Thursday, April 18, 2024

भारतीय पुनर्जागरण के जनक जोतीराव फुले : एक संक्षिप्त परिचय

तुम कैसे बेशर्म हुए, वश में होकर इन ब्राह्मणों के

नित छूने को चरण अरे तुम झुक जाते हो यों कैसे।

आर्यों की मनुस्मृति को देखो, ध्यानपूर्वक देखो

उसमें धोखा है सब देखो, पढ़ो ज़रा इनके ग्रंथों को।।

– जोतीराव फुले

“मेरे तीसरे गुरु जोतीबा फुले हैं। केवल उन्होंने ही मानवता का पाठ पढ़ाया। शुरुआती राजनीतिक आंदोलन में हमने जोतिबा के पथ का अनुसरण किया। मेरा जीवन उनकी शिक्षाओं से प्रभावित है।”

– डॉ. बी.आर. आंबेडकर

जोतीराव फुले सावित्रीबाई फुले के जीवन-साथी, शिक्षक और मार्गदर्शक थे। फुले ने सावित्रीबाई को शिक्षित किया और उन्हें अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए वैचारिक तौर पर तैयार किया। दोनों ने मिलकर ब्राह्मणवादी-मनुवादी सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था, परम्परा, रीति-रिवाजों और विचारधारा को कड़ी चुनौती दी। अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष के दौरान आने वाली हर चुनौती का दोनों ने मिलकर सामना किया। दोनों ने मिलकर आधुनिक भारतीय इतिहास की धारा बदल दी। सावित्रीबाई फुले के जीवन को समझने के लिए जोतीराव फुले के जीवन का संक्षिप्त परिचय ज़रूरी है।

आधुनिक भारत में शूद्रों-अतिशूद्रों, महिलाओं और किसानों के मुक्ति-संघर्ष के पहले नायक जोतीराव फुले हैं। डॉ. आंबेडकर ने गौतम बुद्ध और कबीर के अलावा जोतीराव फुले को अपना तीसरा गुरु माना है। 28 अक्टूबर, 1954 को पुरुदर स्टेडियम, मुंबई में भाषण देते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा कि “मेरे तीसरे गुरु जोतीराव फुले हैं। केवल उन्होंने ही मानवता का पाठ पढ़ाया। शुरुआती राजनीतिक आंदोलन में हमने जोतिबा के पथ का अनुसरण किया। मेरा जीवन उनकी शिक्षाओं से प्रभावित है।”[1] अपनी किताब ‘शूद्र कौन थे?’ महात्मा फुले को समर्पित करते हुए उन्होंने लिखा है कि “जिन्होंने हिन्दू समाज की छोटी जातियों को उच्च वर्णों के प्रति उनकी ग़ुलामी की भावना के संबंध में जाग्रत किया। जिन्होंने– विदेशी शासन से मुक्ति पाने से भी अधिक महत्वपूर्ण सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना है– इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया। उस आधुनिक भारत के महान् शूद्र महात्मा फुले की स्मृति में सादर समर्पित।”[2] जाति-भेद से मुक्ति को फुले ने अपने जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण मिशन बनाया। उन्होंने ‘जाति-भेद विवेकानुसार’ (1865) में लिखा कि “धर्मग्रंथों में वर्णित विकृत जाति-भेद ने हिन्दुओं के दिमाग़ को सदियों से ग़ुलाम बना रखा है। उन्हें इस पाश से मुक्त करने के अलावा कोई दूसरा महत्त्वपूर्ण काम नहीं हो सकता है।”[3]

