9 अगस्त को अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस मनाया जाएगा, यह निर्णय संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 23 दिसंबर 1994 के प्रस्ताव 49/214 के आलोक में लिया था और आज तक पूरे विश्व में अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस मनाया जाता है। जाहिर है भारत में भी यह दिवस मनाया जाता है। इसके पीछे वाजिब वजह भी है। क्योंकि भारत में 461 आदिवासी समुदाय निवास करते हैं।
हम देखें तो भारत की कुल आबादी में आदिवासियों की हिस्सेदारी 8.6 फीसदी है। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में आदिवासी समुदाय के लोगों की संख्या 10 करोड़ 45 लाख से अधिक है।
बता दें कि देश में आदिवासी समुदाय की सबसे ज्यादा संख्या मध्यप्रदेश में है। इस राज्य में 1.53 करोड़ से अधिक आदिवासी निवास करते हैं। दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र है, इस राज्य में एक करोड़ से अधिक आदिवासी निवास करते हैं। यहां आदिवासियों की आबादी 1.05 करोड़ से अधिक है।
वहीं ओडिशा में आदिवासियों की आबादी तीसरे नंबर पर है, जहां आदिवासियों की संख्या 95.91 लाख है।
आदिवासियों की संख्या के मामले में चौथा नंबर राजस्थान का आता है जहां इनकी आबादी 92.39 लाख है। गुजरात में 89.17 लाख तो झारखंड में 86.45 लाख आदिवासियों की आबादी है, यानी आदिवासियों की संख्या के मामले में झारखंड देश में छठे नंबर पर है।
जो 1920 के दशक में कुल आबादी के 70% के करीब थी। उस वक्त इसी के आलोक में आदिवासियों के लिए एक अलग राज्य की परिकल्पना की गई थी। जो 2000 में बिहार से कटकर झारखंड अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आया।
ब्रिटिश शासन काल में बंगाल प्रेसीडेंसी भारत का सबसे बड़ा ब्रिटिश प्रांत का हिस्सा था। जिसमें बिहार, बंगाल व ओड़िशा शामिल थे। चूंकि 2000 में बिहार से कटकर झारखंड अलग राज्य बना तो बंगाल और ओड़िशा के आदिवासियों की संख्या कम हुई वहीं, दूसरी ओर कई अन्य कारणों से भी आदिवासियों की संख्या सामयिक रूप से बढ़ने की बजाय कम होती गई, जो आज घटकर करीब 26.2 प्रतिशत के आसपास रह गई है।
हम बात करें छत्तीसगढ़ की तो यहां की आदिवासी आबादी 78.23 लाख है। वहीं पश्चिम बंगाल में 52.97 लाख और कर्नाटक में 42.49 लाख आदिवासी रहते हैं। असम में 38.84 लाख, तेलंगाना में 32.87 लाख, आंध्र प्रदेश में 26.31 लाख और मेघालय में 25.56 लाख आदिवासियों की आबादी है।
जबकि नगालैंड में 17.11 लाख, जम्मू-कश्मीर में 14.93 लाख, बिहार में 13.37 लाख, त्रिपुरा एवं मणिपुर में 11.67 लाख, उत्तर प्रदेश में 11.34 लाख, मिजोरम में 10.36 लाख, अरुणाचल प्रदेश में 9.52 लाख, तमिलनाडु में 7.95 लाख, केरल में 4.85 लाख, हिमाचल प्रदेश में 3.92 लाख, उत्तराखंड में 2.92 लाख, सिक्किम में 2.06 लाख, दादरा-नगर हवेली में 1.79 लाख, गोवा में 1.49 लाख, लक्षद्वीप में 61 हजार, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में 29 हजार आदिवासी निवास करते हैं। देश में सबसे कम आदिवासी आबादी की बात करें तो दमन एवं दीव में मात्र 15 हजार आदिवासी निवास करते हैं।
