स्मृति दिवस पर विशेष: भुलाई नहीं जा सकती हैं निरंजन सेन की कु़र्बानियां

निरंजन सेन का इप्टा में एक अलग ही मुक़ाम है। उन्होंने इप्टा को संगठित और उसे खड़ा करने में अपनी पूरी ज़िंदगी कु़र्बान कर दी। वे लंबे समय तक इप्टा के महासचिव पद पर रहे। इस दरमियान संगठन का पूरे देश में फैलाव हुआ। निरंजन सेन, कम्युनिस्ट पार्टी के भी जुझारू कार्यकर्ता थे। पार्टी के संघर्षकाल में उन्होंने अपने ऊपर कई हमले, यातनाएं झेलीं और जे़ल गए पर पार्टी की विचारधारा से अलग नहीं हुए। मशहूर रंगकर्मी और इप्टा के पुराने साथी हबीब तनवीर ने अपनी आत्मकथा में कॉ. निरंजन सेन के बारे में लिखा है, ‘‘वे बहुत ही सुयोग्य, उत्साही और मेहनती संगठक थे। वे संगठन की हर छोटी-बड़ी पेचीदगियों से वाक़िफ़ थे। उन्होंने 1957 में दिल्ली में इप्टा अधिवेशन का भव्य आयोजन किया था। उस वक़्त मैं विदेश गया हुआ था। मुझे यक़ीन है कि इप्टा ने इससे पहले इस तरह का भव्य और इतने बड़े पैमाने पर आयोजन कभी नहीं किया था। इस उत्सव के बाद ही इप्टा का स्वर्णिम युग का अंत हो गया था।’’ उत्पल दत्त की पत्नी शोवा सेन जो कि खु़द एक बहुत अच्छी अभिनेत्री थीं, उनका निरंजन सेन के बारे में ख़याल था, ‘‘जन नाट्य आंदोलन के इतिहास में निरंजन सेन का नाम हमेशा स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा।’’

7 सितंबर, 1915 को अविभाजित भारत के असम में सिलहट जिले के छोटे से गांव तुंगेश्वर गांव (हबीगंज सब डिवीजन) में एक ज़मींदार परिवार में जन्मे निरंजन सेन की शुरुआती तालीम हबीगंज में ही हुई। कामरेड भूपेश गुप्ता, हेमांग विश्वास उनके सहपाठी थे। आगे की तालीम उन्होंने कूच बिहार कॉलेज से मुकम्मल की। तालीम के दौरान ही वे क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे थे। इन कामों में वे हमेशा आगे-आगे रहते थे। आला तालीम के वास्ते निरंजन सेन कोलकाता के मशहूर प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखि़ला लेना चाहते थे। मगर क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने की वजह से उन्हें यहां दाखि़ला नहीं मिला। मज़बूरन निरंजन सेन ने सेंट जेवियर्स कॉलेज को चुना और यहीं से उन्होंने अपना ग्रेजुएशन पूरा किया। पढ़ाई के अलावा निरंजन सेन की शुरू से ही गायन, वादन, संगीत और अभिनय में दिलचस्पी थी।

हालांकि, उन्होंने इन विधाओं का कहीं कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया था। कॉलेज में निरंजन सेन ने रंगमंच को भी अपनाया। न सिर्फ़ ड्रामों में अदाकारी के जौहर दिखलाए, बल्कि उनका डायरेक्शन भी किया। साल 1938 में उन्होंने कोलकाता यूनिवर्सिटी से मैथमेटिक्स में एमएस की डिग्री हासिल की। अपनी आला तालीम के दौरान भी निरंजन सेन सियासी गतिविधियों से दूर नहीं रहे, बल्कि इन गतिविधियों में वे और ज़्यादा सरगर्म हो गए। उनकी इन गतिविधियों की ब्रिटिश सरकार को सारी जानकारियां थीं। जब सरकार को यह लगा कि निरंजन सेन, ब्रिटिश हुकूमत के लिए ख़तरा हो सकते हैं, तो उन्होंने सेन को बंगाल से निष्कासित कर दिया। ज़ाहिर है कि यह उनके लिए एक बड़ा झटका था। उन्हें अपनी मातृभूमि से अलग कर दिया गया। हुक़ूमत के इस हिटलरी फ़रमान के बाद, निरंजन सेन दिल्ली चले आए।

