शिक्षक दिवस: भारतीय सभ्यता और संस्कृति में गुरु-शिष्य परंपरा के मायने

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गुरु शिष्य परंपरा भारतीय सभ्यता और संस्कृति का अभिन्न अंग रही है और भारतीय सभ्यता और संस्कृति ब्राह्मणवादी संस्कृति का ही दूसरा नाम है। इस दृश्यमान भौतिक जगत में ब्राह्मणवादी संस्कृति ने काल्पनिक ईश्वर की धारणा को जन्म दिया और फिर घोषणा की कि गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊंचा है। ज्ञातव्य है कि उस समय ब्राह्मण गुरु के स्थान पर विराजमान थे। इस तरह से उन्होंने शासकवर्ग से मिलीभगत के तहत राजा को ईश्वर के बराबर स्थान दिया और राजा के वचन को ईश्वर का वचन घोषित किया और स्वयं को ईश्वर से भी ऊपर रखा। उस समय ब्राह्मणवाद अपने शिखर पर था। उस समय शिक्षा पर ब्राह्मणों का पूर्ण रूप से एकाधिकार था और मौक़े का लाभ उठाते हुए उन्होंने दलित-शोषित श्रमिकवर्ग को धन-संपत्ति और शिक्षा-दीक्षा के अधिकारों से पूर्णतया वंचित किया जिसके उल्लंघन करने पर उन्होंने ऐसी-ऐसी खौफनाक सजाओं का प्रावधान किया जिनको सुनकर और पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाएं। इस सामाजिक स्थिति के कारण उस समय दलित शोषित श्रमिकवर्ग पूर्णतया अशिक्षित रहा और परिणामस्वरूप वह गुरु तो क्या किसी का शिष्य तक होने के बारे में सोच भी नहीं सकता था। लेकिन अंधकार कितना भी सघन क्यों न हो प्रतिभा अगर हो तो प्रकट हो ही जाती है ।

उस समय ब्राह्मणवाद ने शोषकवर्ग के साथ मिलकर गुरु और शिष्य की परंपरा को महिमामंडित करके उसे अलौकिता प्रदान की। इस परंपरा ने ब्राह्मण को ईश्वर से भी ज्यादा महिमा प्रदान की । लेकिन यह सब ब्राह्मणवाद पाखंडपूर्ण कृत्यों का एक अंग मात्र ही था क्योंकि अगर कोई शूद्र किसी तरह से ऋषि का दर्जा प्राप्त करके गुरु के आसन पर विराजमान हो जाए तो यह बात उनके एकाधिकार का उल्लंघन मानी जाती थी और यह बात बर्दास्त के बाहर होती थी और ऐसे में शास्त्रोक्त विधि विधानों के अनुसार ऐसे गुरु का वध तक किया जा सकता था। तब गुरु की महिमा का कोई महत्व नहीं रह जाता था । गुरु की यह महिमा सिर्फ़ ब्राह्मणों के लिए ही थी शूद्रों के लिए नहीं। कहा जाता है कि उस समय भारत आध्यात्म के शिखर पर था। लेकिन आध्यात्म की मौजूदगी में इस तरह के पक्षपात और अत्याचार का होना नामुमकिन था क्योंकि आध्यात्म का अर्थ ही होता है तमाम पक्षपातपूर्ण धारणाओं, विचारों और पूर्वाग्रहों से मुक्त चित्त की दशा ।

आखिर कोई भी आध्यात्मिक मनुष्य इस तरह की अत्याचार पूर्ण सामाजिक व्यवस्था का पक्षधर कैसे हो सकता है? इसका अर्थ है कि उस वक़्त आध्यात्म के नाम पर घोर पाखंड, छल-कपट, गुलामी, हिंसा और छीना-झपटी का आलम छाया हुआ था जिसके अंतर्गत दलित शोषित श्रमिकवर्ग घोर नारकीय जीवन जीने को मज़बूर था । मतलब अंधकार अपने चरम पर था । उस समय शोषण और दमन पर आधारित वर्णव्यवस्था का बोलबाला था । अगर उस समय को आध्यात्म का स्वर्णयुग माना जाए तो वर्णव्यवस्था का अस्तित्व में होना असंभव ही था क्योंकि वर्णव्यवस्था और आध्यात्म बिल्कुल ही धुर-विरोधी बातें हैं। दोनों का एक साथ अस्तित्व में होना असंभव है । सच तो यह है कि आध्यात्म का कोई सामाजिक संदर्भ नहीं होता । इसीलिए भारत ही नहीं दुनिया में कोई भी समाज न कभी आध्यात्मिक था और न ही कभी भविष्य में हो सकता है क्योंकि आध्यात्म व्यक्ति के जीवन में घटने वाली बेहद निजी घटना है और उसको किसी व्यक्ति या समाज के साथ न तो साझा किया जा सकता है और न ही हस्तांतरित किया जा सकता है ।

