Saturday, April 20, 2024

नये चिंतन, विचार और ज्ञान की सर्जक थीं सावित्री बाई फुले


सावित्रीबाई फुले का व्यक्तित्व बहुआयामी है। वह महान शिक्षिका, बहुजनों और महिलाओं की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाली अद्वितीय नायिका और आधुनिक युग की महान कवयित्री हैं, लेकिन इस सब के पीछे उनका एक चिंतक-विचारक व्यक्तित्व भी है, उनके पास एक इतिहास दृष्टि, आदर्श समाज का सपना है, बहुसंख्यक समाज के दुखों के कारणों का एक विश्लेषण है और उसके निवारण का उपाय भी हैं। उनका चिंतक-विचारक व्यक्तित्व उनकी कविताओं, उनके भाषणों और जोतीराव फुले को लिखे उनके पत्रों में सामने आता है। उनके चिंतक-विचारक रूप को उद्घाटित करता उनका एक भाषण ‘उद्योग’ शीर्षक से है। बहुजन चिंतन परंपरा श्रम को केंद्र में रखने वाली परंपरा रही है। बहुजन परंपरा और ब्राह्मणवादी परंपरा के बीच संघर्ष का एक महत्वपूर्ण केंद्र श्रम के प्रति नजरिया रहा है,जहां ब्राह्मणवादी परंपरा श्रम और श्रम करने वालों को हेय ठहराती है, वहीं बहुजन परंपरा श्रम को सबसे बड़ा मूल्य मानती है।

बहुजन चिंतन परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सावित्रीबाई फुले लिखती हैं, ‘कठोर परिश्रम और एकाग्र होकर काम करने से मनुष्य का बौद्धिक विकास व उन्नति ( भौतिक) होती है।’ वे लिखती हैं, ‘ बिना परिश्रम के किसी भी मनुष्य का जीवन कल्याणकारी, प्रगतिशील व संपन्न नहीं हो सकता। इस बात को हमेशा के लिए समझ लेना चाहिए।” वे इस तथ्य से अच्छी तरह अवगत हैं कि सिर्फ शारीरिक श्रम से मनुष्य का विकास नहीं होगा। शूद्रों ( पिछड़ों) के पिछड़ेपन का कारण बताते हुए लिखती हैं कि वे शारीरिक श्रम तो करते थे, लेकिन उन्हें ज्ञान से वंचित कर दिया गया था। वे लिखती हैं- “शूद्र जनता के काम-धंधों में ज्ञान का अभाव होता है। ज्ञान के अभाव के कारण उनके काम उद्योगों से इतर पशुवत, कठोर, मेहनत और बेगारी-समान हो जाते हैं।…किसी भी उद्यम में अभ्यास, अध्ययन, चिंतन-मनन महत्वपूर्ण है…. उस उद्यम को विचारहीन, विवेकहीन उद्योग कहा जाता है,जो कोरे शारीरिक श्रम पर आधारित होता है।”

सावित्रीबाई फुले आधुनिक यूरोप के वैज्ञानिक खोजों से भली-भांति अवगत हैं। वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण को जीवन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण मानती हैं। वे यूरोप की वैज्ञानिक उपलब्धियों की चर्चा करते हुए लिखती हैं- “यूरोपियन लोगों ने अपनी लगन, दृढ़संकल्प शक्ति से एकाग्रचित होकर जो उद्योग किया या खोज तथा उद्यमी प्रयास, रिसर्च किए, उनके परिणामस्वरूप आज हम घड़ी, दूरबीन, पानी में चलने वाली जहाज, भाप से लेकर बिजली से चलने वाली रेलगाड़ियां, कलपुर्जे, कपड़ा मिल आदि साक्षात देख रहे हैं, जो लोगों के लिए बहुत उपयोगी हैं।” वे यूरोप के इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भारत के शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के लिए बहुत ही जरूरी और उपयोगी मानती हैं। वह लिखती हैं- “सदियों से परंपरा के नाम पर अज्ञानता व अंधकार में छटपटाने वाले शूद्र-अतिशूद्र व स्त्रियों को काबिल बनाने में ये वैज्ञानिक दृष्टिकोण (यूरोप के) मददगार हो सकते हैं। मुझे इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं है।

