Friday, March 29, 2024

प्रगतिशील लेखक संघ: सामाजिक बदलाव का क्षण साहित्य की निगाहों से चूकना नहीं चाहिए

इंदौर। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की 87वीं वर्षगांठ एवं हरिशंकर परसाई की जन्म शताब्दी के अवसर पर प्रलेस की इंदौर इकाई द्वारा ओसीसी होम, रुद्राक्ष भवन, इंदौर में गोष्ठी का आयोजन किया, जिसमें विभिन्न वक्ताओं ने संबंधित विषयों पर अपनी बात रखी। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में लेखकों, कलाकारों, रचनाकारों, पत्रकारों और अभिनेताओं ने भाग लिया। संगोष्ठी में मुम्बई के जाने-माने फिल्म/टेलीविजन अभिनेता एवं लेखक राजेन्द्र गुप्ता की उपस्थिति महत्त्वपूर्ण रही।

संगोष्ठी की शुरुआत प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी ने “सामाजिक परिवर्तन में साहित्य की भूमिका” पर अपना वक्तव्य देते हुए की। विनीत ने देश से लेकर दुनिया भर में 20वीं शताब्दी के प्रसिद्ध प्रगतिशील लेखकों जैसे बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, बर्ट्रेंड रसेल, पाब्लो नेरुदा, नाज़िम हिकमत, लियो टॉल्स्टॉय, विक्टर ह्यूगो और हॉवर्ड फास्ट के लेखन और उनकी रचनाओं का उल्लेख करते हुए बताया कि सन् 1930 के दशक में जब फासीवाद शक्ति प्राप्त कर रहा था और मॉब लिंचिंग जैसी सामाजिक बुराइयां जो आज हम देखते हैं तब आम थीं। उन लेखकों ने लगातार घृणा, भय और हिंसा की मानसिकता फैलती देखी और इस अज्ञानी, विनाशकारी मानसिकता से लड़ने के लिए दुनिया भर के सजग लेखक, वैज्ञानिक, चित्रकार आदि ने मिलकर पेरिस में 1935 में एक सम्मलेन किया जिसमें तीन भारतीय लेखकों ने भी हिस्सेदारी की।

उन्हीं में से एक सज्जाद ज़हीर ने वापस भारत आकर प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) का गठन किया। प्रलेस का मकसद साहित्य के जरिए समाज में बदलाव लाना है। मुंशी प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य अब अभिजात वर्ग के रोमांस के बारे में नहीं होना चाहिए, बल्कि साहित्य आम लोगों के जीवन, उनके सुख-दुख और उनके संघर्षों की कहानियों के बारे में लिखा जाना चाहिए साथ ही सुंदरता के मापदंड बदलना होंगे तभी साहित्य प्रगतिशील होता है। साहित्य राजनीति से आगे चलने वाली मशाल है। साहित्य वह मशाल है जो व्यक्ति को राजनीति से आगे देखने की दृष्टि देता है। यह बहुत धीरे-धीरे बदलाव लाता है, लेकिन यह निश्चित रूप से बदलाव लाता है। यह बदलाव छोटा है या बड़ा यह तो वक्त ही बताएगा।

इसका एक उदाहरण तुलसीदास में पाया जा सकता है, जो अपनी जाति और लैंगिकता की समझ के आधार पर आजकल काफ़ी निशाने पर रहते हैं, अपने समय में एक प्रगतिशील लेखक थे, जिन्होंने रामायण का संस्कृत से (जो उस समय विशेष रूप से कुलीन वर्ग द्वारा उपयोग की जाने वाली भाषा थी) अवधी भाषा में अनुवाद कर उसे आम लोगों के पास लाया था। एक प्रगतिशील लेखक को सामाजिक परिवर्तन का कोई अवसर व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए। वर्तमान समय की कड़वी सच्चाइयों और सामाजिक बुराइयों के बारे में लिखने के लिए यथार्थ पर आधारित होना और समसामयिक घटनाओं का अवलोकन करना अत्यंत आवश्यक है।