इसीलिए बुद्धपुरुषों के किसी भी उपदेश, विचार और वचन का उनके शिष्यों को कोई लाभ नहीं मिल सकता । इसके लिए उनको स्वयं बुद्ध होना पड़ेगा । बुद्ध ने तो अपने शिष्यों को साफ़-साफ़ कह दिया था बुद्धत्व को उपलब्ध होओ । उन्होंने कहा- अप्प दीपो भवः अर्थात अपने दीये खुद बनो । मैं तो वैद्य हूं, मार्गदर्शक हूं, कोई गुरु नहीं । ऐसा नहीं था कि वे गुरु नहीं थे । उनका आशय सिर्फ़ इतना था कि सच्चे शिष्य बनो । लेकिन उनके शिष्य या अनुयायी न सच्चे शिष्य ही बन सके या सच्चे अनुयायी क्योंकि वे बुद्धत्व को उपलब्ध न होकर बौद्ध हो गए। या बुद्ध और उनकी शिक्षाओं को नकारने जैसा कृत्य था। भारत में ब्राह्मण का अर्थ होता है जिसने न केवल ब्रह्म को जान लिया हो बल्कि जो स्वयं ब्रह्म के साथ एकाकार होकर स्वयं ही ब्रह्म हो गया हो । लेकिन एकाध को छोड़कर कोई भी वास्तविक अर्थों में ब्राह्मण नहीं हुआ । हां, वे हिन्दू ज़रूर हो गए । बाद में ब्राह्मण घर में जन्म लेने के कारण ही वे स्वयं को समाज का गुरु या ब्राह्मण कहने लगे । उन्होंने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए श्रमिकवर्ग के लिए शिक्षा और दीक्षा के सारे दरवाज़े हमेशा के लिए कठोरता से बंद कर दिए । इसी तरह, महावीर ने अपने शिष्यों से कहा, जिनत्व को उपलब्ध होओ ।

जिनत्व का अर्थ होता है अपने अंदर की दुष्प्रवृत्तियों पर विजय पाओ लेकिन उनके शिष्य और अनुयायी इसकी उपेक्षा करते हुए जैन हो गए क्योंकि जैन होना जिन होने की अपेक्षा ज़्यादा आसान था क्योंकि जिन होकर वे व्यापार के माध्यम से मुनाफ़े के लिए जनता का खून चूसने जैसा काम नहीं कर सकते थे । ईसा ने अपने शिष्यों को कहा प्रेम हो जाओ क्योंकि प्रेम ही परमात्मा है । लेकिन उनके शिष्य प्रेम तो न हो सके ईसाई ज़रूर हो गए और कालांतर में ईसा के इन पादरी शिष्यों ने शोषकवर्ग के साथ मिलकर आम जनता पर जैसी मारकाट और दमनचक्र चलाया वह सर्वविदित है। मोहम्मद ने इल्हाम पर ज़ोर दिया । लेकिन उनके शिष्य मुसलमान हो गए। मोहम्मद ने, संक्षेप में, एक ही शब्द में, अपना मत प्रकट करते हुए कहा- इस्लाम । इस्लाम बहुत ही प्यारा शब्द है। इसका अर्थ होता है शांति। लेकिन उनके शिष्यों ने ज़ेहाद के नाम पर दुनिया में जैसी मारकाट मचाई वह रोंगटे खड़े कर देने वाली है । इसी तरह गुरु नानक देव जी ने अपने शिष्यों को कहा- शिष्य हो जाओ । शिष्य होने से उनका आशय था कि घोषणा करो कि मैं शिष्य हूं और सारा जगत मेरा गुरु है ।

