हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

स्मृति शेष : जन कलाकार बलराज साहनी

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक...

Related Articles

स्मृति शेष : जन कलाकार बलराज साहनी

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक...