Thursday, April 25, 2024

सरहदी गांधी: जो खुद को अंतिम सांस तक ‘हिंदुस्तानी’ मानते रहे

हर बड़े आंदोलन, जिनसे देश और दुनिया बदलती है या कहिए कि बनती है- उसका एक महानायक होता है तो कुछ सह महानायक भी। तवारीख में उन्हें लगभग वही मुकाम हासिल होता है जो आंदोलन की अगुवाई करने वाले और सब कुछ बदल देने वाले जुझारू महानायक को दिया जाता है।

आजादी के आंदोलन के ‘महानायक’ का दर्जा महात्मा गांधी को है, तो प्रमुख ‘सह महानायक’ का खान अब्दुल गफ्फार खान उर्फ सरहदी गांधी को। उन्हें सरहदी गांधी के साथ-साथ ‘बादशाह खान’ और ‘बच्चा खान’ भी कहा जाता है। वह महानता की श्रेणी के प्रथम पुरुष थे।

खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म छह फरवरी 1890 को पेशावर इलाके में हुआ था, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है। मोहनदास करमचंद गांधी उर्फ बापू उर्फ महात्मा गांधी की मानिंद पहले-पहल उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप को अंग्रेज शासन से मुक्त करवाने के लिए अपने इलाके में अपने तईं ठीक महात्मा गांधी की तर्ज पर अहिंसक स्वतंत्रता संग्राम शुरू किया।

इस आंदोलन का बुनियादी मकसद संयुक्त, स्वतंत्र और धर्मनिरपेक्ष भारत नाम का देश दुनिया के सामरिक नक्शे पर लाना था। इसी मकसद से उन्होंने 1926 में ‘खुदाई खिदमतगार’ नामक संगठन की स्थापना की और यह संगठन ‘सुर्ख पोश’ यानी लाल कुर्ती दल के नाम से भी जाना जाता रहा है।

वह अवामी नेशनल पार्टी के संस्थापक भी थे। वह विरले पाकिस्तानी थे जिन्हें ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया और जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार भी मरणोपरांत दिया गया।

खुदाई खिदमतगार (अल्लाह/ईश्वर के सेवक) आंदोलन को आजादी के लिए चले अन्य आंदोलनों के तुलना में सबसे ज्यादा भयावह व क्रूर दमन का सामना करना पड़ा। खुद अंग्रेज इतिहासकार ऐसा मानते हैं। खान अब्दुल गफ्फार खान की अगुवाई वाले खुदाई खिदमतगार के कम से कम दस हजार सदस्यों अथवा कार्यकर्ताओं को अंग्रेज हुक्मरानों के हाथों प्रताड़ित होना पड़ा। उन्हें जान तक से हाथ धोना पड़ा।

आरंभ में खान साहिब ने पश्तूनों के सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक उत्थान के लिए अहम काम किया। उनका साफ मानना था कि तालीम की कमी के चलते विभिन्न पश्तून कबीलों और परिवारों के बीच सदियों से चली आ रही खूनी लड़ाई की वजह से वे लगातार पिछड़ते जा रहे हैं जबकि दुनिया में बहुतेरे वैज्ञानिक बदलाव आ रहे हैं और उनसे पश्तून नावाकिफ हैं।

1910 में उन्होंने अपने गृह नगर की एक मस्जिद में स्कूल खोला था, जिसे ब्रिटिश अधिकारियों ने 1915 में जबरन बंद करा दिया क्योंकि हुक्मरानों का मानना था कि यह स्कूल ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों का केंद्र है और जिस चेतना और चिंतन का प्रसार यहां हो रहा है वह आखिरकार साम्राज्यवाद के खिलाफ काम करेगा।

बाद में खान अब्दुल गफ्फार खान ने वहां के अपने कई साथियों सहित खुलकर साम्राज्यवाद की खिलाफत की और भारतीय अवाम की आजादी के लिए बड़ा आंदोलन चलाया और उसकी अगुवाई की। साम्राज्यवादियों के जुल्मों-सितम का जवाब उन्होंने पूरी तरह अहिंसक रह कर दिया और अमानुषिक दमन उन्हें दबा नहीं पाया। उन्हीं दिनों उनका राब्ता पूर्वी भारत में स्वतंत्रता संग्राम की अगुवाई करने वाले गांधीजी से हुआ।

तब का बना रिश्ता जीवनपर्यंत कायम रहा और सप्रमाण माना जाता है कि खान अब्दुल गफ्फार खान महात्मा गांधी के सबसे करीबियों में से एक थे। पहली ही मुलाकात के बाद वह पूरी तरह ‘गांधीवादी’ हो गए और अलहदा देश पाकिस्तान में जिस्मानी अंत तक उन्होंने गांधीवाद का चोला तीखे विरोध के बावजूद नहीं उतारा। जबकि अतीत में कई कतिपय ‘गांधीवादियों’ ने मौके की नजाकत के मद्देनजर गांधीवाद को अलविदा कह दिया था।                                  