जोतीराव फुले को पराधीनता और असमानता का कोई रूप स्वीकार नहीं था। वर्ण-जाति, स्त्री-पुरुष या किसी अन्य आधार पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव उन्हें स्वीकार नहीं था। उन्होंने साफ़ शब्दों में अपनी किताब ‘सार्वजनिक सत्य धर्म’ में घोषणा किया था कि “इस पृथ्वी पर सभी स्त्री-पुरुषों को गाँव, घर, एक परिवार की तरह रहना चाहिए। ईश्वर ने स्वतंत्र मनुष्य की रचना की है। उसने प्रसन्नतापूर्वक रहने का अधिकार सभी मनुष्यों को दिया है। विधाता ने सभी स्त्री-पुरुषों को सोच और विचार के आधार पर बिना किसी दूसरे को दुःख पहुंचाए अपनी बात कहने की स्वतंत्रता दी है। यही सात्विक व्यवहार है। परमात्मा ने सभी को समान मानव अधिकार दिए हैं। अतः कोई भी व्यक्ति या समुदाय दूसरे व्यक्ति या समुदाय पर अधिकार नहीं जमा सकता। इसका अनुपालन ही सच्चा कर्म है। सृजनहार ने सभी स्त्री-पुरुषों को धार्मिक एवं राजनीतिक अधिकार दिए हैं। पृथ्वी की छाती पर जन्म लेने वाला हर इंसान ख़ुदा की नज़र में एक समान है, तो फिर कैसे हो सकता है कि कुछ लोग जन्मना श्रेष्ठ हों और कुछ नीच और निकृष्ट?”[4]

डॉ. आंबेडकर के तीसरे गुरु और शूद्रों-अतिशूद्रों, महिलाओं और किसानों के लिए आजीवन संघर्ष करने वाले जोतीराव फुले का जन्म 11 अप्रैल, 1827 को शूद्र वर्ण के माली जाति में महाराष्ट्र में हुआ था। उनके पिता का नाम गोविन्दराव और माता का नाम चिमणाबाई था। फुले जब एक वर्ष के थे, तभी उनकी माँ चिमणाबाई का निधन हो गया। उनका पालन-पोषण उनके पिता की मुँहबोली बहन सगुणाबाई ने किया। सगुणाबाई ने उन्हें आधुनिक चेतना से लैस किया।

1818 में ब्राह्मणों का पेशवाई शासन भले ही अंग्रेजों ने ख़त्म कर दिया, पर सामाजिक जीवन पर उनका नियंत्रण क़ायम था। पुणे में शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के लिए शिक्षा के दरवाज़े बंद थे। ईसाई मिशनरियों ने शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के लिए शिक्षा के दरवाज़े खोले। सात वर्ष की उम्र में जोतीराव को पढ़ने के लिए स्कूल भेजा गया। लेकिन, जल्द ही सामाजिक दबाव में जोतीराव के पिता गोविंदराव ने उन्हें स्कूल से बाहर निकाल लिया। वे अपने पिता के साथ खेतों में काम करने लगे। उनकी जिज्ञासा और प्रतिभा से उर्दू-फ़ारसी के जानकार गफ्फार बेग और ईसाई धर्मप्रचारक लिजीटसाब बहुत प्रभावित थे। उन्होंने गोविंदराव को सलाह दी कि वे जोतीराव को पढ़ने के लिए भेजें और जोतीराव फिर से स्कूल जाने लगे। इसी बीच 13 वर्ष की उम्र में ही 1840 में जोतीराव का विवाह 9 वर्षीया सावित्रीबाई फुले से कर दिया गया। 1847 में जोतीराव स्काटिश मिशन के अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने लगे। होनहार विद्यार्थी जोतीराव का परिचय आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से हुआ।

स्कॉटिश मिशन स्कूल में दाखिले के बाद जोतीराव फुले के रग-रग में धीरे-धीरे समता और स्वतंत्रता का विचार बसने लगा। उनके सामने एक नई दुनिया खुल गई। तर्क उनका सबसे बड़ा हथियार बन गया। हर चीज़ को वे तर्क और न्याय की कसौटी पर कसने लगे। अपने आस-पास के समाज को एक नए नज़रिए से देखने लगे। इसी दौरान उन्हें व्यक्तिगत जीवन में जातिगत अपमान का सामना करना पड़ा। उन्हें उनके ब्राह्मण मित्र ने शादी में आमंत्रित किया। बारातियों के साथ जोतीराव को देखकर एक ब्राह्मण ने उनका गिरेबान पकड़ लिया और कहा कि “शर्म नहीं आती? शूद्र कहीं के? ब्राह्मणों के साथ चलते हो? जाति-पाँति की कोई मर्यादा है या नहीं? या सब कुछ ताक पर रख दिया है? हटो यहाँ से! सबसे पीछे चलना और आगे मत आना। बहुत बेशर्म हो गए हैं ये लोग

