Monday, March 20, 2023

ढाई लाख मुआवज़ा देने से क्या दिवालिया हो सकती है दिल्ली सरकार?

Janchowk
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दलित-आदिवासी शक्ति मंच (दसम) ने गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली में 19 अक्टूबर 2019 को सीवर कर्मचारियों पर सुनवाई आयोजित की। इस जनसुनवाई में सीवर सफाई कर्मचारियों ने अपनी परेशानियों से रूबरू करवाया।

7 मई 2019 को दिल्ली भाग्य विहार, प्रेम नगर (रोहिणी) में सैप्टिक टैंक की सफाई करते वक़्त पांच मज़दूर ज़हरीली गैसों की चपेट में आ गए थे। इनमें से दो मज़दूर दीपक और गणेश साह ने अस्पताल में दम तोड़ दिया। हादसे में बचने वाले रामवीर, राजेश और शेरसिंह तीनों आंख, कान, पेट, सांस की बीमारियों से पीड़ित हैं। जिसमें शेर सिंह की हालत ज़्यादा नाजुक है। जब इन तीनों से जन सुनवाई के दौरान बात हुई तो इस हादसे के बारे में मैं पूरी तरह से नहीं जानती थी। बाद में जब मीडिया रिपोर्ट देखी तो पता चला कि बात ऐसे और इतनी नहीं थी जितनी और जैसे बताई गई।

दसम के संयोजक संजीव बताते हैं कि जब वो भाग्य विहार पीड़ितों से मिलने गए तो देखा कि शेरसिंह मरने की स्थिति में हैं। वो नीचे ज़मीन पर पड़े हुए थे। बोल नहीं पा रहे थे। बिस्तर पर ही शौच कर रहे थे। पत्नी सेवा में लगी हुईं थीं। ऐसी हालत में वो अस्पताल में क्यों नहीं हैं पूछने पर पता चला कि सुल्तानपुरी के संजय गांधी अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। पर जब वो अस्पताल से अपने साथ गैस की चपेट में आए साथी रामवीर की गवाही देने गए जिसे पुलिस ने आरोपी बना कर जेल में डाल दिया था तो उसके बाद उन्हें दोबारा भर्ती नहीं किया गया।

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बायें से दायें रामवीर, राकेश की पत्नी, शेर सिंह और परदा देवी

शेरसिंह ओपीडी में पड़े रहे। किसी ने ध्यान नहीं दिया। संजय बताते हैं कि उनकी टीम ने पुलिस-एम्बुलेंस बुला कर जबरन उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया। और उनके इलाज के लिए चंदा करके पैसे जुटाए। अभी तक शेरसिंह का इलाज लोगों की मदद से दसम करवा रहा है। शेरसिंह के चार छोटे-छोटे बच्चे हैं। किराए पर रहते हैं। हादसे के बाद काम करने की हालत में नहीं हैं। जैसे-तैसे सांस ले पा रहे हैं। दोस्त-पड़ोसी कहते हैं कि अगर दसम की टीम साथ नहीं देती तो शेरसिंह अब तक मर चुका होता।

हादसे के दूसरे दिन केजरीवाल पीड़ितों के घर गए। मरने वालों के परिवारों को 10-10 लाख रूपये और बाक़ी तीन जो हादसे में बच गए उन्हें ढाई-ढाई लाख रूपया मुआवज़ा और फ्री इलाज का वायदा करके आए। मृतकों के परिवारों को तो 10 लाख के चैक मिल चुके हैं पर जीवित पीड़ितों को मुआवज़ा और फ्री इलाज देने से आप सरकार मुकर गई है।

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केजरीवाल का पोस्टर।

केजरीवाल आजकल अपनी ‘‘फरिश्ते बनिये’’ योजना का भी खूब प्रचार प्रसार करने में लगे हैं। लोगों को बता रहे हैं कि उनके लिए दिल्ली के एक-एक आदमी की जान कीमती है। और इसके लिए वो कितना भी पैसा ख़र्च कर सकते हैं। सड़क दुर्घटना के लोगों की मदद करें। इलाज सरकार फ्री करवाएगी। निजी अस्पतालों में भी। अच्छी बात है। पर क्या भाग्य विहार के पीड़ित दुर्घटना का शिकार नहीं हैं? इनके लिए फरिश्ता बनने से क्यों परहेज़ है आप सरकार को।

