व्यभिचार से पैदा हुई संतान का पिता कौन होगा?

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2019 में एक फिल्म आई थी। उस फिल्म का नाम था – पति, पत्नी और वो। 2025 में भारत के सर्वोच न्यायालय के सामने केस आया। उस केस पर अगर फिल्म बने तो उसका नाम हो सकता है- पति, पत्नी, वो और बच्चा।

28 जनवरी 2025 के दिन सुप्रीम कोर्ट एक आदेश देता है। उस आदेश के अनुसार पत्नी के व्यभिचार से पैदा हुई संतान का पिता, उसके पति को माना गया, न कि पत्नी के प्रेमी को।

क्या किसी औरत के कह देने मात्र से ही यह माना जा सकता है कि उसकी संतान व्यभिचार के परिणाम स्वरूप हुई है? यानि अगर कोई औरत कह दे कि मेरी संतान फलाने पुरुष के साथ विवाह के बाहर बनाए गए यौन-संबंधों की देन है तो क्या इतने भर से मान लिया जाना चाहिए कि वह औरत सच बोल रही है।

संदर्भ

इस केस में चार किरदार हैं। पति, पत्नी, बेटा, और पत्नी का प्रेमी। इनको A, B, C और X मान लेते हैं। A पति, B पत्नी, C बेटा, और X प्रेमी। सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर में दी गई डीटेल्स के अनुसार A और B की शादी 16 अप्रैल 1989 को हुई थी। 1991 में उनसे एक बेटी हुई। 11 जून 2001 को उनसे एक बेटा यानि C पैदा होता है। कोचीन के म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में C के जन्म प्रमाणपत्र में उसके पिता के नाम के तौर पर A का यानि पति का नाम लिखा गया। इस दौरान A और B के बीच मतभेद उभरते हैं और वे अलग रहने लगते हैं।

2006 में एक फैमिली कोर्ट ने उन दोनों की तलाक की अर्जी को स्वीकार करते हुए। उन्हें तलाक दे दिया। इसके बाद इस केस में एक नया आयाम जुड़ा। B यानि पत्नी कोचीन के म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में अर्जी देती है कि उसके बेटे के जन्म प्रमाणपत्र में X के नाम को पिता के रूप में दर्ज किया जाए।

यानि B ने कॉरपोरेशन से कहा कि उसके बेटे का पिता A नहीं,  बल्कि X है। पत्नी कह रही है कि उसके बेटे का पिता उसका पति नहीं बल्कि X है और उसके बेटे के जन्म प्रमाणपत्र में पिता का नाम वो लिखा जाए जो X का नाम है। कॉरपोरेशन ने कहा की वे केवल कोर्ट के आदेश के आधार पर ही ऐसा कर सकता है।

अब शुरू होती है कानूनी व्याख्याओं की लंबी प्रक्रिया और अंत में 28 जनवरी 2025 को सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आता है कि C के जन्म प्रमाणपत्र में पिता के स्थान पर X का नहीं, बल्कि A का ही नाम लिखा जाएगा।

उस निर्णय के बारे में थोड़ा बहुत सुनकर जो समझ बनती है वह उस समझ से कमजोर है जो पूरा फैसला पढ़ने के बाद बनती है। सामान्य बुद्धि से सोचने पर लग सकता है कि जब औरत कह रही है कि उसका बेटा A से नहीं, X के साथ संबंधों के परिणाम स्वरूप पैदा हुआ है तो मान लेना चाहिए कि वह सही कह रही है।

लेकिन सवाल यह उठता है कि औरत की बात को सही मान लेने का आधार क्या हो सकता है? अगर कोई औरत यह कहे कि पति के अलावा भी उसके एक से ज्यादा पुरुषों के साथ सबंधों के फलस्वरूप उसकी संतान पैदा हुई है तो क्या उसकी इस बात को भी सही मान लिया जाए।

अनेक लोग कहेंगे की जिस पुरुष या जिन पुरुषों पर संदेह जाहिर किया जा रहा है उन सभी का डीएनए टेस्ट करवा लिया जाए। सवाल यह है कि क्या डीएनए टेस्ट की इजाज़त आसानी से मिल जानी चाहिए। भारत के कानून में वह कौन सी स्थिति है जब ऐसे मामले में कोर्ट के द्वारा डीएनए टेस्ट करवाया जा सकता है।

पेटरनिटी और लेजीटिमेसी

इस केस को ठीक से समझने के लिए दो शब्दों के कानूनी मायने समझना उचित होगा। एक शब्द है पेटरनिटी और दूसरा शब्द है लेजीटिमेसी। पेटरनिटी का संबंध विज्ञान से है। पेटरनिटी विज्ञान आधारित डीएनए टेस्ट के माध्यम से निर्धारित होती है। जबकि लेजीटिमेसी का संबंध पिता होने के संदर्भ में कानूनी अनुमान से है। किन्हीं आधारों पर यह अनुमान लगाया जाता है कि किसी संतान का पिता कौन हो सकता है?