कहना ना होगा कि पूरी दुनिया में आदिवासी समुदाय पर बढ़ते चौतरफा संकट से राहत, वैश्विक स्तर पर पर्यावरण पर मंडराते खतरे से मुक्ति के उपाय, विभिन्न भूभागों में रहने वाले मूल आदिवासी लोगों के अधिकारों का संरक्षण/ संवर्धन आदि को बढ़ावा देने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ ने 22 दिसंबर 1994 को निर्णय लिया कि 9 अगस्त को अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस के रूप में मनाया जाएगा। इसी निर्णय के आलोक में इन्हीं उद्देश्यों को पूरा करने और आदिवासी समुदाय में जागरूकता फैलाने के लिए प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को विश्व दिवस मनाया जाता है।
तब देखना यह होगा कि संयुक्त राष्ट्र संघ जिस उद्देश्य से आदिवासी दिवस मनाने का निर्णय लिया, वह उद्देश्य आज कितना सफल है।
जब हम विश्व आदिवासी दिवस मनाने की बात करते हैं तो सबसे पहले हमें आदिवासियत के अतीत, उसके इतिहास, जंगल, जमीन और स्वायत्तता के लिए गौरवशाली संघर्ष, परंपरा, प्राकृतिक संसाधनों पर उनके नैसर्गिक तथा संवैधानिक अधिकार को भी समझना होगा। आज के संदर्भ में अपने देश/राज्यों में आदिवासी समुदाय पर हो रहे चौतरफा हमले के कारण गहराते संकट और आदिवासी अधिकारों को जानना और चर्चा करना बेहद जरूरी होगा।
हमें यह समझना होगा कि आदिवासी जीवन दर्शन से ही पृथ्वी का अस्तित्व बचेगा। क्योंकि यह समुदाय आज भी प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित और सिस्टम पर आधारित है। आदिवासी ही प्राकृतिक संसाधनों के रखरखाव व उसके बचाव को लेकर आज भी उतने ही संवेदनशील हैं जितना कि सदियों पहले थे।
इसे समझने के लिए हमें यह भी समझना होगा कि कोविड 19 का वैश्विक संकट के दौरान जहां शहरी परिवेश में अफरा-तफरी के माहौल के बीच उपजा सदमे से आज भी कई लोग उबर नहीं पाए हैं। उन दिनों अधिक से अधिक लोग अपने शरीर की इम्यूनिटी स्तर की बढ़ोत्तरी के लिए बेचैन देखे गए। लेकिन इस संकट में भी आदिवासी इलाकों में इस आपदा का खास असर और डर महसूस नहीं किया गया। यह शायद इसलिए भी ऐसा रहा कि उन ग्रामीण क्षेत्रों और आदिवासी समुदायों का आज भी प्रकृति के बेहद करीबी रिश्ता है।
आदिवासी समुदाय ही मानव जीवन में प्रकृति की अहमियत को सदियों से समझता आ रहा है।
इन्हीं तमाम स्थितियों को समझते हुए विश्व के देशों ने एक लंबे संघर्ष के बाद आदिवासियों के गौरवशाली समृद्ध जीवन दर्शन को स्वीकारा और विश्व के आदिवासी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस हर साल 9 अगस्त को मनाये जाने की घोषणा की।
बताना जरूरी हो जाता है कि आदिवसियों के संघर्ष का इतिहास यहीं खत्म नहीं हो जाता है। वर्ष 1994 में संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा गठित आदिवासियों से संबंधित कार्यकारी समूह ने आदिवासियों के अधिकार के घोषणा पत्र का एक प्रारंभिक ड्राफ़्ट, अल्पसंख्यकों के भेदभाव और संरक्षण पर रोकथाम के लिए गठित उप-आयोग को प्रस्तुत किया था, जिसकी समीक्षा के बाद अनुमोदित कर दिया गया।
ऐसे ही विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय स्तर की बैठकों और सम्मेलनों की जद्दोजहद के बाद अंतत: 13 सितम्बर 2007 को, यानी लगभग 25 वर्षों के अथक प्रयास और सतत संघर्ष के बाद आदिवासियों के अधिकारों के लिए घोषणा पत्र को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंगीकृत कर लिया। कुल 144 देशों ने इसके समर्थन में वोटिंग की, मामले पर 11 देश तटस्थ रहे, वहीं कुछ विकसित राष्ट्रों ने इस घोषणा पत्र का विरोध किया था।