आजकल।”[5] उनके साथ ऐसा व्यवहार होगा, इसकी कल्पना भी कभी उन्होंने नहीं की थी। वे हक्के-बक्के रह गए। अपमान से तिलमिला उठे; लेकिन अपमान का घूंट पीकर रह गए। घर वापस आकर पिता को सारा वाक़या बताया। उन्हें उम्मीद थी कि पिता गोविंदराव को इससे उन ब्रह्मणों पर क्रोध आएगा, जिन्होंने ऐसा किया। लेकिन, हुआ इससे उलट। फुले के पिता भी ब्राह्मणवादी परम्पराओं को स्वीकार करते थे। वे भी अधिकांश शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की तरह मानसिक तौर ब्राह्मणवादी पर मानसिकता के ग़ुलाम थे। उन्होंने कहा कि ग़नीमत है कि उन ब्राह्मणों ने तुम्हें फटकार कर ही छोड़ दिया। तुम्हें समझना चाहिए कि हम जाति से शूद्र हैं। हम ब्राह्मणों की बराबरी नहीं कर सकते। इस घटना ने भी वर्ण-जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के सन्दर्भ में उनकी आंखें खोलने में मदद की।

1847 में जोतीराव ने मिशन स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली। जोतीराव फुले को इस बात का अहसास अच्छी तरह से हो गया था कि शिक्षा ही वह हथियार है, जिससे शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की मुक्ति हो सकती है। उन्होंने अपनी एक कविता में लिखा–

‘बिन विद्या के मति गई

मति बिन नीति गई

नीति बिना यह गति गई…’

1848 ई. में फुले दंपति द्वारा बालिकाओं के लिए पहला स्कूल खोला गया, जो विशेषकर अछूत कन्याओं को शिक्षित करने के उद्देश्य से खोला गया था। पूरे भारत में किसी भारतीय द्वारा अछूतों के लिए विशेष तौर पर खोला गया यह पहला स्कूल था।

सबसे पहले शिक्षा की ज्योति उन्होंने अपने घर में जलाई। अपनी पत्नी व सच्ची और अच्छी दोस्त सावित्रीबाई फुले को शिक्षित किया। उन्हें ज्ञान-विज्ञान से परिष्कृत किया। उनके भीतर यह भाव और विचार भरा कि स्त्री-पुरुष दोनों बराबर हैं। दुनिया का हर इंसान स्वतंत्रता और समता का अधिकारी है। सावित्रीबाई फुले, सगुणाबाई, फ़ातिमा शेख़ और अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर हज़ारों वर्षों से ब्राह्मणों द्वारा शिक्षा से वंचित किए गए समुदायों को शिक्षित करने और उन्हें अपने मानवीय अधिकारों के प्रति सजग करने का बीड़ा उठाया।

इस कार्य में उन्हें मिशनरी स्कूलों से काफ़ी प्रेरणा मिली थी। ‘अछूतों’ और महिलाओं के लिए शिक्षा की ज़रूरत के सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि “मेरे देश-बन्धुओं में महार, माँग और चमार दुःख और अज्ञान में डूबे हुए हैं। दयानिधान परमात्मा ने उनकी स्थिति में सुधार लाने की प्रेरणा मुझे दी। स्त्रियों के स्कूल ने सबसे पहले मेरा ध्यान आकर्षित किया। पूर्ण विचारोपरांत मेरा यह निश्चित मत हुआ कि लड़कों के स्कूल के बजाय लड़कियों का स्कूल होना ज़रूरी है। महिलाएं दो-तीन साल की आयु में संस्कार अपने बच्चों पर डालती हैं। उसी में उन बच्चों के भविष्य के बीज होते हैं। अमहमदनगर के अमेरिकन मिशन में मिस फैरार ने जो स्कूल चलाया, उसे मैंने अपने मित्रों के साथ देखा। जिस ढंग से उन लड़कियों को शिक्षा दी जाती है, वह पद्धति मुझे बहुत अच्छी लगी।”[6]