शारीरिक कद में गांधीजी से लगभग दोगुने खान साहिब महात्मा गांधी के संपर्क में आने के बाद; उन्हीं की मानिंद लाठी (जो अक्सर उनके कंधे पर रहती थी) और पोटली रखने लगे थे। अपने कपड़ों के लिए वह चरखे से सूत कातते थे। सूत कातना जिस्मानी अंत तक उनकी दिनचर्या का हिस्सा रहा। प्रार्थना सभाएं भी। महात्मा गांधी की हत्या के बाद वह ‘जीवंत गांधी’ माने गए। वह इसके सच्चे हकदार थे। बावजूद इसके कि गांधी तो ‘एक’ ही हुए हैं। सीमांत गांधी उनकी लौ थे।

मरते पाकिस्तान और बदलते हिंदुस्तान में परिस्थितिवश महात्मा गांधी और उनकी विचारधारात्मक विरासत को कायम रखने वाले सरहदी गांधी और भी ज्यादा प्रासंगिक हैं। दोनों का एक साझा गम छाया सा चौतरफा मंडराता दिखाई पड़ता है कि उनके ख्वाबों का महादेश इस तरह उजड़-उखड़ रहा है। बमुश्किल मिली आजादी अपने ही लोगों के चलते ‘गुलामी’ की राह अख्तियार किए हुए है।

महात्मा गांधी की सबसे बड़ी पीड़ा थी कि उनकी आंखों के आगे हिंदुस्तान-पाकिस्तान विभाजन हुआ और ठीक यही दर्द खान अब्दुल गफ्फार खान ‘सरहदी गांधी’ का था। सरहदी गांधी पाकिस्तान के कतई हिमायती नहीं थे और अखंड भारत के लिए लड़े थे।

उस अखंड भारत के लिए जो समावेशी हो तथा गंगा-जमुनी तहजीब की रिवायत पर चले। जम्हूरियत के रास्ते और हिंदू-मुस्लिम एकजुटता से उसे विश्व की महाशक्तियों के बरअक्स मजबूती से स्थापित किया जाए। लेकिन खुली आंखों से देखा गया यह ख्वाब दु:स्वपन में तब्दील हो गया और दोनों को आजादी अधूरी-अधूरी सी लगने लगी।

महात्मा गांधी तो खैर आजादी के चंद अर्से बाद ही विरोधी विचारधारा के हत्यारों के हाथों शहीद हो गए लेकिन सरहदी गांधी ने यह संताप (पाकिस्तान में) कई दशक तक सहन किया। पाकिस्तान का तो पता नहीं लेकिन हिंदुस्तान की सरजमीं पर उनके भीतर का दुख एक बार जरूर अभिव्यक्त हुआ।                             

सरहदी गांधी पाकिस्तान में एक राजनीतिक संगठन ‘नेशनल अवामी पार्टी’ का गठन कर चुके थे। उनके बेटे खान वली खान औपचारिक तौर पर उसके अध्यक्ष थे। भारत में गांधी जन्मशताब्दी समारोह सरकारी-गैरसरकारी तौर पर मनाए जा रहे थेे। पाकिस्तान में नेशनल अवामी पार्टी ने भी जगह-जगह गांधी जन्मशताब्दी समारोह वहां की हुकूमत की खिलाफत के बावजूद मनाया।

इधर, हिंदुस्तान में इंदिरा गांधी की सरकार थी। भारत सरकार और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गांधी जी की जन्म शताब्दी के उपलक्ष में मनाए जा रहे प्रमुख समारोहों की सदारत के लिए सरहदी गांधी को खासतौर पर न्यौता दिया। जिसे उन्होंने तत्काल कुबूल कर लिया।

खान अब्दुल गफ्फार खान जब अपने बेटे खान वली खान के साथ पालम हवाई अड्डे पर उतरे तो प्रधानमंत्री खुद उनके स्वागत के लिए मौजूद थीं। वह भारत सरकार के राजकीय अतिथि थे और इंदिरा गांंधी के व्यक्तिगत मेहमान। यकीनन इंदिरा गांधी, खान अब्दुल गफ्फार खान के महात्मा गांधी तथा जवाहरलाल नेहरू के अतीत के गहरे संबंधों से बखूबी वाकिफ थीं। इसलिए भी प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान से आए इस विशिष्ट अतिथि की अगवानी खुद की।

