कॉमरेड सफ़दर हाशमी की 1989 के नए वर्ष के पहले दिन दिल्ली के पास गाजियाबाद जिला में झंडापुर औद्योगिक इलाके में ‘हल्ला बोल’ नाटक खेलने के दौरान कुछ गुंडों के गिरोह ने हत्या कर दी थी। उनको मारने वालों में एक गुंडा स्थानीय चुनाव में उम्मीदवार था।
उसने अपने गिरोह के साथ मिलकर कॉमरेड सफ़दर हाशमी के ग्रुप पर हमला किया था। उस हमले में जब कॉमरेड सफ़दर हाशमी बुरी तरह से घायल हो गए तब उनको इलाज के लिए दिल्ली के राम मनोहर लोहिया हॉस्पिटल लाया गया। पर उनको बचाया नहीं जा सका और उसी हॉस्पिटल में उनका अगले दिन निधन हो गया।
जिस जगह कॉमरेड सफ़दर हाशमी पर हमला हुआ था, उनके साथियों ने वहीं जाकर हल्ला बोल नाटक का अधूरा मंचन पूरा किया। कामरेड सफ़दर हाशमी ने इस हमले के कुछ वर्ष पहले से राजनीतिक लामबंदी के लिए सांस्कृतिक आन्दोलन मजबूत करने की कोशिश शुरू की थी।
वह कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत लोगों को एक मंच पर लाने की कोशिश कर रहे थे। कॉमरेड सफ़दर हाशमी की हत्या के बाद पूरे देश में गुस्से की लहर थी। जो काम कॉमरेड सफ़दर हाशमी करना चाहते थे, उसे पूरा करने में कई वर्ष लग जाते लेकिन उनकी हत्या के बाद उस काम में जन सहयोग से तेजी आ गई।
देश के हर हिस्से में संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले लोग इकठ्ठा होते गए और कॉमरेड सफ़दर हाशमी की याद में बना संगठन सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) प्रभावी मंच के रूप में विकसित होता चला गया। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करने वाले आरएसएस के लोगों के संगठनों को चुनौती देने के लिए सहमत के बैनर तले सेक्युलर लोकतान्त्रिक लोग जुड़ते चले गए।
मेरे संस्मरण
यह बात तीन जनवरी 1989 की है, जब हम सब कॉमरेड सफदर हाशमी के पार्थिव शरीर की अंत्येष्टि के लिए दिल्ली में यमुना नदी के तट पर निगमबोध घाट के इलेक्ट्रिक क्रिमेटोरियम ले जाने सांसदों के रहने के विट्ठल भाई पटेल हाउस परिसर से रवाना होने वाले थे।
मैं वहां उस परिसर की बाउंड्री वाल से लगे यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया (यूएनआई) समाचार एजेंसी के अपने ऑफिस से सीधे आया था। अचानक लाल लिबास में वहां आए कुछ लोगों को देख मैंने सबके साथ सफ़दर हाशमी की शव-यात्रा में भाग लेने पहुंचे प्रख्यात साहित्यकार भीष्म साहनी से पूछा कि ये लोग कौन हैं।
उनका जवाब था, ‘ये सब रेड गार्ड्स लगते हैं, मैंने भी हिंदुस्तान में खुले आम सड़क पर पहली बार रेड गार्ड्स देखा है’।
उन्होंने हिंदुस्तान शब्द इसलिए कहा था कि उनका जन्म हिंदुस्तान को ब्रिटिश हुक्मरानी की सैकड़ों वर्षों की गुलामी से 14 और 15 अगस्त 1947 की आधी रात राजनीतिक आजादी मिलने के साथ ही उसके हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, इसाई और मुस्लिम समेत कुछ अन्य धर्मों के लोगों के बहुल भारत और मुस्लिम आदि कुछ अन्य धर्मों के लोगों के बहुल पाकिस्तान में बंटवारे से पहले रावलपिंडी नगर में हुआ था जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है।
वह मुझको जानते थे इसलिए उन्होंने यह बताना जरूरी नहीं समझा कि रेड गार्ड्स क्या होते हैं। उन्हें पता था कि मैं यूएनआई में पत्रकार बनने से पहले नई दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) का छात्र रहा था जहां के शिक्षकों और छात्रों के बीच कम्युनिस्ट पार्टियों के क्रांतिकारी लाल दस्ते को रेड गार्ड्स कहा जाता है।