भारतीय कानून में लेजीटिमेसी को तय करने की कुछ शर्तें हैं। कुछ ही देर में मैं उन शर्तों के बारे में बताऊंगा।

जिस केस के हवाले से हम इस समय लेजीटिमेसी और पेटरनिटी की अवधारणा को समझने की कोशिश कर रहे हैं उस केस में 2003 में A को C का वैध पिता मान लिया गया था। लेकिन 2006 में A और B के बीच तलाक हो जाने के बाद पत्नी ने अपने बेटे के लेजीटिमेट पिता के लेजीटिमेसी होने को चुनौती दे दी। B ने कहा कि C का पिता A नहीं है, बल्कि X है।

सेक्शन 112

अब कोर्ट को यह तय करना था कि C का पिता A है या X। यानि C का पिता उसकी मां का पूर्व-पति है या उसका पूर्व-प्रेमी। B के द्वारा कोर्ट से मांग की गई कि वह X का डीएनए टेस्ट करवाने का आदेश दे। लेकिन कोर्ट ने ऐसा करने से मना कर दिया। कोर्ट ने इंडियन एवइडेंस एक्ट 1872 की धारा 112 का हवाला देकर कहा कि जिन परिस्थितियों में C का जन्म हुआ है, उन परिस्थितियों में X का डीएनए टेस्ट नहीं करवाया जा सकता है।

आइए समझते हैं कि इंडियन एविडेंस एक्ट 1872 की धारा 112 में क्या लिखा हुआ है। इसमें बताया गया है कि विवाह के दौरान किसी व्यक्ति को किसी बच्चे का वैध पिता मानने के निर्णायक प्रमाण क्या-क्या हैं।

पहले में धारा 112 को जस का तस पेश कर देता हूं।

“Sec. 112 0f ।nd।an Ev।dence Act 1872

Birth during marriage, conclusive proof of legitimacy.

The fact that any person was born during the continuance of a valid marr।age between his mother and any man, or within two hundred and eighty days after its dissolution, the mother remaining unmarried, shall be conclusive proof that he is the legitimate son of that man unless it can be shown that the parties to the marriage had no access to each other at any time when he could have been begotten.”

यानि यह तथ्य कि किसी भी व्यक्ति का जन्म उसकी मां और किसी पुरुष के बीच वैध विवाह की निरंतरता के दौरान हुआ था, या शादी के खत्म हो जाने के दो सौ अस्सी दिनों के भीतर मां के अविवाहित रहने की स्थिति में हुआ था, इस बात का निर्णायक सबूत होगा कि वह उस व्यक्ति का वैध पुत्र है, जब तक कि यह नहीं दिखाया जा सके कि विवाह के पक्षों के पास किसी भी समय एक-दूसरे तक पहुंच नहीं थी जब वह पैदा हो सकता था।”

यह धारा दो स्थितियों के बारे में भिन्न प्रमाणों को मान्यता देती है। एक स्थिति वह है जब बच्चे की मां और पुरुष के बीच शादी कायम है। दूसरी स्थिति वह है जब बच्चे की मां और पुरुष के बीच तलाक हो गया हो। पहली स्थिति में कोई पुरुष उस बच्चे का वैध पिता होने से इंकार कर सकता है, अगर वह यह साबित कर दे कि जब वह बच्चा पैदा हो सकता था, तब उसकी पहुंच उस बच्चे की मां तक नहीं थी।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश के पेरा 29 में पहुंच यानि एक्सेस का मतलब समझाया है। सुप्रीम कोर्ट ने एक्सेस की व्याख्या करते हुए लिखा है कि “Access’ merely refers to the possibility of an opportunity for marital relations”. इसका मतलब यह है कि बच्चे की मां और पुरुष के बीच मेरिटल रिलेशन स्थापित हो जाने से इंकार करने का पक्का सबूत देने की बात नहीं है।

