Thursday, April 25, 2024

क्यों ज़रूरी है शाहीन बाग़ पर लिखी इस किताब को पढ़ना?

पत्रकार व लेखक भाषा सिंह की किताब ‘शाहीन बाग़: लोकतंत्र की नई करवट’, को पढ़ते हुए मेरे ज़हन में यह सवाल कौंधता रहा कि आखिर इस किताब को क्यों आज पढ़ा जाये। क्या आज भी यह किताब और शाहीन बाग़ आंदोलन हम भारतीय नागरिकों के लिए ज़रूरी है। इस किताब का हर चैप्टर मेरे इस सवाल का जवाब देता रहा। मैं सना सुल्तान क्या मेरी शिनाख्त एक दबी सहमी अपने हक़ से महरूम एक मुस्लिम औरत के रूप में ही की जाएगी या फिर मुझे बराबरी के हक़ की दावेदारी करने वाले भारतीय नागरिक के तौर पर देखा जायेगा। शाहीन बाग़ किताब में जितनी मुस्लिम महिलाओं की कहानियां दर्ज हैं उन सब में मुझे अपना अक्स नज़र आया। हम मुस्लिम औरतें वह नहीं हैं जो अक्स मीडिया और राजनीति में दिखाई जाती हैं। इस बात की तस्दीक भाषा सिंह की यह किताब पूरे दमखम के साथ करती है।

“शाहीन बाग़ आंदोलन भारतीय लोकतंत्र में लिखा गया एक ऐसा अध्याय है, जिसकी ज़िन्दा मिसालों की गूंज बहुत लंबे समय तक फ़िज़ाओं में रहेगी। यहां से जो ऊर्जा पैदा हुई, वह रूप बदलकर तमाम गतिविधि केंद्रों में संचित हो जाएगी।” ये पंक्तियां हमें इस ऐतिहासिक और सामाजिक आंदोलन की लम्बी विरासत और भविष्य की दावेदारी का एहसास करती हैं। 

शाहीन बाग़ किताब पढ़ते हुए लगता है यह एक पूरा नया संसार हमारे सामने खुल गया है हमें मौजूदा राजनीति और समाज के दांवपेंच को समझने का नया नज़रिया मिलता है। शुरुआती दिनों में जब कुछ मुस्लिम महिलाएं शाहीन बाग़ ( दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से जुड़ा एक छोटा सा मोहल्ला) में नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA )  के विरोध में बाहर आईं तो लगा ही नहीं था कि यह आंदोलन एक दिन राष्ट्र-व्यापी आंदोलन का रूप धारण कर लेगा। इस किताब में दिल्ली सहित देश के उन तमाम इलाकों में चले आंदोलन का ज़िक्र है जहां औरतों ने मोर्चा संभाला। इस किताब के ज़रिये 20 राज्यों में फैले इस आग को दस्तावेज़ में बांधने की कोशिश की गई है।

यह किताब उस अभूतपूर्व संघर्ष का एक ज़िन्दा दस्तावेज़ है, जहां से शायद पहली बार मुस्लिम औरतों ने इसकी डोर संभाली और तंग सोच वाले इलाक़ों से आई औरतों ने पूरे देश को उनके लिए सोचने का नज़रिया बदलने का मौका दिया। अपने ही मोहल्ले में परदे में रहने वाली औरतें अपने गालों पर तिरंगा चिपकाए इतनी तादाद में धरने पर बैठीं।

यह किताब अपने अंदर महज़ कुछ पन्ने समेटे हुए नहीं है, बल्कि ये मुसलमान औरतों की ताक़त की आँखों देखी सच्चाई बयान करती है, जो शायद सदियों से कहीं किसी किताब में भी नहीं दिखी थी। भाषा सिंह की यह किताब, भारतीय राजनीतिक फलक पर हुई अहम करवट को सुन्दर और शांतिपूर्ण ढंग से सहेजने की कोशिश करती है। इसकी सब से अहम बात मुझे यह लगी कि इस में मुस्लिम औरतों की ज़बानी ही उनकी कहानी और आंदोलन को पिरोया गया है।   

तीन काले कानून यानि CAA, NRC और NPR  के विरोध में सौ दिन से कुछ अधिक चले इस आंदोलन ने देश में विरोध-प्रदर्शन करने का  एक बिल्कुल नायब तरीका पेश किया। ये कानून संविधान की मूलभावना और धर्म निरपेक्ष को चुनौती दे रहे थे। ऐसे में जो खबरें आ रही थीं उन से देशभर के मुसलमानों का परेशान होना लाज़मी था। क्योंकि उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने कि साज़िश इसके ज़रिये रची जा रही थी। लेकिन सत्ताधारी के इन मंसूबों को कामयाब न होने देने के लिए मुस्लिम औरतों ने कमर कस ली थी। आज़ाद भारत के नागरिक आंदोलनों में शाहीन बाग़ निश्चित तौर पर उस आंदोलन का प्रतीक बन गया है जो न सिर्फ दिल्ली के शाहीन बाग़ में सिमट कर रहा बल्कि देश के अलग-अलग राज्यों में सैकड़ों शाहीन बाग़ के रूप में फैल गया।

राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित भाषा सिंह की यह किताब दिल्ली सहित देश के कोने-कोने में फैले उस आंदोलन की कहानी है जिसकी हीरोइनें मुस्लिम बहुल इलाक़ों की दादियां, नानियां, औरतें और बच्चियां थीं। वह सब कड़कड़ाती ठण्ड, बारिश व पुलिसिया आतंक को झेल कर भी जम्हूरियतत को बचाने सड़कों पर डटी रहीं ।

किताब में ख़ास बातें –

जिस तरह हमारे संविधान की शुरुआत संविधान की प्रस्तावना से होती है उसी तरह शाहीन बाग़ किताब की शुरुआत ‘अमन का राग’ से होती है, जो हमें संविधान की मूल भावना से हमे जोड़ता है। हिंदी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर कवि शमशेर बहादुर सिंह की आज़ादी की कविता की याद दिलाती है जिसका शीर्षक “अमन का राग” जो आज़ादी के सात साल बाद लिखी गई। तो वहीं मशहूर उर्दू शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म हम देखेंगेसे भी हमें जोड़ती है। इस तरह से हम जुड़ते हैं देश के व्यापक सपने से जिन्हें ज़िंदा रखने की लड़ाई शाहीन बाग़ की नानियां, दादियां लड़ रही थीं। शाहीन बाग़ आंदोलन ने भारत की प्रस्तावना को खूबसूरत ग्राफिटी में चस्पा किया ।

नागरिकता संशोधन कानून यानि CAA, NRC और NPR के खिलाफ और लोकतंत्र के पक्ष में खड़े होने के लिए शाहीन बाग़ी औरतों की जितनी तारीफ की जाये कम है। इन कानूनों को धर्म से जोड़ने का खेल शुरू हुआ तो इस प्रतिकूल माहौल में लोगों को बाबा साहब आंबेडकर याद आने ज़रूरी थे। बाबा साहब और स्वतंत्रता सेनानियों की तस्वीरें चारों ओर दिखाई दे रही थीं। शाहीन बाग़ में लगे नारे, लोगों की आवाज़ें , गीत – नज़्में, गज़लें मिसाल हैं । सत्ता में बैठे सत्ताधारियों लोगों की विनाशकारी सोच और पूरे आंदोलन को देश के खिलाफ बताने वाली गोदी मीडिया को भी यह किताब बखूबी बेनकाब करती है।

अध्याय नई करवटसे शुरू हुआ ये फसाना आख़िरी अध्याय आगे का रास्तातक कई करवटों की दास्तां और किरदारों से भरा है। इसके एक अध्याय ‘आवाज़ें और सूरज से सामना’ में देशभर में फैले शाहीन बाग़ों की महिलाओं ने अपनी बात लेखिका के सामने रखी हैं। वो कहती हैं कि आंदोलन ने देश के सामने सिर्फ मुस्लिम महिलाओं की भूमिका नहीं बदली, बल्कि घर के अंदर परिवार में भी उनके आपसी रिश्ते भी बदल दिये हैं। घर के मर्द घरों में बच्चों को देखते और उनकी औरतें आंदोलन में हिस्सा लेतीं। कई औरतें सड़क पर पहली बार अकेले निकलीं और सीधे रात-रात भर धरने में शिरकत करने लगीं। यह अपने आप में ऐतिहासिक बदलाव था।

इस दौरान शाहीन बाग़ की दादियों-नानियों ने अपने बचपन की कुछ धुँधली आज़ादी की यादों को भी इस आंदोलन में साझा किया। उन अनगिनत जेल की यात्राओं से भरी कहानियों ने अपनी नातिनों और पोतियों को हँसते हँसते आगे बढ़ने और सच्चाई के साथ खड़े रहने का हौसला भी दिया।

इस आंदोलन की एक ख़ास बात ये भी रही कि औरतों ने अपनी ताकत उसी चीज़ को बनाया जिस चीज़ को औरतों की कमज़ोरी के तौर पर देखा जाता है जैसे बच्चे और घर परिवार। उन्होंने अपने घर के पास ही आंदोलन मोर्चा खोला और अपने बच्चों की पाठशाला भी वहीं लगाई। इसने इस आंदोलन को रूहानी मज़बूती दी। आंदोलन में शाहीन बाग़ की औरतों ने जो तौर-तरीके इस आंदोलन को आगे ले जाने में अपनाए उसी तरह भाषा सिंह ने उनकी बातों को पूरी बेबाकी से रखा। इस तरह हमारे सामने आईं शाहीन बाग़ की शाही ने। यहां इस बात का खास उल्लेख जरूरी है कि इतने लंबे आंदोलन के दौरान शाहीन बाग़ नो छेड़छाड़ जोनबना रहा। भाषा सिंह बतौर पत्रकार भी बताती हैं कि वे रात को बहुत आराम से  2- 3 बजे अपने घर लौटीं । और इस पूरे आंदोलन में कहीं किसी औरत और बच्ची के साथ बदतमीज़ी या छेड़छाड़ की खबर सामने नहीं आई, वो भी तब जब पूरी रात औरतें सड़कों पर धरना देती रहीं।

