ऋत्विक घटक: झकझोर कर हमारी चेतना जगा देने वाला फ़िल्मकार 

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एक समय में रहते हुए किसी जीवन को देखना और फिर उस समय से निकल कर जीवन-चर्चा करना, इन दोनों बातों में बहुत फ़र्क़ है। यह फ़र्क़, यह दूरी हमें एक तरह से निरा भावुक होने से बचाती है तो चर्चा करना आसान हो जाता है। मेरी उम्र बढ़ती जाती है, चकित रह जाने की मन:स्थिति तिरोहित होती जाती है। एक समय, शायद किसी भी बात पर विस्मित हो जाने की वजह से ही बहुत से कार्य-कारण या कहें तार्किकता से दूरी हो गई। सत्तर का दशक, हर तरफ़ से आँधी-तूफ़ान लाने वाला दशक था। कला और राजनीति, दोनों में हैरान कर देने वाला दशक।

अट्ठारह पार कर, मैंने तभी पहचानना-जानना शुरू किया था- सलिल चौधरी का संगीत, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और ऋत्विक घटक की फ़िल्में; दिनेश दास और वीरेन चट्टोपाध्याय की कविता। धीरे-धीरे संघर्ष, आंदोलन, चे, फिदेल कास्त्रो, चारु मजूमदार, कानू सान्याल, जंगल में रहने वाले संथालों की राजनैतिक भाषा और काम से परिचय हो रहा था। थियरी और प्रैक्टिस से। पता नहीं इस जानने-समझने में से कितना असल जीवन में परिणत हो पा रहा था और कितना आवेग और स्वप्न की तेज़ नदी में बहे जा रहा था।

इसी तरह की एक फिल्म के दौरान ही उस व्यक्तित्व से सामना हुआ। ऋत्विक – ख़ूब लंबा शख़्स, छह फ़ीट से कुछ ज़्यादा; एक मज़बूत व्यक्तित्व। आँखों में आग तब भी जल रही थी। जुक्ति तोक्को आर गोप्पो (कारण, बहस और एक कहानी) फ़िल्म के निर्माण का समय। फ़िल्म बनाने की प्रक्रिया का मेरा पहला पाठ। मुझे उनके काम में मदद करने का काम मिला।  

लेकिन, ऋत्विक कभी भी कोई विशेष निर्देश नहीं देते थे। हर शॉट के साथ मुझे कुछ काम करने होते थे। हर शॉट का हिसाब रखना, ज़रूरत की सब चीज़ों को उनके सही ठिकाने पर रखना, क्या-क्या काम किया जा रहा है, उस सब का हिसाब रखना। ऋत्विक का विश्वास था कि फ़िल्म निर्माण प्राथमिक रूप से एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसका देखना और सुनना विज्ञान पर निर्भर होकर ही ठीक से संभव है। उनके लिए सौंदर्यबोध की जगह ज़्यादा से ज़्यादा बीस प्रतिशत थी। हालाँकि, बाद के समय में इस बीस प्रतिशत को लेकर ही इंटलेक्चुअल्स में उनकी फ़िल्मों की चर्चा होती रही है।

एक बार काम करते-करते मैं उनसे एक बचकाना सवाल कर बैठा था। उस सवाल में असल में ख़ुद को कम उम्र में ज्ञानी दिखाने की चाहत भी छिपी हुई थी। सुबर्णरेखा फ़िल्म में सीता का गीत और काली माँ की मूर्ति के बारे में किसी बेवक़ूफ़ की तरह बोल पड़ा था ‘अच्छा! ये काली की मूर्ति दिखाकर, क्या मदर कल्ट दिखाना चाह रहे थे? ये जो आर्केटाइप का इस्तेमाल…`। ऋत्विक ने सवाल पूरा होने नहीं दिया। मुझे एकदम बेइज़्ज़त करके वहाँ से भगा दिया। साथ में कह दिया कि इसके बाद अपनी शक़्ल उनको न दिखाऊँ।“इतने अशिक्षित और नकली इंटेलेक्चुअल की यहाँ कोई ज़रूरत नहीं है।` केंचुए की तरह मुँह छिपाकर किसी तरह मैं वहाँ से भागा। 

अगले दिन काम के बीच में अपने पास बिठाकर और कई तरह के अपनत्व भरे सवाल-जवाब के बाद ऋत्विक बोले, सुनो! वो सब बदमाशी मत करो। ऊपर-ऊपर से कुछ शब्द, कुछ टर्म, कुछ थियरी बोलने से कुछ नहीं होता। उस सब के साथ इस जीवन और दुनिया का कोई रिश्ता नहीं है। असल में इस दृश्य में देखने और सुनने के आवेग को पहले बनाना और फिर तोड़ देना ही उनका मंतव्य था। वे उसी हिसाब से कैमरा मूवमेंट और गाने के स्वर की गति, दोनों को मिलाकर दर्शक को झकझोरना चाहते थे। उन्होंने समझाया कि यह किस तरह दर्शक की देखने और सुनने की तन्मयता को तोड़कर उसे वास्तविकता में लौटा लाना है। जैसे गुरुत्वाकर्षण से शरीर का संतुलन बना रहता है लेकिन यह संतुलन बिगड़ता है तो कैसे सब बदल जाता है।

ऋत्विक ने भारतीय पुराण से उदाहरण देते हुए, तो कभी आधुनिक संकेत की भाषा की बात करते हुए फ़िल्म के हरेक शॉट और एडिटिंग को धीरे-धीरे समझाया। इस तरह फ़िल्म के काम के बीच-बीच में ही वे कभी गाली देकर तो कभी प्यार से सब समझाते जाते। इस तरह से, उनके पास मेरा काम सीखना शुरू हुआ।