बहुत बाद में उत्तर प्रदेश की इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ने के बाद पत्रकार बने और हिंदी न्यूज पोर्टल मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक डा. पंकज श्रीवास्तव के साथ लंच के समय नई दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया आए इतिहासकार और यूएनआई के नई दिल्ली के साथ ही लखनऊ ऑफिस में साथ काम कर चुके कॉमरेड सत्यम वर्मा के पिता कॉमरेड लालबहादुर वर्मा ने घंटे भर की बातचीत में मेरे इस प्रसंग का जिक्र करने पर जो बताया वह चौंकाने वाला था।
उन्होंने बताया कि रेड गार्ड्स के भारत में सड़क पर उतरने का यह पहली बार का ही नहीं अभी तक का आखरी बार मौका है। साहित्यकार भीष्म साहनी और इतिहासकार लालबहादुर वर्मा का निधन हो चुका है।
पढ़ाई और शुरुआती जीवन
सफ़दर हाशमी का जन्म 12 अप्रैल 1954 को दिल्ली में कॉमरेड हनीफ और कमर आज़ाद हाशमी के घर हुआ था। वह छोटी उम्र में ही कम्युनिस्ट विचारों से प्रभावित हो गए थे। कॉमरेड सफ़दर हाशमी ने 1973 में जन नाट्य मंच (जनम) की स्थापना करने के अलावा कई यूनिवर्सिटियों में पढ़ाया।
उन्होंने पश्चिम बंगाल सरकार के दिल्ली के सूचना केंद्र ‘मनीषा’ पर सूचनाधिकारी के रूप में भी काम किया। कॉमरेड सफ़दर हाशमी ने 1983 में उस नौकरी से इस्तीफा दे दिया और फिर वह सीपीएम के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए।
उन्होंने सीपीएम से जुड़े सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) जैसे मज़दूर संगठनों के अलावा जनवादी छात्रों, महिलाओं, युवाओं और किसानों के विभिन्न आंदोलनों में भी सक्रिय भूमिका निभाई। कॉमरेड सफ़दर हाशमी इंदिरा गांधी सरकार द्वारा 26 जून 1975 को पूरे भारत में लागू इंटरनल इमरजेंसी तक नुक्कड़ नाटक करते रहे थे।
इंटरनल इमरजेंसी के दौरान वह गढ़वाल, कश्मीर और दिल्ली की यूनिवर्सिटियों में अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ाते रहे थे। इंटरनल इमरजेंसी खत्म होने के बाद कॉमरेड सफ़दर हाशमी राजनीतिक रूप से फिर सक्रिय हो गए। उनके प्रयासों से 1978 तक जन नाट्य मंच भारत में नुक्कड़ नाटक के महत्वपूर्ण संगठन के रूप में उभर आया।
जन नाट्य मंच का नुक्कड़ नाटक ‘मशीन’ करीब दो लाख मज़दूरों की सभा में खेला गया। जन नाट्य मंच के नाटकों को 4000 बार मुख्य रूप से मजदूर बस्तियों, फैक्टरियों में खेला।
कॉमरेड सफदर हाशमी जनवादी क्रांति के लिए जिये और मारे गए
कॉमरेड सफदर हाशमी जनवादी क्रांति के लिए जिये, पढ़े, लिखे, गाये, संघर्ष किये और गुंडों द्वारा मारे भी गए। भीष्म साहनी, सफ़दर हाशमी की स्मृति में स्थापित सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) के संस्थापकों में अग्रणी थे।
सहमत का पहला कार्यालय सांसदों के रहने के लिए प्रयुक्त वी पी हाउस में ही कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया मार्क्सिस्ट (सीपीएम) के एक सांसद को भूतल पर आवंटित कमरा में स्टूडेंट्स फ़ेडेरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के बने ऑफिस की बालकनी का उपयोग कर खुला था।
सीपीएम के पूर्व राज्य सभा सदस्य और पार्टी के अब दिवंगत हो चुके जनरल सेक्रेटरी कामरेड सीताराम येचुरी तब एसएफआई के राष्ट्रीय पदाधिकारी थे। मैं जेएनयू में चीनी भाषा एवं साहित्य एमए के 5 वर्ष के कोर्स की अधूरी रही पढ़ाई के दौरान एसएफआई का सदस्य था और उसके वी पी हाउस कार्यालय जाता रहता था।
चूंकि सीपीएम समर्थक कई संगठनों के कार्यालय वीपी हाउस में थे इसलिए सफदर हाशमी की अंत्येष्टि यात्रा वी पी हाउस से निकालना उसका बड़ा कारण था। कॉमरेड सफ़दर हाशमी सीपीएम के आजन्म कार्यकर्ता रहे थे।
कॉमरेड सफदर हाशमी, कम्युनिस्ट नाटककार, कलाकार, निर्देशक, गीतकार और कवि ही नहीं कलाविद और बहुत उम्दा इंसान भी थे।