संजीव का कहना है कि केजरीवाल जो रोज़ नई-नई स्कीम ला रहे हैं सीवर वर्करों के लिए, दलितों के लिए सब झूठ है। इसका कोई मैकेनिज़म नहीं है कि ग्राउंड लेवल तक कैसे जाया जाए। अस्पताल-शिक्षा वैसी ही बुरी हालत में हैं। दिल्ली के मादीपुर-रोहिणी, ग्रामीण इलाकों में जाइये अभी भी कुछ नहीं बदला है। पता नहीं किन लोगों के लिए केजरीवाल काम कर रहे हैं। शेरसिंह का उदाहरण आपके सामने है।

‘‘हमारे सपनों की दिल्ली में हर दिल्लीवासी को रोज़गार होगा, इज़्जत से जीने लायक आमदनी होगी, रहने को घर होगा। किसी भी किस्म की हिंसा या दुर्घटना से सुरक्षा मिलेगी। कहते हैं दिल्ली दिलवालों की है। हम देश और दुनिया के लिए इस खुलेपन को बनाए रखकर एक सुरक्षित, खुशहाल और ज़िंदादिल शहर बनाना चाहते हैं।’’ ये शब्द मैंने आम आदमी पार्टी के 2013-14 के चुनाव में जारी किए गए उनके घोषणापत्र से लिए हैं।

संजीव बताते हैं कि शेरसिंह की हालत को लेकर उन्होंने प्रेस कांन्फ्रेंस भी की ताकि सरकार कुछ संज्ञान ले। पर कोई असर नहीं हुआ। क्योंकि लिखित में कहीं ढाई लाख देने की बात नहीं आई है सिर्फ इलाज की बात है तो मीडिया भी इस पर खुलकर बात नहीं कर रहा। हमने केजरीवाल को, दिल्ली कमशीन, नेशनल कमीशन को लेटर लिखा पर कुछ नहीं हुआ। दिल्ली सरकार ने यहां तक कहा कि जो तुम्हें ईलाज के लिए लेकर गए वही तुम्हारा इलाज करवाएंगे। हमसे कोई अपेक्षा मत करो।

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संजीव।

दसम अब भी शेरसिंह को हर महीने मदद पहुंचा रहा है। यहां तक कि उनके मकान का किराया भी लोगों के चंदे से जा रहा है।

क्या दिल्ली की खुशहाली, दिलदारी के ये लोग दावेदार नहीं? पता नहीं रोजी़-रोटी के लिए मारे-मारे फिरने वाले इन अदना से तीन मज़दूरों को दिल्ली के मुख्यमंत्री किस बात की ऐंठ दिखा रहे हैं। क्या इनके हक़ का ढाई-ढाई लाख इन्हें देने से दिल्ली सरकार दिवालिया हो जाएगी?

रामवीर की बहन परदा देवी जो हादसे के वक़्त मौजूद थीं और सभी पीड़ितों को अस्पताल लेकर गईं, कहती हैं कि एफआईआर में साफ-साफ लिखा है कि रामवीर बेकसूर है। पर विधायक साहब समझा रहे हैं कि विपक्ष ने आरोपी बताकर पैसा रुकवा दिया। हम तो देना चाहते थे। 

शेरसिंह जो रोज़ की दिहाड़ी करके अपना घर चला रहे थे। आज खड़े होने, सांस ले पाने की हालत में नहीं हैं। उनकी इस हालत का ज़िम्मेदार कौन है?

क्या वो गरीब अधमरा रामवीर जो खुद शेरसिंह और अपने बाक़ी साथियों को बचाने के लिए सेप्टिक टैंक में कूद गया। उन्हीं में से एक मकान मालिक ग़ुलाम मुस्तफा जिसने सेप्टिक टैंक साफ करने बुलाया था या दिल्ली सरकार?

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दिल्ली जल बोर्ड सीवर डिपार्टमेंट मजदूर यूनियन बिड़लान।

इस हादसे से संबंधित जितनी रिपोर्ट मैंने देखी उसमें रामवीर आरोपी है। और एक वाक्य जो हर रिपोर्ट में इस्तेमाल किया गया है ‘‘कि किसी ने इन लोगों की मदद नहीं की क्योंकि ये सब अछूत थे।’’ और इस ‘‘अछूत’’ शब्द पर हमारा मानव अधिकार आयोग जिसे इतनी मौतों पर अब तक गुस्सा नहीं आया वो अमानवीय बताकर भड़क उठा है। जब मैंने परदा देवी से इस बारे में बात की तो उन्होंने बताया कि ये बिल्कुल झूठ बात है।

