भारत में खासकर कोरोना के समय से ऑनलाइन पढ़ने-पढ़ाने और डिजिटल बुक्स का चलन लगातार बढ़ रहा है। देश में लगभग हर जगह इंटरनेट की सुलभता की वजह से लोगों की डिजिटल किताबों तक पहुंच बढ़ी है।
छपी हुई किताबों के मुकाबले इनकी कीमत भी अकसर कम होती है। साहित्यकारों और शिक्षाविदों की मानें तो इसके बावजूद कई चीजें ऐसी हैं जो छपी किताबों को डिजिटल के मुकाबले बेहतर साबित करती हैं।
एक तथ्य यह है कि स्वस्थ दिमाग के लिए किताब पढ़ना बहुत जरूरी है। रचनात्मकता और एकाग्रता जैसे गुणों को विकसित करने में किताबों से बेहतर कुछ और नहीं हो सकता। ई-बुक का प्रचलन होने के बावजूद क्या उससे वह अनुभूति हो सकती है जो हाथ में किताब लेकर पढ़ने पर मिलती है?
बचपन में मोहल्ले में बने क्लबों में एक कोना लाइब्रेरी का होता था। हम वहां से नियमित रूप से किताबें घर ले जाकर पढ़ते थे लेकिन इंटरनेट की बढ़ती खुमारी के कारण अब ऐसी लाइब्रेरी विलुप्त होने की कगार पर हैं।
असल में तेजी से बदलती शिक्षा व्यवस्था और बस्तों के बढ़ते बोझ, ट्यूशन व कोचिंग के कारण छात्रों के पास पाठ्यक्रम से अलग कुछ पढ़ने के लिए समय ही नहीं बचा है।
पढ़ाई में बढ़ती प्रतिद्वंद्विता और माता-पिता की इच्छाओं के बोझ ने बच्चों को पहले से कई गुना ज्यादा व्यस्त कर दिया है। रही-सही कसर स्मार्टफोन और इंटरनेट ने पूरी कर दी है जिससे छात्रों में वैसी एकाग्रता नहीं पनपती जो किताबें पढ़ने से पनपती है।
वर्ष 2024 के दौरान हिंदी की कौन सी किताब सबसे ज्यादा बिकी, इसके आंकड़े भ्रामक हैं लेकिन गोरखपुर के गीता प्रेस से छपने वाली ‘रामचरित मानस’ लंबे समय से इस मामले में निर्विवाद रूप से पहले नंबर पर रही है।
उसके अलावा राजकमल प्रकाशन, प्रभात प्रकाशन, हिंदू युग्म, पेंगुइन और रैंडम हाउस से छपी कई किताबें भी चर्चा और बिक्री के मामले में शीर्ष पर रही हैं। इनके पास मार्केटिंग नेटवर्क है। दिल्ली के ज्यादातर हिंदी लेखक इनके प्रभाव में रहते है॔ बल्कि लोग इन्हें प्रकाशकों का एजेंट मानते हैं। गत वर्ष कथेतर विधा की किताबें सबसे ज्यादा बिकीं हैं।
छपी हुई किताबों से युवा पीढ़ी की लगातार बढ़ती दूरी एक गंभीर सामाजिक समस्या बनती जा रही है। आज के युवा पढ़ने की बजाय रील्स और दूसरे वीडियो देखने को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं।
पहले अभिभावक अपने बच्चों को जन्मदिन और दूसरे मौकों पर जहां उपहार के तौर पर किताबें भेंट देते थे वहीं अब इसकी जगह स्मार्टफोन और स्मार्ट वॉच जैसी चीजों ने ले ली है।
दो-तीन दशक पहले तक स्कूलों और कॉलेज परिसरों में खाली समय में पुस्तकों पर बहस होती थी लेकिन अब उसकी जगह इंटरनेट पर आने वाले वीडियो और ओटीटी सीरीज बहस का मुद्दा बन गए हैं।
देश के विभिन्न हिस्सों में अब भी भारी तादाद में लाइब्रेरी हैं और वहां किताबें भी भरी पड़ी हैं लेकिन अब वहां पाठकों का भारी टोटा है। वहां सूनापन है।