यदि यूरोपीय लोग विशेषकर वैज्ञानिक, जिनमें कई भारतीय वैज्ञानिक भी शामिल हैं, भगवान भरोसे हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहते और कार्य न करने की ठान लेते तो इस तरह के आश्चर्यजनक अविष्कारों से दुनिया वंचित रह जाती।” सावित्रीबाई फुले मानव भाग्य, विधाता और नियति को खारिज करती हैं, उनका मानना है कि मनुष्य अपने श्रम से और अपने कर्म से आगे बढ़ता है। यूरोपीय समाज की उद्यमशीलता की विचारधारा को सराहती हैं और भारत के भाग्य-भगवान के भरोसे रहने की विचारधारा को खारिज करती हैं। वह लिखती है- ‘ काम-धंधा उद्यमशीलता ज्ञान और प्रगति का प्रतीक है। इस कार्य में सामूहिक श्रम का महत्व है, तो आलस्य, भाग्य-विधाता, किस्मत, प्रारब्ध का निषेध। …इसके ठीक विपरीत देव-देवतावादी, भाग्यवादी, किस्मत और भगवान भरोसे जीने वाला व्यक्ति आलसी व मुफ्तखोर होने के कारण हमेशा के लिए दुखी रहता है।”

सावित्रीबाई फुले भारत के बहुसंख्यक बहुजनों के दुखों के कारणों का गहरे स्तर पर विश्लेषण करती हैं। वह ब्राह्मणों, साधुओं और मठों के गहरे षडयंत्र को इसके लिए जिम्मेदार मानती हैं। इस षड़यंत्र को समझने में अंग्रेजी शिक्षा की भूमिका को रेखांकित करती हैं- “ पिछले दो हजार वर्षों से भी अधिक समय से भारतीय मूल के निवासी, भारतीय लोग अज्ञानतावश पशुवत जीवन-यापन कर रहे हैं। उनकी इस गुलामी में रहने का कारण बामन, साधुओं और मठों के गहरे षड़यंत्र हैं। उनकी गहरी चालबाजी मक्कारी की जानकारी सभी को अंग्रेजों द्वारा दी गई अंग्रेजी शिक्षा के द्वारा प्राप्त हुई।” जहां एक ब्राह्मणवादी परंपरा पिछड़े-दलितों को जाहिल-गंवार के रूप के प्रस्तुत करती है, वहीं सावित्रीबाई फुले उनकी विशेषताओं और गुणों का गहराई से अहसास है, एक गंभीर विश्लेषक के रूप में वह लिखती है- “ भारत के मूल निवासी यानि शूद्र-अतिशूद्र जनता नि:संदेह गुणों से ओत-प्रोत है।

उनके पास अनेक हुनर हैं, किंतु अज्ञानता के कारणों से, पढ़ने-लिखने से वंचित होने की वजह से अपने ज्ञान, बुद्धि, कौशल, हुनर का सदुपयोग बेहतर तरीके से कैसे किया जाए और कहां किए जाने योग्य होगा,आदि बातों की जानकारी का उन लोगों में अभाव है।” वह एक आधुनिक अर्थशास्त्री की तरह औद्योगीकरण की बात करती है, जो रोजी-रोटी की समस्या का समाधान करेगा। वह लिखती है- “गांव-कस्बों में अमीर व्यवसायियों द्वारा व्यापक स्तर पर उद्योग-धंधों के निर्माण कराकर गांवों के कारीगरों, श्रमिकों को उचित पारिश्रमिक दिलाने का अवसर देकर, उद्योगों को सफल कराने की पहल लेनी होगी। इसी तरह कारीगरों, श्रमिकों को चाहिए कि वे अपने हुनर को अपनी समृद्धि बढ़ाने में उपयोग करें।”

सावित्री बाई फुले का विचारक-चिंतक व्यक्ति उनके दोनों काव्य संग्रहों- काव्य फुले (1854) और ‘बावनकशी सुबोध रत्नाकर’ (1891) में भी अभिव्यक्त होता है। भारत में आधुनिक ज्ञान अंग्रेजों से के माध्यम से आया,शायद इससे कोई इंकार कर सके। अपनी कविता में सावित्रीबाई फुले इस तथ्य को इन शब्दों में व्यक्त करती है-

            ज्ञानदाता अंग्रेज जो आए
            अवसर पहले यह नहीं पाया
            जागृत हो, अब उठो भाइयों!
            उठो, तोड़ दो रूढ़ परंपरा।
            शिक्षा पाने उठो भाइयों !1