इस घोषणा के कारण मनुष्य में अस्तित्व के प्रति समर्पण और प्रेम का भाव स्वयंमेव उद्घाटित होता है । लेकिन उनके अनुयायी शिष्य न होकर सिख होकर रह गए । इस तरह यह साबित होता है कि किसी भी बुद्ध पुरुष का अनुयायी होने मात्र से ही आप उनके शिष्य नहीं हो सकते । लेकिन यह गड़बड़झाला तो होना ही था क्योंकि तमाम बुद्धपुरुष अपनी चेतना की आत्यंतिक ऊंचाई से बोलते हैं और उनके शिष्य अपनी चेतना के निम्न तल से उनके वचनों को सुनते और समझते हैं । इसीलिए आज दुनिया के किसी भी धर्म का बुद्धपुरुषों के वचनों और उपदेशों के साथ कोई संबंध या तालमेल नहीं रह गया है। इसीलिए कहा जा सकता है वास्तविक अर्थों में आज न कोई गुरु दिखाई पड़ता है और न ही  कोई शिष्य रह गया है । प्राचीन भारतीय गुरु शिष्य परंपरा नष्ट-भ्रष्ट होकर मात्र रस्म अदायगी होकर रह गई है ।

चूंकि आध्यात्म एक बेहद निजी घटना है इसीलिए धर्म या आध्यात्म का कोई संगठन नहीं बनाया जा सकता और जब धर्म का संगठन बन जाता है तो वह आध्यात्म या धर्म नहीं बल्कि राजनीति का अड्डा बन जाता है और साधू और गुरु के वेश में छंटे हुए राजनीतिक गुंडे, बदमाशों और लुच्चे-लफंगों के जमावड़े के सिवाय और कुछ भी नहीं होता जिनका शोषकवर्ग अपने वर्ग हितों के लिए ही इस्तेमाल करता है । इसीलिए, धर्म कभी भी किसी सामाजिक क्रांति का वाहक नहीं बन सकता । आज हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध, जैन, सिख, मुस्लिम, ईसाई इत्यादि जितने भी संगठित धर्म हैं, ये कोई धर्म नहीं हैं बल्कि राजनीति के अड्डे मात्र हैं और इसीलिए वे शोषकवर्ग के साथ मिलकर सामाजिक क्रांतियों को रोकने का काम कर रहे हैं । दूसरी ओर, विज्ञान का सामाजिक संदर्भ है ।विज्ञान की सारी खोजें, सारी उपलब्धियां सामाजिक होती है, निजी नहीं । विज्ञान की समस्त उपलब्धियां अपने आप सारे समाज को हस्तांतरित हो जाती हैं । वे उपलब्धियां किस भी तरह के भेद और देश, काल की सीमाओं को नहीं मानतीं ।

यही धर्म और विज्ञान में मौलिक भेद है । इसीलिए कोई भी धर्म वैज्ञानिक नहीं हो सकता और विज्ञान भी किसी धर्म या आध्यात्मिकता का पक्षधर नहीं हो सकता । भारत में इन भगवाधारी साधुओं को गुरु का दर्जा प्राप्त है । भारत में इन कथित साधुओं की संख्या पचास लाख से भी अधिक है । इनको समाज को रास्ता दिखाने वाले गुरु और शिक्षक माना जाता रहा है । इस साधुओं ने धर्म के नाम पर अनेकों संगठन बना रखे हैं । कामचोर और निठल्ले साधुओं के ये संगठन कोई धार्मिक संगठन नहीं हैं बल्कि राजनीति के अड्डे मात्र ही हैं और ये साधु और उनके संगठन शोषकवर्ग के लिए ही काम करते हैं । इन साधुओं को ब्रह्म की बात तो छोड़िए इनको अपना भी ख़ुद का कोई पता नहीं है । इनके भक्तों की संख्या भी करोड़ों में है । इन गुरु घंटालों के कारण स्थिति ऐसी है कि अंधा अंधा ठेलिया दोनों कूप पडंत ।