केवल यह स्थापित करना होगा कि उनके बीच मेरिटल रिलेशन स्थापित होने की संभावना नहीं थी। इस केस में यह स्थापित नहीं हो पाया कि बेटे के पैदा होने से पहले पति और पत्नी में मेरिटल रिलेशनशिप स्थापित होने की संभावना तक नहीं थी। इसलिए कोर्ट ने X का डीएनए टेस्ट करवाने से इनकार कर दिया।

क्योंकि पत्नी यह प्रमाणित नहीं कर सकी कि जिस दौरान बच्चे का जन्म हुआ, उस दौरान उस तक उसके पति की पहुंच की संभावना नहीं थी और दोनों के बीच मैरिटल रिलेशन नहीं बन सकते थे। क्योंकि बच्चे का जन्म 2001 में हुआ और पति और पत्नी ने 2003 में अलग रहना शुरू किया, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि गर्भाधान के समय उन दोनों के बीच मेरिटल रिलेशन बनने की संभावना नहीं थी। यही कारण है कि पत्नी के यह कहने पर भी कि उसका बेटा उसके पूर्व-पति से नहीं है, बल्कि उसके पूर्व-प्रेमी से है, कोर्ट ने X का डीएनए टेस्ट करवाने की प्रार्थना खारिज कर दी।

इस केस में विज्ञान की मदद से पैटरनिटी स्थापित नहीं की गयी। केवल लेजीटिमेसी तय की गयी और कहा गया कि A ही C का वैध पिता है।

इंडियन एविडेंस एक्ट 1872 की धारा 112 यह भी कहती है कि शादी के डिससॉल्व हो जाने यानि खत्म हो जाने के 280 दिनों के भीतर होने वाली संतान का वैध पिता, स्त्री के पूर्व पति को ही माना जाएगा। अगर उस दौरान वह स्त्री शादी नहीं करती है तो। यहां तक तो बात हुई वर्तमान कानून की। अब थोड़ा सा इस केस के सांस्कृतिक पक्ष को भी समझ लेते हैं।

सांस्कृतिक मान्यताएं

आखिर संतान को पिता या पुरुष के नाम से ही क्यों पहचाना जाता है? अगर इस तरह के सवालों पर कल्चरल सिम्बोलिज्म के नजरिये से विचार किया जाए तो हमारे सामने कई दिलचस्प तथ्य उभरते हैं।

भारतीय मिथकों में ऐसे पात्र भी हैं जिन्हें महान समझा जाता है और जो पत्नी के व्यभिचार के परिणाम स्वरूप पैदा हुए हैं। यह अलग बात है की उन मिथकों में पत्नी द्वारा विवाह के बाहर यौन-संबंध बनाने को व्यभिचार नहीं कहा गया। क्योंकि उन मामलों में पत्नी द्वारा व्यभिचार करने को पितृसत्ता की स्वीकृति रही है। उन मिथकों में यह माना गया कि स्त्री की यौनिकता, उसके पति की संपत्ति है और पति अपनी पत्नी को कह सकता है कि वह पति का हित साधने के लिए किसी और पुरुष के साथ बिस्तर साझा करे।

एंथरोपोलॉजिस्ट लीला दुबे ने अपने लेख “धरती और बीज” में लिखा है कि महाभारत में संतान पाने के लिए पति का विकल्प चुनने का भी उल्लेख है। (स्त्री के लिए जगह में. संपादक राजकिशोर. वाणी प्रकाशन. पृष्ठ 51)।

27 सितंबर 2018 से पहले तक इंडियन पेनल कोड के सेक्शन 497 के तहत भारतीय कानून में पति को अपनी पत्नी की अपनी संपत्ति समझने का अधिकार मिला हुआ था। 27 सितंबर 2018 के भारत के सर्वोच न्यायालय ने सेक्शन 497 के कुछ प्रावधानों को रदद कर दिया, जिनमें से पत्नी को अपनी संपत्ति समझना भी एक प्रावधान था। इस बात को और समझने के लिए 27 सितंबर 2018 से पहले के सेक्शन 497 का अध्ययन किया जा सकता है।

औरत निर्जीव और पुरुष सजीव

अगर पीछे जाएं तो कुछ पारम्परिक कानूनों में माना गया है कि स्त्री खेत होती है। ऐसी प्रतीकात्मकता में माना गया है कि स्त्री का मालिक पति है। इसलिए उसकी सेक्सुअलिटी के प्रतिफल पर भी मालिक का अधिकार है। भारतीय संस्कृति और ज्ञान परंपरा में स्त्री को धरती और पुरुष को बीज माना गया है। बीज और खेत की प्रतीकात्मकता की ज्यादा गहरी समझ के लिए कुछ स्कॉलर्स को पढ़ना मददगर हो सकता है। लीला दुबे, ईरावती कर्वे, और शम्शुल इस्लाम ने इस विषय पर अध्ययन किया है।

