सबसे मीठी, लेकिन बेहद गुस्सैल जुबान है उर्दू : संजीव सराफ

Estimated read time 1 min read

उर्दू पर दिल्ली में होने वाला सालाना जलसा जश्न-ए-रेख्ता पिछले दिनों भारी भीड़ के साथ संपन्न हुआ। एक भाषा को लेकर इतने सारे लोगों की मोहब्बत देखकर एकबारगी किसी को भी ताज्जुब हो सकता है। उर्दू की रगें झनझनाने का श्रेय संजीव सराफ को जाता है। उर्दू की मशहूर वेबसाइट रेख्ता डॉट ओआरजी इन्हीं की है और संजीव खुद भी उर्दू के जुनूनी पाठक हैं। पैदाइश नागपुर की है और पढ़ाई-लिखाई मुंबई, ग्वालियर और आईआईटी खड़गपुर की। फैमिली बिजनेस के बाद खुद का बिजनेस किया। पांच-छह मुल्कों में प्लांट्स हैं। सात साल पहले अपने जुनून के लिए सारे काम-धंधे से अलग हो गए। जुनून थी उर्दू, जिसकी महक पिछले दिनों दिल्ली सहित दुनिया भर में फिर से फैली। Rising Rahul ने संजीव सराफ से बात की। पढ़िये प्रमुख अंश :

प्रश्न: वेबसाइट रेख्ता की शुरुआत के बारे में बताएं।
संजीव सराफ: अपने रोज-रोज के काम से उकता गया था। शांति मिल ही नहीं रही थी। शौक कहिए या अपनी रूह के लिए कहिए, मैंने उर्दू में शायरी और दूसरी चीजें पढ़नी-लिखनी शुरू कीं। तब लगा कि मुझ जैसे करोड़ों होंगे जो उर्दू पढ़ना चाहते हैं पर एक्सेस नहीं कर सकते। इसीलिए रेख्ता शुरू की। शुरू में लगभग पचास-एक शायरों के कलाम देवनागरी और रोमन में पेश किए। पर साल भर में उसमें पर लग गए। आज उसमें साढ़े चार हजार शायरों के कलाम हैं, चालीस हजार गजलें हैं, आठ हजार नगमे हैं। ऑडियो-वीडियो, डिक्शनरी के अलावा और भी बहुत कुछ है।

प्रश्न: आपने नायाब किताबों को डिजिटली सेफ करने का भी काम किया है। इसके बारे में बताएं।
संजीव सराफ: हम वेबसाइट के लिए कलाम खोज रहे थे, लेकिन उनकी अवेलिबिलिटी नहीं थी। कुछ किताबें लाइब्रेरी में थीं, कुछ लोगों के पर्सनल कलेक्शन में। मेरा मानना था कि धूल, दीमक, पानी या आग में ये सब बरबाद हो जाएंगी। तो हमने बड़े-छोटे पैमाने पर किताबों को स्कैन करके डिजिटली प्रिजर्व करना शुरू किया। फिर देखा कि किताबों की तादाद बहुत ज्यादा थी। तब हमारे पास सिर्फ एक मशीन थी। अब 17 शहरों में हमारी तीस मशीनें लगी हैं। अब तक हमने एक लाख किताबें डिजिटली प्रिजर्व की हैं।

प्रश्न: ऐसी कितनी किताबें रहीं जो लगभग खत्म हो चुकी थीं, जिनकी दूसरी कॉपियां नहीं थीं? उनके बारे में बताइए।
संजीव सराफ: ये कहना तो बहुत मुश्किल है। किताबें कहां-कहां हैं, ये किसी को अंदाजा नहीं है। जखीरा इतना बड़ा है, कि कहना मुश्किल है कि कितनी छपीं और कितनी बची हुई हैं? लेकिन नायाब किताबें तो बहुत हैं। सन 1700 से 1800 में छपी किताबें हैं। सन 1860 के बाद मुंशी नवल किशोर ने काफी किताबें छापी थीं, उसमें से भी काफी हैं।

प्रश्न: पिछले दिनों दिल्ली में हुए जश्न-ए-रेख्ता में तकरीबन दो लाख लोग आए। यह दिल्ली का सबसे बड़ा सांस्कृतिक कार्यक्रम हो चुका है। लेकिन बजरिए रेख्ता वेबसाइट, आप इस जुबान का ज्यादा बड़ा फैलाव देख पा रहे हैं। इसके बारे में बताइए।
संजीव सराफ: ये तो जबान का कमाल है साहब, हम तो सिर्फ अरेंजमेंट करते हैं। इतनी मीठी जुबान दुनिया में कोई है ही नहीं। इसके जरिए ढेरों आर्ट फॉर्म्स बने हैं। गजल सिंगिंग, सूफी सिंगिंग, कव्वाली हो या ड्रामा या दास्तानगोई, इतने आर्ट फॉर्म्स किसी और जुबान में जल्दी नहीं मिलते। दुनिया के डेढ़-पौने दो सौ मुल्कों से रेख्ता वेबसाइट के दो करोड़ यूनीक यूजर्स हैं। जहां-जहां हिंदुस्तान और पाकिस्तान के लोग बसे हैं, उनको रेख्ता के अलावा और कहीं भी इतना कंटेंट नहीं मिलता। 40 हजार लोगों ने तो उर्दू सीखने के लिए हमारी वेबसाइट जॉइन की है।