प्राचीन समय में भी, जब वर्णव्यवस्था अपने शिखर पर थी ब्राह्मणों को गुरु का दर्ज़ा प्राप्त था और उन्होंने संगठित होकर धर्म की आड़ में वर्णव्यवस्था को जन्म दिया और उसको कठोरता से लागू किया । धर्म और प्रेम ये दो पर्यायवाची शब्द हैं । बुद्ध, महावीर, ईसा, कृष्ण, मोहम्मद, नानक जैसे  बुद्धपुरुषों ने प्रेम और करुणा को ही धर्म या मज़हब कहा है । इसीलिए उन्होंने अपने शिष्यों के साथ कभी भी कोई भेदभाव नहीं किया क्योंकि वो स्वयं प्रेम ही थे । लेकिन तत्कालीन वर्णव्यवस्था तो दलित शोषित श्रमिकवर्ग के शोषण, दमन और और उनके प्रति नफ़रत पर आधारित व्यवस्था थी जिसके अंतर्गत दलित शोषितवर्ग का कोई भी व्यक्ति न तो गुरु हो सकता था और न ही शिष्य क्योंकि इस व्यवस्था के अंतर्गत दलित शोषित श्रमिकवर्ग के लिए शिक्षा, दीक्षा के सभी दरवाज़े कठोरता से बंद कर दिए गए थे । इसीलिए तत्कालीन वर्णव्यवस्था कोई धार्मिक या आध्यात्मिक आयोजन नहीं था बल्कि विशुद्ध राजनीति थी ताकि उत्पादन और उत्पादन के साधनों पर कब्ज़ा करके दलित-शोषित श्रमिकवर्ग के ऊपर आर्थिक और सामाजिक रूप से हमेशा के लिए आधिपत्य स्थापित किया जा सके । अगर वे धार्मिक या आध्यात्मिक होते और सचमुच में गुरु होते तो वर्णव्यवस्था जैसी घोर अमानवीय और शोषण और दमन पर आधारित व्यवस्था का अस्तित्व में आना कतई संभव नहीं था । सच तो यह है कि धर्म और आध्यात्म की हत्या करके ही वर्णव्यवस्था अस्तित्व में आई वर्ना वर्णव्यवस्था जैसी घोर अधार्मिक व्यवस्था का अस्तित्व में आना असंभव था । इसीलिए, वह आध्यात्मिक नहीं बल्कि घोर अंधकार का युग था ।

इसीलिए उस समय अत्याचार, शोषण और दमन पर आधारित वर्णव्यवस्था अपने शिखर पर थी । रामराज्य में भी यह व्यवस्था अपने शिखर पर थी । रामराज्य को वर्णव्यवस्था का स्वर्णकाल कहा जा सकता है । उस समय एक मामूली से ब्राह्मण ने राम जैसे आध्यात्मिक कहे जाने वाले राजा से शिकायत की थी कि शंबूक नाम के एक शूद्र ऋषि और गुरु के पूजा-पाठ करने और ध्यानमग्न होने के कारण उसके पुत्र की मृत्यु हो गई है । इसीलिए उसको सज़ा दी जाए । वह समय कितना अंधकार पूर्ण समय रहा होगा इस बात का अंदाज़ा इस घटना से लगाया जा सकता है कि ब्राह्मणों द्वारा भगवान कहे जाने वाले राम ने उस मामूली से ब्राह्मण के कहने पर मीलों दूर तप कर रहे शम्बूक ऋषि का वध कर डाला । उसका कसूर सिर्फ़ इतना ही था कि शूद्र होने के बावजूद वह तप, ध्यान-समाधि जैसे आध्यात्मिक कार्यों में लगे हुए थे । शंबूक ऋषि का नाम उस समय के ख्यातिलब्ध गुरुओं में शुमार होता था । यह शंबूक ऋषि के गुरु हो जाने की सज़ा थी क्योंकि वर्णव्यवस्था के मुताबिक कोई शूद्र गुरु कैसे हो सकता था ? वह युग इतना अत्याचारपूर्ण था कि गुरु की महिमा का गौरवगान करने वाले ब्राह्मणवादियों ने स्वयं अपने ही शास्त्रों में वर्णित गुरु की उस माहिमा की हत्या कर दी जिसमें गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा माना गया था ।