ऋत्विक कहते थे कि एक इंसान के देखने और सुनने की गति को अगर ठीक से समझ लिया जाए तो दर्शक को बाँधकर रखा जा सकता है। सिनेमा हॉल में देखी जाने वाली फ़िल्म की बात करें तो फिल्म एक नॉन-इंटीमेट लेकिन अटेंटिव माध्यम है। दर्शक की हृदय गति को अगर समझ लिया जाए तो बड़ी आसानी से दर्शक के ध्यान को बाँधा जा सकता है। अपनी फ़िल्म के ही एक दृश्य को समझाते हुए ऋत्विक ने बताया कि एक समय पर दर्शक एक ताल में गीत को सुन रहा है और उसी से ताल मिलाती हुई छवियों को पर्दे पर देख रहा है तो इससे मंत्र-मुग्ध दर्शक फिल्म के पर्दे से बंधा रहता है।

अब जैसे ही फ़िल्म में काली की मूर्ति दिखाई देती है तो दर्शक की तन्मयता भंग हो जाती है। उस समय पर दर्शक ने कैमरे पर हल्का सा टिल्ट-अप किया था। इस टिल्ट-अप के साथ एक तेज़ आवाज़ सुनाई देती है और पूरा फ्रेम काला हो जाता है। दर्शक के लिए यह ऐसा हुआ जैसे किसी ने अचानक उसकी आँखें बंद कर दी हों। इस तरह जब किसी की आँखें बंद की जाती हैं तो व्यक्ति घबराकर अपनी जगह से हिलता है; और उसके आगे-पीछे, ऊपर-नीचे क्या है, इसके प्रति सजग हो जाता है। अभी तक दर्शक जैसे सोया हुआ था और यह एक शॉट उसकी चेतना को लौटा लाता है।

ऋत्विक यहां पर इस विज्ञान का इस्तेमाल क्यों करते हैं? क्योंकि फिल्म में सीता का चरित्र वास्तविकता से दूर है। वह गीत गा रही है – आज धानेर खेते रोध छाया लुको चूरीर खेला… (आज धान के खेत में धूप-छाया लुका-छिपी का खेल खेल रहे हैं…।) और वह यह गीत गा रही है एक टूटे-फूटे रन-वे पर, जहाँ बरसों पहले विमान उतरने बंद हो चुके हैं। इस प्रसंग में यह भी एक ज़रूरी बात है कि हिरोशिमा-नागासाकी पर जिस विमान ने बम गिराया, उस विमान में तेल यहाँ से भरा गया। तब से, फिर इस एयरबेस का इस्तेमाल नहीं किया गया।

इस तरह की जगह पर शूटिंग हो रही है और इधर गीत है – आज धानेर खेते रोध छाया लुको चूरीर खेला…। एक कोमल भावना जिसे गाया जा रहा है, कंक्रीट पर खड़े होकर। मतलब यह कि वह लड़की वास्तविकता से कहीं दूर खड़ी है। ठीक इसी जगह पर निर्देशक ऋत्विक दृश्य को तोड़ते हैं और काली की मूर्ति की छवि के साथ दर्शक को वास्तविकता की तरफ़ मोड़ देते हैं। दृश्य में खड़ी वह लड़की भी वास्तविकता की तरफ मुड़ी; जीवन और आस-पास के जगत के प्रति उसकी चेतना लौट आई।

 ऋत्विक कहते हैं कि यह दृश्य सिर्फ़ उस लड़की की वास्तविकता नहीं, दर्शक की वास्तविकता भी है। वह दर्शक को भी इसमें शामिल कर लेते हैं। जो दर्शक गीत सुनते-सुनते अपनी चेतना खो बैठे थे, यह दृश्य उनकी चेतना भी लौटा लाता है। अब किसी को लगे कि बर्ल्टोल्ट ब्रेष्ट के ‘एलियनेशन इफेक्ट’ के साथ इसका कोई संबंध है तो लग भी सकता है।

बात यह है कि मैं आज ये सारी बातें महसूस कर पा रहा हूँ लेकिन जब उन्होंने मुझसे ये सब कहा था, मैं कुछ महसूस नहीं कर पाया था। असल में, तब यह सब समझने की मेरी उम्र नहीं थी। 18-20 साल में मैं बस पढ़ना सीख रहा था। लेकिन ऋत्विक बिना इस बात पर ध्यान दिए, बिना किसी दंभ के, हम जैसे नए लड़कों को इस तरह की गहरी बातें सिखा दिया करते थे जो ताउम्र हमारे साथ चलती रहेंगी। 

[यह सर्वकालिक महान फ़िल्मकार ऋत्विक घटक (4 नवंबर 1925-6 फरवरी 1976) का जन्मशती वर्ष है। जुक्ति तोक्को आर गोप्पो फ़िल्म निर्माण के दौरान उनके सहायक रहे रतन सन्यामथ ने यह लेख जनचौक के अनुरोध पर लिखा है। वे लगभग पचास वर्षों से बंगाली थिएटर व मीडिया में सक्रिय हैं। ऋत्विक घटक के साथ बिताए उस वक़्त का ही असर है कि उन्हें थियरी और प्रैक्टिस दोनों में गहन समर्पण और विशेषज्ञता के लिए जाना जाता है। थिएटर के लिहाज़ से वे कुमार रॉय के शिष्य रहे हैं। वे पिछले लगभग एक दशक से अध्यापन कर रहे हैं।]

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