Thursday, April 25, 2024

कांशीराम के राजनीतिक प्रयोग के मायने

पहचान व्यक्तित्व का एक ऐसा जरूरी हिस्सा है जो न सिर्फ हमारी लोकेशन को निर्धारित करता है बल्कि हमारे लिए ढेर सारे सकारात्मक और नकारात्मक अवसरों को भी उत्पन्न करता है। यह राष्ट्रीय, भाषाई, क्षेत्रीय,धार्मिक और जातीय किसी भी आधार पर निर्धारित हो सकती है। मसलन माइक्रो लेवल पर अगर देखा जाए तो पहचान किसी एक व्यक्ति के अपने ओरियंटेशन को लेकर भी स्थापित हो सकती है। इसी पहचान से उसकी सामाजिक स्थिति का अंदाजा लगता है, समाज में उसकी हैसियत और उसकी सामाजिक पूंजी उसके साथ कितना जुड़ी है यह सारी चीजें उसकी पहचान से निर्धारित हो जाती हैं।

इसी पहचान के साथ जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के अवसरों की भी उत्पत्ति होती है। अगर हम किसी ऐसी पहचान के साथ संबंध रखते हैं जिसकी सामाजिक हैसियत बहुत अच्छी है तो निस्संदेह उसका हमें बहुत लाभ मिलेगा जिसे सामाजिक पूंजी के रूप में जाना जाता है। और अगर हमारी पहचान किसी ऐसे समूह के साथ जुड़ती है जिसकी सामाजिक हैसियत पिछड़ेपन का शिकार है या जिसके साथ जुल्म ज्यादती कर के उसे मुख्यधारा से दूर रखने की कोशिश की गई है तब यही पहचान अलग-अलग क्षेत्रों में हमारे लिए न सिर्फ बाधा बनती है बल्कि उसकी वजह से शोषण और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। 

भारतीय राजनीति में आज़ादी के बाद की उपजी परिस्थितियों में भूख का सवाल सबसे प्रमुख था। निकट आजाद हुए भारत में भी तत्कालीन भारतीय शासकों द्वारा यह ऐलान किया गया था कि सभी लोग अपने घरों पर तिरंगा झंडा फहराए। पर इसी देश के अलग-अलग हिस्सों में लोग यह पूछ रहे थे कि तिरंगा झंडा तो ठीक है पर रोटी कहा हैं। यानी रोटी का सवाल सबसे प्रमुख था। आज़ादी के अगले दो-तीन दशकों तक यह सवाल गरीबी के साथ जुड़कर प्रमुखता से बना रहा। आजाद भारत का लोकतांत्रिक जीवन की उपलब्धि कुछ यू है कि यह कभी पाकिस्तान नहीं बन पाया। सही मायने में डेमोक्रेसी स्थापित हुई कि नहीं यह एक अलग बात है पर भारत एक प्रोसीजरल डेमोक्रेसी का बेहतरीन उदाहरण अभी तक बना हुआ है जहां समय-समय पर चुनाव होते हैं चुने हुए प्रतिनिधि विधायिका में जाते हैं, इस देश की राजनीतिक वैधानिक गतिविधियों में भाग लेते हैं और फिर एक समय के बाद उनको निर्धारित करने की पूरी ताकत भारत की जनता में चली जाती है।

यहां के लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं पर कितना प्रभाव पड़ता है या उनकी जरूरी मांगें पूरी हो रही हैं कि नहीं, उनके अधिकार सुरक्षित हो पा रहे हैं कि नहीं, यह निर्धारित कर सकने के मामले में भारतीय लोकतंत्र उतना मजबूती के साथ खड़ा नहीं दिखाई देता। बहरहाल भूख और गरीबी के सवाल से आगे बढ़ते हुए भारतीय राजनीति का जो अगला चरण शुरू होता है उसमें एक नई तरह की राजनीति की शुरुआत होती है जो पहचान के साथ जुड़ी हुई थी। छोटी बड़ी उन तमाम पहचान को स्थापित करने की लड़ाई शुरू हो जाती है। इसमें भाषाई स्तर से लेकर बहुत प्रमुखता के साथ धार्मिक पहचान को स्थापित करने और लंबे समय से जातीय विभाजन का दंश झेलते हुए और मूलभूत सुविधाओं से वंचित खुद को स्थापित करने के उद्देश्य से जातीय पहचान की राजनीति शुरू होने लगती है। 