दिल्ली में भी निरंजन सेन ख़ामोश नहीं बैठे। अब उन्होंने अपना ज़्यादा से ज़्यादा समय सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में देना शुरू कर दिया। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को उन्होंने एक आंदोलन की शक्ल दी। निरंजन सेन को लगता था कि रंगमंच वह माध्यम है, जिससे आम अवाम भी आसानी से जुड़ जाती है। और उसे सियासी पैग़ाम दिया जा सकता है। वे ड्रामों में अदाकारी से लेकर डायरेक्शन तक करते। इस दरमियान वे दिल्ली के हिंदू कॉलेज में लेक्चरर हो गए। इंक़लाबी ख़यालात के निरंजन सेन ने साल 1940 में कम्युनिस्ट पार्टी की मेंबरशिप ले ली। वे पार्टी के सरगर्म मेंबर बन गए।

उन्होंने अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों में तेज़ी ला दी। साल 1940 से 1943 के दरमियान निरंजन सेन ने स्टूडेंट लीडर सरला गुप्ता, इंदु घोष, अमला और ट्रेड यूनियनों के कुछ साथियों के साथ मिलकर गायन और नाटक के कई जत्थे बनाए। बाद में उनके इस ग्रुप के साथ हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय भी जुड़ गए। इन जत्थों का एक अदद मक़सद अवाम को मुल्क की आज़ादी के लिए बेदार करना था। इसके लिए कार्यक्रम आयोजित किए जाते। उनमें साम्राज्यवाद और साम्प्रदायिकता विरोधी नाटक और अवामी गीत पेश किए जाते। नाटकों के प्रदर्शन के दौरान भाषा की परेशानियों के मद्देनज़र निरंजन सेन ने एक नई नाट्य विधा शैडो प्ले का ईजाद किया। बाद में उनके साथ प्रसिद्ध प्रकाश प्रभाव विशेषज्ञ तापस सेन भी जुड़ गए।

तापस सेन और इंदु घोष के साथ मिलकर निरंजन सेन ने उस वक़्त कई प्रभावी शैडो प्ले किए। जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा जनता का जुड़ाव हुआ। सिर्फ़ दिल्ली में ही नहीं आगरा में राजेन्द्र रघुवंशी, लखनऊ-डॉ. रशीद जहां, कोलकाता में बिनय रॉय और मुंबई में अली सरदार जाफ़री, ख़्वाजा अहमद अब्बास की अगुआई में रंगमंचीय गतिविधियां और सांस्कृतिक कार्यक्रम हो रहे थे। जिस तरह से लेखकों का एक अखिल भारतीय संगठन ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ अस्तित्व में आया था, ठीक उसी तरह से नाटक और प्रदर्शनकारी कलाओं के कलाकारों को मंच देने के एक अखिल भारतीय संगठन की ज़रूरत महसूस की जाने लगी थी। इन्हीं सब बातों का सबब था कि साल 1943 में मुंबई में भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा का गठन हुआ।

साल 1943 में कम्युनिस्ट पार्टी पर से पाबंदी हटने के बाद, निरंजन सेन ने अपनी नौकरी छोड़ दी और पार्टी के हॉलटाइमर बन गए। उन्होंने 25 मई, 1943 को मुंबई में इप्टा के स्थापना समारोह में दिल्ली के कलाकारों के साथ हिस्सा लिया। अधिवेशन में उन्होंने सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी हिस्सेदारी की। मुंबई से लौटकर निरंजन सेन ने दिल्ली में इप्टा इकाई का गठन किया। उसमें अनेक लोगों को जोड़ा। उनकी लीडरशिप में इप्टा मिल मज़दूरों के बीच नाटक खेलता। कामरेड निरंजन सेन और कामरेड विश्वनाथ कलाकारों को रिहर्सल करवाते। इप्टा की गतिविधियों के अलावा निरंजन सेन, सरकार विरोधी विभिन्न प्रदर्शनों में भी हिस्सा लेते। ऐसे ही एक प्रदर्शन में पुलिस की लाठी से उनकी नाक तक टूट गई। मगर उन्होंने इन गतिविधियों से किनारा नहीं किया। कॉ. निरंजन सेन की कोशिशों का ही नतीज़ा था कि कम वक़्त में ही दिल्ली की इप्टा इकाई से सैकड़ों लोग जुड़ गए। उनमें अद्भुत सांगठनिक गुण थे।

