Monday, September 25, 2023

आईएनए ट्रायल की 75वीं बरसी: जब गूंज उठा ‘लाल किले से आयी आवाज़! सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज’!

आज़ाद हिंद फौज के ट्रायल के आज पचहत्तर साल पूरे हो रहे हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में आजाद हिन्द फौज की अहम भूमिका रही है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज के योद्धाओं ने, द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम समय में देश के पूर्वी मोर्चे पर ब्रिटिश सेना के छक्के छुड़ा दिए थे। यह अलग बात है कि, खराब मौसम, जापान से रसद की आमद बाधित होने और द्वितीय विश्वयुद्ध में मित्र देशों के जीतते जाने के कारण, कहीं कहीं  आजाद हिन्द फौज को पीछे हटना पड़ा था। फिर 1945 में जापान के दो शहरों, हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका द्वारा परमाणु बम गिराने से युद्ध का स्वरूप ही बदल गया।

आईएनए द्वारा ब्रिटिश सेना के खिलाफ युद्ध के बारे में नेताजी की एक सोच यह भी थी कि जब भारतीयों को आजाद हिन्द फौज के प्रयासों का पता चलेगा तो देश अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़ा होगा। लेकिन तत्कालीन अखबारों पर सेंसर की वजह से आईएनए के फौजियों की उपलब्धियां और उनकी शौर्य गाथाएं जनता तक नहीं पहुंच पायीं। आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों को विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद, अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार किया गया और उन पर दिल्ली के लाल किले में देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया। जब मुकदमे की प्रक्रिया शुरू हुयी तो देश के सामने, उनकी बहादुरी के तमाम किस्से सामने आए और आईएनए ट्रायल या आज़ाद हिंद फौज के मुकदमे को, देश के लीगल हिस्ट्री और भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान मिला। तब पूरा भारत,  आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों के पक्ष में खड़ा हो गया। अंग्रेजों को इस विपक्षण एकजुटता का अंदाजा नहीं था और इस जागृति से उन्हें यह एहसास हो गया कि अब उनका भारत में रुकना अब संभव नहीं है।

आज़ाद हिन्द फौज विश्वयुद्ध में भारतीय युद्ध बंदियों को शामिल कर बनाई गई थी। इसकी स्थापना दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान की मदद से सिंगापुर में हुई थी। इसके संस्थापक मोहन सिंह और रासबिहारी बोस जैसे स्वाधीनता संग्राम के योद्धा थे लेकिन, वर्ष 1943 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने इस फौज को और व्यवस्थित रूप दिया। सुभाष बाबू का उद्देश्य था,  अन्य देशों की सहायता से भारत को आज़ादी दिलाना। वर्ष 1943 में 5 जुलाई को सिंगापुर में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपनी फौज को संबोधित करते हुए कहा, “हथियारों की ताकत और खून की कीमत से तुम्हें आजादी प्राप्त करनी है। फिर जब भारत आजाद होगा तो आजाद देश के लिए तुम्हें स्थायी सेना बनानी होगी, जिसका काम होगा हमारी आजादी को हमेशा-हमेशा बनाए रखना…..

मैं वादा करता हूं कि अंधेरे और उजाले में, दुख और सुख में, व्यथा और विजय में तुम्हारे साथ रहूंगा… मैं भूख, प्यास, प्रयाण पंथ और मृत्यु के सिवा कुछ नहीं दे सकता। पर अगर तुम जीवन और मृत्यु-पथ पर मेरा अनुसरण करोगे तो मैं तुम्हें विजय और स्वाधीनता तक ले जाऊंगा…

मेरे वीरों! तुम्हारा युद्धघोष होना चाहिए-दिल्ली चलो! दिल्ली चलो! आजादी की इस लड़ाई में हममें से कितने बचेंगे, मैं नहीं जानता, पर मैं यह जानता हूं कि अंत में हम जीतेंगे और जब तक हमारे बचे हुए योद्धा एक और कब्रगाह-ब्रिटिश साम्राज्यवाद की कब्रगाह- दिल्ली के लालकिले पर फतह का परचम लहरा नहीं लेते, हमारा मकसद पूरा नहीं होगा।” 

(पुस्तक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, लेखक-शिशिर कुमार बोस)

आज़ाद हिंद फौज में 85,000 सैनिक थे। अंग्रेज़ी हुकूमत पर पहले हमले के बाद ही आईएनए ने अंडमान व निकोबार पर अपना अधिकार कर लिया। पोर्ट ब्लेयर में, पहली बार नेताजी  ने तिरंगा फहराकर आजादी की घोषणा की। अंडमान और निकोबार को उन्होंने शहीद और स्वराज नाम दिये। जनवरी 1944 के पहले सप्ताह में आईएनए का मुख्यालय सिंगापुर से रंगून आ गया। मार्च 1944 के मध्य में आजाद हिन्द फौज इंफाल के निकट तक पहुंच गई थी।

