Wednesday, April 24, 2024

जन्मदिन पर विशेष: सफ़दर का रंगकर्म जनता को जागरूक करने का जरिया था

12 अप्रैल, कलाकार और रंग निर्देशक सफ़दर हाशमी का जन्मदिन, हर साल ‘राष्ट्रीय नुक्कड़ नाटक दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है। सफ़दर का नाम जे़हन में आते ही ऐसे रंगकर्मी का ख़याल आता है, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी नुक्कड़ नाटक के लिए कु़र्बान कर दी। सफ़दर हाशमी ने बच्चों के लिए कई मानीखे़ज़ गीत लिखे, देश के ज्वलंत मुद्दों पर पोस्टर्स बनाए, फ़िल्म फे़स्टिवल्स आयोजित किए, एक टेलीविज़न धारावाहिक किया, डाक्यूमेंट्री फ़िल्में बनाईं और उनके लिए गीत लिखे, लेख लिखे, ब्रेख़्त की कविताओं का बेहतरीन अनुवाद किया, लेकिन उनकी असल शिनाख़्त एक थिएटर आर्टिस्ट के तौर पर ही रही।

सफ़दर हाशमी ने न सिर्फ़ सम-सामयिक मुद्दों पर गहरे व्यंग्यात्मक अंदाज़ में नुक्कड़ नाटक लिखे, बल्कि उन्हें बेहद ज़िंदादिल अंदाज़ में हिंदुस्तानी अवाम के सामने पेश किया। उनका अंदाज़ कुछ ऐसा होता था कि वे आम लोगों से सीधा रिश्ता क़ायम कर लेते थे। नुक्कड़ नाटक में यही सफ़दर हाशमी की कामयाबी का राज था। वह सोलह साल तक ‘जन नाट्य मंच’ (जनम) से जुड़े रहे। उनकी इस नाट्य मंडली ने नाट्य कला के एक अलग ही रूप नुक्कड़ नाटक को जनता तक सीधे पहुंचाने का सशक्त माध्यम बनाया। एक लिहाज़ से कहें, तो सफ़दर हाशमी ने नुक्कड़ नाटक को एक नई पहचान दी।

सफ़दर हाशमी नुक्कड़ नाट्य विधा के पहले आइडियोलॉजिस्ट थे। उस ज़माने में जब देश में प्रोसेनियम थियेटर का बोलबाला था, सफ़दर ने अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए नुक्कड़ नाटक को बख़ूबी अपनाया। नुक्कड़ नाटक करने के पीछे सफ़दर हाशमी के ऊंचे ख़यालात और यह पुख़्ता यक़ीन था कि ‘‘ऐसे समय में जब सामुदायिक मनोरंजन के सभी रूप तेज़ी से गायब होते जा रहें हैं, जब दूरदर्शन और वीडियो डिब्बाबंद मनोरंजन छोटे परिवारों और अकेले दर्शकों को परोस रहे हैं, नुक्कड़ नाटक ऐसी कला को पुनर्जीवित कर रहा है, जिसका सामुदायिक स्तर पर ढेर सारे दर्शक आनंद उठा सकते हैं।’’ (किताब-‘सफ़दर’, लेख-‘नुक्कड़ नाटक के आरंभिक दस वर्ष’, लेखक-सफ़दर हाशमी, पेज-48)

आज़ादी से पहले भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) ने देश में जो सांस्कृतिक आंदोलन चलाया, नुक्कड़ नाटक उसी आंदोलन की देन है। सफ़दर और उनकी नाट्य मंडली ‘जन नाट्य मंच’ ने इस नाट्य-विधा को जन-जन तक पहुंचाया। सफ़दर हाशमी के नुक्कड़ नाटकों की मक़बूलियत का आलम यह था कि उनका एक-एक नाटक सैकड़ों बार खेला गया और आज भी इन नाटकों का प्रदर्शन होता है। सफ़दर की ज़िंदगी में ही उनके लिखे और निर्देशित ‘औरत’, ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं’, ‘राजा का बाजा’ और ‘हल्ला बोल’ जैसे नुक्कड़ नाटकों का हज़ार से ज़्यादा मर्तबा प्रदर्शन हुआ था।

सफ़दर हाशमी ने अपनी नाट्य मंडली ‘जन नाट्य मंच’ की ओर से अक्टूबर, 1978 में पहला नुक्कड़ नाटक खेला। साल 1988 तक वे लगातार इससे जुड़े रहे। इस दौरान ‘जनम’ ने देश के तक़रीबन 90 शहर में अलग-अलग 22 नाटकों की 4300 से ज़्यादा प्रस्तुतियां कीं, जिन्हें लाखों दर्शकों ने देखा। उनका नाट्य दल कम अरसे में ही भारतीय रंगमंच का अभिन्न अंग बन गया। यह वाक़ई एक बड़ी कामयाबी थी।