इधर, उन्हीं दिनों भारत के 5वीं अनुसूची के क्षेत्रों में आदिवासी जनसंगठनों व आदिवासी हितैषी संगठनों द्वारा संसद में पारित 73वाँ तथा 74वाँ संशोधन के विरोध में आंदोलन तेज हुए जा रहे थे। ये संशोधन पंचायतों को अधिक शक्तियों से लैश करने को लेकर थी। लेकिन आदिवासियों ने इस संशोधन को अनुसूचित क्षेत्रों के पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था, रुढ़िजन्य विधि, सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं, सामुदायिक संसाधनों की परंपरागत प्रबंध पद्धतियों को विनष्ट करने की बतौर साजिश करार दिया।
देश भर के आदिवासी इलाकों में आदिवासियों ने इन संशोधनों के विरुद्ध आंदोलन के बिगुल फूंक दिए। भारत सरकार ने इन आंदोलनों के मूल कारणों के अध्ययन हेतु 22 सांसदों की एक समिति बनाई, जिसके अध्यक्ष माननीय सांसद दिलीप सिंह भूरिया बनाए गए। भूरिया समिति द्वारा समर्पित अनुशंसाओं और जनआंदोलनों का परिणाम यह हुआ कि 24 दिसंबर 1996 को भारतीय संसद में पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996 पारित हुआ।
वर्त्तमान भारत का संविधान के अनुच्छेद 244 के तहत पांचवी अनुसूची के उपबंध किसी राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण के लिए लागू है।
उल्लेखनीय है कि पेसा कानून 1996 के अनुसार प्रत्येक ग्राम सभा, आदिवासी लोगों की परम्पराओं और रुढ़ियों, उनकी सांस्कृतिक पहचान, समुदाय के संसाधनों और विवाद निपटाने के रुढ़िजन्य ढंग का संरक्षण और परिरक्षण करने के लिए सक्षम है।
आदिवासियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र घोषणा पत्र के अनुच्छेद 3 में स्पष्टत: आदिवासी समुदाय को अपने क्षेत्र में अपने पारंपरिक शासन व्यवस्था को लागू करने और आत्मनिर्णय का अधिकार प्राप्त है। वहीं अनुच्छेद 4 के अनुसार अपने आत्मनिर्णय के अधिकार का इस्तेमाल करने में आदिवासियों को अपने आंतरिक और स्थानीय मामलों में स्वायत्तता अथवा स्वायत्त सरकार स्थापित करने का तथा उनके स्वायत्त क्रियाकलाप के लिए वित्तीय साधन जुटाने का अधिकार भी स्थापित किया जा चुका है।
इसी के आलोक में आज संविधान के अनुच्छेद 334 में प्रदत्त आरक्षण के बल झारखंड के आरक्षित 5 लोकसभा सीटों से आदिवासी सांसद चुने जाते रहे हैं। अनुच्छेद 332 के बदौलत 28 आदिवासी विधायक चुने जा रहे हैं। पेसा कानून में आरक्षण की वजह से 50 फीसदी से अधिक पंचायत प्रतिनिधि चुने जा रहे हैं।
इस बाबत सामाजिक कार्यकर्ता और नरेगा वाच के राज्य संयोजक जेम्स हेरेंज कहते हैं – “बावजूद इसके 27 सालों बाद भी पेसा नियमावली अधिसूचित नहीं हुई। ऊपर से 2010 में पूरे राज्य में पंचायत चुनाव किए जाने से यहां की पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था को गहरा आघात पहुंचा है।”
वे आगे कहते हैं – “ग्राम सभाओं को यहां के ब्यूरोक्रेट्स ने शासनतंत्र की कठपुतली बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। वन अधिकार कानून 2006 जो यहां के आदिवासियों का नैसर्गिक अधिकार है, उसपर वन विभाग का एकछत्र राज्य चलाया जा रहा है, कानून के प्रस्तावना में भारत सरकार ने आदिवासियों और अन्य परंपरागत ऐतिहासिक अन्याय की बात स्वीकारी थी, आदिवासियों को जंगलों से बेदखल कर और उनपर झूठे मुकदमे दर्ज कर अन्याय का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। हसदेव जंगल बचाओ आंदोलन इसका ताजातरीन उदाहरण है।”