6 जुलाई 1944 को नेताजी ने रंगून रेडियो से महात्मा गांधी के नाम एक अपील में कहा, “भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है। आजाद हिन्द फौज के सैनिक भारत की भूमि पर वीरतापूर्वक लड़ रहे हैं… यह सशस्त्र संघर्ष आखिरी अंग्रेज को भारत से निकाल फेंकने और और नई दिल्ली के वायसराय हाउस पर गर्वपूर्वक राष्ट्रीय तिरंगा फहराने तक चलता ही रहेगा…..हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएं चाहते हैं।”

अक्सर कुछ लोग इस बेमतलब की बहस में पड़ जाते हैं कि गांधी जी को राष्ट्रपिता की पदवी किसने दी है तो उन्हें नेता जी के इस रंगून भाषण को सुनना चाहिए, जिसमें उन्होंने गांधी जी को राष्ट्रपिता कह कर सम्बोधित किया था।

आजाद हिन्द फौज, सीमित संसाधनों में भी अंग्रेजी फौज को टक्कर देती रही। किन्तु बर्मा के जंगलों, बारिशों, मलेरिया, बीमारी और रसद आपूर्ति बाधित होने के कारण, आजाद हिन्द फौज को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। अंग्रेजों ने 1945 में आजाद हिन्द फौज के सैनिकों और अधिकारियों को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें जुलाई 1945 में भारत लाया गया। इन बन्दी सैनिकों को देश के अलग-अलग हिस्सों में युद्धबन्दी शिविरों में रखा गया। आजाद हिन्द फौज के सैनिकों पर लालकिले में मुकदमा चलाया गया। आजाद हिन्द फौज के तीन अफसरों कैप्टन प्रेम सहगल, कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लो मेजर जनरल शाहनवाज खान पर प्रमुख मुकदमा चलाया गया। इन सब पर देशद्रोह का इल्जाम था। 

तब तक आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों की बहादुरी के किस्से घर-घर पहुंचने लगे थे और देश भर में, जगह-जगह अंग्रेज सरकार के खिलाफ धरने-प्रदर्शन शुरू हो गए। एक नवंबर से 11 नवंबर तक आजाद हिन्द फौज सप्ताह का आयोजन किया गया। 12 नवंबर को आजाद हिन्द फौज दिवस मनाया गया। अंग्रेजों के समर्थक माने जाने वाले सरकारी कर्मचारी और सशस्त्र सेनाओं के लोग भी नेताजी के रणबांकुरों के समर्थन में आ गए। नेताजी ने भारतीयों के एक सूत्र में बंधने की जो कल्पना की थी वो साकार हो रही थी। भयानक साम्प्रदायिक दंगों के बावजूद, धर्म की दीवारें, इस ट्रायल के आगे टूट चुकी थीं। दूर-दराज से आकर लोग लालकिले के बाहर जमा होने लगे। अंदर ट्रायल चल रहा था, और बाहर एक ही आवाज  गूंजती थी,

लाल किले से आई आवाज

सहगल, ढिल्लो, शाहनवाज,

तीनों की उम्र हो दराज !! 

इसके अलावा एक और नारा लगता था, 

‘लाल किले को तोड़ दो,

आजाद हिन्द फौज को छोड़ दो।’

कैप्टन प्रेम सहगल, कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लन और मेजर जनरल शाहनवाज खान पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। अंग्रेजों को यह उम्मीद नहीं थी कि मुकदमे की ऐसी प्रतिकूल प्रतिक्रिया देश भर में होगी। आजाद हिन्द फौज के पक्ष में सर तेज बहादूर सप्रू, भूला भाई देसाई, जवाहर लाल नेहरू और के.एन. काटजू ने अदालत में उनका पक्ष रखा और इन सैनिकों के पक्ष में अपनी अकाट्य दलीलें दीं। भूला भाई देसाई के तर्कों ने प्रॉसिक्यूशन की थियरी को ध्वस्त कर दिया। इधर देश में आईएनए के पक्ष में जो माहौल बन रहा था उसे देखते हुए अंग्रेज पशोपेश में थे। 