सफ़दर हाशमी नुक्कड़ नाटक की अहमियत को अच्छी तरह से समझते थे। यही वजह है कि उन्होंने नुक्कड़ नाटक को ही अपनी बात कहने का माध्यम चुना। सफ़दर ने अपने नाटकों से अवाम को आंदोलित कर, संघर्षरत संगठनों के पीछे लामबंद किया। वह रंगकर्म की हर विधा में माहिर थे। नाटक लिखने से लेकर, उसके लिए गाने लिखना, संगीत तैयार करना, अभिनय-निर्देशन उन्होंने सब कुछ किया। नुक्कड़ नाटक में संगीत, स्पेस, वेशभूषा वगैरह के इस्तेमाल में उन्होंने नए-नए प्रयोग किये। कम ख़र्च में जनता को बेहतर पेशकश कैसे दी जाए? यह उनका अहम सरोकार था।

सफ़दर हाशमी का मानना था कि नाट्य मंडली सामूहिक लेखन पद्धति से अच्छे नुक्कड़ नाटक लिख सकती हैं। आपस में विचार-विमर्श कर सामूहिक रचना-शक्ति से बेहतरीन नाटक तैयार किए जा सकते हैं। ‘जन नाट्य मंच’ के ‘मशीन’, ‘हत्यारे’, ‘औरत’, ‘राजा का बाजा’, ‘पुलिस चरित्रम्’ और ‘काला कानून’ जैसे चर्चित नाटक इसी प्रक्रिया के तहत रचे गए थे। हालांकि इसमें अहम रोल सफ़दर हाशमी का ही था, लेकिन उन्होंने इन नाटकों का श्रेय खु़द न लेते हुए, अपनी नाट्य मंडली के सभी सदस्यों को दिया था।

सफ़दर हाशमी के नाटक सीधे-सीधे सियासी इश्तिहार भर नहीं हैं, उनमें हास्य और तीखे व्यंग्य का समावेश मिलता है। जनता की बोली-बानी में प्रस्तुत यह नाटक दर्शकों पर गहरा असर डालते थे। उनका नाटक ‘हल्ला बोल’ मिल मज़दूरों की संघर्षपूर्ण ज़िंदगानी के यथार्थ को दिखलाता है। किस तरह से वे शोषणकारी व्यवस्था में काम करते हैं? बावजूद इसके उनको वेतन की परेशानी आती है।

सफ़दर हाशमी की कविताओं और जनगीत का भी कोई जवाब नहीं। ख़ास तौर से कविता ‘‘किताबें करती हैं बातें, बीते ज़माने कीं, दुनिया की इंसानों की।’’ मुहावरे की तरह इस्तेमाल की जाती हैं। वहीं उनका जनवादी गीत ‘‘पढ़ना लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालों’’ साक्षरता आंदोलन में नारे की तरह प्रयोग होता है। सीधी, सरल ज़बान में लिखे गए इस गीत का हर अंतरा, आम अवाम को आंदोलित करने का काम करता है।

सफ़दर हाशमी के गीतों की बात चली है, तो उनके एक गीत ‘‘औरतें उठी नहीं तो ज़ुल्म बढ़ता जाएगा/ज़ुल्म करने वाला सीना-ज़ोर बनता जाएगा।’’ का ज़िक्र और ज़रूरी है। यह गीत उन्होंने राजस्थान के दिवराला सती कांड के बाद लिखा था। कहने की ज़रूरत नहीं, यह गीत भी महिला आंदोलनों में नारे की तौर पर इस्तेमाल होता है। ‘औरत’, ‘खिलती कलियां’ ‘आओ, ए पर्दानशीं’ आदि गीतों में भी सफ़दर हाशमी औरतों की आज़ादी और उनके साथ ग़ैर बराबरी के सवाल दमदारी से उठाते हैं।

एक दशक तक लगातार नुक्कड़ नाटक करने के बाद सफ़दर हाशमी प्रोसेनियम थियेटर की तरफ़ भी आना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने बाक़ायदा अपनी नाट्य मंडली के लिए नाट्य-शिविर भी लगाए। ताकि उनके कलाकार इस माध्यम को भी अच्छी तरह से समझें और इसमें माहिर हों। मशहूर नाटककार हबीब तनवीर के निर्देशन में प्रेमचंद की कहानी पर आधारित नाटक ‘मोटेराम का सत्याग्रह’ इसी सिलसिले की अगली कड़ी था, लेकिन ये सभी योजनाएं उनकी असमय मौत से परवान नहीं चढ़ सकीं।

सफ़दर हाशमी थियेटर से निकले थे। वे चाहते, तो थियेटर में ही बड़ा नाम कमा सकते थे, लेकिन उन्होंने नुक्कड़ नाटक की पथरीली राह चुनी। जिसमें वे कभी मिल मज़दूरों के बीच मिल के बाहर या उनकी बस्तियों, सार्वजनिक पार्क, बस स्टॉप, बाज़ार, सड़क के छोटे-छोटे नुक्कड़ों पर अपने नाटक करते थे।

