आत्मालोचना है बौद्धिक विकास की आवश्यक शर्त

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यह अलग बात है कि धर्म परिवर्तन के बाद भी जातियां बनी रहीं, लेकिन इसमें लोभ किसने दिया? सांप्रदायिक दिमाग में तलवार या प्रलोभन से धर्म परिवर्तन के कुप्रचार का असर इस कदर बैठा हुआ है कि कोई-न-कोई कुतर्क ढूंढ लेंगे। पहली बात तलवार, भय या लोभ में धर्म परिवर्तन होता तो मुस्लिम सत्ता का केंद्र रहे आगरा और दिल्ली के आस-पास मुस्लिम बहुसंख्यक होते। बंटवारे के पहले भी कश्मीर और उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत, बलूचिस्तान, पूर्वी बंगाल को छोड़कर कहीं भी मुसलमान बहुसंख्यक नहीं थे।

2011 की जनगणना के अनुसार दिल्ली की आबादी है…
हिंदू 81.68%
मुस्लिम 12.86%
ईसाई 0.87%
सिख 3.40%

गांधी जी ने कहा था कि यदि हम अंग्रेजों को ही दोष देते रहेंगे तो गुलाम ही रह जाएंगे, इसीलिए हिंदू क्यों मुसलमान बने या मुट्ठी भर विदेशी आक्रांता क्यों हमें पराजित करते रहे उसके कारण हमें अपने अंदर ढूंढना होगा।

1. हिंदू क्या है? ऊंच-नीच जातियों का समुच्चय, जिसमें एक अच्छी खासी आबादी के साथ पशुवत व्यवहार होता था। उच्च जातियों के मुट्ठी भर परजीवी कामगार बहुमत को हेय समझता था तथा अवमानना की दृष्टि से देखता था। सांस्कृतिक वर्चस्व के चलते ‘पराधीनता’ भले ही ‘स्वैच्छिक’ लगे, लेकिन हर किसी को आजादी और स्वाधीनता, समानता प्रिय होती है। बाबा आदम के जमाने की बात छोड़िए मेरे छात्र जीवन तक हमारे इलाके में वर्णाश्रमी व्यवस्था छुआछूत समेत अपनी सभी विद्रूपताओं के साथ मौजूद थी। अर्थ ही मूल है। कारीगर शूद्र जातियों में आर्थिक आत्मनिर्भरता के बाद सामाजिक स्वाधीनता की भावना जोर पकड़ने लगी। चेतना के उस स्तर में वे धर्म के बिना जीवन की कल्पना न कर सकने के कारण समानता की तलाश में उन्होंने धर्म परिवर्तन कर लिया, जाति ने तब भी पीछा नहीं छोड़ा, यह अलग बात है।

2. जिस भी समाज में शस्त्र और शास्त्र का अधिकार मुट्ठी भर लोगों के हाथ में केंद्रित होगा उसे कोई भी पराजित कर सकता है, कुछ हजार घुड़सवारों के साथ नादिरशाह जैसा चरवाहा भी। तुलसीदास ने सही लिखा है, बहुमत सोचता है, “को होवे नृपति हमें का हानी…….”

3. सभी धर्म अधोगामी (regressive) होते हैं, क्योंकि वे आस्था की बेदी पर विवेक की बलि चढ़ा देते हैं। ब्राह्मण (हिंदू) धर्म सर्वाधिक अधोगामी होता है क्योंकि अन्य धर्मों में समानता की सैद्धांतिक समानता होती है, हिंदू धर्म में वह भी नहीं होती। सब पैदा ही असमान होते हैं। अब ब्रह्मा जी का क्या किया जा सकता है। सैद्धांतिक समानता की चाह में कुछ लोग अन्य धर्मों की तरफ ताकने लगते हैं।

4. शिक्षा पर एकाधिकार से तथाकथित ज्ञान के वर्चस्व के माध्यम से ब्राह्मणवादी वैचारिक वर्चस्व से अमानवीय जातिव्यवस्था सदियों बरकरार रही। पुराण और मिथकों को ही ज्ञान के रूप में पेश किए जाने से, प्राचीन गौरवशाली बौद्धिक परंपराओं के बावजूद लंबे समय तक बौद्धिक जड़ता छाई रही और यूरोप की तरह मध्यकाल में अंधकार युग छाया रहा। वहां नवजागरण और प्रबोधन क्रांतियों से अंधे युग का अंधकार छंटने लगा, हमारे यहां कबीर के साथ शुरू हुआ नवजागरण अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका। औपनिवेशिक हस्तक्षेप ने प्रबोधन क्रांति की संभावनाओं को खत्म करके औपनिवेशिक शोषण के माध्यम से आधुनिकता थोपा। जब यूरोप में वैज्ञानिक खोज हो रही थी तब हमारे पूर्वज गोबर के गणेश पूजने तथा बाल विवाह और सती जैसी ‘पवित्र परंपराओं’ की सुरक्षा में मशगूल थे।

बहुत लंबा जवाब हो गया। इसे कुछ लोग हिंदू संस्कृति की निंदा कहेंगे, लेकिन बौद्धिक विकास की आवश्यक शर्त है आत्मालोचना। अंत में उम्मीद है कि तलवार से धर्म परिवर्तन के निराधार, सांप्रदायिक पूर्वाग्रह से मुक्त होकर चीजों की तार्किक व्याख्या करेंगे।

(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं।)

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