लीला दुबे का एक लेख है जिसका शीर्षक है “धरती और बीज” । यह लेख राजकिशोर द्वारा संपादित किताब “स्त्री के लिए जगह” में प्रकाशित हुआ है। इसी किताब में शम्शुल इस्लाम का भी एक लेख है। उस लेख का शीर्षक है “क्योंकि औरतें तुम्हारी खेती हैं”।

लीला दुबे ने अपने लेख के अंत में लिखा है कि – “धरती और बीज के रूपक के माध्यम से मानवीय प्रजनन में स्त्री और पुरुष के असमान योगदान की जो कल्पना की गयी है। वह एक ऐसी व्यवस्था को तार्किकता प्रदान करती है जिसमें स्त्री उत्पादक संसाधनों से कट जाती है, उसका अपनी श्रम शक्ति पर कोई नियंत्रण नहीं रहता और वह अपने बच्चों पर अधिकार से भी वंचित रहती है”। (वही, पृष्ठ 64)।

इसी लेख में लीला दुबे लिखती हैं कि “धरती को जोता जाता है, चीरा जाता है, और खोदा जाता है। संभोग के लिए जुताई एक आम रूपक है। पुरुष अपनी कामेच्छा व्यक्त करने, संकेत देने, और स्त्री व उससे पैदा हुई संतान पर अपना हक जमाने के लिए इस शब्द योजना का उपयोग करता है। (वही, पृष्ठ 62)।

व्यभिचार, जाति, और लेजीटिमेसी

यहां पर इस तथ्य को रेखांकित करना जरूरी है कि संतान को पिता के नाम से जाने जाने में भी इंटरसेक्शनेलिटी का विचार काम करता है। अगर स्त्री की जाति पुरुष की तुलना में काफी निम्न हो तब संतान को पुरुष के नाम से नहीं जाना जाता। (वही, पृष्ठ 63)। निश्चित तौर पर पारंपरिक नियमों में कास्ट और जेंडर इंटरसेक्शनेलिटी एक मजबूत कारक है जो पैटरनिटी और लेजीटिमेसी के सवाल को और भी जटिल बना देता है।

अपने उसी लेख में लीला दुबे ने महाभारत, सूश्रुत संहिता, आदि ग्रंथों के संदर्भ लेते हुए भारतीय संस्कृति में पैबस्त धरती और बीज की अवधारणा की निरंतरता को दिखाया है।

लीला दुबे ने लिखा है कि “गोंड, ओरांव, और मुंडा जैसी खेतिहर जातियों में भूमि के संदर्भ में पितृवंशावली का सिद्धांत ज्यादा मजबूत है। चाहे वह सामुदायिक नियंत्रण की जमीन हो, पितृवंश के कब्जे वाली जमीन हो, या  पितृवंशी कुटुंब की दो या तीन पीढ़ियों का पारिवार ही हो। स्त्रियों को बेटी या पत्नी किसी भी रूप में भूमि का स्वतंत्र अधिकार नहीं है। जिस विधवा के बच्चे छोटे हैं, उसका पति की भूमि में हक है, लेकिन यह हक सीमित है”। (वही, पृष्ठ 61-62) ।

धरती और बीज की प्रतीकात्मकता

लीला दुबे ने आगे लिखा है कि धरती और बीच का रूपक “न सिर्फ हिंदू समुदाय में, बल्कि पितृवंशावली मानने वाले सभी समुदायों में प्रचलित है। इनमें जनजातियां भी शामिल हैं। अधिकांशत: भारतीय मुसलमानों में भी यह अवधारणा मान्य है। इसका उल्लेख उनके ग्रंथों में भी है। यही बात ईसाई धर्म ग्रंथों और यूनानी मिथकों के विषय में भी कहीं जा सकती है”। (वही, पृष्ठ 51)।

इस्लाम में औरत को खेत समझने के रूपक को शम्शुल इस्लाम ने अपने एक लेख में उजागर किया है। शम्शुल इस्लाम एक समाज वैज्ञानिक है। उनका एक लेख है “क्योंकि औरतें तुम्हारी खेती हैं”। अपने इस लेख में वे लिखते हैं कि “कुरान के अध्याय सूरतुलब कर में इस बात को बहुत स्पष्ट करके लिखा गया है कि “तुम्हारी औरतें तुम्हारे लिए ऐसी हैं, जैसे खेती की जमीन इसलिए जिस तरह चाहे उसमें खेती करो और भविष्य का सामान अर्थात औलाद पैदा करो”। (वही, पृष्ठ 66)।