कॉमरेड सफ़दर हाशमी का शुरुआती जीवन उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ शहर और दिल्ली में बीता। उन्होंने स्कूली पढ़ाई दिल्ली में पूरी करने के बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी के सेंट स्टीफेन्स कॉलेज से अंग्रेज़ी में एमए की डिग्री प्राप्त की थी।
कॉमरेड सफदर हाशमी ने कई टेलीफ़िल्म स्क्रिप्ट लिखी, रंगमंच और फिल्मों पर लेख लिखे, क्रांतिकारी कविताओं और नाटकों का हिंदी में अनुवाद किया।
कॉमरेड सफ़दर हाशमी ने बच्चों के लिये भी नाटक, गीत और कविताएं, लिखीं। उन्होंने 1986 में दिल्ली के सरदार पटेल स्कूल में अपनी पत्नी माला की एक सहकर्मी के कहने पर रूसी साहित्यकार एंथन चेखव की कहानी पर ‘गिरगिट’ नाटक लिखा। इस स्कूल के बच्चों द्वारा गिरगिट नाटक का पहला प्रदर्शन देखने कॉमरेड सफ़दर हाशमी खुद भी गए थे।
कॉमरेड सफ़दर हाशमी ने कई वृत्तचित्रों और दूरदर्शन के लिए एक धारावाहिक ‘खिलती कलियां’ का निर्माण भी किया। कॉमरेड सफदर हाशमी की हत्या तक ‘जनम’ 24 नुक्कड़ नाटकों को 4000 बार खेल चुका था। इन नाटकों का प्रदर्शन मुख्यत: मज़दूर बस्तियों और फैक्ट्रियों में किया गया था।
कॉमरेड सफदर हाशमी ने नुक्कड़ नाटक को सामाजिक बदलाव का सशक्त माध्यम माना था। कॉमरेड सफदर हाशमी नाटकों को ऑडिटोरियमों से निकलकर सड़क और नुक्कड़ों पर ले आये। कॉमरेड सफदर हाशमी के लिए कला, लोगों की बेहतर जिंदगी जीने का माध्यम रही। उनका नारा था ‘बेहतर विचारधारा, बेहतर नाटक, बेहतर कविता, बेहतर गीत।
विवाह
कॉमरेड सफदर हाशमी ने 1979 में नुक्कड़ नाटककर्मी मलयश्री हाशमी से विवाह किया। उन्होंने प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया (पीटीआई) और अंग्रेजी अखबार द इकोनॉमिक टाइम्स में पत्रकार के रूप में भी काम किया। मलयश्री हाशमी ने 4 जनवरी 1989 को ‘जनम’ की टोली के साथ झंडापुर जाकर उस अधूरे छूट गए नाटक को पूरा किया।
जिसे खेलने के दौरान कॉमरेड सफदर हाशमी की कुछ गुंडों के गिरोह ने हत्या कर दी थी। उस घटना के 14 वर्ष बाद गाजियाबाद के एक कोर्ट ने 10 लोगों को कॉमरेड सफदर हाशमी की हत्या के मामले में आरोपी करार दिया जिनमें कांग्रेस का भी एक समर्थक शामिल था।
जन नाट्य मंच 1989 की उस घटना के बाद से हर बरस पहली जनवरी को झंडापुर के उसी जगह पर कार्यक्रम करता है। यह दुखद है कि मलयश्री हाशमी सहमत से अलग हैं पर उनका नुक्कड़ नाटकों से लगाव बना हुआ है।
सहमत के कार्यक्रम
सहमत का ऑफिस अब दिल्ली में नाट्य संस्थाओं के केंद्र मंडी हाउस के पास फिरोजशाह रोड से लगे पंडित रविशंकर शुक्ल लेन पर है। वहां कॉमरेड सफ़दर हाशमी के बड़े भाई और जेएनयू के छात्र रहे इतिहासविद कॉमरेड सोहेल हाशमी भी आते रहते हैं।
सहमत की स्थापना के तीन दशक से ज्यादा समय बीत जाने तक उसने भारत में फासीवादी ताक़तों के खिलाफ कला एवं संस्कृति के मोर्चे पर बहुत लोगों को प्रभावी मंच दिया है।
भारत में लोकसभा के 2014 के चुनावों के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस ) के राजनीतिक अंग भारतीय जनता पार्टी (भाजपा ) के राजसत्ता में दाखिल हो जाने के बाद उसके प्रचारक रहे नरेंद्र मोदी के उसी वर्ष 26 जून को देश का प्रधानमंत्री बन जाने से मौजूदा राजनीति में समाज पर बहुमतवाद की रूढ़िवादी सोच थोपने की कोशिशें चल रही हैं।
जिसके खिलाफ सहमत लगातार जनपक्षीय सांस्कृतिक अभियान चला रहा है। कॉमरेड सफ़दर हाशमी की हत्या पर जन आक्रोश सामने आया था और भारत के विभिन्न हिस्से में संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले इकट्ठा होते गए। कॉमरेड सफ़दर हाशमी की याद में बना संगठन सहमत और सशक्त हुआ है और उसके साथ वामपंथी संस्कृतिकर्मी लामबंद होते गए हैं।
हर वर्ष पहली जनवरी को सहमत के वार्षिक कार्यक्रम में शास्त्रीय संगीत को अवामी प्रतिरोध का माध्यम बना उसे गंगा-जमुनी साझा विरासत के रूप में पेश किया जाने लगा है।