प्रश्न: उर्दू क्या सिर्फ शायरी की जुबान है? शेर-ओ-शायरी के अलावा उर्दू को आप कहां देखते हैं?
संजीव सराफ: ये गलत इल्जाम है। शायरी की भाषा तो है ही, लेकिन इतनी खूबसूरत जुबान है कि इसमें आप कोई भी गुफ्तगू करें, लगता है कि शायरी कर रहे हैं। ये इजहार का जरिया है। हमारे इंडिपेंडेंट मूवमेंट के पहले से ही इंकलाबी शायरी हुई है। इंकलाब-जिंदाबाद हसरत मोहानी ने लिखा। सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है, बिस्मिल अजीमाबादी ने लिखा। शायरी हर जगह इस्तेमाल हुई है। ये बोलचाल की जुबान थी। ब्रिटिश ने थोड़ा पर्सनलाइज करके इसे मुसलमानों के लिए कर दिया और थोड़ा संस्कृताइज करके हिंदुओं के लिए। फिर लिट्रेचर और बोलचाल की जुबान अलग भी होती है। जितना तंज-ओ-मजाह उर्दू में है, मेरे ख्याल से शायद अंग्रेजी के अलावा कहीं नहीं है। सोशल कॉन्टेस्ट में भी खूब लिखा गया है। मंटो की शॉर्ट स्टोरीज हों या इस्मत चुगताई की हों! ऑटोबायोग्राफीज हैं। वैसे ये बेहद गुस्सैल जुबान है, लेकिन ज्यादातर लोग शायरी या नगमे सुनते हैं तो उनके दिमाग में इसका इंप्रेशन वैसा ही है।

प्रश्न: शायरी का पाठकों की उम्र से कुछ रिश्ता है? लोग किन शायरों को पढ़ना ज्यादा पसंद करते हैं?
संजीव सराफ: लोगों की पसंद होती है। पहले कहते थे कि जब तक कॉलेज में हो, साहिर लुधियानवी को पढ़ो, और बाद में भूल जाओ। साहिर को यों कि वो थोड़े रिवोल्यूशनरी प्रोग्रेसिव मूवमेंट के थे, थोड़ा इश्क भी किया था। लेकिन मैं मानता हूं कि उसी उम्र में रीडर को गालिब भी पसंद आएंगे और वह अर्थ भी अलग लेगा। वही शेर वह बाद में पढ़ेगा तो दूसरा ही मतलब समझ में आएगा। बात कैफियत की है जो बदलती रहती है और उसी हिसाब से अर्थ और शायर भी।

प्रश्न: आप के पास उर्दू को देखने की तकनीकी नजर है। आप इस पर लगातार काम भी कर रहे हैं। इस नजर से बताइये कि उर्दू आज से दस साल पहले कहां थी, अब कहां है और आज से दस साल बाद इसे आप कहां देख रहे हैं?
संजीव सराफ: जब हमने शुरू किया था, तब सुनते थे कि उर्दू जुबान पस्त है, मर रही है या कोमा में आ गई है, वगैरह-वगैरह। लेकिन रेख्ता की सक्सेस के बाद अब आप देखेंगे कि इसी तर्ज पर सैकड़ों जश्न होने लगे हैं। सबका नाम जश्न से ही शुरू हो रहा है। दरअसल पब्लिक कॉन्शस हुई और जबरदस्त चेंज आया है। अब ये जुबान मेनस्ट्रीम में आ गई है। अब आपको ये सुनने में नहीं आएगा कि उर्दू मर रही है।

प्रश्न: अगर हिंदी से उर्दू निकाल दें तो क्या बचेगा?
संजीव सराफ: सुबह-शाम मुंह से नहीं निकलेगा। प्रात:काल या संध्याकाल यूज करेंगे। या प्यार इश्क मोहब्बत न बोलकर प्रेम या फिर ऐसा ही कोई लफ्ज यूज करेंगे। हिंदी सिनेमा से निकाल के बताइए उर्दू, फिर क्या बचेगा? दूध में से चीनी निकाल दीजिए, फिर क्या बचा? कर लीजिए कोशिश। हमारी बोलचाल हिंदुस्तानी है। उर्दू-हिंदी का ग्रामर एक है। जो निकालना चाहें, निकाल दें, कर लें कोशिश।   

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

You May Also Like

More From Author