पहचान की इस राजनीति में दो प्रमुख हिस्सा जातीय और धार्मिक राजनीतिक का रहा है। कमंडल की राजनीति में पूरे देश में एक ऐसी लहर पैदा की जिसने एक बड़ी पहचान के आधार पर इस देश के लोगों को एकत्रित किया पर यह शर्मनाक ज़रूर साबित हुई कि इसने इस देश में एक अंधी दकियानूसी और कारपोरेट परस्त, विभाजनकारी राजनीति को बढ़ावा दिया। धर्म आधारित पहचान की राजनीति ने स्थापित बहुसंख्यक धार्मिक आबादी को अल्पसंख्यक आबादी को अपना दुश्मन के रूप में स्थापित कर सभ्यताओं के टकराव को जन्म दिया। जिसका हस्र देशभर में जगह-जगह दंगों से लेकर, ऐतिहासिक इमारतों में तोड़फोड़ और सामाजिक वातावरण को पूरी तरह से अराजक करके रख दिया है। लाखों लोग मारे गए और जो बचे रह गए वह इसी पहचान के इर्द-गिर्द की पूरी राजनीति में न सिर्फ उलझ गए बल्कि अपने जरूरी हक और हुकूक पर राजनीतिक विषाद खड़ी करने की बात ही भूल गए। 

 वहीं एक तरफ इस बड़े दायरे की धार्मिक पहचान की राजनीति के बरक्स एक दूसरे पहचान की राजनीति भी स्थापित हो रही थी जो शोषितों की राजनीति थी, जो उनके उत्थान के लिए की जा रही थी,जो उन्हें गोल बंद करते हुए इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्रमुख हिस्सा बनाने के लिए की जा रही थी। इस राजनीति की धारा ने भारतीय राजनीतिक व्यवस्था और उसके संस्थाओं में शोषितों के यकीन को बढ़ाने का काम किया। उसने उनके बीच में इस जनमत को स्थापित किया कि इन संस्थाओं और इसके द्वारा स्थापित मूल्यों को अपनाकर उन दबे कुचले समाज की बेहतरी के ख्वाब देखे जा सकते हैं और वंचित लक्ष्यों को हासिल किए जा सकते हैं।

इसने प्रतिनिधित्व के सवाल को प्रमुखता के साथ उठाया। इस राजनीति ने हाशिये पर कर दी गयी एक संस्कृति को मुख्यधारा में स्थापित करने का काम किया। लंबे समय से अपमानित किए गए समाज के एक बड़े हिस्से को न सिर्फ गरिमा युक्त उपस्थिति दी बल्कि इसके प्रभाव को बहुत व्यापक कर दिया। पहचान की इस राजनीति में सार्वजनिक जीवन के सभी हिस्से में समाज की अलग-अलग जाति पहचान को जगह देने की मांग की। प्रतिनिधित्व की यह लड़ाई समाज के चंद हिस्सों के द्वारा नियंत्रित की जा रही पूरी व्यवस्था के खिलाफ एक बगावत थी। बहुत मेरिट वाले ब्रिटिशर्स को इस मुल्क से भगा कर एक समावेशी राज्य की कल्पना जो भारतीय संविधान में की गई थी जातीय पहचान की राजनीति ने उन्हीं संवैधानिक मूल्यों के समावेशी लक्षणों को हासिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

दबी कुचली जातियों को गोलबंद कर प्रतिनिधित्व की लड़ाई को आधार बनाकर पहचान की राजनीति उत्तर भारत की प्रमुख विशेषता 21वीं सदी के आते-आते बन चुकी थी। इस राजनीति के एक प्रमुख चेहरे के रूप में कांशीराम की भूमिका सबसे प्रभावी भारतीय राजनीतिक व्यक्तित्व के रूप में रही है। एक साधारण परिवार से आने वाले कांशीराम सरकारी नौकरी करते हुए समाज के प्रति नेतृत्व की जरूरत को समझते हैं और उस नौकरी को छोड़कर इन्हीं सामाजिक जिम्मेदारियों के साथ जद्दोजहद करने लगते हैं। भारतीय राजनीति में कांशीराम एक प्रयोग की तरह आते हैं और पहचान की राजनीति को बखूबी तरह से स्थापित करते हैं। उन्होंने न सिर्फ राजनीतिक वजूद को तराशा बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक हैसियत को भी मजबूती प्रदान की।