पढ़ने की तकनीक के रूप में पुस्तक की वास्तविक स्थिति पर यहां ध्यान केंद्रित नहीं है, बल्कि पुस्तक-केंद्रित समाज से दूर सांस्कृतिक और तकनीकी बदलाव साहित्य को कैसे प्रभावित करता है-और जरूरी नहीं कि साहित्य का अध्ययन या परिभाषा यानी, पुस्तक की बदलती भूमिका साहित्यिक और वास्तव में, एक सौंदर्य प्रतिक्रिया को कैसे प्रेरित करती है।
यह बात इस समझ पर आधारित है कि पढ़ने की तकनीक के रूप में पुस्तक की स्थिति ज्ञान तक पहुंचने के लिए केंद्रीय प्रारूप से कई माध्यमों में से एक होने की ओर बढ़ रही है।
पुस्तक नए पढ़ने के प्लेटफ़ॉर्म के साथ अप्रचलित नहीं होगी, बल्कि, नए अवतार और पाठक बदलेगी और विकसित होगी; यह कुछ प्रकार की साक्षरता आवश्यकताओं और साहित्यिक इच्छाओं को पूरा करना जारी रखेगी-विशेष रूप से, जो इसकी पुस्तक-बद्ध भौतिकता और क्षमता से संबंधित हैं।
पढ़ने की वस्तु के रूप में कोडेक्स की पुस्तक-बद्ध प्रकृति पर यह ध्यान और आकर्षण, कुछ मामलों में, साहित्य के कुछ प्रकारों, विशेष रूप से प्रयोगात्मक लेखन के लिए हमेशा से रहा है। साहित्य कभी भी केवल सूचना प्रदान करने के बारे में नहीं रहा है-शायद अनुभव और ज्ञान के रूप में सूचना के बारे में, लेकिन ऐसी सामग्री जो इसकी औपचारिक प्रस्तुति से अविभाज्य है।
इस प्रकार, पुस्तकों की स्थिति में पुस्तक-बद्ध सौंदर्यशास्त्र या पुस्तकीयता के सौंदर्यशास्त्र की ओर सामान्य बदलाव वास्तव में साहित्य की पहले से मौजूद स्थिति की पुष्टि करता है। दूसरे शब्दों में, जैसे-जैसे कोडेक्स अन्य मीडिया प्रारूपों में सूचना पहुंच के रूप में अपना प्रभुत्व खोता है, पुस्तक-बद्ध सामग्री साहित्यिकता से अधिक जुड़ी होती है।
इस प्रकार, पुस्तक की अनुमानित और बहुत-पूर्वानुमानित मृत्यु साहित्य के लिए और, विशेष रूप से प्रयोगात्मक साहित्य के लिए फायदेमंद साबित हो सकती है।
ऐसी कृतियां जो किताबीपन के सौंदर्यशास्त्र को अपनाती हैं, अपने समकालीन, डिजिटल क्षण का जवाब यह दिखाकर देती हैं कि कैसे साहित्य हमारी उभरती हुई तकनीकी संस्कृति में सौंदर्य अभिव्यक्ति और सांस्कृतिक आलोचना के लिए एक स्थान के रूप में एक केंद्रीय भूमिका बनाए रखता है।
वे प्रिंट और कागज़ पर नए मीडिया की शक्ति और क्षमता, साथ ही साथ भय और कुंठाओं का उपयोग करते हैं।
जिस तरह से वे ऐसा करते हैं, उसकी जांच करने से विश्लेषण की एक क्रॉसकरंट को बढ़ावा मिलता है, जो मांग करता है कि हम उन शब्दों और साधनों पर फिर से विचार करें जिनके माध्यम से हम पढ़ने, साक्षरता और निश्चित रूप से साहित्य के भविष्य के बारे में अपनी चिंताओं को व्यक्त करते हैं।
इक्कीसवीं सदी के आरंभ में न्यूयॉर्क टाइम्स ने “द फ्यूचर ऑफ रीडिंग” नामक एक श्रृंखला चलाई, जबकि ऑब्जर्वर , फाइनेंशियल टाइम्स और कई वेबसाइटों (जनवरी मैगज़ीन सहित) ने “द डेथ ऑफ द बुक अगेन” शीर्षक से लेख प्रस्तुत किए।
साल 2008 में जेफ गोमेज़ ने प्रिंट इज़ डेड: बुक्स इन अवर डिजिटल एज, नामक किताब के साथ इस बयानबाजी को भुनाया ; और प्रिंट में इस विषय पर लगातार अधिक टिप्पणियां आती रही। यह कोलाहल अनिवार्य रूप से एक प्रश्न की ओर ले जाता है: पुस्तक की आसन्न मृत्यु के साथ, आज के समय में अपने आप में व्यस्तता का, साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?