शाहीन बाग़ आंदोलन 15 दिसम्बर, 2019 से लेकर 24 मार्च, 2020 तक चला। भाजपा की केंद्र सरकार ने 11 दिसंबर, 2019 को संसद में नागरिकता संशोधन अधिनियम (2019) पारित किया था। इस के बाद ही यह आंदोलन फूटा जिसके अब तीन साल पूरे होने वाले हैं। यह आंदोलन इतिहास में मुस्लिम औरतों की दिलेरी को दर्ज़ करा गया है।

इस किताब की एक और खासियत है कि इसमें आंदोलन के दौरान जो कला और संस्कृति के अनगिनत रंग फूटे थे उन्हें भी संजोया गया है। इसका मकसद साफ़ है कि सनद रहे कि जब औरतें सड़क पर बैठती हैं तो सृजन की धार कितनी तीखी होती है। यहां मैं आपसे किताब में दर्ज़ कुछ नज़्में साझा कर रही हूं जिन्होंने मुझे भीतर तक हिला दिया। इसमें मेरे दिल के करीब हैं लखनऊ की नौजवान शायर रुबीना अयाज़ की यह लाइनें – 

काले कानून की आग तुमने लगाई

अपनी ही इज़्ज़त खुद तुमने गंवाई

लाठी और गोली भी तुमने चलाई

बेगुनाहों की लाशें भी तुमने बिछाई

इस खाकी वतन पर, लहू जो है टपका

वो तुमसे है मांगे हिसाब

इंकलाब इंकलाब इंकलाब

इंकलाब इंकलाब इंकलाब।

वहीं देखिये बी. कॉम की छात्रा सीमा रेहमान कितने बगावती अंदाज़ में ललकारती हैं। 

पूछता है तिलक से वज़ू चीख़कर,

आमने-सामने रूबरू चीख़कर,

जब मेरा और तेरा एक ही रंग है,

फिर बताओ भला किसलिए जंग है?

इस आंदोलन ने जो तेवर और जज्बा पैदा किया वो अपने आप में बेमिसाल है। आमिर अज़ीज़ की नज़्म से कुछ पंक्तियाँ देशभर में घूमी हैं, उसने सही मायनो में इस आंदोलन से सुलगी ज़िद को ज़ाहिर किया अपनी नज़्म के ज़रिये सत्ता को बताया की हम सब याद रखेंगे, भूलेंगे नहीं।

सब याद रखा जाएगा, सब कुछ याद रखा जाएगा

तुम्हारी लाठियों और गोलियों से जो क़त्ल हुए हैं

मेरे यार सब, उनकी याद में दिलों को बर्बाद रखा जाएगा

सब याद रखा जाएगा

तुम स्याहियों से झूठ लिखोगे, हमें मालूम है

हां हमारे खून से ही हो सही, सच लिखा जाएगा

सब याद रखा जाएगा

… हमीं पे हमला करके, हमीं को हमलावर बताना

सब याद रखा जाएगा, सब कुछ याद रखा जाएगा। …

दिल्ली के शाहीन बाग़ में अनगिनत कवि, एक्टिविस्ट आये और उन्होंने अपनी रचनाओं का पाठ किया इन्हें आंदोलनरत औरतों ने हाथों हाथ लिया। ज़बरदस्त दाद मिली कलाकारों को इसका ज़िक्र भी इस किताब में किया गया है। जब सामाजिक कार्यकर्ता फ़राह नक़वी ने शाहीन बाग़ में इस कविता का पाठ किया तो वाक़ई माहौल देखने वाला था।

दरिया तो भर गई मैं अब सैलाब हूं,

नज़र घुमा मैं अब हर शहर का शाहीन बाग़ हूं।

दबा सके न सौ तूफां, मैं वो परवाज़ हूं,

तू आ के देख औरत हूं और इंक़लाब हूं। 

और आखिरी में गौहर रज़ा के शब्दों में कहें तो यह किताब ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाती दिखती है।

 “जब सब ये कहें – खामोश रहो, जब सब ये कहें कि कुछ न कहो …तब उनको कहो अल्फाज़ अभी तक ज़िंदा हैं, तब उनको कहो, आवाज़ उठाना लाज़िम है”। …-  गौहर रज़ा

(सना सुल्तान स्वतंत्र लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

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