पाठ्यक्रम में बदलाव: हिंदू-मुस्लिम साझेपन की कोई कृति संघ-भाजपा को बर्दाश्त नहीं

Estimated read time 1 min read

एनसीईआरटी ने विद्यार्थियों का बोझ घटाने के नाम पर पाठ्य पुस्तकों में जो बदलाव किए, उनकी चर्चा इतिहास, राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र और विज्ञान की किताबों के संदर्भ में तो काफ़ी हुई, पर हिंदी की किताबों पर बात बहुत कम हो पायी है। खुद मैंने ‘आलोचना’ के ताज़ा (यंत्रस्थ) अंक के लिए संपादकीय लिखते हुए उनका ज़िक्र नहीं किया क्योंकि तब तक क़ायदे से देख ही नहीं पाया था।

कुछ लोगों ने किताबों से मुक्तिबोध और निराला के निष्कासन की निंदा की है, पर सच्चाई है कि उनके निकाले गए पाठों में ऐसा कुछ नहीं है जिससे विशेषतः और प्रत्यक्षतः आरएसएस-भाजपा को कोई समस्या हो (वैसे भी निराला एक जगह से हटाए गए हैं, दूसरी जगह हैं)। उल्टे जब आप देखते हैं कि पाश की कविता ‘बहुत ख़तरनाक’, हरिशंकर परसाई का व्यंग्य ‘टॉर्च बेचने वाले’, शेखर जोशी की कहानी ‘गलता लोहा’, नेहरू के ‘भारत की खोज’ का संक्षिप्त संस्करण या उनका लेख ‘भारत माता’, बाबा साहेब अंबेडकर के ‘श्रम विभाजन और जाति प्रथा’ तथा ‘मेरी कल्पना का आदर्श समाज’ जैसे लेखांश (‘जाति का उन्मूलन’ से) अलग-अलग कक्षा की किताबों में सुरक्षित हैं तो थोड़ा आश्चर्य ही होता है।

कुछ ऐसी धारणा बनती है कि हिंदी की किताबों के लिए नियुक्त कमेटी ने निष्कासन योग्य पाठों का चुनाव करने में थोड़ा लापरवाही बरती है जिसके लिए क़ायदे से उनके आकाओं को उनकी क्लास लेनी चाहिए।

पर मामला इतना आसान नहीं है। बात ये है कि अगर वे इस तरह से चुनाव करने लगें तो उन्हें हिंदी किताबों का भार कुछ ज़्यादा ही घटाना पड़ेगा। लिहाज़ा कथित रेशनलाइजेशन के लिए, ऐसा लगता है, उन्होंने कुछ लक्ष्य तय किये हैं, जिन्हें निष्कासित पाठों को थोड़ा ग़ौर से देखते हुए चिन्हित किया जा सकता है। साथ ही, यह भी समझने की ज़रूरत है कि जिन पाठों को निकालना है, उन्हें कई ऐसे पाठों की भीड़ में छुपाकर निकालना पड़ता है जिनके संदर्भ में किसी निहित मंशा को दिखा पाना मुश्किल हो।

इन किताबों से अव्वल तो तमाम मुस्लिम (नाम वाले) लेखकों की रचनाएं निकाल बाहर की गई हैं। अब यहां नज़ीर अकबराबादी, इस्मत चुग़ताई, रज़िया सज्जाद ज़हीर, सैयद हैदर रज़ा नहीं हैं। एक जाबिर हुसैन बचे हैं जिन्हें शायद यही सोचकर छोड़ दिया गया है कि आपको ऐसा कोई पैटर्न नज़र न आए।

दूसरे, तमाम ऐसे पाठ निकाल बाहर किए गए हैं जिनसे हिंदू-मुस्लिम साझेदारी का कोई संदेश मिलता हो। रज़िया सज्जाद ज़हीर की कहानी ‘नमक’ में लखनऊ की एक स्त्री अपना वतन लाहौर बताती है, पाकिस्तान का एक कस्टम अधिकारी अपना वतन देहली बताता है और भारत का एक कस्टम अधिकारी अपना वतन ढाका बताता है। कहानी बहुत मार्मिक तरीक़े से यह दिखाती है कि किस तरह विभाजन के बावजूद दोनों तरफ़ बसे हुए आम इंसानों के दिल मुल्कों के बीच खिंची सरहदों को नकारते हैं। अब यह कहानी बारहवीं कक्षा के आधार पाठ्यक्रम की किताब में नहीं है।