एक सवाल के जवाब में जेम्स कहते हैं – “जहां तक आदिवासियों का प्रकृति के प्रति मानवीय दृष्टिकोण का सवाल है, इस प्रसंग हेतु यहां कुछेक उदाहरणों का उल्लेख जरूरी है। आदिवासी समुदाय शाम होने के बाद जब तक अत्यंत जरूरी नहीं हो, तब तक वे किसी भी औषधीय वनस्पति अथवा पेड़ – पौधों का इस्तेमाल नहीं करते हैं। इसके पीछे की मान्यता है कि शाम होने के बाद उनका भी आराम करने का वक्त होता है। जंगलों से जब भी कोई कन्द – मूल को तोड़ते हैं तो उसके उस भाग को पुन: उसी गड्ढे में गाड़ देते हैं, जहां से पुन: कन्द विकसित होने या पौध अंकुरित होने की संभावना रहती है।
इस तरह की आदत प्रत्येक आदिवासी जन करते हैं। आज भी आदिवासी इलाकों में रासायनिक खाद अथवा कीटनाशी दवाओं का इस्तेमाल नहीं के बराबर होता है। यह समुदाय अपने पारंपरिक ज्ञान से ओत प्रोत है। उन्हें मालूम है कि यह मिट्टी की उर्वरा शक्ति को कमजोर करता है। उभयचर, जलीय जीव जिसमें अनेकों प्रकार की मछलियां भी शामिल हैं और साथ ही छोटे खाद्य पौधों के लिए भी हानिकर है। ऐसे विभिन्न समुदायों और क्षेत्रों में हजारों पारंपरिक पद्धतियां हैं जिनसे वे प्रकृति का संरक्षण एवं संवर्द्धन सदियों से करते चले आ रहे हैं।”
एक अन्य सवाल के जवाब में वे कहते हैं – “तथाकथित मुख्यधारा समाज हमेशा खुद के ऐशो आराम भरी जीवन शैली सुनिश्चित करने हेतु यह भ्रम फैलाता कि यदि आदिवासियों को प्राकृतिक संसाधनों पर पूर्ण अधिकार दे दिए जाएंगे तो वे उसे बर्बाद कर डालेंगे। ऐसी शंका से घिरे लोगों को चंद महीने आदिवासियों के गांवों में बिताना चाहिए। आदिवासी दर्शन की पहली शर्त है कि वे सात पुश्तों के लिए संग्रह नहीं करते। दूसरा लालच नहीं करते अर्थात प्रकृति से उतना ही हासिल करना चाहते हैं जितना उनकी न्यूनतम जरूरत है। तीसरा वे व्यक्तिवादी नहीं हैं वे समुदाय में जिंदगी बिताना पसंद करते हैं।
हां, मध्यम और उच्च आय वाले आरक्षण से नौकरीशुदा लोग और उनके परिवारों को पूंजीवाद, बाजारवाद और व्यक्तिवादी मानसिकता ने घेर लिया है। ऐसे लोग न सिर्फ समाज से कटे जा रहे हैं बल्कि उनकी भाषा, संस्कृति, बोली वचन, रीति-रिवाज से भी कटते चले जा रहे हैं। यह स्थिति आदिवासी पहचान मिटने का शुरुआती संकेत हैं। ऐसे वर्गों से सैकड़ों सालों के संघर्ष के बदौलत बने संविधानिक प्रावधानों, नीतियों, नियमों कानूनों को कमजोर करने का शासक वर्ग के लिए रास्ता आसान कर देता है।”
आदिवासी दिवस में प्राकृतिक संसाधनों के पीढ़ी दर पीढ़ी उपयोग पर आदिवासी समुदाय से अपील करते हुए जेम्स हेरेंज कहते हैं – “पारंपरिक स्वशासन व्यवस्थाओं को सुदृढ़ करें। बीमार पड़े धरती का उपचार करें। अपने पूर्वजों के प्रागैतिहासिक धरोहरों को अक्षुण्ण बनाए रखें। संविधान में उल्लेखित आदिवासियों के अधिकार, पेसा कानून और अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी कानूनों को जन-जन तक पहुंचाएं। यही आदिवासी दिवस की सार्थकता होगी।”
वहीं आदिवासी नेता व आदिवासी चिंतक लक्ष्मीनारायण मुंडा इस बाबत कहते हैं – “आज इस आदिवासी दिवस कुछ विषयों पर चर्चा जरूरी है।
जैसे – “आदिवासी समुदाय की घटती जनसंख्या के क्या कारण हैं?
आदिवासियों की धार्मिक, सामाजिक, भूंईहरी और निजि/ रैयती जमीन की लूट- खसौट की जिम्मेदार कौन कौन-कौन हैं?”
“पांचवीं अनुसूची क्षेत्र अनुच्छेद 244 के तहत शिड्यूल एरिया में संवैधानिक प्रावधानों का उल्लघंन का जिम्मेदार कौन – कौन हैं ? देश के अब तक के राष्ट्रपतियों / राज्यपालों और केन्द्रीय सरकारें/ राज्य सरकारें की भूमिका क्या रही है?”
“सीएनटी-एसपीटी एक्ट का उल्लंघन का जिम्मेदार कौन – कौन हैं ? राज्य सरकार और जिले के प्रशासनिक अधिकारियों की भूमिका क्या रही है?”
वे बताते हैं – “संविधान प्रदत्त पांचवी अनुसूची अनुच्छेद 244 शिड्यूल एरिया के प्रावधान और सीएनटी-एसपीटी एक्ट का धज्जियां उड़ाकर राज्य के अधिकारियों के द्वारा बड़े पैमाने पर की जमीनों की खरीद- बिक्री, आदिवासी जमीन की लूट-खसौट, जबरन कब्जा, राजस्व विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों द्वारा दस्तावेजों में छेड़छाड़, फर्जीवाड़ा, NIC में आदिवासी जमीन का राजस्व रिकॉर्ड बदला जाना आज बदस्तूर जारी है।”
“संवैधानिक प्रावधान अनुच्छेद 244 के तहत पांचवीं अनूसूची क्षेत्र शिड्यूल एरिया और सीएनटी/एसपीटी एक्ट जैसे सख्त जमीन कानूनों की अनदेखी, उल्लंघन करके बाहरी आबादी जो असंवैधानिक तौर से बसायी जा चुकी है जिस कारण आदिवासियों की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ रहा है और सभी तरह के अधिकारों में कटौती हो रही है। यही असंवैधानिक तौर से बसी बाहरी आबादी जो हमारे रहनुमाओं ने अब संवैधानिक बना रखा है। आज राजनीति शासन-प्रशासन में नियंत्रण- हस्तक्षेप और प्रतिनिधित्व बाहरी आबादी का बढ़ा है। इसका दुष्परिणाम आज यह है कि आदिवासी समुदाय की राजनीतिक प्रतिनिधित्व सीटें लोकसभा/ विधानसभा क्षेत्र परिसीमन में घटते जा रही है।”
“आदिवासियों के संवैधानिक हक-अधिकारों में कटौतियां हो रही हैं। एसटीएससी एट्रोसिटी एक्ट का अनुपालन राज्य सरकार और पुलिस प्रशासन द्वारा नहीं किया जा रहा है। वनाधिकार अधिनियम 2023 आदिवासी हितों के खिलाफ है। यूनिफॉर्म सिविल कोड ( UCC) कानून द्वारा आदिवासियों के संवैधानिक विशिष्ट हक़ – अधिकारों का खात्मे की साज़िश चल रही है।”
वे कहते हैं – “इसी तरह आदिवासियों के कई ऐसे मामले हैं, जिस पर गंभीरता पूर्वक विचार करके अपने अधिकारों को लेकर आदिवासी समुदाय को लड़ने के लिए तैयार खड़ा होना होगा। आज के संदर्भ में देश और झारखंड के आदिवासियों को अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस मनाने का मूल उद्देश्य यही होना चाहिए।”
(विशद कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं।)