उस वक़्त वहां तीन-चार लोग ही थे जो खड़े देख रहे थे। कोई हाथ इसलिए नहीं लगा रहा था क्योंकि इनके शरीरों पर गंदगी लगी थी। मैंने शोर मचाया अरे कोई पुलिस को फोन करो। एम्बुलेंस बुलाओ। मदद करो। मैंने पाइप से सबके ऊपर पानी डाला और सबके कपड़े फाड़ कर मैला साफ किया। फिर मैं ही सबको अस्पताल लेकर गई। अछूत वाली बात एकदम मनगढ़ंत है। पुलिस हमारे जाने के बाद पहुंची।

रामवीर पर एक आरोप ये भी लगा कि रामवीर ऊंची जाति से संबंध रखते हैं इसलिए उन्होंने बाक़ी लोगों को जबरन सेप्टिक टैंक की सफाई के लिए टैंक में उतार दिया।

परदा देवी कहती हैं मैं गांव जाकर रामवीर की जाति का प्रमाण पत्र लेकर आई और कोर्ट में साबित किया कि रामवीर भी एससी हैं।

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दशक के कोआर्डिनेटर अशोक टांक।

मीडिया रिपोर्टों में रामवीर ठेकेदार है और उसने मकान मालिक के साथ मिलकर सबको धमकी दी कि अगर वो टैंक साफ नहीं करेंगे तो उनकी तीन दिन की दिहाड़ी उनको नहीं मिलेगी। दिहाड़ी न मिलने के डर से न चाहते हुए भी मजबूरन सब सेप्टिक टैंक में चले गए। जिससे उनकी मौत हो गई।

परदा देवी बताती है कि गणेश साह जिसकी मौत हुई है वो तो रामवीर का जिगरी दोस्त था। फिर ज़बरदस्ती टैंक में उतारने की बात कहां से आई? ये तो वहां काम करते ही नहीं थे। उसी दिन सेप्टिक टैंक की सफाई के लिए गए थे।

रामवीर विस्तार से बताते हैं- ‘‘ मैं तो वहीं उसी मकान में मिस्त्री का काम कर रहा था। मकान मालिक ने मुझसे कहा कि टैंक साफ करवाना है। किसी को बुला ला। मैं चेक पर गया राजेश उर्फ़ बबलू जो गैस पीड़ित है वो ये सफाई का काम करता था। उसने मकान मालिक से पैसे तय किए और ये सब सफाई करने लगे। मैं तो उस वक़्त ऊपर काम कर रहा था जब शोर मचा कि ये चारों टैंक में छटपटा रहे हैं। मैं भाग कर पहुंचा और इनको मछली की तरह तड़पता देखकर इन्हें बचाने के लिए बगै़र कुछ सोचे कूद गया।

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मुझे गैस के बारे में कुछ मालूम नहीं था। सब मेरे दोस्त थे सो इनकी जान बचाने में भी कूद गया। मैंने सबको किनारे किया। पर थोड़ी देर में मुझे जैसे ठंडी हवा लगी और मीठी-मीठी सी गंध आने लगी। और मैं बेहोश हो गया। फिर मुझे नहीं पता क्या हुआ। कौन मुझे अस्पताल लेकर गया।

तीन दिन बाद जब मुझे होश आया तो मैं आईसीयू में था। मैंने डॉक्टर से पूछा मैं कहां हूं। मेरे घरवाले कहां हैं? मुझे क्या हुआ है। तब मुझे बताया तुम्हें गैस लगी है। मैंने पूछा हम पांच थे और साथी कहां हैं। तो बताया गया कि दीपक और गणेश नहीं रहे। शेरसिंह और राकेश भी आईसीयू में थे। 11 दिन बाद जब मैं अस्पताल से घर आया तो 4-5 दिन बाद पुलिस आई और पूछा कि मैं ठीक हूं तो मैंने कहा हूं भी और नहीं भी। पुलिस ने मुझे थाने बुलाया। पूछताछ की फिर अगले दिन आने को कहा और पूछा भागेगा तो नहीं? मैंने कहा सर मैंने कुछ किया ही नहीं है तो भागूंगा क्यों। आपको जो करना है कर लो। दूसरे दिन फिर बुलाया और गिरफ्तार कर लिया।’’

हाथ से मैला साफ करवाना 1993 से गै़रकानूनी है। 2013 में सीवर, सेप्टिक टैंक, नाले आदि की सफाई के लिए व्यक्ति का उसमें उतर कर साफ करवाना भी गै़रकानूनी है। पर फिर भी देशभर और देश की राजधानी दिल्ली में धड़ल्ले से ये हो रहा है। और हमारे प्रधानमंत्री जी, स्वच्छता अभियान पर पुरस्कार जीत कर आ रहे हैं।

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दसम के कोओर्डिनेटर अशोक टांक कहते हैं कि प्रधानमंत्री की स्वच्छ भारत योजना के तहत जो शौचालय बनाए जा रहे हैं उनकी सफाई कौन करेगा? आखि़र तो इसी समाज के लोग। इन्हीं हालातों में सफाई करने को मजबूर किए जाएंगे। और मारे जाएंगे। क्या इस योजना में सीवर सफाई के लिए मशीनों की मौजूदगी भी इस योजना का हिस्सा है?