ऐसे ही परम प्रतिभावान एकलव्य के साथ भी छल-कपट किया गया । भील युवक एकलव्य ने द्रोणाचार्य जो उस समय धनुर्विद्या के ख्यातिप्राप्त गुरु थे, के पास जाकर निवेदन किया कि वे उसे अपना शिष्य स्वीकार करके उसे धनुर्विद्या सिखाने की अनुकंपा करें । लेकिन शूद्र होने के कारण उन्होंने उसे दुत्कार कर भगा दिया । लेकिन एकलव्य ने फिर भी द्रोणाचार्य को गुरु मानते हुए अपनी लगन और मेहनत से धनुर्विद्या में ऐसी पारंगतता हासिल की कि स्वयं द्रोणाचार्य भी आश्चर्यचकित रह गए उसकी धनुर्विद्या के सामने द्रोणाचार्य के सबसे योग्य शिष्य अर्जुन तो क्या स्वयं द्रोणाचार्य भी पानी मांगते नज़र आए । ऐसे में, द्रोणाचार्य के अहंकार पर बड़ी चोट पड़ी और अंततः उन्होंने छल-कपट करके धोखे से एकलव्य से गुरु दक्षिणा में उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांग कर उस परम प्रतिभाशाली शिष्य की धनुर्विद्या का अंत कर दिया । यह एक गुरु द्वारा उस गुरु-शिष्य की परंपरा की सरे आम हत्या थी जिसकी ब्राह्मणवादी गुणगान करते नहीं थकते । यह घटनाएं उनके इस दावे की पोल खोल देती है कि भारत उस समय आध्यात्म के उच्चतम शिखर पर था क्योंकि सच में उस समय यदि भारत आध्यात्म के शिखर पर होता तो दलित-शोषित श्रमिकवर्ग से संबंधित गुरुओं और शिष्यों के साथ इस तरह का अमानवीय व्यवहार और छल-कपट असंभव था । अगर फिर भी वे इस युग को आध्यात्म का स्वर्णयुग मानते हैं तो उसका मूल्य दो कौड़ी से ज़्यादा नहीं हो सकता । लेकिन आज सामंती और ब्राह्मणवादी शक्तियां अपने गुरु चाणक्य की नीति साम, दाम, दंड, भेद का इस्तेमाल करते हुए सत्ता पर क़ाबिज़ हो बैठी हैं और वे फिर से हिंदुत्व का राग अलापते हुए पुनः ब्राह्मणवादी समाजव्यवस्था को स्थापित करने के लिए आतुर हैं ।

गुरु और शिक्षक दोनों के एक ही अर्थ नहीं हैं । इन दोनों ही शब्दों के अर्थ और संदर्भ बिल्कुल अलग-अलग हैं । गुरु एक आध्यात्मिक शब्द है । प्राचीन समय में गुरु और ब्राह्मण एक दूसरे के पर्यायवाची हो गए थे । मूल रूप से दोनों के अर्थ भी एक ही होते हैं । ब्राह्मणी शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मण का अर्थ होता है जिसने न केवल ब्रह्म को जान लिया हो बल्कि जो स्वयं ब्रह्म स्वरूप भी हो गया हो । गुरु का भी क़रीब-करीब वही अर्थ होता है । गुरु का अर्थ होता है जिसने न केवल अपने भीतर के अंधकार को मिटा दिया हो बल्कि जो स्वयं प्रकाश स्वरूप हो गया हो । वास्तव में ऐसे ही लोग गुरु कहलाने के अधिकारी होते थे । भारत में जितने भी तथाकथित ब्राह्मण हैं उनमें से शायद ही कोई ब्रह्म को जानकर स्वयं ब्रह्म हुआ होगा । अगर ऐसा हुआ होता तो वे वर्णव्यवस्था जैसी अति अमानवीय सामाजिक व्यवस्था का पोषण कदापि न करते । इसीलिए उनको गुरु या ब्राह्मण कहना आध्यात्मिक परंपराओं का सरासर अपमान है । भारत में उंगलियों पर गिने जा सकने वाले वास्तविक गुरु या ब्राह्मण हुए हैं । बुद्ध, कृष्ण, महावीर, नानक, रैदास, मीरा, कबीर ऐसे ही कुछ नाम हैं जिन्हें गुरु या ब्राह्मण कहा जा सकता है । इन्हीं के कारण भारत के आध्यात्मिक होने की प्रतिष्ठा विश्व पटल पर बनी हुई है और उन्हीं की आध्यात्मिक उपलब्धियों के बल पर ये कथित गुरु और ब्राह्मण विश्वगुरु होने का झूठा दम्भ यदाकदा प्रकट करते रहते हैं ।

