Wednesday, April 17, 2024

गुरु गंभीर भाषा के दंश का शिकार ‘गंभीर आदमी’ !

कल मनु जोसेफ के पहले उपन्यास पर आधारित सुधीर मिश्रा की फिल्म, भारत सरकार के एक वैज्ञानिक आचार्या के अनुसूचित जाति के क्लर्क अय्यन मणि की कुंठाओं की त्रासदी की कहानी की फिल्म ‘सीरियस मेन’ देखी । 

अय्यन मणि तमिलनाडु के एक गांव के बेहद गरीब और वंचित दलित परिवार से मुंबई में सरकारी नौकरी पर आया हुआ लड़का। मुंबई के चॉल में उसके जीवन की सिर्फ दो वासनाएं शेष थी- पहली काम वासना, जीव मात्र की आदिम वासना और दूसरी झटाझट पैसे कमा कर समाज में सम्मान पाने की, अर्थात उस समाज में प्रवेश की जिसके दरवाजे उस जैसों के लिए हमेशा की खातिर बंद रहते हैं ।

वह एक उच्चस्तरीय सरकारी वैज्ञानिक संस्थान का क्लर्क था, और इसीलिए सम्मान की सीढ़ी के तौर पर उसने अपने बॉस आचार्या के अबूझ से वैज्ञानिक सिद्धांतों के मंत्रों को जाना था । आचार्या एक वैज्ञानिक की अपनी प्रतिष्ठा का लाभ उठा कर उन क्वांटम भौतिकी के रहस्यमय मंत्रों को उगल कर अज्ञानी शासकों से अपने आकाशी प्रकल्पों के लिए कोष जुटाया करता था । 

अय्यन खुद तो पैसों और प्रतिष्ठा की इस दौड़ में शामिल होने की उम्र और अवसर गंवा चुका था, लेकिन उसने अपने छोटे से बेटे आदि मणि को इसका माध्यम बनाने का ठान लिया । एक सूक्ष्म टेलिप्रांपटर के जरिये वह आदि के कान में आचार्या की अबूझ बातों और सिद्धांतों को फूंका करता था जिन्हें बच्चा आदि अपनी क्लास में दोहरा कर सब लोगों का ध्यान खींचने लगा । चारों ओर उसकी चर्चा होने लगी । दलितों के बीच तो शीघ्र ही वह एक भारी श्लाघा का विषय बन गया, उसे जीनियस लघु भीम के रूप में पेश किया जाने लगा । राजनीतिक सभाओं में भी उसके भाषण होने लगे और देखते ही देखते वह चमत्कार पूजक भीड़ का एक आइकन बन गया । उसके नाम पर राजनीति और व्यापार, दोनों जगत में धंधा होने लगा । 

पर अय्यन की यह चतुराई उसी वक्त तक चल पाई जब तक आदि अपने पिता की इस कारस्तानी के रहस्य को छिपा कर रख पाया । पर सारी सावधानी के बावजूद उसे सामने आना ही था । देखते-देखते अबोध बच्चा एक गहरे धर्मसंकट में फंस गया । आचार्या के सामने भी अय्यन और उसके बेटे का सारा रहस्य खुल गया । 

चूंकि अय्यन को आचार्या के अपने कई गुह्य रहस्यों का आभास था, इसीलिए दोनों के बीच एक सौदा हुआ जिसमें अय्यन ने आचार्या की उस पर बैठ चुकी जांच से बचाने में राजनीतिज्ञों के जरिये मदद की और इसके बदले में आचार्या ने आदि मणि को इस पूरे जंजाल से निकलने में अपने अनुभवों से सहायता की । फलतः आचार्या भी बच गया और आदि की पटरी से उतरी हुई गाड़ी भी पटरी पर लौट आई । पर, त्रासदी हुई अय्यन के साथ । वह खुद अय्यन आचार्या के भाषाई खेलों के रहस्य की गुत्थियों में फंस कर बावला हो जाता है । 

इस प्रकार इस पूरी फिल्म का मूल विषय वही है, जिसे सामान्य तौर पर दलितों के संस्कृतिकरण की समस्या के नाम से भी जाना जाता है । सचमुच, आदमी की गंभीरता या हल्कापन एक कोरा भाषाई उत्पाद ही तो है । संस्कार और संस्कृति की बातें, बुद्धि और विवेक, अर्थात् समाज के प्रभुजनों के प्रचलित मानदंडों को आत्मसात करने का सवाल सिवाय भाषाई कसरत के अलावा और क्या है ? अय्यन आचार्या के यहां सुने मंत्रों के उच्चार मात्र से अपने प्रभुओं के समाज में बलात् प्रवेश करना चाहता था । उसने अपने बेटे को इन भाषाई कैप्सुल्स को गटकने और उगलने के लिए मजबूर किया । उसका बेटा हर जगह भारी भरकम शब्दों और झूठे सिद्धांतों की उल्टी करके झूठे समाज को मुग्ध कर रहा था । पर, अपने इस गोरखधंधे में अनचाहे ही अय्यन ने अपने पूरे परिवार को जैसे एक अपराधी समूह में तब्दील कर दिया ।

अय्यन का बॉस आचार्या इन भाषाई कदाचारों के रहस्यों को भली भांति जानता था, इसीलिए इनके दंश के विष का निदान भी उसके पास था । उसने आदि को इससे बचाने में मदद की, पर अय्यन तब भी नहीं समझ पाया । उसने तो इन गुरुमंत्रों की धुन को ही अपनी मुक्ति का परम सत्य मान लिया था । वह गंभीर आदमी जो था ! सिर्फ कामोद्दीपन से चलने वाला आदिम जीव (प्रिमिटिव माइंड) नहीं, वह कथित ज्ञान से भी उद्दीप्त था ! पर उसकी विडंबना यह थी कि उसे इस उद्दीपन के धक्के से चक्रव्यूह में प्रवेश का रास्ता तो मालूम था पर उससे निकलने का रास्ता नहीं, क्योंकि वह तो सचमुच उनके भरोसे ही जीवन की लड़ाई में उतरा था । वह अंत तक आचार्या के कहन की भंगिमाओं में सिर धुनता रह गया – ज्ञान और साहित्य जगत के अधकचरेपन में फंसी एक ‘दलित’ आत्मा ! 

कहना न होगा, ऐसे ही आदमी का अवचेतन एक भाषाई विन्यास के रूप में निर्मित होता है । और, आचार्या की तरह के पहुंचे हुए गुरु उस प्रमाता को सदा संचालित करते रहते हैं । जब तक वह जानता है कि ऐसे गुरु से मुक्ति में ही उसकी अपनी परम प्राप्ति है, काफी देर हो चुकी होती है । पूरी उम्र गुजर जाती है । 

सुधीर मिश्रा ने इस पूरी पटकथा का फिल्म में बहुत ही बारीकी से निर्वाह किया है । हिंदी फिल्मों के इतिहास में यह फिल्म अपना स्थान बनाएगी । अय्यन के रूप में नवाजुद्दीन उच्चाकांक्षाओं के दंश के शिकार सामान्य व्यक्ति की त्रासदी के बहुत ही स्वाभाविक प्रतिनिधि लगते हैं । आचार्या के रूप में नसर अपने व्यक्तित्व की गुरुता को साक्षात करते हैं तो अय्यन की पत्नी इन्दिरा तिवारी की भूमिका भी नजर खींचती है । आदि मणि के रूप में अक्षत दास और दलित राजनीति के व्यापारी केशव धावड़े की भूमिका में संजय नारवेकर भी पूरी तरह फबते हैं ।

(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक चिंतक और स्तंभकार हैं आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)      

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