फुले दंपति द्वारा 3 जुलाई, 1851 को बालिकाओं के लिए दूसरा स्कूल खोला गया।

अपने इन विचारों को व्यवहार में उतारते हुए फुले ने 1848 में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला। यह स्कूल महाराष्ट्र में ही नहीं, पूरे भारत में किसी भारतीय द्वारा ‘अछूतों’ के लिए विशेष तौर पर खोला गया पहला स्कूल था। यह स्कूल खोलकर जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने खुलेआम धर्मग्रंथों को चुनौती दी। उन्होंने मनुस्मृति सहित अन्य ब्राह्मण-धर्मग्रंथों का खंडन करना भी शुरू कर दिया। ब्राह्मणवादी बौखला उठे। ब्राह्मणवादियों के दबाव में फुले के पिता ने उन्हें और उनकी जीवन-साथी सावित्रीबाई फुले को घर से निकाल दिया। फुले का पहला स्कूल सिर्फ़ 6 महीने ही चल पाया। इसके बाद 3 जुलाई 1851 को उन्होंने दूसरा स्कूल खोला। इन स्कूलों के संचालन में सावित्रीबाई फुले और जोतीराव फुले ने एक साथ कार्य किया। फुले ने प्रौढ़ उम्र के लोगों के लिए 1855 में रात्रि पाठशाला खोली। यह पूरे भारत में अपने तरह की पहली पाठशाला थी। उन्होंने 1852 में मराठी पुस्तकों के प्रथम पुस्तकालय की स्थापना की। इसी तरह उन्होंने 1851 में ‘फीमेल एजुकेशन सोसायटी’ तथा 1853 में ‘सोसायटी फॉर प्रमोटिंग दि एजुकेशन ऑफ महार्स एंड माँग्स’ की स्थापना करके शिक्षा प्रबंधन के क्षेत्र में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान किया।[7] फुले के ये स्कूल भारत में ‘अछूतों’ और महिलाओं के लिए शिक्षा की रोशनी लेकर आए थे।

फुले दंपति ने सन् 1855 में प्रौढ़ उम्र के लोगों के लिए रात्रि पाठशाला खोली

फुले द्वारा शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं को शिक्षित करने का उद्देश्य अन्याय और उत्पीड़न पर आधारित सामाजिक व्यवस्था को उलट देना था। 1873 में अपनी किताब ‘ग़ुलामगिरी’ की प्रस्तावना में उन्होंने इस किताब को लिखने का उद्देश्य इन शब्दों में प्रकट किया– “सैकड़ों वर्षों से शूद्रादि अतिशूद्र ब्राह्मणों के राज में दुःख भुगतते आए हैं। इन अन्यायी लोगों से उनकी मुक्ति कैसे हो, यह बताना ही इस ग्रंथ का उद्देश्य है।”[8] फुले शूद्रों-अतिशूद्रों की मुक्ति के जितने बड़े समर्थक थे, उतने ही बड़े समर्थक स्त्री-मुक्ति के भी थे। उन्होंने महिलाओं के बारे में लिखा कि “स्त्री-शिक्षा के द्वार पुरुषों ने इसलिए बंद कर रखे थे, ताकि वे मानवीय अधिकारों को समझ न पाएं। जैसी स्वतंत्रता पुरुष लेता है, वैसी ही स्वतंत्रता स्त्री ले तो? अगर अपनी कामवासनाएं पूरी करने के लिए पुरुष दो-दो, तीन-तीन स्त्रियों से विवाह करता है और उन विवाहों के लिए धर्मशास्त्र का आधार लेता है। स्त्रियों को भी अपनी मनोकामनाएं पूरी करने के लिए दो-दो, तीन-तीन पति रखने की सहूलियत मिलनी चाहिए। हम सब पुरुषों को तब कैसा लगेगा?[9] जोतीराव फुले स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों के हिमायती थे। उन्होंने व्यवहार में भी यह कर दिखाया। सावित्रीबाई फुले जीवन के सभी क्षेत्रों में उनके साथ बराबर की हिस्सेदार थीं।