भारतीय राजनीति में कांशीराम का उभार संविधानिक संस्थाओं और मूल्यों द्वारा स्थापित सामाजिक गतिकी में उभर रहे इन दबे कुचले पिछड़े समाजों की स्थिति को उजागर करता है। जिस समाजवादी ढांचे के तहत राज्य ने रोजगार को लेकर जिम्मेदारियों का निर्वहन किया उसने एक ऐसा उर्वर मैदान तैयार किया जहां अस्मिता आधारित सम्मान और स्वाभिमान की लड़ाई के साथ प्रतिनिधित्व के सवाल को प्रमुखता के साथ उठाया जा सकता था। यह अवसर था एक बड़ी आबादी जो शुरू से मुख्यधारा से दूर धकेल दी गई थी उसे इस मुख्यधारा में लाने और उसकी पहचान को स्थापित करने का था। कांशीराम ने इस काम को बेहद खूबसूरत तरीके से किया। तमाम पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से बहुजन वैचारिकी को लोगों के बीच पहुंचाया। प्रतिनिधित्व की लड़ाई को आधार बनाकर एक मजबूत सामाजिक ढांचे का निर्माण किया जिसकी बुनियाद पर एक सशक्त और मजबूत राजनीतिक पहचान स्थापित हो सकी। यह अलग बात है कि उसका हश्र उसके वर्तमान नेतृत्व की वजह से कहां जा पहुंचा है। पर पहचान की इस राजनीति ने समाज के बड़े हिस्से के अंदर उस चेतना को जन्म दिया कि वह अपने हक और हुकूक के लिए गोलबंद हो सका।

जातीय पहचान की राजनीति के उत्तर भारत के प्रमुख पुरोधा बने कांशीराम ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सहारा लेते हुए इन जातियों को गोलबंद किया। उन्हें यकीन दिलाया कि इन संवैधानिक राजनीतिक संस्थाओं का सहारा लेकर वह चाबी हासिल की जा सकती है जिससे समाज के पिछड़े तबके की बेहतरी का दरवाजा खोला जा सकता है। कांशीराम की राजनीति ने एक हद तक दबे कुचले वंचित शोषित समाज को बहुत लाभ पहुंचाया। यह लाभ किसी आर्थिक या भौतिक रूप में बहुतायत संख्या में भले ना हुआ हो पर एक पहचान के रूप में पिछड़े समाजों की मजबूत स्थिति दर्ज हुई।

पहचान की राजनीति अपने आप में एक सांस्कृतिक क्रांतिकारी बदलाव की तरह थी जिसने मुट्ठी भर समाज के हिस्से द्वारा संचालित मान्यता और परंपराओं को न सिर्फ एक सिरे से खारिज किया बल्कि समतामूलक नई संस्कृतियों को स्वीकार करते हुए उन्हें मुख्यधारा में स्थापित किया। कांशी राम की पूरी राजनीति बहुत लोकतांत्रिक तरीके से लोकतांत्रिक संस्थाओं के माध्यम से संवैधानिक मूल्यों को हासिल करने की कोशिश थी जिसकी बुनियाद में जाति की पहचान थी। लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सहारा लेते हुए मनी मसल गठजोड़ को साफ तौर पर खारिज करते हुए जनवादी तरीकों का प्रयोग कर कांशीराम प्रतिनिधित्व की इस प्रमुख राजनीति को उत्तर प्रदेश सरीखे राज्यों में सत्ता हासिल कर सकने में सफल हुए। 

