‘कफन’ की सफलता-असफलता और कहानी के पाठ की समस्या

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‘जनचौक’ पर प्रेमचंद की बहुचर्चित और बहुविवादित कहानी ‘कफन’ पर डा. सिद्धार्थ की समीक्षा को पढ़ा। वह इस कहानी को बेहद ठोस जमीन पर उतारते हैं। और उसी आधार पर इस कहानी के लेखन में प्रेमचंद के ‘गच्चा’ खा जाने के निष्कर्ष तक पहुंचते हैं। कोई भी लेखक अपने लेखन में कहीं न कहीं ‘गच्चा’ खा सकता है। प्रेमचंद की सृजनशीलता बहुत व्यापक और विस्तृत थी। खासकर उनकी कहानी और उपन्यास की संख्या और रचना-संसार बहुत विशाल है। प्रेमचंद की विशिष्टता यही है कि उनकी सारी रचनाओं की विश्वदृष्टि एक नहीं है।

वह शुरू में राष्ट्रवाद को अलग नजरिये से देखते हैं और उनकी रचनाएं छपने के कुछ समय बाद ही जब्त हो जाती हैं। उसके बाद उन पर ‘गांधी’ का असर दिखने लगता है। लेकिन, इस दौरान भी वह समाज की संरचना, गतिकी और उसके अंतर्विरोधों को सामने लाने में यथार्थ की ठोस भूमि पर बने रहते हैं। जैसे-जैसे यह ठोस भूमि पुख्ता होती है और इसके अंतर्विरोधों को देखने का नजरिया बदलता है, उनके उपन्यासों और कहानियों का संसार बदलने लगता है। रचना और व्यक्तित्व के बीच का यह संबंध भारतीय साहित्य की दुनिया में एक दुर्लभ पक्ष है, जो प्रेमचंद में दिखता है। ऐसा बदलाव रविंद्रनाथ टैगोर में भी दिखता है। लेकिन उनका यह पक्ष रचना से हटकर उनके अंत समय की पेंटिंग्स में अभिव्यक्त हुआ। प्रेमचंद की पक्षधरता उनकी सृजनशीलता का मुख्य आधार थी और यही उन्हें प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन में ले गई।

निश्चित ही पक्षधरता किसी सर्जना के सफल और यथार्थवादी होने का आधार नहीं हो सकता। लेकिन, पक्षधरता रचना के प्रति सतर्कता को बरतने में जरूर सहायक होता है। प्रेमचंद की उर्दू और हिंदी कहानियों, जिनका कथ्य एक सा है, का अंत एक सा नहीं है। यहां प्रेमचंद कथ्य के गति के साथ बाजीगरी नहीं कर रहे थे। वह समाज और संस्कृति के जटिल रिश्तों के बीच से उपजे उस यथार्थ से संवाद कर रहे थे। इस सदंर्भ में महान लेखिका महाश्वेता देवी एक समतामूलक समाज के दो आख्यान धर्म और विश्वास के आधार पर ही दो तरह से पेश करती हैं। पहला है, जंगल के दावेदार। इसमें आदिवासी समुदाय अपने धर्म और विश्वास के आधार पर उपनिवेशवाद के खिलाफ भीषण लड़ाई लड़ते हुए समतामूलक समाज के निर्माण के लिए उतरता है।

दूसरी रचना है, तीतू मीर। इसके कथ्य में तीतू मीर भूमिहीन किसानों और मजदूरों का नेतृत्व करते हुए इस्लाम की समतामूलक मूल्य को आधार बनाते हुए बराबरी पर आधारित समाज निर्माण की ओर जाता है। महाश्वेता देवी की रचना में धर्म और विश्वास एक खास तरह के वैशिष्ट्य के साथ मुखर होते हैं। प्रेमचंद की रचना में यह अपने परिणाम के साथ सामने आता है। उर्दू से हिंदी की ओर जाते हुए अपने आख्यान की दुनिया में एक बड़ा बदलाव किया और वह भारतीय ग्राम की संरचना और उसका शहर के साथ अभिन्न हिस्सा बनने को उधेड़ना शुरू किया।

उनके पात्रों का चुनाव पहले की तुलना में अब काफी भिन्न होता हुआ दिखता है। यह चुनाव उन्होंने सायास किया था। ‘कफन’ कहानी का प्रकाशन वर्ष 1936 माना जाता है। इसी वर्ष में गोदान का भी प्रकाशन होता है। यह उनकी वैचारिकी और सृजन का सबसे पुख्ता समय माना जाता है। ऐसे में, प्रेमचंद का ‘गच्चा’ खा जाने वाली बात थोड़ी हैरान करती है।