उन्होंने महिलाओं को पुरुषों के बराबर मानते हुए ब्राह्मणवादी विवाह पद्धति को ख़ारिज कर दिया, जिसमें लड़की पिता की संपत्ति जैसी होती है और वह उसे किसी को भी दान दे सकता है, जिसे कन्यादान कहा जाता है। जोतीराव फुले ने लड़के-लड़की को समान मानते हुए नई विवाह पद्धति तैयार की; जिसे ‘सत्यशोधक विवाह पद्धति’ कहा गया। सच तो यह है कि स्त्री मुक्ति का कोई भी ऐसा संघर्ष नहीं है, जिसे फुले ने अपने समय में न चलाया हो। डॉ. मु.ब. शहा ने बिलकुल सही लिखा है कि “स्त्री मुक्ति की कोई ऐसी लड़ाई नहीं है, जो जोतिबा ने अपने समय में न लड़ी हो। उच्च वर्ग अपनी स्त्रियों के लिए जो सुधार नहीं कर सके, वे जोतिबा ने उनके लिए किए। वे भली-भाँति जानते थे कि जब तक परिवार प्रमुख की तानाशाही नहीं नष्ट होगी, तब तक स्त्री की ग़ुलामी भी नहीं नष्ट होगी और सामाजिक विषमता भी नहीं हटेगी। उनकी यही मान्यता थी कि यदि परिवार समानता की भावना पर स्थित रहा, तो समाज और राष्ट्र भी समानता की डोर में गुंथ जाएंगे।”[10] जोतीराव फुले ने सावित्रीबाई के साथ मिलकर अपने परिवार को स्त्री-पुरुष समानता का मूर्त रूप बना दिया और एक साथ मिलकर समाज और राष्ट्र में समानता क़ायम करने के लिए संघर्ष में उतर पड़े। एक बराबर के साथी की तरह दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े सुख-दुःख में एक-दूसरे का साथ देते हर तरह के अन्याय के ख़िलाफ़ आजीवन लड़ते रहे।

फुले ने समाज सेवा और सामाजिक संघर्ष का रास्ता एक साथ चुना। सबसे पहले उन्होंने हज़ारों वर्षों से वंचित लोगों के लिए शिक्षा का द्वार खोला। विधवाओं के लिए आश्रम बनवाया, विधवा पुनर्विवाह के लिए संघर्ष किया और ‘अछूतों’ के लिए अपना पानी का हौज खोला। इस सबके बावजूद वह यह बात अच्छी तरह समझ गए थे कि ब्राह्मणवाद का समूल नाश किए बिना अन्याय, असमानता और ग़ुलामी का अंत होने वाला नहीं है। इसके लिए उन्होंने 24 सितंबर, 1873 को ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की। सत्यशोधक समाज का उद्देश्य ब्राह्मणों की पौराणिक मान्यताओं का विरोध करना, शूद्रों-अतिशूद्रों को ब्राह्मणों की मक्कारी के जाल से मुक्त कराना, पुराणों द्वारा पोषित जन्मजात ग़ुलामी से छुटकारा दिलाना और लोगों को यह बताना कि ईश्वर एक है; जो सर्वव्यापी निर्गुण और निराकार है। वह प्रत्येक वाणी में बसता है। किसी भी जाति और धर्म का व्यक्ति खंडेराव देव के नाम की शपथ लेकर इस संस्था का सदस्य बन सकता था।

सत्यशोधक समाज के सदस्य मुस्लिम, ईसाई, पारसी, यहूदी, ब्राह्मण, मराठा, कोली, महार, माँग, चमार और माली आदि धर्मों और जातियों के लोगों से बने थे। इसमें जाति, लिंग, धर्म और वर्ण आदि के आधार पर भेदभाव के लिए कोई जगह न थी। यह एक जनांदोलन बन गया था। इसके माध्यम से फुले ने ब्राह्मणवाद के विरुद्ध एक सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत की थी।[11] सत्यशोधक समाज के मुख्यतः तीन लक्ष्य थे। पहला, भक्त और भगवान के बीच किसी बिचौलिये की ज़रूरत नहीं है और बिचौलियों (ब्राह्मण पुरोहितों) द्वारा लादी गई ग़ुलामगिरी को नष्ट करना; अन्धश्रद्धा का ख़ात्मा करना और अज्ञानी लोगों को उनकी ग़ुलामी से मुक्त करना। दूसरा, सभी जातियों के स्त्री-पुरुषों को शिक्षा उपलब्ध कराना और तीसरा, साहूकारों एवं ज़मींदारों के शिकंजे से किसानों को मुक्त करना। सत्यशोधक आंदोलन महाराष्ट्र में एक जनांदोलन बन गया था। सत्यशोधक समाज के कार्यों में जोतीराव फुले के साथ सावित्रीबाई फुले भी बराबर की हिस्सेदार थीं। 1890 में जोतीराव फुले के देहांत के बाद सत्यशोधक समाज की अगुआई की जिम्मेदारी सावित्रीबाई फुले ने उठाई।

शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के अलावा जिस समुदाय के लिए जोतीराव फुले ने सबसे ज़्यादा संघर्ष किया, वह समुदाय किसानों का था। उन्होंने ‘किसान का कोड़ा’ (1883) ग्रंथ में किसानों की दयनीय अवस्था को दुनिया के सामने उजागर किया। उनका कहना था कि किसानों को धर्म के नाम पर भट्ट-ब्राह्मणों का वर्ग, शासन-व्यवस्था के नाम पर विभिन्न पदों पर बैठे अधिकारियों का वर्ग और सेठ-साहूकारों का वर्ग, सब लूटते-खसोटते हैं। असहाय-सा किसान सब कुछ बर्दाश्त करता है। इस ग्रंथ को लिखने का उद्देश्य बताते हुए वे लिखते हैं कि “फिलहाल शूद्र-किसान धर्म और राज्य संबंधी कई कारणों से अत्यन्त विपन्न हालात में पहुंच गया है। उसकी इस हालात के कुछ कारणों की विवेचना करने के लिए इस ग्रंथ की रचना की गई है।”[12] 

2 मार्च, 1888 को पूना में ब्रिटेन के राजकुमार के सम्मान में बड़ा भोज दिया गया था, जिसमें देश के नामी-गिरामी लोग उपस्थित थे। जोतीराव फुले को भी उसमें बुलाया गया था। आमजन की वेशभूषा में पहुँचे जोतीराव फुले ने ड्यूक (राजकुमार) को संबोधित करते हुए कहा कि “यहाँ उपस्थित मेहमानों के बहुमूल्य कपड़ों और उन पर चमचमाते हीरों को देखकर यह मत समझना कि हिंदुस्तान बड़ा सुखी और समृद्ध देश है। सच्चाई कुछ अलग है। ये सोने-चाँदी के गहनों से लदे और सुगंधित वस्त्र पहने हुए अमीर लोग इस देश की जनता के सच्चे प्रतीक नहीं हैं। यहां के अधिकांश किसानों के ये प्रतिनिधि नहीं हो सकते। सच्चा हिंदुस्तान देहातों में है। वहां के लोग निर्धन, भूखे, नंगे और बेघर हैं। नंगे पैर ही चलते हैं। …अगर राजकुमार सच्चा हिंदुस्तान देखना चाहते हैं, तो वे पास-पड़ोस के देहातों में जाएं, वहां की अज्ञानी जनता की भीषण दरिद्रता को प्रत्यक्ष देखें। अछूतों की झुग्गी-झोपड़ियों में जाएं और वहां यह देखें कि कूड़े-करकट से भी बदतर हालात में उनकी बस्तियां कैसे जी रही हैं। यह सब प्रत्यक्ष देखकर राजकुमार और उनकी पत्नी जाकर महारानी विक्टोरिया से कहें कि हिंदुस्तान की ग़रीब जनता दरिद्रता की खाई में पड़ी सड़ रही है।”[13]

जोतीराव फुले चिंतक, लेखक और अन्याय के ख़िलाफ़ निरंतर संघर्षरत योद्धा थे। वे दलित-बहुजनों, महिलाओं और ग़रीब लोगों के पुनर्जागरण के अगुआ थे। उन्होंने शोषण-उत्पीड़न और अन्याय पर आधारित ब्राह्मणवादी व्यवस्था की सच्चाई को सामने लाने और उसे चुनौती देने के लिए अनेक ग्रंथों की रचना की। जिसमें प्रमुख रचनाएं निम्न हैं–

1- तृतीय रत्न (नाटक, 1855), 2- छत्रपति राजा शिवाजी का पवाड़ा (1869), 3- ब्राह्मणों की चालाकी (1869), 4- ग़ुलामगिरी (1873), 5- किसान का कोड़ा (1883), 6- सतसार अंक-1 और 2 (1885), 7- इशारा (1885), 8-अछूतों की क़ैफ़ियत (1885), 9- सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तक (1889), 10- सत्यशोधक समाज के लिए उपयुक्त मंगलगाथाएं तथा पूजा विधि (1887), 11-अंखड़ादि काव्य रचनाएं (रचनाकाल ज्ञात नहीं)।