गांधी जन्मशताब्दी समारोहों की श्रृंखला में अहम कार्यक्रम 1969 में पूरब का ऑक्सफोर्ड कहे जाने वाले इलाहाबाद विश्ववविद्यालय मेंं हुआ था और सरहदी गांधी ने उसकी अध्यक्षता की थी। उनकी इच्छानुसार उन्हें मंच पर सफेद खादी की चादर पर बैठाया गया। मंच पर वह अकेले विराजमान थे और श्रोता सामने बिछी दरी पर बैठे थे।

तब की एक रिपोर्ट बताती है कि उन्होंने अपनी ‘गांधी लाठी’ और गठरी को अपने पीठ के पीछे रखा था। धीमी से बुलंद होती आवाज में बोलना शुरू किया। उनके उस भाषण अथवा कथन को ऐतिहासिक दस्तावेज का दर्जा हासिल है।

इस कार्यक्रम में खान अब्दुल गफ्फार खान उर्फ सरहदी गांधी उर्फ बादशाह खान ने कहा- “दिल्ली हवाई अड्डे पर मुझे इंदिरा बिटिया ने भारत रत्न से अलंकृत करने की बात कही। मैंने उनसे कहा, पहले मेरा भारत तो मुझे दो, वही भारत जिसके लिए मैं लड़ा था। हम लोग लड़े थे। अथाह कुर्बानियां दी थीं। वह अखंड भारत था। इस भारत का ‘भारत रत्न’ मैं कैसे हो सकता हूं।

खान अब्दुल गफ्फार खान ने आगे कहा कि ‘हम सबने मिलकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आजादी की जंग लड़ी थी। जब, आजादी आई तो मुझे कह दिया गया, अब्दुल गफ्फार, तुम हमारे नहीं हो। तुम तो पराए हो। हमसे पूछा तक नहीं गया। बस कह दिया गया, तुम अलग हो। हमें अपने हाल पर छोड़ दिया गया। अब मैं उस वक्त क्या उन्हीं से लड़ता जिनके साथ मिलकर हम अंग्रेजों से लड़े थे। हमारे साथ, हमारे लोगों के साथ, हमारी धरती के साथ बहुत बड़ी बेइंसाफी की गई।”

सरहदी गांधी ने कहा कि ‘हम तो भारत में राजी थे, अखंड भारत में रहने के अलावा और कुछ कभी सोचा ही नहीं था। हम तो हिंदुस्तान के लिए लड़े थे। हमें बस यूं ही कह दिया गया, तुम बाहर हो। हम तब भी कराह रहे थे और आज भी कराह रहे हैं। हमारी पहचान हिंदुस्तानी की थी। हमसे उसे बलात छीन लिया गया। कहा गया, अपनी पहचान खोजो। हमें अंधेरे में भटकने के लिए उन लोगों ने, हमारे ही लोगों ने छोड़ दिया जिनसे हम लड़ भी तो नहीं सकते थे।’

उन्होंने कहा कि ‘हमारे लिए कुछ नहीं बदला। पहले हमें अंग्रेजों ने हिंदुस्तान की जेलों में ठूंस रखा था। आज हम और हमारे लोग पाकिस्तानी जेलों में पाकिस्तानी हुकूमत के मेहमान बनने के लिए मजबूर हैं। हमारे लिए कुछ भी नहीं बदला है। हम गांधी के सिपहसालार थे। महात्मा गांधीजी के जन्म शताब्दी के जलसे हो रहे हैं। पर मुझे तो खुद भारत में आज के हिंदुस्तान में गांधी कहीं नहीं दिखता। गांधी एक कर्मकांड का हिस्सा रह गया है। कितने लोग हैं जो गांधी का नाम भी दिल से लेते होंगे, उसके बताए रास्ते पर चलने की बात तो बहुत दूर।’

उन्होंने नई पीढ़ी से कहा कि अब भार तुम लोगों पर है, क्या सोचते हो क्या करते हो। मैं तो तुम्हारे लिए और हिंदुस्तान के लिए इबादत ही कर सकता हूं। मुझे और मेरे लोगों को अपनी जमीन से काटकर बहुत दूर कर दिया गया। पर मेरा दिल तो यहीं रह गया है। मेरी यादें भी तो यहीं की हैं।”

बताते हैं कि अपना संबोधन खत्म करने के बाद सरहदी गांधी सहजता से उठे, लाठी कंधे पर और पोटली पीछे लटकाते हुए रखी और मंच से उतर कर चल दिए। सिवा इसके वह कर भी क्या सकते थे? समकालीन भारत और पाकिस्तान के हालात देखें तो खान अब्दुल गफ्फार खान सरहदी गांधी का कथन कितना मौजू है।

(अमरीक वरिष्ठ पत्रकार हैं और पंजाब में रहते हैं)    

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