डा. सिद्धार्थ ने कफन कहानी की आलोचना में मुख्यतः दो तथ्यों का उल्लेख किया है। पहला, पत्नी और उससे भी अधिक बच्चे के प्रति सहज प्यार को नकार देने वाला मनोविज्ञान का कृत्रिम लगना। दूसरा, दलित आत्मकथाओं में कफन जैसी अमानवीयता के वर्णन का अभाव। डा. सिद्धार्थ लिखते हैंः ‘प्रेमचंद की इस कहानी की रीढ़ ही मानव मनोविज्ञान की गलत समझ पर आधारित है।’

आगे वह घीसू और माधव के बच्चे और खासकर माधव के पत्नी के साथ भावात्मक संबंधों के आधार में शारीरिक पक्ष के बारे में लिखते हैं। इस कहानी के केंद्र में आग में पक रहा आलू जैसे-जैसे केंद्र बनता जाता है, अमानवीयता चरम रूप अख्तियार करती जाती है। जिसका अंत प्रसव वेदना से लहूलुहान हो उठी बुधिया की मौत से होता है। डा. सिद्धार्थ लिखते हैंः ‘दुनिया के मनोवैज्ञानिकों और रचनाकारों ने इस तरह के अमानवीयकरण की कल्पना सिर्फ एक स्थिति में की है, जब आदमी का अस्तित्व दांव पर लगा हो।

यहां यह समझना जरूरी है कि मनोविज्ञान और नैतिकता दो अलग-अलग पक्ष है। नैतिकता वर्जनाएं हैं, जिसे मनोविज्ञान तोड़ने का प्रयास करता है। यह मनोविज्ञान चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक। यथार्थ का संबंध नैतिकता से जुड़ा होता है। यह संपत्ति और सामाजिक संरचनाओं का अभिन्न हिस्सा होता है। नैतिकता वर्गीय समाज में विभाजित होती है। मनोविज्ञान इन्हीं नैतिक वर्जनाओं में पैदा होती हैं और उसे तोड़ने के लिए व्यक्तिगत या सामूहिक तौर पर आकार लेती रहती हैं। मूलतः नैतिकताएं ही मनोविज्ञान को गढ़ती हैं। निश्चित ही वर्जनाएं उच्चवर्ग का हिस्सा नहीं होती हैं। इसीलिए यहां मनोविज्ञान का वह रूप नहीं दिखता है जो शेष समाज और व्यक्ति में दिखता है।

यही कारण है कि चाहे वे स्मृतियां हो, चाहे कौटिल्य का अर्थशास्त्र हो, जनता में नैतिकता को लागू करने के लिए वर्जनाओं का प्रयोग करती हैं, और इसे लागू करने के लिए भय का प्रावधान करती हैं। इस संदर्भ में, विवाह संबंधों का उल्लेख जरूरी है। जाति और वर्ण सोपान में ऊपर से नीचे की ओर विवाह या शारीरिक संबंध उतना दंडनीय नहीं है, जितना नीचे से ऊपर की ओर।

प्रो. उमा चक्रवर्ती के अनुसार यह ‘श्रमिकों’ को पैदा करने की एक सोपानीकृत व्यवस्था थी, जिसमें उच्चवर्ग और वर्ग में पैदा हुए बच्चे को ‘उत्तराधिकार’ नहीं देना होता था। उच्चवर्ण के ये समूह इन शरीरिक संबंधों और उनसे पैदा हुए बच्चों के लिए कोई ‘भावात्मक’ संबंध नहीं रखते थे। इसे हम आधुनिक पूंजीवादी दौर में अमेरीका में गोरे मालिकों द्वारा अपने-अपने काले दास महिलाओं से बच्चे पैदा करने की अमानवीय घटनाओं का ढेर सारे उपलब्ध प्रमाणों में देख सकते हैं।

इस संदर्भ में, एंगेल्स की पुस्तक ‘परिवार राज्य और संपत्ति’ एक उल्लेखनीय व्याख्या करता है जिसमें संपत्ति और उत्तराधिकार की सुनिश्चितता के बीच परिवार, राज्य और उसकी संरचना निकलकर सामने आती है। ‘प्रेम’ में शरीर की उपस्थिति एक निर्णायक पक्ष होता है लेकिन उसका चुनाव नैतिकताओं और वर्जनाओं के उस यथार्थ से जुड़ा होता है, जिसमें प्रेम उद्भव, संभव होता है। यहां वह यथार्थ भी है जिसमें जाति संरचना संपत्ति के अधिकार को भी सुनिश्चित करती है। घीसू, माधव, उसकी पत्नी और उसके पेट में पल रहा बच्चा संपत्ति, संस्कृति, समाज और जाति की संरचना में सबसे नीचले पायदान पर हैं।

प्रेमचंद भारतीय समाज व्यवस्था और उसकी शोषण की संरचना में इस वर्ग और जाति के मानवीय अस्तित्व को ही सवाल के घेरे में लाते हैं। ऐसा करते हुए वह जाति संदर्भों के साथ कितना न्याय कर पाते हैं, यह अलग प्रश्न है, और जो निश्चित ही विवाद का विषय है; लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत का दलित और दमित समाज अस्तित्व और अस्मिता के सवाल से जूझ रहा था, और उस समय इसे सुनने वालों में डा. अंबेडकर और गांवों में अपने संगठनों का विस्तार करने का प्रथम प्रयास कर रही कम्युनिस्ट पार्टी के सिवा और कोई नहीं था।