पहचान की इस राजनीति ने अपने निर्धारित लक्ष्यों में कुछ हद तक सफलता भी हासिल की। पर इसके अपने संकट भी इसके साथ शुरू से ही जुड़े रहे। एक संकट इन छोटी पहचान पर किसी बड़ी पहचान का काबिज हो जाने का था तो वहीं दूसरी तरफ यह पहचान की बारीकियां किसी एक पहचान के साथ जुड़कर रुक नहीं जाती बल्कि तरह-तरह की नई पहचान के साथ उभरती रहती हैं। यानी जातीय गोलबंदी मैं गोलबंदी सिर्फ पिछड़ी जाति या शोषित वंचित जाति के आधार पर ही गोलबंदी होनी शुरू नहीं हुई बल्कि भारतीय समाज के सभी जातियों ने अपने आप को गोल बंद करना शुरू किया। सभी जातियों ने अपने प्रतिनिधित्व के सवाल को प्रमुखता के साथ उठाया और कांशीराम का यही आंदोलन जिसने पहचान की राजनीति को स्थापित किया हुआ इस प्रक्रिया में उत्पन्न सवालों के साथ उलझ कर रह गया। ब्राह्मणवादी फासीवादी उभार ने पहचान की राजनीति के साथ जुड़े इस परिस्थिति का पूरा लाभ उठाया और सामाजिक अराजकता के वातावरण को गुणाकर सत्ता की चाबी हासिल कर लिया।

 जहां एक तरफ छोटी-छोटी पहचानो को उजागर कर उनके अतीत के साथ झूठे प्रोपगैंडा को स्थापित कर सामाजिक एकता में विक्षोभ पैदा किया वहीं धार्मिक पहचान की एक बड़ी पहचान को स्थापित कर इसने उसी बिखरे हुए सामाजिक ताने-बाने को अपनी तरफ खींचने की पूरी कोशिश की बल्कि उस कोशिश में बहुत हद तक सफल भी हुआ। 21वीं सदी के दूसरे दशक आते-आते जाति पहचान की राजनीति फीकी पड़ने लगी और बड़ी पहचान की धार्मिक राजनीति में अपने आप को बहुत विस्तार कर लिया और वर्तमान भारत उसी पहचान की राजनीति के साथ जाना जा रहा हैं।

हिंदुत्व की धर्म आधारित बड़ी पहचान की राजनीति ने दिखावे के लिए प्रतिनिधित्व के सवाल को भी छुआ तो ज़रूर पर उसी को आधार बनाकर उसने प्रतिनिधित्व के ही सिर्फ सवाल पर खड़ी की गई राजनीति की उस बुनियाद को लगभग खत्म होने की कगार पर ला दिया। आज जातीय अस्मिता के इर्द-गिर्द की राजनीति चुनावी राजनीतिक प्रक्रिया से बहिष्कृत होकर आम जनमानस के कुछ हिस्सों तक में सिमट गई है। बीसवीं सदी के आखिरी दशक के आते-आते नव उदारवादी नीतियों ने राज्य को अपनी जिम्मेदारियों से भागने के लिए विवश किया क्योंकि जातीय पहचान की राजनीति वर्तमान सत्ता में सहभागिता की राजनीति थी तब जब वर्तमान सत्ता ही सिकुड़ती जा रही हो तब इस सहभागिता की लड़ाई का इस उदारीकरण निजीकरण और पूंजी के वैश्वीकरण के दौर में यही हश्र होना था। 

आज के समय जब हम सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर नजर डालते हैं तब हमें राजनीतिक बेहतरी तो स्थापित होती हुई दिखती है पर उसमें प्रतिनिधित्व का सवाल प्रमुखता के साथ खड़ा होता है। सामाजिक और आर्थिक स्थिति की तरफ नजर दौड़ाई जाए तो वह हालात बद से बदतर होते नजर आते हैं। जहां एक तरफ भयावह रूप से बढ़ती आर्थिक विषमता का दंश नजर आता है तो वहीं सामाजिक भेदभाव और गैर बराबरी नफरत और उन्मादी माहौल भी भारतीय राजनीति की एक पहचान सा चुकी है।

भारतीय राजनीति के प्रमुख व्यक्तित्व के रूप में कांशीराम को याद करते हुए पहचान की राजनीति के इर्द-गिर्द उनके प्रयोग पर पुनः विचार करने की जरूरत है। पहचान और प्रतिनिधित्व की राजनीति के साथ राज्य की मजबूत जिम्मेदारी के साथ संसाधनों पर सामाजिक प्रभुत्व को बनाए रखने की भी मजबूत लड़ाई लड़नी होगी। संसाधन और सम्मान दोनों की लड़ाई को एक साथ मिलाकर लड़ने के यही रूप में हमें आज के दौर में कांशीराम की सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक विरासत को याद करना होगा। 

(मनीष कुमार इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र हैं।)

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