अंग्रेजी शिक्षा पूरी दुनिया में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की वाहक रही है, वह आधुनिक पुनर्जागरण की भी भाषा रही है, उसने मेहनतकशों की मुक्ति में भी अहम भूमिका निभाई। अंग्रेज, अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था और अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के बिना न हम जोतीराव फुले की कल्पना कर सकते, सावित्रीबाई फुले की और न डॉ. आंबेडकर और न ही किसी अन्य बहुजन नायक की। अंग्रेजी भाषा की इस भूमिका को सावित्रीबाई फुले अच्छी तरह समझती हैं और उसे अपनी कविता इन शब्दों में व्यक्त करती हैं-
अंग्रेजी मां! अंग्रेजी मां!!
शूद्रों का उद्धार करे तू, मनोभाव से
X X X
अंग्रेजी मां! तोड़ी तून पशु-भावना
मां! तू ही देती मनुष्यता
हम जैसे शूद्र जनों को
एक आधुनिक चिंतक की तरह सावित्रीबाई फुले मानवीय गरिमा और आजादी को इंसान होने की शर्त मानती हैं, उनकी इन पंक्तियों को पढ़कर लगता है कि जैसे कोई यूरोपीय पुनर्जागरण का विचारक बोल रहा हो। सामंती-ब्राह्मणवादी समाज में आजादी और मानवीय गरिमा के लिए कोई स्थान ही नहीं था। यह पूरी तरह आधुनिक अवधारणा है। वह लिखती हैं-

           जिसे गुलामी का दु:ख न हो
           न ही अपनी आजादी के 
           छीन जाने का रहे मलाल
           नहीं समझ आवे, जिसको कुछ
           इंसानियत का भी जज्बा
           उसे कहें कैसे हम बोलो जी, इंसान?

सभी आधुनिक दार्शनिकों ने कहा है कि अज्ञानता ही अंधकार है। सावित्रीबाई फुले ‘अंधकार’ शीर्षक अपनी कविता में यह प्रश्न यह प्रश्न उठाती हैं कि आखिर इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन कौन है ?

             एक ही दुश्मन है,हम सबका
             मिलकर उसे खदेड़ दें
             उससे ज्यादा खतरनाक कोई नहीं
             खोजो, खोजो..
             मन के भीतर झांको देखो

और वह खुद ही बताती हैं कि इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन उसकी अज्ञानता है-

                        सुनो! ध्यान से उस दुश्मन का 
                        नाम सुनो अब…
                        वह दुश्मन है, ‘अज्ञान’

सावित्रीबाई फुले एक आधुनिक चिंतक-विचारक हैं, इसका साक्ष्य उनके भाषण, उनकी कविताएं और उनके पत्र प्रस्तुत करते हैं।

(संदर्भ- सामाजिक क्रांति की योद्धा: सावित्रीबाई फुले-जीवन के विवध आयाम, दास पब्लिकेशन, लेखक- डॉ. सिद्धार्थ)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

पुस्तक समीक्षा: निष्‍ठुर समय से टकराती औरतों की संघर्षगाथा दर्शाता कहानी संग्रह

शोभा सिंह का कहानी संग्रह, 'चाकू समय में हथेलियां', विविध समाजिक मुद्दों पर केंद्रित है, जैसे पितृसत्ता, ब्राह्मणवाद, सांप्रदायिकता और स्त्री संघर्ष। भारतीय समाज के विभिन्न तबकों से उठाए गए पात्र महिला अस्तित्व और स्वाभिमान की कहानियां बयान करते हैं। इस संग्रह में अन्याय और संघर्ष को दर्शाने वाली चौदह कहानियां सम्मिलित हैं।

स्मृति शेष : जन कलाकार बलराज साहनी

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक...

Related Articles

पुस्तक समीक्षा: निष्‍ठुर समय से टकराती औरतों की संघर्षगाथा दर्शाता कहानी संग्रह

शोभा सिंह का कहानी संग्रह, 'चाकू समय में हथेलियां', विविध समाजिक मुद्दों पर केंद्रित है, जैसे पितृसत्ता, ब्राह्मणवाद, सांप्रदायिकता और स्त्री संघर्ष। भारतीय समाज के विभिन्न तबकों से उठाए गए पात्र महिला अस्तित्व और स्वाभिमान की कहानियां बयान करते हैं। इस संग्रह में अन्याय और संघर्ष को दर्शाने वाली चौदह कहानियां सम्मिलित हैं।

स्मृति शेष : जन कलाकार बलराज साहनी

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक...