Thursday, April 18, 2024

‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ और ‘मेघदूतम’ का खोरठा में अनुवाद करने वाले विलक्षण प्रतिभा के धनी श्रीनिवास पानुरी

स्कूली शिक्षा का अधूरापन, आर्थिक अभाव या वर्ण व्यवस्था का शिकार जातिगत कतार में खड़ी सामाजिक पिछड़ापन हो, प्रतिभा किसी का मोहताज नहीं होती, इतिहास इस बात का गवाह है। इतिहास के इन्हीं पन्नों में नाम आता है झारखंड में खोरठा भाषा को व्यापक स्वरूप देने वाले श्रीनिवास पानुरी का। इनकी लेखन कला और सामाजिक समझ का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इन्होंने कालिदास कृत “मेघदूतम” का खोरठा में मेघदूत शीर्षक से अनुवाद किया। वहीं इनकी समाजवादी सोच और वर्गवादी चेतना का प्रभाव रहा कि इन्होंने “कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो” का भी “युगेक गीता” शीर्षक से खोरठा में अनुवाद किया।

श्रीनिवास पानुरी की रचना धर्मिता को देखते हुए उनको खोरठा के भीष्म पितामह, खोरठा जगत का ध्रुवतारा, खोरठा के वाल्मीकि, खोरठा का नागार्जुन, खोरठा के टैगोर, अक्षय बोर, खोरठा शिष्ट साहित्य के जनक के उपनाम से नवाजा गया। बता दें कि खोरठा के महान साहित्यकार, जनवादी व प्रगतिशील कवि श्रीनिवास पानुरी का जन्म 25 दिसंबर 1920 को गुलाम भारत में धनबाद जिले के बरवाअड्डा (कल्याणपुर) में पानवारी परिवार के शालिग्राम पानुरी और दुखनी देवी के घर में हुआ था। पत्नी का नाम मूर्ति देवी था। इनकी मृत्यु 7 अक्टूबर 1986 में हृदयगति रुक जाने के कारण हुई।

श्रीनिवास पानुरी बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। परिवार आर्थिक व सामाजिक स्थिति बहुत बढ़िया न होने के कारण वे मैट्रिक भी नहीं कर सके बावजूद उनकी साहित्यिक रूचि और भाषा पर पकड़ काफी विस्मयकारी रहा। कहना ना होगा कि गरीबी के कारण इन्हें अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। उसके बाद ये पान गुमटी खोल कर अपना जीवन निर्वाह करते रहे। गरीबी और अभाव के बावजूद साहित्य के प्रति रूचि अद्भुत रही।

बताना जरूरी होगा खोरठा-लेखन को उस जमाने में ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था। लोग इनका मजाक बनाया करते थे। लेकिन इनकी लेखन कला से प्रभावित होकर हिंदी साहित्य के बड़े साहित्यकारों राहुल सांकृत्यायन, वीर भारत तलवार, राधाकृष्ण, श्याम नारायण पांडेय, शिवपूजन सहाय, भवानी प्रसाद मिश्र, जानकी वल्लभ शास्त्री जैसों का समर्थन मिला।

पानुरी जी की पहली रचना “बाल किरन” नामक कविता संग्रह 1954 में प्रकाशित हुई। 1957 में इन्होंने खोरठा भाषा की मासिक पत्रिका “मातृभाषा” का प्रकाशन किया। इस पत्रिका का टैगलाइन था “आपन भाषा सहज सुंदर, बुझे गीदर बुझे बांदर” 1957 में ही राँची आकाशवाणी से इनकी कविता प्रसारित हुई। इसके बाद इन्होंने खोरठा और तितकी (कविता-संग्रह) नामक पत्रिका का प्रकाशन किया।

1968 में पानुरी जी ने कालिदास रचित “मेघदूतम” का अनुवाद खोरठा में मेघदूत शीर्षक से किया। मेघदूत का खोरठा में अनुवाद करने पर उस समय के झारखंड के चर्चित हिंदी के साहित्यकार राधाकृष्ण ने “आदिवासी” पत्रिका में पानुरी जी के तारीफ में एक निबंध लिखा। वहीं वीर भारत तलवार ने मेघदूत के बारे में कहा- “मेघदूत पढ़कर जरा सा भी ऐसा नहीं लगा कि यह किसी अन्य भाषा की कहानी है, ये तो पानुरी जी के गाँव की कहानी लगती है।”