इप्टा के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राजेन्द्र रघुवंशी ने अपने एक लेख में इस बात का ज़िक्र किया है कि जब उत्तर प्रदेश में इप्टा की आगरा, इलाहाबाद, कानपुर, लखनऊ और अलीगढ़ इकाइयों का गठन किया गया, तो कॉमरेड निरंजन सेन उनके साथ इन स्थानों पर गए और इस काम में उनकी मदद की। बंगाल में अकाल के समय वे आगरा के सांस्कृतिक दल के साथ पंजाब गए और वहां कई कार्यक्रमों में हिस्सेदारी की। पंजाब से लौटकर उन्होंने हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय को कोलकाता भेजा। ताकि वे वहां एक सांस्कृतिक दल को प्रशिक्षित करें। इस सांस्कृतिक ग्रुप के साथ निरंजन सेन दिल्ली और पंजाब गए। ‘भूखा है बंगाल’ और ‘बंगाल की आवाज़’ नाटकों का मंचन कर उन्होंने बंगाल के अकाल पीड़ितों के लिए चंदा इकट्ठा किया। कॉ. सेन ने बिजन भट्टाचार्य के प्रसिद्ध नाटक जबान बंदी के हिंदी अनुवाद ‘अंतिम अभिलाषा’ का मंचन भी किया। यही नहीं एक छोटा शैडो प्ले तैयार किया। ताकि लोगों के बीच इन नाटकों के प्रदर्शन से अकाल पीड़ितों के लिए चंदा इकट्ठा किया जा सके।

साल 1944 में मुंबई में हुए इप्टा के दूसरे अखिल भारतीय सम्मेलन में निरंजन सेन को इप्टा के संयुक्त सचिव की ज़िम्मेदारी मिली। इप्टा के प्रति असंदिग्ध प्रतिबद्धता और सांगठनिक कामों में उनकी महारत देखते हुए, उन्हें इप्टा के चौथे अखिल भारतीय सम्मेलन में संगठन के राष्ट्रीय महासचिव के ओहदे पर चुन लिया गया। यह सम्मेलन साल 1946 में कोलकाता में संपन्न हुआ। निरंजन सेन पूरे बीस साल यानी साल 1964 तक इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव रहे। उनके कार्यकाल में पूरे देश में संगठन का विस्तार हुआ। दूरदराज इलाकों में इप्टा की इकाइयों का गठन हुआ।

निरंजन सेन के कार्यकाल में इप्टा के सम्मेलनों में कई नवाचार हुए। उन्होंने पांचवें राष्ट्रीय सम्मेलन से सम्मेलन की सामान्य गतिविधियों के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों की परंपरा का आगा़ज़ किया। सम्मेलन में हिस्सा लेने वाली राज्य इकाइयों से उन्होंने अलग-अलग कलाओं के कलाकार और अपनी नाट्य प्रस्तुतियों लाने को कहा। सम्मेलन की दीगर गतिविधियों के साथ शाम को सांस्कृतिक कार्यक्रम होते, जिसमें ये ग्रुप अपनी प्रस्तुतियां देते। इन प्रस्तुतियों से स्थानीय लोग भी जुड़ते। उनके बीच इप्टा का पैगा़म जाता। निरंजन सेन की यह पहल काफ़ी कामयाब रही। बाद में हर प्रादेशिक और राष्ट्रीय सम्मेलन में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का सिलसिला शुरू हो गया, जो आज भी जारी है। निरंजन सेन ने एक चीज़ और जोड़ी, उन्होंने इन सम्मेलनों में बिरादराना संस्थाओं को भी आमंत्रित करना शुरू किया। उन्हें इप्टा का मंच दिया। ताकि आपस में विचारों का आदान-प्रदान हो सके।

साल 1946 से लेकर 1947 तक का समय देश के लिए महत्वपूर्ण समय था। आज़ादी का आंदोलन अपने चरम पर था। इप्टा ने भी पूरे देश में सांस्कृतिक आंदोलन तेज़ कर दिया। नाटकों और अवामी गीतों के ज़रिए देशवासियों में न सिर्फ़ एकता और भाईचारे का प्रसार किया, बल्कि अंग्रेज़ हुकू़मत के ख़िलाफ़ उन्हें गोलबंद भी किया। निरंजन सेन ने बिनय राय, सजल राय चौधरी, रेवा राय चौधरी, सलिल चौधरी, ख़ालिद चौधरी, संतोष दत्ता, भूपति नंदी और शम्भु भट्टाचार्य जैसे प्रतिभावान साथियों के साथ बंगाल और असम का सघन दौरा किया।