दिल्ली में अभी भी करीब 45 प्रतिशत घर सीवर लाइनों से नहीं जुड़ें हैं। बड़े-बड़े मॉल, गोदाम, फैक्ट्रियां व्यक्तिगत सेप्टिक टैंक बना कर बैठे हैं। इन्हें सार्वजनिक सीवर लाईनों के साथ क्यों नहीं जोड़ा जाता?

अनाधिकृत कॉलोनियों में घरों में सेप्टिक टैंक का इस्तेमाल हो रहा है। इस्तेमाल है तो सफाई भी होगी। तब इस सफाई की ज़िम्मेदारी किसकी है? सरकार ज़िम्मेदारी नहीं लेती। तो लोगों को व्यक्तिगत तौर पर कवायद करनी पड़ती है।

क्या ये कच्ची कॉलोनियों में रहने वाले लोग मतदाता नहीं हैं? दिल्ली के हर घर के मल की निकासी-सफाई की ज़िम्मेदारी किसकी है। सितंबर 2018 में केजरीवाल ने रिठाला में 19 कॉलोनियों में सीवर डालने की नींव रखी। बता रहे थे कि चुनाव के समय किया अपना वायदा पूरा कर रहे हैं। सीवर का काम 42 महीनों में पूरा होगा। तब तक और उससे पहले इन लोगों के घरों की मल-निकासी कैसे हो रही है। ये देखना, इसकी ज़िम्मेदारी लेना किसका काम है। सीवर बनने के बाद इनकी सफाई की ज़िम्मेदारी मौजूदा सरकारी सीवर कर्मचारियों पर आने वाली है। क्या सीवरों के कनेक्शन के साथ सीवर कर्मचारियों की सख्या में भी इजाफा किया जा रहा है?

दिल्ली जलबोर्ड सीवर डिपार्टमेंट मज़दूर संगठन के अध्यक्ष वेद प्रकाश बिड़लान बताते हैं कि अब दिल्ली की आबादी को देखते हुए कम से कम 30 हज़ार कर्मचारी चाहिये। जबकि अभी 2700 आदमी दिल्ली जलबोर्ड के हैं। और 700 ठेकेदार के हैं। 2008 में साढ़े आठ हज़ार कर्मचारी थे। कुछ रिटायर हो गए और कुछ की रिटायमेंट से ही पहले सीवर में काम करने की वजह से होने वाली बीमारियों से मौत हो गई। उनमें से कुछ के बच्चों को हमने नौकरी दिलवाई है। चुनाव में सभी ठेके के कर्मचारियों को पक्का करने का वायदा भी आप ने किया था। पर अमल नहीं किया।

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बिड़लान बताते हैं कि 2000 से पहले इस तरह के हादसों में किसी सीवर कर्मचारी की मौत नहीं हुई। क्योंकि साढ़े आठ हज़ार सीवर कर्मचारी था। सीनियर आदमी जूनियर को बताता था कि ये काम इस तरीके़ से होगा। उसे हम ट्रेनिंग देते थे। जब वो बिल्कुल ट्रेंड हो जाता था तब जाकर हम उसे सीवर में उतारते थे। वो सुरक्षित निकलता था। उसे गैस के बारे में पता रहता था। उसे लेन के बारे पता रहता था। सीवर हटने के बाद जो शील्ड होती है उसके नीचे भी गैस होती है। ऊपर पपड़ी है उसके नीचे भी गैस होती है। सीवर काले रंग का हो तो पता चल जाता है। सफेद रंग का हो तो भी पता चल जाता है कि सीवर के अंदर गैस है। सीवर के अंदर अगर जिंदा कॉकरोच है तो भी पता चल जाता है कि सीवर के अंदर गैस नहीं है।

ठेकेदार किसी को भी काम के लिए पकड़ लाते हैं जिन्हें सीवर में काम करने की कोई जानकारी नहीं होती और नतीजा ये मौतें हैं। हालांकि ठेकेदारों के लिए गाइडलान बनाई गई है। पर वे उस पर अमल नहीं करते और उनके खि़लाफ़ अब तक कोई कार्रवाई भी नहीं हुई।