औरत को जमीन, खेत आदि समझने का विचार पितृसत्ता पर टिके हुए तमाम धर्मों में मिलता है।

मनुस्मृति: स्त्री निर्जीव है

मनुस्मृति के अध्याय 9 के श्लोक 33 में लिखा हुआ है कि स्त्री क्षेत्र रूप कही गयी है और पुरुष को बीज रूप कहा गया है। यानी स्त्री जमीन है जिसे जोता जाता है। (मनुस्मृति. 9:33. पृष्ठ 297)। मनुस्मृति के अध्याय 9 के श्लोक 35 में लिखा हुआ है कि “बीज और क्षेत्र में बीज की ही प्रधानता” होती है। (मनुस्मृति. 9:35. पृष्ठ 298)। मनुस्मृति ने बीज और जमीन के रूपक का इस्तेमाल करके संतान पर पुरुष का अधिकार स्थापित किया है।

मनुस्मृति, स्त्री और पुरुष के बीच संभोग को खेती करने के समकक्ष बताती है। मनुस्मृति के अध्याय 9 के श्लोक 36 में संभोग को खेत-जोतना कहा गया है। इस श्लोक में लिखा हुआ है कि- “समय से जोते हुए खेत में जैसा बीज बोया जाता है वह बीज उसमें अपने गुणों के अनुसार ही उत्पन्न होता है”। (मनुस्मृति. 9:36. पृष्ठ 298)। यानी स्त्री निष्क्रिय है, निर्जीव है। केवल पुरुष ही सजीव है।

मनुस्मृति में पत्नी के व्यभिचार को एक खास शर्त के आधार पर सही माना गया है और वह शर्त यह है कि पत्नी, पति की सहमति या पति के आदेश का पालन करने के लिए व्यभिचार कर सकती है। मनुस्मृति के अध्याय 9 के श्लोक 59 में लिखा हुआ है कि – “निज स्वामी से संतान न होने पर स्त्री पति की आज्ञा से अपने देवर व अन्य सपिंडत पुरुष से इच्छित पुत्र का लाभ कर सकती है”। (मनुस्मृति. 9:59. पृष्ठ 301)।

यहां तक कि मनुस्मृति में किस तरह की विधवा, को गर्भवती करने का नियम भी बताया गया है। मनुस्मृति के अध्याय 9 का श्लोक 60 कहता है कि गुरु के द्वारा नियुक्त पुरुष रात के समय, चुपचाप किसी विधवा में एक पुत्र उत्पन्न कर सकता है। (मनुस्मृति. 9:60. पृष्ठ 301)।

गीता प्रेस और स्त्री द्वेष

गीता प्रेस गोरखपुर से छपने वाली अनेक पुस्तकें उस अवधारणा को प्रसारित करती हैं जो स्त्री को पुरुष का सेवक और गुलाम समझने के विचार से आकार लेती है। इस खतरनाक अवधारणा को प्रसारित करने वाले साहित्य के रूप में गीता प्रेस से छपने वाली कुछ किताबों को पढ़ना चाहिए। जैसे नारी शिक्षा, गृहस्थ कैसे बने?, स्त्रियों के लिए कर्तव्य शिक्षा, दाम्पत्य जीवन का आदर्श, और कल्याण का नारी अंक।

ये वो तमाम किताबें हैं जो स्त्री को पुरुष की गुलाम मानती हैं। इसलिए इस केस के कानूनी पक्ष को समझने के साथ-साथ इसके सांस्कृतिक और धार्मिक पक्षों को भी समझाना चाहिए।

साथ ही यह भी समझा जाना चाहिए कि भारत में भले ही हिंदू साम्प्रदायिकता और मुस्लिम कठमुल्लाबाद एक दूसरे के खिलाफ दिखते हों, लेकिन स्त्रियों को पराधीन बनाए रखने की अधारणाओं को बचाए रखने में दोनों में दोस्ती है।

वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि तीन तलाक से मुस्लिम महिलाओं को मुक्ति दिलाने का दावा करने वाले, गीता प्रेस जैसे स्त्री विरोधी प्रकाशन संस्थान को गांधी शांति पुरस्कार देते।

(बीरेंद्र सिंह रावत, शिक्षा विभाग, दिल्ली-विश्वविद्यालय)

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