इसी तरह, शिक्षक का भी वही अर्थ नहीं है जो भारत में गुरु का है । शिक्षक पाश्चात्य शिक्षा पद्धति से आया शब्द है जिसका धर्म या आध्यात्म इत्यादि से कोई लेना देना नहीं है क्योंकि पश्चिम में कभी भी कोई आध्यात्मिक परंपरा वजूद में नहीं रही है । इसीलिए भारत में गुरु के प्रति अहोभाव प्रकट करने के लिए गुरु पूर्णिमा उत्सव मनाया जाता है और शिक्षक के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए शिक्षक दिवस । इसीलिए, पश्चमी देशों में गुरु पूर्णिमा मनाने की कोई परंपरा नहीं है । शिक्षक पश्चिमी देशों में भौतिकवाद पर आधारित आधुनिक विज्ञान पर आधारित विभिन्न विषयों की शिक्षा देने वाले व्यक्ति को कहा जाता है । आज भारत में यही शिक्षा पद्धति प्रचलन में है । यह बड़े मज़े की बात है कि भारत को विश्वगुरु कहने का दम्भ भरने वाले आज स्वयं पश्चमी शिक्षा को अपनाने पर मजबूर हैं ।

आज भारत के पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय सर्वेपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दिवस है । उनकी स्मृति में ही आज के दिन को शिक्षक दिवस के रूप में हर वर्ष मनाया जाता है क्योंकि राष्ट्रपति होने से पहले वे ख्यातिप्राप्त और नामचीन शिक्षक रह चुके थे । राधाकृष्णन भी प्राचीन ब्राह्मणवादी संस्कृति से आते हैं और उसी संस्कृति के वे आजीवन पोषक भी रहे हैं । एक शिक्षक होने के इलावा उनका शिक्षा के क्षेत्र में कभी कोई उल्लेखनीय या परिवर्तनकारी योगदान रहा हो ऐसा न कभी सुना गया है और न ही पढ़ा गया है । गौरतलब बात है कि राधाकृष्णन ने एक शिक्षक होने को छोड़कर राष्ट्रपति होना स्वीकार किया । इसका अर्थ है की उन्होंने राष्ट्रपति पद को एक शिक्षक होने से ज़्यादा महत्वपूर्ण माना । अब यह एक शिक्षक के प्रति सम्मान हुआ या अपमान ? एक शिक्षक के प्रति सम्मान तो तब होता जब वे राष्ट्रपति होते और राष्ट्रपति पद को छोड़कर एक शिक्षक होने को महत्व देते हुए शिक्षक हो जाते । लेकिन उन्होंने एक शिक्षक के काम को ठुकराकर राष्ट्रपति पद को तरज़ीह दी । एक तरह से उन्होंने राष्ट्रपति की तुलना में एक शिक्षक के काम को महत्वहीन घोषित किया । लेकिन फिर भी भारत में उनके जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है । लेकिन यह भारत है । यहां सब चलता है । चलती का नाम गाड़ी । यह बौद्धिक दिवालियेपन के इलावा और क्या हो सकता है ?

डॉ राधाकृष्णन एक ब्राह्मण परिवार से थे और इसीलिए वे आजीवन ब्राह्मणी संस्कृति के पोषक रहे । इसीलिए उन्होंने ब्राह्मणी संस्कृति को ही आगे बढ़ाया । उनके द्वारा एकलव्य और द्रोणाचार्य जैसी ही अपने एक ग़रीब शिष्य को धोखे से छल लेने वाली घटना का ज़िक्र ओशो ने अपनी पुस्तक “ज्यूँ मछली बिन नीर” में किया है । राधाकृष्णन जिस पुस्तक के कारण विश्वविख्यात हुए उसका नाम था– ‘इंडियन फिलोसोफी’ । यह उनके एक शिष्य की थीसिस थी जिसे राधाकृष्णन ने छल-कपट और धोखा देकर अपने नाम से प्रकाशित करवा दी थी और वे रातों रात विश्वविख्यात हो गए और वह गरीब शिष्य एक बार फिर एकलव्य की भांति अपने गुरु के द्वारा छला गया । उस घटना को यहां ज्यों का त्यों उद्धरित करना ज़रूरी मालूम पड़ता है ताकि घटना को तथ्यों सहित समग्रता के साथ उद्घाटित किया जा सके ।