पानुरी जी ने कार्ल मार्क्स द्वारा रचित “कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो” का “युगेक गीता” शीर्षक से खोरठा में काव्यानुवाद किया। पानुरी जी की कुछ ही रचनाएँ प्रकाशित हुईं, जिनमें चाबी काठी व उद्भासल करन (नाटक), आँखिक गीत व मालाक फूल (कविता-संग्रह), रामकथामृत (खंडकाव्य), मधुक देशे (प्रणय गीत), झींगा फूल, किसान व दिव्य ज्योति (कविता), कुसमी (कहानी) शामिल हैं। जबकि आर्थिक अभाव के कारण अपनी कई रचना को उन्होंने प्रकाशित करवा नहीं पाए थे, जिनमें छोटो जी (व्यंग्य), अजनास (नाटक), अग्नि परीखा (उपन्यास), मोतिक चूर, हमर गांव, समाधान (खण्ड काव्य), मोहभंग, भ्रमर गीत, पारिजात व अपराजिता (काव्य), रक्ते रांगल पाखा (कहानी-संग्रह) शामिल हैं। जिसे उनके पांच पुत्रों में अर्जुन पानुरी ने अपने पिता के विरासत को संभाला और अपने पिता के कई अप्रकाशित पुस्तकों का इन्होंने प्रकाशन करवाया। अर्जुन पानुरी ने भी “सरग दूत” नामक खोरठा काव्य लिखा।

कहा जाता है कि झारखंड में खोरठा आज जिस मुकाम पर पहुँची है, उसके सफर की व्यवस्थित शुरूआत करने का श्रेय पानुरी जी को जाता है। अर्थात खोरठा में साहित्य लेखन और खोरठा भाषा साहित्य आंदोलन का प्रारंभ करनेवाले श्रीनिवास पानुरी ही थे। पानवारी जाति से संबंध रखने वाले पानुरी जी ने गरीबी और अभाव के बावजूद खोरठा को स्थापित करने के जीवनपर्यंत पूरी जीवटता, पूरी शिद्दत के साथ लगे रहे। खोरठा को एक समर्थ भाषा के रूप में मान्यता मिले, इसके लिए उन्होंने वैसा ही बहुआयामी प्रयास किया, जैसा कि हिंदी के लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया था।

उनमें अनन्य खोरठा प्रेम कब और कैसे उत्पन्न हुआ, यह ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। पर उनके अनुसार उन्होंने आजादी से पहले ही अपनी मातृभाषा खोरठा में लिखना शुरू कर दिया था। खोरठा के साहित्यकार व व्याख्याता दिनेश दिनमणि मानते हैं कि पानुरी जी की न केवल खोरठा, बल्कि हिंदी पर भी उनकी अद्भुत पकड़ थी तथा अंग्रेजी और बांग्ला भाषा का भी पर्याप्त ज्ञान था। साहित्य-सृजन की भाषा उन्होंने खोरठा और हिंदी को बनाया था, पर प्राथमिकता दी अपनी मातृभाषा खोरठा को। अपनी रचनात्मक सामर्थ्य और ऊर्जा का उपयोग मुख्यत: खोरठा के उन्नयन के लिए ही किया।

बल्कि यह कहना अनुचित न होगा कि उन्होंने खोरठा के लिए अपने जीवन को ही अर्पित कर दिया था। स्वयं अभावों में रहकर भी खोरठा को समृद्ध समर्थ बनाने के लिए जीवन पर्यन्त लगे रहे। आपने न केवल खोरठा में साहित्य सृजन किया बल्कि बहुआयामी खोरठा आंदोलन भी चलाया। खोरठा में पत्र-पत्रिका निकाले, नाटकों का मंचन करवाया। खोरठा की स्थापना और उत्थान के लिए खोरठा विकास समिति के नाम से लगभग तीन दशक तक एक संस्था भी चलाई। वे प्रारंभिक दौर में आर्दशवादी थे लेकिन बाद के दशक में उनके भीतर यथार्थवाद, जनवाद व प्रगतिशीलता ने जगह बना ली। यही वजह रही कि उन्होंने जहां मेघदूतम का खोरठा में अनुवाद किया वहीं कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो को “युगेक गीता” शीर्षक से खोरठा में काव्यानुवाद किया।

इसमें कोई दो मत नहीं कि विश्वनाथ दसौंधी राज, विश्वनाथ नागर, नरेश नीलकमल, नारायण महतो जैसे खोरठा साहित्यकार और भाषा कर्मी पानुरी जी के खोरठा आंदोलन की ही उपज थे। उन्हीं की प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष प्रेरणा से खोरठा की नई पौध तैयार हुई थी और आगे खोरठा आंदोलन को विस्तार मिलता गया था।

पानुरी जी की साहित्यिक प्रतिभा विलक्षण और बहुमुखी थी। उन्होंने नाटक, कहानी, निबंध में भी उत्कृष्ट रचनाएँ कीं, पर वे मूलतः कवि थे। वे युगद्रष्टा और युगस्रष्टा साहित्यकार के साथ ही मानवतावाद के सच्चे संवादक और झारखंडी चेतना के उत्प्रेरक थे। इनकी रचनाओं में माटी और माटी के मानुष का दर्द छलकता है। यही वजह थी कि झारखंड अलग राज्य आंदोलन के अगुवा व झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापकों में एक बिनोद बिहारी महतो इनके परम मित्र थे और भाषा साहित्य आंदोलन में भी सदैव उनका सहयोग मिला था। अतः श्रीनिवास पानुरी की जयंती पर प्रत्येक वर्ष 25 दिसंबर को खोरठा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

इसी आलोक में बीते 25 दिसंबर 2022 को पानुरी की 102 वीं जयंती के अवसर पर रामगढ़ में खोरठा साहित्य-संस्कृति परिषद, झारखंड के तत्वावधान में खोरठा दिवस समारोह मनाया गया। इस अवसर पर खोरठा कर्मियों को खोरठा भाषा, साहित्य, संस्कृति के विभिन्न कार्यो व उत्कृष्ट योगदान के लिए सम्मनित किया गया।

खोरठा पत्रिका तितिकी के संपादक शांति भारत ने पानुरी के जीवनी पर प्रकाश डाला, वहीं कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि झारखंड के प्रेमचंद कथाकार कालेश्वर गोप ने राज्य सरकार से खोरठा भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजने की मांग की। उन्होंने कहा कि इसको लेकर वह सदन से लेकर सड़क तक मुखर रहने की जरूरत है। कहा कि हम सबको खोरठा भाषा के विकास एवं संवर्धन के लिए निरंतर काम करने की जरूरत है खोरठा भाषा को समृद्ध एवं विकसित करने के लिए जिन लोगों ने पुस्तक, उपन्यास, कहानी व गजल का लेखन किया है वह लोग हम सब के अनुकरणीय है। इस बात का ध्यान खोरठा भाषा – भाषियों को भी रखना पड़ेगा।

बतौर मुख्य अतिथि डॉ. लंबोदर महतो ने श्रीनिवास पानुरी एवं ए.के. झा को मरणोपरांत पद्मश्री सम्मान से सम्मनित करने की मांग की। उन्होंने कहा कि खुशी की बात है कि खोरठा भाषा की पढ़ाई स्कूल, कॉलेज एवं यूनिवर्सिटी में हो रही है और यह एक दिन में नहीं हुआ है, बल्कि यह एक लंबे संघर्ष का नतीजा है। इसको देखते हुए हम सबको उमंग व उत्साह के साथ खोरठा भाषा के विकास में सक्रियता से लगे रहने की जरुरत है।

इससे पहले डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के अध्यक्ष डॉ बिनोद कुमार ने समारोह में आए लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि भाषा संस्कृति एवं परंपरा को आगे बढ़ाने की जरूरत है और ऐसा होने से ही समाज भी आगे बढ़ता है। समारोह की अध्यक्षता करते हुए परिषद के अध्यक्ष व खोरठा साहित्यकार डा. बी. एन. ओहदार ने कहा कि खोरठा भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने को लेकर हम सबको संघर्ष करना पड़ेगा। इसको लेकर राज्य सरकार पर निरंतर दबाव बनाए रखना पड़ेगा। कहा कि खोरठा भाषा का गौरवशाली इतिहास है।

परिषद के सचिव सुजीत कुमार ने कहा कि झारखंड में खोरठा भाषा व्यापक क्षेत्र में बोली जाती है। यह भाषा डेढ़ करोड़ से अधिक लोगों की भाषा बन चुकी है। राज्य के 17 जिले में खोरठा भाषा – भाषी लोग रहते हैं। परिषद का उद्देश्य भाषा के विकास के साथ-साथ समाज का कल्याण भी करना है। खोरठा पत्रिका लुआठी के संपादक गिरधारी गोस्वामी उर्फ अकाश खूंटी के द्वारा एकेडमिक के पहलुओं पर विचार व्यक्त किया गया। आकाश खूंटी ने खोरठा दिवस पर इस तरह क आयोजन कर्ताओं को शुभकामनाएं और समस्त झारखंड वासियों जनजातिय क्षेत्रीय भाषाओं के छात्रों को ऐसे आयोजनों के लिए प्रेरित करने की बात की और स्मारिका प्रकाशन करने का प्रस्ताव रखा।उन्होंने इस काम के लिए हमेशा सहयोग करने का आश्वासन दिया।

सफलतापूर्वक मंच का संचालन करते हुए व्याख्याता व खोरठा साहित्यकार दिनेश दिनमणि ने कहा कि पानुरी जी न केवल खोरठा भाषा को प्रतिष्ठित करने में सबसे पहली और सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई बल्कि वे युग चेतना को झकझोरने वाले साहित्यकार थे। कार्यक्रम में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय के जनजातीय क्षेत्रीय भाषा विभाग के छात्र छात्राओं सहित रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के छात्र-छात्राओं की भूमिका अहम रही।

(वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट)

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