मुकदमा शुरू होने से पहले कमांडर इन चीफ क्लॉड ऑचींलेक ने वायसराय को यह रिपोर्ट भेजी थी कि यदि हालात बिगड़ते हैं तो भारतीय सैनिकों की टुकड़ियां स्थिति को काबू में कर लेगी। लेकिन मुकदमा जैसे-जैसे आगे बढ़ा और देश में आजाद हिन्द फौज के पक्ष में जैसा माहौल बना उसे देख कमांडर इन चीफ का साहस जवाब देने लगा और उनकी रणनीति असफल होने लगी। सरकार यह तय ही नहीं कर पा रही थी कि, किया क्या जाय। कमांडर इन चीफ ने वायसराय  को पत्र लिखा कि आजाद हिन्द फौज के सैनिकों को सजा देने से देश में व्यापक  अराजकता फैल सकती है और इससे सेना में विद्रोह भी हो सकता है। सरकार भी हवा का रुख भांपते हुए इस नतीजे पर पहुंच चुकी थी कि अब भारतीयों के विरुद्ध भारतीय सेना का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। 

1946 में एक छोटी सी प्रेस विज्ञप्ति में आजाद हिन्द फौज पर चल रहे मुकदमे को बंद कर सबको रिहा कर दिए जाने की घोषणा कर दी गई और सभी सैनिकों को रिहा कर दिया गया। हालांकि कैप्टन प्रेम सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लन और मेजर जनरल शाहनवाज खान को ब्रिटिश हुक़ूमत ने फांसी की सज़ा देने का निश्चय कर लिया था। फिर जन दबाव के चलते फांसी की सजा को, उम्र कैद में बदलने की बात हुयी। कोर्ट मार्शल पूरा कर, 31 दिसंबर 1945 को ब्रिटिश अदालत ने, इन तीनों को दोषी घोषित कर दिया था। इन पर ब्रिटिश राज के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का आरोप था। ऐसे गम्भीर अपराध की सज़ा तो फांसी ही हो सकती थी। लेकिन अंग्रेजों की हिम्मत न तो इन बहादुर नायकों को फांसी देने की पड़ी और न ही कारावास की सज़ा देने की। अंत में 3 जनवरी 1946 को इन तीनों सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज को रिहा कर दिया। 

अंग्रेजों की यह बड़ी हार थी। नवम्बर, 1945 से लेकर मई 1946 तक आजाद हिन्द फौज पर कुल लगभग दस मुकदमे चले थे। मेजर जनरल शाहनवाज खान को मुस्लिम लीग और कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लो को अकाली दल ने अपनी ओर से मुकदमा लड़ने की पेशकश की थी लेकिन इन्होंने धार्मिक आधार पर दी गयी यह पेशकश ठुकरा दी। तब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा जो डिफेंस टीम बनाई गई थी, उसी टीम को ही अपना मुकदमा लड़ने की मंजूरी आईएनए के सैनिकों ने दी। धर्मांधता और कट्टरता के उस घातक दौर में आईएनए के बहादुर सैनिकों का यह  निर्णय अनुकरणीय और प्रशंसनीय था।

इस ट्रायल ने पूरी दुनिया में अपनी आजादी के लिए लड़ रहे लाखों लोगों के अधिकारों को जागृत किया। सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज के अलावा आजाद हिन्द फौज के अनेक सैनिक जो जगह-जगह गिरफ्तार हुए थे और जिन पर सैकड़ों मुकदमे चल रहे थे, वे सभी रिहा हो गए। 3 जनवरी, 1946 को आजाद हिन्द फौज के जांबाज सिपाहियों की रिहाई पर ‘राईटर एसोसिएशन ऑफ अमेरिका’ तथा ब्रिटेन के अनेक पत्रकारों ने अपने अखबारों में मुकदमे के विषय में जमकर लिखा। इस तरह यह मुकदमा अंतर्राष्ट्रीय रूप से चर्चित हो गया। 

आज इस महान ऐतिहासिक ट्रायल के 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं। आईएनए के बहादुर सैनिकों, कुछ उनमें से आज भी जीवित हैं को वीरोचित अभिवादन और जो दिवंगत हो गए हैं उनका विनम्र स्मरण। रिहा होने पर आईएनए के कुछ बहादुर सैनिक कैप्टन प्रेम सहगल,  कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लन, और मेजर जनरल शाहनवाज खान  के साथ गांधी जी से मिलने गए थे। उन्होंने गांधी जी को सैन्य अभिवादन किया। कर्नल ढिल्लन ने अपनी आत्मकथा ‘फ्रॉम माय बोन्स’  में इस मुलाकात का रोचक उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि, गांधी जी ने उनसे मुस्कुराते हुए पूछा है कि, ” तुम तीनों में से ब्रह्मा, विष्णु महेश कौन-कौन है।”

इस पर कर्नल ढिल्लन ने कहा कि ” आप ने तो हमें इतना बड़ा स्थान दे दिया है अब आप ही यह भी तय कर दीजिए।” इस पर एक समवेत हंसी गूंज उठी। 

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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