प्रेमचंद 1936 के दौर में कफन कहानी में उस समय की प्रचलित नैतिकताओं और वर्जनाओं से लबरेज मनोविज्ञान को एक किनारे फेंक देते हैं। वह अस्तित्व और अस्मिता को मौत के भयावह उपस्थिति के साथ सामने लेकर आते हैं। निश्चित ही वह नये सौंदर्यशास्त्र की मांग रख रहे थे, जिसमें प्रेम की भावुकता यथार्थ की कठोर जमीन पर टूट जाए और नैतिकता और वर्जनाओं को नये सिरे से गढ़ा जाए।

डा. सिद्धार्थ प्रेमचंद की कहानी कफन के यथार्थ को दलित आत्मकथाओं से परखते हैं। यह तथ्य है कि कफन जैसी अमानवीयता की झलक दलित आत्मकथाओं में नहीं दिखती है। लेकिन, यथार्थ के लिए सिर्फ आत्मकथाओं का चुनाव थोड़ा खटकता है। 1920 के दशक में प्रेमचंद गोरखपुर, बस्ती में रहे। उस समय देवरिया जिला भी गोरखपुर का हिस्सा हुआ करता था। वह रहने वाले बनारस के थे। कहा जा सकता है कि वह मूलतः पूर्वांचल के थे।

एक साहित्यकार को इस तरह से एक इलाके से बांधना ठीक नहीं होता। लेकिन, यथार्थ की पड़ताल के लिए इसे देखना एक न्यूनतम जरूरत बन जाती है। इस इलाके के यथार्थ में सिर्फ चौरी-चौरा ही नहीं है, गन्ना किसानों की बदहाली और पलायन, जमींदारी और किसानों का उत्पीड़न आदि भी शामिल है। यहां की उत्पादन की जातीय संरचना, जिसे आमतौर पर जजमानी प्रथा कहा जाता है, हाल के समय तक उपस्थित रहा। इसके अवशेष अब भी दिखाई देते हैं, खासकर त्यौहारों के दौरान।

भारत के ग्राम समाज के ऊपर कर वसूल करने वाले जमींदारों का रूप और मांग चाहे जितना बदलता रहा हो, अतिरिक्त पैदावार का अंतिम भार गांव के शिल्पकार, सेवा और हरवाही करने वाली जातियों पर ही पड़ता रहा है। अंग्रेजों के समय की नई भूमि बंदोबस्ती ने कर की मांग और भूमि से बदेखली को बेतहाशा बढ़ा दिया। पुराने शहरों के उजाड़ और नये शहरों में काम की कम मांग ने इन गांवों को जिस तबाही तक पहुंचाया उसमें पूरे ग्राम समाज की आर्थिक संरचना, उसकी नैतिकता और उसका मनोविज्ञान चरमरा उठा। इस संदर्भ में अवध के किसानों के विद्रोह पर प्रो. कपिल कुमार की पुस्तक देखना उपयुक्त होगा। किसानों द्वारा अपने बच्चों के बेच देने की घटना का उल्लेख उसके नीचे की भयावह हकीकत को बयान करता है।

भारत में 1920 तक आते-आते बंधुआ मजदूरी एक आम रवायत में बदल चुकी थी। जाति की संरचना में यह एक नये तरह के संबंधों की नींव डाल रहा था। ऐसे में, सिर्फ आत्मकथाओं के आधार पर प्रेमचंद की कहानी में आये यथार्थ को परखना उपयुक्त नहीं लगता। खासकर तब, जब हम जानते हों कि प्रेमचंद अपनी रचनाओं में बेहद सतर्क, पक्षधर और संवेदनशील होते हैं।

प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ निश्चित ही कई समस्याओं को साथ लेकर सामने आती है। भाषा का चुनाव इसमें एक बड़ा पक्ष है। एक जाति द्वारा दूसरी जाति को ‘देखना’ एक नई व्याख्या की मांग करता है। लेकिन, इस कहानी को प्रेमचंद द्वारा ‘गच्चा’ खा गई कहानी बताना उस यथार्थ से विमुख होना होगा, जिसका सामना प्रेमचंद अपने समय में कर रहे थे और उससे जूझ रहे थे। इस यथार्थ को सामने लाने में निश्चित ही कमी हो सकती है, लेकिन इसे यथार्थ ही नहीं मानना उपयुक्त नहीं है। सिर्फ मामूली से कुछ ‘भुने हुए आलू’ के सामने ‘एक जीवन के अंत’ को सामने लाने का भयावह परिदृश्य की रचना किसी गच्चा खा गये रचनाकार की सर्जना नहीं हो सकती।

(अंजनी कुमार लेखक व स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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