वे इन इलाक़ों में ख़ास तौर पर शैडो प्ले ‘शहीद की पुकार’ का मंचन करते। जिसका अवाम पर बेहद असर पड़ता। लाखों देशवासियों की कु़र्बानियों के बाद 15 अगस्त 1947 को देश आज़ाद हुआ, मगर हमें यह आज़ादी विखंडित मिली। देश भारत और पाकिस्तान में बंट गया। एक तरफ़ पूरे देश में आज़ादी का जश्न मनाया जा रहा था, तो दूसरी ओर देश के कई हिस्से साम्प्रदायिक दंगों में झुलस रहे थे। ऐसे माहौल में इप्टा के साथी सड़कों पर उतरे और उन्होंने राहत एवं बचाव कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की। एकता और भाईचारा फैलाने के लिए जगह-जगह नाटक किए।

आज़ादी के बाद भी कम्युनिस्ट पार्टी और इप्टा का संघर्ष ख़त्म नहीं हुआ। देशी हुकूमतों के जनविरोधी कामों की भर्त्सना करने के एवज में इप्टा के साथी हमेशा सरकारों के निशाने पर रहे। साल 1948 में दक्षिण-पूर्व एशियाई युवक समारोह के प्रतिनिधियों के सम्मान में इप्टा ने एक समारोह का आयोजन किया। इस समारोह में विरोधियों ने हमला कर दिया। यकायक हुए इस हमले में इप्टा के दो साथी शहीद हुए, तो निरंजन सेन को भी गोलियां लगीं। कई महीनों के इलाज के बाद जैसे-तैसे उनकी जान बची। साल 1949 में असम दौरे पर एक बार फिर वे ऐसी ही परिस्थितियों में घिर गए।

किसी तरह से उन्हें बचाकर वहां से निकाला गया। इस घटना के कुछ दिन बाद निरंजन सेन को कोलकाता में गिरफ़्तार कर लिया गया। कुछ साथियों ने उनकी जमानत कराई, तब जाकर वे जे़ल से रिहा हुए। वे कुछ दिन अंडरग्राउंड भी रहे। इस दरमियान मृणाल सेन का घर उनका ठिकाना रहा। बाद में ऋत्विक घटक उन्हें बालीगंज ले गए। फ़रारी के ये दिन उन्होंने बड़े संघर्षमय गुज़ारे। अदालत में हाज़िर हुए, तो उन्हें जे़ल भेज दिया गया। इस दौरान सभी राज्यों में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लोगों को गिरफ़्तार किया गया। जिससे इप्टा की गतिविधियां शिथिल हो गईं। कई कमज़ोर साथी इप्टा से अलग हो गए।

जेल से रिहाई हुई, तो निरंजन सेन ने फिर इप्टा आंदोलन को खड़ा करने की कोशिशें तेज़ कर दीं। 1952 में कोलकाता में उन्होंने अखिल भारतीय सांस्कृतिक सम्मेलन और समारोह का आयोजन किया। इसके अगले साल ही 1953 में मुंबई में इप्टा का सातवां राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। जिसमें उन्हें एक बार फिर संगठन के महासचिव की ज़िम्मेदारी सौंप दी गई। साल 1961 तक निरंजन सेन इप्टा के केन्द्र में रहे। उनके नेतृत्व में देश के कई हिस्सों में इप्टा के सम्मेलन हुए और उन्होंने इसमें सक्रिय हिस्सेदारी की। कम्युनिस्ट पार्टी के विघटन पर निरंजन सेन को काफ़ी सदमा लगा। पार्टी के इस बंटवारे से वे बेहद टूट गए। कुछ महीनों की निराशा और उदासी के बाद, वे इप्टा की एकता की दिशा में आगे आए। साल 1965 में उन्होंने कोलकाता में आयोजित एक बैठक में व्यापक आधार पर इप्टा की एकता का प्रस्ताव रखा, लेकिन कोलकाता के ही उनके कुछ साथियों ने इस प्रस्ताव को नकार दिया। जिस सांस्कृतिक आंदोलन को उन्होंने अपने खू़न से सींचा था, वह उनके देखते-देखते बिखर गया। ज़ाहिर है कि यह उनके लिए एक बहुत बड़ा झटका था, जिससे वे आगे कभी उबर नहीं पाए।