सहमत ने सूफी संगीत, अनहद गरजै, दांडी मार्च, महात्मा गांधी, भारत का 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम, हबीब तनवीर, बलराज साहन, मंटो, फैज़ अहमद ‘फैज़’, भीष्म साहनी, जवाहरलाल नेहरू, आज़ादी के बाद के साल जैसे विषयों पर कार्यक्रम आयोजित करके देश की सांस्कृतिक जमात को लामबंद किया है।
कई वर्षों तक सहमत के वार्षिक कार्यक्रम मंडी हाउस क्षेत्र में ही आयोजित किये जाते रहे, जहां एक सड़क का नाम उन पर रखा जा चुका है। बाद में ये कार्यक्रम संसद भवन के पास कांस्टिच्यूशन क्लब परिसर में होने लगे। कोरोना कोविड महामारी से निपटने के सरकारी गाईडलाइन के कारण एक बार ये कार्यक्रम प्रत्यक्ष नहीं बल्कि ऑनलाइन आयोजित किए गए थे।
संस्कृति के क्षेत्र में वामपंथी विचारधारा
संस्कृति के क्षेत्र में वामपंथी विचारधारा का हमेशा से सक्रिय योगदान रहा है। जब प्रगतिशील लेखक संघ का 1936 में गठन हुआ तब उसके पहले अध्यक्ष हिन्दी-उर्दू के बड़े लेखक मुंशी प्रेमचंद को बनाया गया। रंगकर्मी भी सक्रिय हुए और इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन (इप्टा) का गठन हुआ, जिसने थियेटर के क्षेत्र में बहुत काम किया है।
यह जागरूकता 1947 में भारत की आजादी के बाद विभिन्न कारणों से कमज़ोर पड़ गई थी। सहमत के गठन के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की अगुवाई की दक्षिणपंथी साम्प्रदायिक ताकतों को संस्कृति क्षेत्र में चुनौती का सामना करने में मदद मिली है।
पहले कॉमरेड सफदर हाशमी की छोटी बहन शबनम हाशमी सहमत चलाती थीं। अब वह सहमत से अलग होकर द्वारका कलेक्टिव आदि नाम से कई एनजीओ चलाती हैं। सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) ने पिछले करीब तीन दशक में संस्कृति के मोर्चे पर फासिस्ट ताक़तों के खिलाफ बहुत बड़े वर्ग को संगठित किया है।
सहमत ने सांस्कृतिक संगठन के रूप में देश के राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया है। सहमत संस्था के पदाधिकारी राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार जब देश की राजनीति में कुछ लोगों द्वारा रूढ़िवादी सोच और साम्प्रदायिक घृणा बढ़ाने की कोशिश की जा रही हैं, सहमत ने उनका मुकाबला करने के लिए जनपक्षधर सांस्कृतिक अभियान आगे बढ़ाने का निश्चय किया है।
सहमत ने अमृतसर के जलियांवाला बाग़ कांड के सौ साल पूरे होने पर कैलेंडर जारी किया , महात्मा गांधी के जन्म के 150 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष में कला प्रदर्शनी लगाई और बड़े कलाकारों के काम को पोस्ट कार्ड के जरिए प्रचारित किया। इन कार्यक्रमों में बहुत कलाकार शामिल होते रहते हैं।
और अंत में कामरेड सफ़दर हाशमी की लिखी एक कविता ‘किताबें’ जो बहुतों को बेहद पसंद है।
किताबें-
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं
किताबें करती हैं बातें
बीते ज़मानों की
दुनिया की इंसानों की
आज की कल की
एक-एक पल की
ख़ुशियों की ग़मों की
फूलों की बमों की
जीत की हार की
प्यार की मार की।
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं
किताबों में चिड़ियां चहचहाती हैं
किताबों में खेतियां लहलहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं
किताबों में राकेट का राज़ है
किताबों में साइंस की आवाज़ है
किताबों में कितना बड़ा संसार है
किताबों में ज्ञान की भरमार है
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं
(लेखक चंद्रप्रकाश झा यूएनआई मुंबई ब्यूरो से रिटायर होने के बाद ज्यादातर समय बिहार के अपने गांव में रह स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं।)
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