सफ़दर हाशमी देशव्यापी स्तर पर एक सशक्त जन नाट्य आंदोलन खड़ा करना चाहते थे। इसके पीछे उनकी यह सोच थी,‘‘अपनी जीवंतता, सहज संप्रेषणीयता और व्यापक प्रभावशीलता की वजह से नाटक ही ऐसी विधा है, जो जनता के व्यापक हिस्से के बीच जनवादी चेतना और स्वस्थ्य वैकल्पिक संस्कृति को फैलाने में कारगर भूमिका निभा सकती है।’’ (किताब-‘सफ़दर’, लेख-नुक्कड़ नाटक का महत्त्व और कार्यप्रणाली, लेखक-सफ़दर हाशमी, पेज-33)

सफ़दर का सारा रंगकर्म मक़सदी रंगकर्म था। एक बेहतर समाज बनाने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी। उन्होंने हमेशा गरीब और मेहनतकश लोगों के हक़ की लड़ाई लड़ी। उनके लिए इंसाफ़ की आवाज़ बुलंद की। अपने नाटकों में उनके सुख-दुःख दिखलाये। ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खड़े होने को प्रोत्साहित किया।

सफ़दर हाशमी के लिए रंगकर्म मन बहलाने और बौद्धिक विलासता का ज़रिया भर नहीं था। नुक्कड़ नाटक विधा का इस्तेमाल वे जनता को जागरूक करने के लिए करते थे। प्रतिबद्ध रंगकर्म उनकी प्राथमिकता में शामिल था। इस तरह के रंगकर्म में अक्सर जोखिम होता है, लेकिन वे इससे कभी नहीं डरे। फ़िरक़ापरस्त और इंसानियत विरोधी ताक़तों के ख़िलाफ़ वे बढ़-चढ़कर मोर्चा लेते रहे। उनके ख़िलाफ़ खुलकर नुक्कड़ नाटक खेले।

साल 1986 में दिल्ली परिवहन निगम ने जब बस किराए में भारी बढ़ोतरी की, तो सफ़दर हाशमी ने न सिर्फ़ ‘डीटीसी की धांधली’ नामक नुक्कड़ नाटक लिखा, बल्कि दिल्ली में इसका कई जगह प्रदर्शन किया। जिसके एवज़ में दिल्ली पुलिस दमन पर उतर आई। उसने नाट्य मंडली के कलाकारों पर लाठी चार्ज से लेकर कुछ कलाकारों को थाने में बैठाया। लेकिन सफ़दर हाशमी इन ज़्यादतियों से कभी नहीं घबराए। उन्होंने नाटक करना नहीं छोड़ा।

साल 1989 की पहली तारीख़, वह काली तारीख़ थी जिसने सफ़दर हाशमी को हमसे हमेशा के लिए छीन लिया। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से लगे साहिबाबाद के झंडापुर गांव में वह स्थानीय निकाय के चुनाव में एक उम्मीदवार के समर्थन में नुक्कड़ नाटक कर रहे थे। नाटक के दौरान प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार के समर्थकों के साथ रास्ते को लेकर टकराव हुआ। झगड़ा आगे बढ़ा और सफ़दर हाशमी की हत्या कर दी गई। हत्या के वक़्त उनकी उम्र महज़ 34 साल थी। सफ़दर की असमय मौत, भारतीय जन-कला आंदोलन के लिए एक झटका थी।

जाने-माने कथाकार-नाटककार भीष्म साहनी ने सफ़दर हाशमी की शहादत को याद करते हुए अपने एक लेख में कहा, ‘‘सफ़दर ने ऐसे ही जोखिम उठाते हुए पिछले 17 साल तक इस नाट्य विधा को सक्षम बनाने में अपना योगदान दिया है और ऐसे ही नाटक में भाग लेते हुए उसने अपने प्राणों की आहुति दी है। सफ़दर प्रेरणा का स्त्रोत रहा है और वह भविष्य में भी प्रेरणा का स्त्रोत बना रहेगा।’’ (किताब-‘सफ़दर’, लेख-दो शब्द, लेखक-भीष्म साहनी, पेज-14)

भीष्म साहनी की इस बात से शायद ही कोई नाइत्तेफ़ाक़ी जताए। देश में जब भी नुक्कड़ नाटक की बात होगी या कहीं नुक्कड़ नाटक खेला जायेगा, रंगकर्मी सफ़दर हाशमी ज़रूर याद किये जाएंगे। उनका जीवन और संपूर्ण रंगकर्म लोगों को हमेशा प्रेरणा देता रहेगा।

(जाहिद खान, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और समीक्षक हैं)

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