निरंजन सेन ने अंग्रेजी मासिक मैगज़ीन ‘यूनिटी’ का डेविड कोहन के साथ संपादन किया, तो उन्होंने अपने भाई शचि सेन के निर्देशन में एक बांग्ला फ़िल्म ‘यात्री’ का भी निर्माण किया। फ़िल्म का विषय भारत दर्शन पर था और इसमें हमारी सांस्कृतिक विरासत को दिखाया गया था। इस फ़िल्म के सारे कलाकार इप्टा से लिए गए थे। अलबत्ता यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर नाकाम साबित हुई। निरंजन सेन ‘स्वाधीनता’, ‘यूनिटी’, ‘न्यू एज’ और ‘पीपुल्स डेमोक्रेसी’ में नियमित तौर पर आलेख लिखते थे।

उन्होंने उत्पल दत्त की मासिक मैगज़ीन ‘एपिक थिएटर’ में इप्टा के इतिहास पर एक धारावाहिक श्रंखला लिखी। इप्टा के साथ-साथ वे नियमित रूप से कम्युनिस्ट पार्टी के विभिन्न आयोजनों में शिरकत करते थे। निरंजन सेन अपने इप्टा के साथियों की मदद के लिए हमेशा आगे-आगे रहते थे। हेमांग विश्वास जब गंभीर तौर पर बीमार हुए, तो उन्होंने उनके इलाज के लिए लोगों से चंदा कर पैसा इकट्ठा किया और उन्हें चीन भेजा। इसी तरह से उन्होंने कॉ. शम्भू भट्टाचार्य, शचीन सेनगुप्ता की मदद की। इप्टा के सभी साथियों की नज़र में निरंजन सेन का बहुत सम्मान था। तापस सेन और उत्पल दत्त की जब किताब आई, तो दोनों ने ही अपनी किताबों को निरंजन सेन को समर्पित किया। इस समर्पण में उत्पल दत्त ने उन्हें कॉमरेड और अपना टीचर कहकर सम्मान दिया है।

निरंजन सेन ने आखि़री समय में बिगड़ते स्वास्थ्य और शारीरिक कमज़ोरी की वजह से अपने आप को इप्टा की गतिविधियों से दूर कर लिया था। लेकिन वे इप्टा की सभी गतिविधियों की जानकारी लेते रहते थे। संगठन को अपने सुझाव और ज़रूरी सलाह भी देते थे। उनकी ख़्वाहिश थी कि भले ही कम्युनिस्ट पार्टी टूट गई हो, लेकिन सांस्कृतिक मोर्चे पर एकता बनी रहे। संयुक्त इप्टा के बैनर पर ही सभी कार्यक्रम हों। इप्टा मेहनतकशों, पीड़ितों के संघर्षों, परेशानियों और आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करे। उन्हें दिशा दे।

कॉ. निरंजन सेन की शरीक-ए-हयात डॉ. जोगमाया सेन ने अपनी आत्मकथा में उनके बारे में लिखा है, ‘‘वह करीब-करीब सभी राज्यों में गए। वह इप्टा, शांति, युवा, किसान, ट्रेड यूनियन और कम्युनिस्ट पार्टी के सम्मेलनों में शुरू से अंत तक यथासंभव भाग लेते रहे। उन्होंने अनेकानेक जाने-अनजाने प्रतिभाशाली कलाकारों को आगे लाने में मदद की। वह स्वतः सदा पृष्ठभूमि में ही रहे। उन्हें हर साथी और हर आम आदमी से प्यार था, विशेष रूप से गरीब और शोषित से।’’ डॉ. जोगमाया सेन खु़द इप्टा में सक्रिय थीं, उन्होंने निरंजन सेन की शानदार जीवनी लिखी है। यही नहीं निरंजन सेन की बेटी मित्रा सेन मजूमदार और दिलीप चक्रकवर्ती के संपादन में हाल ही में आई किताब ‘अनटोल्ड स्टोरीज़ ऑफ इप्टा’ से भी उनके बारे में काफ़ी कुछ जाना जा सकता है। इस किताब में निरंजन सेन की पूरी जीवन-यात्रा, पार्टी और इप्टा के लिए किए गए उनके सारे कामों को कलमबद्ध किया गया है। 29 जुलाई, 1993 को लंबी बीमारी से जूझने के बाद, निरंजन सेन ने इस दुनिया से अपनी विदाई ली। इप्टा के लिए निरंजन सेन ने जो कु़र्बानियां दीं हैं, उन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। उनकी जैसी शख़्सियत विरले ही पैदा होती हैं।

(जाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल एमपी में रहते हैं।)

ज़ाहिद खान
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