संक्षेप में एक उत्तर है, “किताबीपन का सौंदर्यशास्त्र”, जो 2000 के बाद प्रकाशित उपन्यासों में एक प्रवृत्ति है। यह अमेरिकी या यहां तक कि एंग्लोफोन उपन्यासों तक सीमित नहीं है, यह सिर्फ़ एक संयोग से कहीं अधिक है: यह पश्चिम में एक उभरती हुई साहित्यिक रणनीति रही जो तत्कालीन सांस्कृतिक क्षण को बयां करती है।
ये उपन्यास प्रिंट पेज की शक्ति का इस तरह से दोहन करते हैं कि किताब को मल्टीमीडिया प्रारूप की तरफ ध्यान आकर्षित किया जाता है, जो डिजिटल तकनीकों से जुड़ी हुई है।
यहां किताब को एक सौंदर्यशास्त्र के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसकी शक्ति का उपयोग साहित्य द्वारा सदियों से सोद्देश्यपूर्ण ढंग से किया जाता रहा है और डिजिटल युग में भी इसका उपयोग जारी रहेगा।
यहां किताबों की मौत और पढ़ने के अंत का डर कोई नई बात नहीं है; इस तरह की बयानबाजी स्वयं किताब के आने से बहुत पहले ही नई पढ़ने और लिखने की तकनीकों के आने के साथ-साथ हुई थी-प्लेटो के डर के बारे में सोचें कि लिखने से अनाथ भाषा पैदा होगी और याद रखने की सांस्कृतिक क्षमता नष्ट हो जाएगी। न ही, किताबीपन का सौंदर्यशास्त्र-पाठ्य सामग्री और किताब से जुड़ी पढ़ने की वस्तु पर ध्यान केंद्रित करना – कोई नई बात है: ट्रिस्ट्राम शैंडी के बारे में सोचें।
वास्तव में, यह तर्क दिया जा सकता है कि किताबीपन का सौंदर्यशास्त्र पुस्तक के रूप जितना ही पुराना है और पुस्तक की मृत्यु के बारे में बयानबाजी उतनी ही पुरानी है। छपी हुई किताबें मौजूदा दौर में भी प्रासंगिक हैं लेकिन युवा पीढ़ी में शुरू से ही पढ़ने की आदत डालना जरूरी है।
इसकी शुरूआत घर से हो सकती है। उसके बाद स्कूलों में भी इसके लिए एक अतिरिक्त पीरियड रखा जा सकता है। किताबों से युवा पीढ़ी की यह बढ़ती दूरी भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। स्थिति को सुधारने के लिए समाज के सभी तबकों को आगे आना होगा।
छपी हुई किताबें नियमित रूप से पढ़ने की वजह से याददाश्त तो बढ़ती ही है। एकाग्रता भी मजबूत होती है। कोलकाता और दिल्ली जैसे पुस्तक मेले में अब भी साहित्य, उपन्यास और कथा-कहानी की किताबें भारी तादाद में बिकती हैं लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि उनको खरीदने के बाद पढ़ते कितने लोग हैं।
ज्यादातर लोगों के लिए मशहूर लेखकों की किताबें खरीद कर अपने ड्राइंग रूम में सजा कर रखना एक स्टेटस सिंबल बन गया है।