अवसर मिलने पर प्रगतिशील लेखक को उसे आंतरिक रूप से समझने के लिए सुसज्जित होना चाहिए, समाज के शर्मनाक पाखंड को छुपाने वाले पर्दों को तोड़कर लोगों को सच्चाई की ओर ले जाने वाला साहित्य लिखना चाहिए। यह भी समझना चाहिए कि प्रगतिशील लेखक संघ बाद में बना लेकिन उसके पहले भी जब से साहित्य रचा जा रहा है, लोग अपनी-अपनी तरह से तार्किक सवाल उठा रहे थे और अज्ञान और सत्ता के अहम् को चुनौती दे रहे थे। कबीर और चार्वाक को हम इसी रूप में याद करते हैं।

इस वर्ष हरिशंकर परसाई जैसे महान प्रगतिशील रचनाकार का शताब्दी वर्ष भी है अतः अभय नेमा ने परसाई जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि वे किशोरावस्था में परसाई की किताबें पढ़ते थे और जिससे उन्हें जीवन की वास्तविकता के प्रति एक मार्क्सवादी आलोचक का दृष्टिकोण विकसित करने में मदद मिली। जब कोई परसाई की रचनाओं को पढ़ता है, तो वे मानवीय स्थिति, समाज में व्याप्त पाखंड, व्यक्ति के चरित्र के बेहतर निर्णय, एक राजनीतिक चेतना की समझ विकसित करने लगते हैं। लेखन में एक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य आवश्यक है।

परसाई ने इस पूंजीवादी समाज की शर्मनाक “लाभ के लिए मूल्य प्रणाली” पर प्रकाश डालते हुए व्यंग्य लिखा। परसाई से प्रेरित होकर मध्य प्रदेश के अनेक लेखकों ने व्यंग्य लेखन की ओर कदम बढ़ाया। अभय ने एकमहत्त्वपूर्ण सवाल उठाया कि एक समय था जब मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा प्रगतिशील लेखन हुआ और वर्तमान में पूरे राज्य में हिंसा, भय और नफरत की मानसिकता बनी हुई है, तो क्या किसी ने उस प्रगतिशील लेखन को नहीं पढ़ा? क्या यही प्रगतिशील लेखन का फल है? या शायद हमें अभी परिणाम देखना बाकी है।

सारिका श्रीवास्तव ने कहा कि हम जब युवा हो रहे थे तब आज के समान टेलीविजन, इंटरनेट, सोशल मीडिया नहीं था लेकिन तब किताबों का क्रेज था सो परसाईजी की व्यंग रचनाओं को हमने तभी से पढ़ना शुरू कर दिया था लेकिन उनके लेखन को तब समझा जब विश्वविद्यालय के युवा महोत्सव में उनकी रचनाओं पर हमने नाटक किए। और मुझे परसाईजी की “भोलाराम का जीव, हम बिहार से चुनाव लड़ रहे हैं, इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर” इत्यादि रचनाओं पर नाटक करने का अवसर मिला। सारिका ने बहुत ही रोचक तरीके से परसाई की रचना “सदाचार का तावीज़” का पाठ किया।

इसके बाद कबीर की वाणी को जन-जन तक पहुंचाने में संलग्न सुरेश पटेल ने परसाईजी के कुछ संस्मरण प्रस्तुत करते हुए बताया कि मैं उसी शहर का रहने वाला हूँ जो परसाईजी की कर्मभूमि रहा है और उसी विद्यालय में मैंने पढ़ाई की जिसमें परसाईजी शिक्षक थे। जबलपुर शहर की हर गतिविधि चाहे वह साहित्यिक हो या राजनीतिक “परसाईजी क्या सोचेंगे” इस पर तय होती थी। उन्होंने परसाईजी के एक साक्षात्कार से जानकारी दी कि परसाईजी ने वार एण्ड पीस उपन्यास पढ़ा था, दो बीघा जमीन और अछूत कन्या फिल्में देखी थीं। और जब परसाईजी से पूछा कि आप लिखते किस वक़्त हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि सुबह तो अखबार, पुस्तकें इत्यादि पढ़ता हूं लेकिन लेख भेजने की तारीख के पहले तक तो किसी भी समय लिखना ही पड़ता है क्योंकि उससे मुझे आमदनी होती है। रविशंकर तिवारी ने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के समय प्रेमचंद के भाषण के चुनिंदा अंशों का पाठ किया।