महात्मा जोतीराव फुले अन्याय के सभी रूपों के ख़िलाफ़ खुली जंग छेड़ने वाले आधुनिक भारत के पहले योद्धा थे। ब्राह्मणवाद-मनुवाद के चलते शूद्रों, अतिशूद्रों, महिलाओं और किसानों और निम्न वर्गों पर जो अन्याय हो रहा था, उसके ख़िलाफ़ खड़े होने का साहस सबसे पहले जोतीराव फुले ने दिखाया। वे जिस तरह के समाज का सपना देखते थे, वैसे समाज के निर्माण में जाति व्यवस्था और महिलाओं की ग़ुलामी उन्हें सबसे बड़ा अवरोध दिखाई देती थी। क्योंकि, जाति व्यवस्था और महिलाओं की दासता को हिन्दू धर्म का समर्थन प्राप्त है। उन्होंने हिन्दू धर्म पर निर्णायक हमला बोल दिया। ब्राह्मणवाद-मनुवाद के समूलनाश का संकल्प उनके जीवन का सबसे बड़ा ध्येय था। क्योंकि, उनका मानना था कि यह सभी प्रकार के अन्यायों को जायज ठहराता है।

लोगों को अज्ञान और अंधविश्वास में रखकर उनका शोषण और उत्पीड़न करने वालों का समर्थन करता है। भले ही 1890 में जोतीराव फुले हमें छोड़कर चले गए; लेकिन, जोतीराव फुले ने सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के शोषण के ख़िलाफ़ जागरण की जो मशाल जलाई, आगे चलकर उनके बाद उस मशाल को सावित्रीबाई फुले ने जलाए रखा। सावित्रीबाई फुले के बाद इस मशाल को शाहूजी महाराज ने अपने हाथों में ले लिया। बाद में उन्होंने यह मशाल डॉ. भीमराव आंबेडकर के हाथों में सौंप दी। डॉ. आंबेडकर ने मशाल को एक धधकती आग में बदल दिया। उस आग की आंच और रोशनी आज भी दलित-बहुजनों और महिलाओं की सबसे बड़ी ताक़त है। आज हज़ारों दलित-बहुजन कार्यकर्ता अपने हाथों में उस मशाल को लेकर स्वतंत्रता, समता और बन्धुता पर आधारित लोकतांत्रिक भारत के निर्माण के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

………………………..

[1] जोतिबा फुले, आधुनिक सामाजिक क्रांति के अग्रदूत, डॉ. नामदेव, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, 2014, पृ. 10

[2] बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर, सम्पूर्ण वाङ्मय, खंड-14

[3] जोतिबा फुले, आधुनिक सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत, डॉ. नामदेव, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, 2014, पृ. 11, 12

[4] वही, पृ. 13

[5] भारतीय सामाजिक क्रांति के जनक, महात्मा जोतीराव फुले, डॉ. मु. ब. शहा, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. 23

[6] भारतीय सामाजिक क्रान्ति के जनक, महात्मा जोतीराव फुले, डॉ. मु. ब. शहा, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. 25

[7] जोतिबा फुले, आधुनिक सामाजिक क्रांति के अग्रदूत, डॉ. नामदेव, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, 2014. पृ. 23

[8] महात्मा फुले, समग्र वाङ्मय, पृ. 83

[9] वही, पृ. 361

[10] भारतीय सामाजिक क्रान्ति के जनक, महात्मा जोतीराव फुले, डॉ. मु. ब. शहा, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009,  पृ. 59

[11] आधुनिक भारत का दलित आंदोलन, आर. चन्द्रा, यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2003, पृ. 46

[12] महात्मा फुले, समग्र वाङ्मय, पृ. 505, 533

[13] भारतीय सामाजिक क्रान्ति के जनक, महात्मा जोतीराव फुले, डॉ. मु.ब. शहा, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. 38

(यह अंश डॉ. सिद्धार्थ की किताब ‘बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर’ से लिया गया है।)

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