“चोरी इस देश में बहुत चलती है छोटे-छोटे लोग ही चोरी नहीं करते, बड़े-बड़े लोग चोरी करते हैं । उन्नीस सौ तीस में सर्वपल्ली राधाकृष्णन पर कलकत्ता हाईकोर्ट में मुकदमा चला चोरी का, की उन्होंने एक विद्यार्थी की पीएचडी की थीसिस में से पन्ने के पन्ने चुरा लिए, चैप्टर के चैप्टर चुरा लिए । जिस किताब से डॉक्टर राधाकृष्णन जगत विख्यात हुए, वह पूरी की पूरी चोरी है । ‘इंडियन फिलोसोफी’ नाम की किताब से वे प्रख्यात हुए । वह एक विद्यार्थी की एक थिसिस थी–एक ग़रीब विद्यार्थी की । उसकी थीसिस उनके पास जांच के लिए आई थी । वे प्रोफ़ेसर थे, परीक्षक थे । उनकी थीसिस को तो दबा रखा उन्होंने और जल्दी से अपनी किताब पहले छपवा ली, ताकि अदालत में यह कहने को हो जाए–कभी अगर मामला बिगड़े भी–कि मेरी किताब पहले छपी । मुकदमा चला और मामला पकड़ में आ गया, क्योंकि उसने थीसिस उनके पहले, किताब के छापने के एक-डेढ़ साल पहले विश्वविद्यालय में समर्पित की थी । डेढ़  साल से वह राधाकृष्णन के पास पड़ी थी । और एकाध वाक्य मिल जाए तो समझ में आता है, चैप्टर के चैप्टर, वही के वही । जल्दी में करना पड़ा उनको, तो उसमें कुछ थोड़े बहुत मेल-मिलान भी कर देते, थोड़ी मिलावट भी कर देते, जैसा इस मुल्क में चलता है, इधर-उधर कुछ मिला जुलाकर एक सा कर देते तो शायद पकड़ में इतने जल्दी भी न आते । लेकिन जल्दी छपवानी थी, क्योंकि वह थीसिस पड़ी थी उसकी, उसको विश्वविद्यालय पीछे पड़ा था कि आप लौटाइए । हां या ना कुछ भी भरिए ।

और मज़ा तुम देखते हो, उस विद्यार्थी को उन्होंने फेल किया । फेल किया इसलिए कि उसको फिर से थीसिस लिखनी पड़ेगी, उसमें और दो साल लगेंगे । तब तक उनकी किताब जगत विख्यात हो जाएगी, तब तक मामला बिल्कुल गड़बड़ हो जाएगा। लेकिन वह विद्यार्थी भी, था तो ग़रीब, लेकिन जब उसने इनकी किताब देखी तो दंग रह गया, भरोसा ही न आया । हाइकोर्ट में मुकदमा गया । उस विद्यार्थी को दस हज़ार रुपये देकर किसी तरह–ग़रीब विद्यार्थी था–किसी तरह राज़ी किया और अदालत से मुक़दमा वापस लौटाया ।

राधाकृष्णन जैसे लोग, जो बाद में राष्ट्रपति बने, ये तक चोरी करते हैं । इस देश में चोरी का तो कुछ हिसाब ही नहीं है । बड़ा आश्चयर्जनक है यह देश । यहां मेरे देखे अधिकतर लोग बस उधार चलाते रहते हैं । जिनको तुम ज्ञानी और पंडित कहते हो, वह भी सब चोरी । अपना अनुभव तो कुछ भी नहीं ।”