इसी तरह एस के पोट्टेकाट का एक संस्मरण है, ‘हामिद खां’, जिसमें तक्षशीला में एक छोटा सा ढाबा चलाते हामिद खां को लेखक याद कर रहा है और उसके बहाने दो समुदायों के मधुर संबंधों की ज़रूरत बहुत सहजता से रेखांकित होती है। लेखक के आगे चपाती और सालन परोसते हामिद खां को भरोसा नहीं हो रहा था कि दूर मालाबार से आया एक हिंदू बे-झिझक उनका बनाया खाना खा सकता है। बोले, ‘किसी पर धौंस जमाकर या मजबूर करके हम प्यार मोल नहीं ले सकते। आप ईमान से मोहब्बत के नाते मेरे होटल में खाना खाने आए हैं। ऐसी ईमानदारी और मोहब्बत का असर मेरे दिल पर क्यों न पड़े? अगर हिंदू और मुसलमान ईमान से आपस में मुहब्बत करते तो कितना अच्छा होता।’ यह बहुत छोटा-सा पाठ है जिसे ‘संचयन भाग 1’ से निकाल बाहर करने से विद्यार्थियों का बोझ कितना घटा, यह जानने के लिए सुनार के तराजू की ज़रूरत पड़ेगी।

गणेश शंकर विद्यार्थी के लेख ‘धर्म की आड़’ को कक्षा 9 की किताब ‘स्पर्श भाग 1’ से निकाला गया है। गणेश शंकर विद्यार्थी 1931 में कानपुर में सांप्रदायिक दंगे को रोकने की कोशिश करते हुए मारे गए थे। इस बात का ज़िक्र लेख से पहले दिए गए लेखक- परिचय में भी है। लेख का सार यह है कि धर्म के प्रति आम आदमी के लगाव को कैसे कुछ ताक़तें अपने राजनीतिक स्वार्थ की सिद्धि के लिए इस्तेमाल करती हैं। पाठ में आए हुए ज़्यादातर वाक्य अभी के सत्ताधारियों को पचने लायक़ नहीं हैं।

मिसाल के लिए: ‘आपका मन चाहे, उस तरह का धर्म आप मानें, और दूसरों का मन चाहे, उस प्रकार का धर्म वह माने। दो भिन्न धर्मों को मानने वालों के टकरा जाने के लिए कोई स्थान न हो। यदि किसी धर्म को मानने वाले कहीं जबरदस्ती टांग अड़ाते हों, तो उनका इस प्रकार का कार्य देश की स्वाधीनता के विरुद्ध समझा जाए।’

ऐसी बातों से यह लेख भरा पड़ा है और इन्हें पढ़ते हुए किसी भी विद्यार्थी के ज़ेहन में आरएसएस-भाजपा एक नकारात्मक उदाहरण की तरह कौंध जाएं, यह बिल्कुल संभव है। अगर ऐसा न भी हो तो कम-से-कम ऐसे लेख जिस तरह का नागरिक तैयार करेंगे, वह इनके काम का तो नहीं ही होगा।

निकाली गई चीजों में ऐन फ्रेंक की ‘डायरी के पन्ने’ और विष्णु खरे का लेख ‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब’ भी शामिल है। ऐन फ्रेंक की डायरी के पन्नों को निकाल बाहर करना नाज़ियों के प्रति संघ के प्रेम का ज्वलंत नमूना है। देश में आंतरिक शत्रुओं को चिह्नित करने और उन पर हमला करने की संघी रणनीति का प्रेरणा-स्रोत नाज़ी जर्मनी रहा है। उसकी अमानवीयता डायरी के इन पन्नों में जिस तरह से रेखांकित हुई है, उसे कैसे बर्दाश्त किया जा सकता था। सबसे बड़ी बात कि इस पाठ को पढ़ाने के लिए बच्चों को यहूदियों के सफ़ाये के नाज़ी अभियान की जानकारी देना ज़रूरी है और ऐसी जानकारियां हमारे वर्तमान को समझने में जिस तरह की मदद पहुंचाती हैं, वह मौजूदा निज़ाम के लिए सीधे-सीधे असुविधाजनक है।

चार्ली चैप्लिन के बारे में विष्णु खरे का लेख हटाकर इन्होंने उस लेख की ही एक बात को प्रमाणित किया है: ‘जो भी व्यक्ति, समूह या तंत्र ग़ैर-बराबरी नहीं मिटाना चाहता, वह अन्य संस्थाओं के अलावा चैप्लिन की फिल्मों पर भी हमला करता है।’ कहना चाहिए कि वह चैप्लिन की फिल्मों पर ही नहीं, उसके बारे में लिखे गए पाठों पर भी हमला करता है।

(संजीव, जनवादी लेखक संघ के महासचिव हैं)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

You May Also Like

More From Author