किताबों के इंसान के सबसे बढ़िया दोस्त होने की कहावत अब भी अप्रासंगिक नहीं हुई है। जरूरत है बच्चों को शुरू से ही किताबें पढ़ने के लिए प्रेरित करने की। इसके लिए घर और स्कूलों में जागरूकता अभियान चलाना जरूरी है। अगर शुरू में ही छपी हुई किताबों से बच्चे का मोहभंग हो गया तो वह आगे कभी इनको हाथ नहीं लगाएगा।
इंटरनेट पर देखी या पढ़ी हुई चीज लोग जल्दी ही भूल जाते हैं लेकिन छपी हुई किताबों में पढ़ी चीजें लंबे समय तक जेहन में रहती हैं। कैसे स्कूल में इतिहास और भूगोल के लंबे-लंबे अध्याय याद कर लेते थे। इनमें से खासकर मुगल साम्राज्य के पतन की वजह से संबंधित सवाल का जवाब ही कई पन्नों में लिखना होता था।
किताबें छात्रों को आलोचनात्मक और विश्लेषणात्मक रूप से सोचने की क्षमता विकसित करने के साथ ही स्थापित धारणाओं पर सवाल उठाने के लिए प्रोत्साहित तो करती ही हैं।
किसी भी विषय पर गहरी समझ भी पैदा करती है। जार्ज ओरवेल लिखित ‘1984’ आलोचनात्मक सोच की प्रेरणा देने वाली किताब का बेहतरीन नमूना है।
शिक्षाविदों का कहना है कि तनाव के भरे आधुनिक दौर में छपी हुई किताबें मानसिक तनाव दूर करने में काफी उपयोगी साबित हो सकती हैं। किताबें भावनात्मक बुद्धिमत्ता और सहानुभूति विकसित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
किताब पढ़ने की आदत कल्पना शक्ति और रचनात्मकता को भी बढ़ावा देती हैं। किताबें पढ़ने से रचनात्मकता जिस तरह बेहतर होती है वैसा असर डिजिटल का नहीं हो सकता।
किताब पढ़ते समय छात्र दुनिया के अलग-अलग हिस्सों और कालखंड की कल्पना करने लगते हैं। इसका जेके रोलिंग की हैरी पॉटर सीरीज का उदाहरण है। दुनिया भर में करोड़ों लोग इसके दीवाने हैं।
पुस्तक के दिलचस्प पात्र और विस्तार से उनकी जादुई दुनिया के वर्णन से छात्रों की कल्पना भी उड़ान भरने लगती है। वो सपने देखते हुए खुद को काल्पनिक कहानियों की दिशा में प्रेरित करते हैं।
छपी हुई किताबें पढ़ने से शब्द भंडार भी बढ़ता है। छात्र और युवा नए शब्द सीखते हैं। इससे उनका ज्ञान समृद्ध होता है। नए शब्द सीखने के लिए किताबें पढ़ने से बेहतर कोई और तरीका नहीं है।
मनोवैज्ञानिक भी यह स्वीकारते हैं कि रात को बिस्तर पर सोने से पहले किताबें पढ़ने से बेहतर कुछ नहीं हो सकता। इससे बेहद सुकून भरी नींद आती है। इसके उलट देर रात तक मोबाइल चलाने वाले लोग रात को नींद में खलल की शिकायत करते पाए जाते हैं। किताबें पढ़ने की आदत लोगों को मानसिक अवसाद से भी दूर रखने में मददगार होती है।
(शैलेन्द्र चौहान लेखक-साहित्यकार हैं और जयपुर में रहते हैं)
+ There are no comments
Add yours