आज जितने भी तथाकथित साधु गुरुओं के वेश में मौजूद हैं वे सभी पतनशील और सड़ीगली सामंती व्यवस्था की उपज हैं और धर्म और आध्यात्म वगैरह से इनका कोई भी संबंध नहीं रह गया है । इसीलिए इनका काम सामंती संस्कृति और सामंती मूल्यों को पुनर्स्थापित करना भर रह गया है । इसीलिए ये निठल्ले मठाधीश और गुरु कभी रामराज्य लाने की बात करते हैं तो कभी भारत को हिन्दूराष्ट्र बनाने की । हम आज जिस पूँजीवादी व्यवस्था में रह रहे हैं वह स्वयं इस सामंती व्यवस्था को नष्ट करके ही अस्तित्व में आई है और ये चरसी, गंजेड़ी, भंगेड़ी, तथाकथित विश्वगुरु, गुरु, साधू, संत, इत्यादि उसी सामंती सभ्यता और संस्कृति के सड़े गले अवशेष मात्र हैं जिनका इस्तेमाल पूंजीवाद अपने वर्गहितों को पोषित करने के लिए ही करता है । वर्तमान पूँजीवादी समाजव्यवस्था लोभ, लालच, छल, कपट, ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा, शोषण, दमन पर आधारित व्यवस्था है  इसीलिए पूँजीवाद इन तथाकथित गुरुओं का इस्तेमाल जनता को जाति, वर्ण, धर्म, सम्प्रदाय जैसे संकीर्ण विचारों में बांटने और दिग्भ्रमित करने के लिए ही करता है ।

इसीलिए पूँजीवादी व्यवस्था इनको भरपूर आश्रय देती है और इसीलिए मौक़ा पाकर इन तथाकथित गुरुओं ने बड़े बड़े आश्रम बना लिए हैं और जगत को झूठ, माया और महाठगिनी कहने वाले ये मायावी महाठग गुरु बनकर धर्म की आड़ में हज़ारों करोड़ रुपयों के मालिक बन बैठे हैं । अपने शिष्यों के साथ ठगी और अपनी ही बेटी समान शिष्याओं के साथ इनके सेक्स संबंधी दुराचार के मामले जगज़ाहिर हैं । इनमें से निन्यानवे प्रतिशत तथाकथित गुरु आजकल जेलों में बंद हैं । इस तरह इन तथाकथित गुरुओं ने अपने गुरु होने का इस्तेमाल अपने भोले-भाले शिष्यों के इलावा ग़रीब और मेहनतकश जनता का धर्म और आध्यात्म की आड़ में खूब आर्थिक, दैहिक और मानसिक शोषण करके गुरु और शिष्य के पाक संबंधों का को कलंकित किया है। यह उस सामंती और पूँजीवादी सभ्यता और संस्कृति का आम चित्र है जिसके बल पर ये तथाकथित ढोंगी और अय्याश गुरु विश्वगुरु होने का दावा करते हैं ।

आज भारत में जो शिक्षा पद्धति प्रचलन में है वह सड़े-गले सामंती और पूँजीवादी मूल्यों पर आधारित है जिसके कारण गुरु, शिक्षक और शिष्य के संबंध सड़ांध से भर गए हैं । उनमें कोई आत्मीयता या सम्मान का भाव नहीं रह गया है । यह संबंध पूर्ण रूप से व्यवसायिक होकर रह गए हैं । इसीलिए राधाकृष्णन जैसे ख्यातिलब्ध दार्शनिक और शिक्षक जिनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मान्यता दी गई है, तक ने ब्राह्मणवादी संस्कृति को आगे बढ़ाते हुए अपने एक ग़रीब शिष्य के साथ छल, कपट और धोखा किया । आज ज़रूरत है सभी को बिना किसी भेदभाव के समानता पर आधारित नई और समान शिक्षा व्यवस्था की ताकि शिक्षा और शिक्षक-शिष्य संबंधों को नए और वैज्ञानिक आधार पर पुनः पारिभाषित किया जा सके । लेकिन यह कार्य मौजूदा सामंती और पूँजीवादी व्यवस्था के चलते कतई संभव नहीं । उसके लिए सत्ता परिवर्तन की नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन की दरकार है और यह महान कार्य दलित-शोषित श्रमिकवर्ग की अगुवाई में क्रांतिकारी एकजुटता के बल पर ही सम्पन्न हो सकेगा ।

आज शिक्षक दिवस के अवसर पर सभी शिक्षकों और गुरुओं को अहोभावपूर्ण नमन ।

(अशोक कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

 

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