पर डीएलएफ मोतीनगर और भाग्यविहार जैसे हादसे बताते हैं कि ठेकेदारों के इतर भी लोग और कंपनियां किसी को भी सेप्टिक टैंकों में उतार रही है। कारण कि ना तो उतरने वाले को ख़तरे की जानकरी होती है और ना उतारने वाले को। करने वाले के पास काम नहीं है। करवाने वाले के पास विकल्प नहीं है। लोगों को नहीं पता अगर उन्हें टैंक साफ करवाना है तो कहां जाना है, किससे करवाना है। किसी की जान भी जा सकती है। इसके लिए सज़ा और जुर्माना दोनों।

आखि़र विज्ञापनों में छाए रहने वाले प्रधानमंत्री और दिल्ली के मुख्यमंत्री ये प्रचार क्यों नहीं करते कि सीवर-सेप्टिक टैंक, नालों में किसी व्यक्ति को घुसाकर सफाई करवाना गै़रकानूनी है। और यदि कोई सफाई करने चला भी जाता है तो उसे क्या-क्या सावधानियां बरतनी हैं। इन जगहों पर जहरीली गैस भरी होती हैं जो आपकी जान ले सकती है। क्यों नहीं नागरिकों को ये जानकारी दी जा रही है। जबकि इन जानकारियों के अभाव में एक के बाद एक सफाई कर्मचारी अनजाने में एक-दूसरे को बचाने के लिए जहरीली गैसों का शिकार हो रहा है। और कुछ ही पलों में कई मौतें एक साथ हो जाती हैं। और ये सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा।

अधिकारिक तौर पर अगर 2700 सरकारी कर्मचारी और 700 ठेकेदार के कर्मचारी हैं तो क्या इतने लोगों से पूरी दिल्ली के सीवरों-सेप्टिक टैंकों नालों की सफाई संभव है? अगर नहीं तो फिर काम कैसे चल रहा है? क्या आयकर अधिकारी, आईआईटी शिक्षित केजरीवाल इतना हिसाब लगाने में नाकाम रहे हैं। ‘आम’ आदमी की सरकार ने अब तक इस दिशा में कदम क्यों नहीं उठाए।

देश और दिल्ली में रहने वाला हर वो दिहाड़ी मज़दूर जिसे रोज़ कमाना रोज़ खाना है सीवर-सेप्टिक टैंक, गंदे नालों की जहरीली गैसों का आसान शिकार है।

जाला कहते हैं अगर ऐसी वारदातें होती हैं तो सिर्फ़ कान्ट्रैक्टर पर ही नहीं प्रिंसिपल एम्पलॉयर पर भी हमारा आयोग कड़ी कार्रवाई करता है।

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अंगद, मां पार्वती और पिता बीरबल

इनकी कड़ी कार्रवाई के नमूने देखिये। 9 सितंबर 2018 को मोती नगर दिल्ली में डीएलएफ की दुर्घटना में मृतक विशाल का परिवार स्वयं अदालतों के धक्के खा रहा है। कंपनी के जो लोग गिरफ्तार हुए सबकी जमानत हो चुकी है। विशाल के भाई अंगद का कहना है कि कंपनी की तरफ से हमसे अब तक किसी तरह का कोई संपर्क नहीं किया गया है। कोई मुआवज़ा-सहायता नहीं दी गई। बस दिल्ली सरकार की तरफ से 10 लाख का चेक मिला है।

भाग्य विहार, प्रेम नगर (रोहिणी) के मामले में मकान मालिक गुलाम मुस्तफ़ा एक महीने की जेल काटकर आ चुका है। पीड़ितों का कहना है कि वो भी हमारी ही तरह ग़रीब है वो क्या मुआवज़ा देगा। रामवीर जिसने अपने दोस्तों की जान बचाने के लिए अपनी जान दांव पर लगा दी उसे ईनाम की जगह आरोपी बनाकर 35 दिन जेल में सड़ा दिया।

जाला जी अगर आप समस्या की सही नब्ज़ नहीं पकड़ेंगे तो आएं-बाएं गाएंगे। और आपको ऐसे प्रिसिंपल आरोपी मिलते रहेंगे जिनका दरअसल कोई दोष ही नहीं।

सरकार, कल्याणकारी संस्थाओं और पुलिस-प्रशासन को अपना पल्ला झाड़ने के लिए कोई मुर्गा चाहिये और वो आम-गरीब नागरिक के अलावा और कौन हो सकता है।

(वीना दिल्ली जनचौक की स्टेट हेड हैं।)

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