9 अप्रैल प्रसिद्ध सामाजिक संगीतज्ञ-गायक एवं राजनीतिक सामाजिक अश्वेत कार्यकर्ता पॉल रॉबसन और हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन का जन्मदिन भी है। पॉल रॉबसन पिछली सदी के सबसे प्रसिद्ध क्रांतिकारी सांस्कृतिक व्यक्तियों में से एक थे। उन्होंने अफ्रीकी-अमेरिकी पहचान के साथ होने वाले नस्ल-भेद के विरुद्ध अनथक संघर्ष किया। तुर्की कवि नाज़िम हिकमत द्वारा पॉल रॉबसन पर लिखी कविता “वो हमारे गीत क्यों रोकना चाहते हैं, नीग्रो भाई हमारे पॉल रॉबसन” और भूपेन हजारिका का गीत “ओ गंगा बहती हो क्यों” का गायन भी किया गया।

अपनी पढ़ाई के दौरान भूपेन हजारिका पॉल रॉबसन से न्यूयॉर्क में मिले और रॉबसन के दर्शन ‘संगीत सामाजिक बदलाव के लिए’ से गहरे प्रभावित हुए। हज़ारिका ने पॉल रॉबसन का विश्व प्रसिद्ध गीत ‘ओल्ड मैन रिवर-मिसिसिपी’ की धुन पर असमिया, बांग्ला और हिंदी के चर्चित गीत ‘ओ गंगा बहती हो क्यों’ की रचना की। संगोष्ठी के मध्य इंदौर इप्टा के साथियों शर्मिष्ठा, विनीत, रविशंकर, उजान, अथर्व, लक्ष्य, निशा, युवराज और कत्यूषा ने इन दोनों गीतों का सामूहिक गायन किया।

हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन को भी इस अवसर पर याद किया गया। उनकी कुछ रचनाओं का पाठ किया जो सामाजिक जड़ताओं और धार्मिक कुरीतियों और जातिवाद के खिलाफ थीं। विनीत ने राहुल सांस्कृतायन के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि वे बहुभाषाविद थे और उनकी अद्भुत तर्कशक्ति और ज्ञान भंडार को देखकर काशी के पंडितों ने उन्हें “महापंडित” की उपाधि से नवाजा। वे अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव भी रहे। उन्होंने तिब्बत की चार बार यात्रा की और वहाँ से विपुल साहित्य लेकर आए।

कार्यक्रम का संचालन प्रगतिशील लेखक संघ इंदौर इकाई के कोषाध्यक्ष विवेक मेहता ने किया। इस संगोष्ठी में शैला शिंत्रे, रामासरे पांडे, विजय दलाल, गुलरेज खान, माया शिंत्रे इत्यादि गणमान्य साथियों की उपस्थिति महत्त्वपूर्ण रही। फिल्म और टीवी के अत्यंत परिचित कलाकार राजेन्द्र गुप्ता भी इत्तफाक से इंदौर में थे। उन्हें कार्यक्रम की जानकारी हुई तो वे भी अचानक लेखकों, रंगकर्मियों से मिलने कार्यक्रम में आ पहुंचे और पूरे इत्मीनान से तकरीरें सुनीं।

(प्रेस विज्ञप्ति पर आधारित)

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