Friday, April 19, 2024

किसान आंदोलन खत्म हो तो कैसे?

तीन विवादित कृषि कानूनों को रद्द करने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा से सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के विरोधी समूहों में जैसी सुखबोध की लहर दिखी, वैसा उल्लास आंदोलनकारी किसानों और उनके संगठनों में नहीं दिखा। उनकी प्रतिक्रिया इस एलान को सावधानी और संदेह के साथ देखने की रही। इसीलिए सरकार और उसके समर्थक जमातों की ये उम्मीद पूरी नहीं हुई कि इस घोषणा के बाद किसान प्रधानमंत्री को धन्यवाद देते हुए और उनका जयगान करते हुए घर वापस चले जाएंगे। चूंकि ये आस पूरी नहीं हुई, इसलिए इसके बाद भाजपा-आरएसएस के इकॉसिस्टम से जुड़े समूहों ने फिर से आंदोलनकारी किसान संगठनों को लांछित करने का अभियान छेड़ दिया है। कहा जा रहा है कि ये संगठन किसान हित के लिए नहीं, बल्कि राजनीतिक मकसद से आंदोलन पर उतरे थे और इसीलिए उन्होंने मांग मान लिए जाने के बावजूद आंदोलन जारी रखा है।

बहरहाल, नरेंद्र मोदी के झुकने पर भाजपा विरोधियों का सुखबोध; और कदम वापस लेने की मजबूरी को भी प्रधानमंत्री का ‘सियासी मास्टर स्ट्रोक’ मानने वाले समूहों का नया आक्रोश- दोनों मौजूदा किसान आंदोलन के ठोस संदर्भ की नासमझी से उपजी प्रतिक्रिया ही हैं। कैसे? इस सवाल को समझने के लिए हमें इस ठोस संदर्भ पर गौर करना होगा।

फिलहाल, मौजूदा किसान आंदोलन को चला रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने प्रधानमंत्री को लिखे एक खुले पत्र में अपनी छह मांगें सामने रखी हैं। इनमें तीन मांगें अपेक्षाकृत पुरानी हैं। जबकि तीन मांगें साल भर से अधिक समय से चल रहे इस आंदोलन के दौरान पैदा हुए हालात से उभरी हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी के लिए कानून बनाना, बिजली विधेयक की वापसी, और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में होने वाले प्रदूषण के लिए पराली जलाने वाले किसानों को दंडित करने के प्रावधान खत्म करने की उनकी मांगें पहले से मौजूद रही हैँ। जबकि किसान आंदोलन के दौरान मरे किसानों के परिजनों को मुआवजा, आंदोलनकारी किसानों पर दायर मुकदमों की वापसी, और यूपी के लखीमपुर-खीरी में अपनी गाड़ी से किसानों को कुचल देने के आरोपी के मंत्री पिता की बर्खास्तगी आंदोलन के दौरान जन्मीं मांगें हैं।

अब यहां यह याद करना उचित होगा कि 2017-18 में भी एक मजबूत किसान आंदोलन खड़ा हुआ था। मध्य प्रदेश के मंदसौर में पुलिस फायरिंग के बाद उस आंदोलन ने एक व्यापक रूप ले लिया था, जिसे राष्ट्रीय स्तर पर संचालित करने के लिए ‘अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समति’ का गठन हुआ था। एमएसपी की कानूनी गारंटी और किसानों की समग्र कर्ज माफी तब किसान आंदोलन की केंद्रीय मांगें थीं।

वह आंदोलन कितना बड़ा था, वह इससे ही जाहिर है कि पर्यवेक्षकों ने उसे आजादी के बाद सबसे व्यापक दायरे में फैला किसान बताया था। उसके बारे में राजनीतिक विश्लेषकों के बीच यह आमराय बनी थी कि 2019 के आम चुनाव में किसानों का असंतोष और उनके आंदोलन की मांगें प्रमुख नैरेटिव होंगे। लेकिन पुलवामा-बालाकोट ने बात बदल दी। बहरहाल, पुलवामा-बालाकोट के परिणामस्वरूप भाजपा को 2014 की तुलना में भी कहीं ज्यादा बड़े बहुमत से लोक सभा चुनाव को जीतने में जरूर कामयाबी मिल गई, लेकिन उससे जमीनी हालात नहीं बदल गए। कृषि और किसानों का संकट- जिसकी वजह से उनका आंदोलन खड़ा हुआ था- अपनी जगह कायम था। इसलिए देर-सबेर किसान आंदोलन का फिर नए रूप में उठना लाजिमी ही था। इसी बीच 2020 में कोरोना महामारी के बीच सरकार ने तीन कृषि कानून बना कर किसानों में जो कुछ बचा है, उसके भी छिन जाने की आशंका पैदा कर दी। उससे मौजूदा आंदोलन खड़ा हुआ।

उन कृषि कानूनों को वापस कराना किसानों के लिए जीवन-मरण का संघर्ष था। बिजली विधेयक को वापस कराना भी उनके लिए एक ऐसा ही मुद्दा है। इस विधेयक के कानून बनने का मतलब होगा कि बहुसंख्यक किसानों की पहुंच से बिजली का दूर होना, जबकि बिजली न सिर्फ उनके जीवन की बेहतर गुणवत्ता के लिए जरूरी है, बल्कि यह खेती-किसानी का एक अहम साधन भी है। दूसरी तरफ जिस संकट में कृषि और किसान पहुंचे हुए हैं, उनसे उनके उबरने के लिए एमएसपी की गारंटी एक बुनियादी शर्त है। मूल रूप से चार साल पहले किसान इसी मांग के लिए आंदोलन पर उतरे थे।

फिलहाल, जीवन-मरण के संघर्ष में किसानों को आंशिक सफलता मिल गई है। लेकिन जो उनका तो असल मुद्दा है, वह अभी भी जहां का तहां हैं। इस परिस्थिति में यह अपेक्षा रखना कि किसानों को अब आंदोलन खत्म कर घर लौट जाना चाहिए, जमीनी स्तर पर देश में बने और लगातार भीषण हो रहे हालात से परिचित ना होने का ही परिणाम हो सकता है।

गौरतलब है कि आज के कृषि संकट के पैदा होने के लिए जिम्मेदार सरकार की नीतियां रही हैं। ये नीतियां सिर्फ वर्तमान मोदी सरकार की नहीं हैं। हां, यह जरूर है कि मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद अचानक संकट को और गंभीर बना देने वाले कुछ कदम उठा लिए। इसीलिए उसके शासन काल के तीन साल पूरा होते-होते देश के विभिन्न राज्यों में किसान आंदोलन उठ खड़े हुए।

मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही अपने शहरी समर्थक वर्ग को खुश रखने के लिए मुद्रास्फीति (खास कर खाद्य मुद्रास्फीति) को कृत्रिम रूप से नियंत्रित रखने की नीति अपनाई। इसके तहत राज्य सरकारों को कृषि पैदावार पर बोनस देने से रोका गया, एमएसपी में समय के साथ उचित बढ़ोतरी नहीं की गई, और खाद, कीटनाशक, डीजल आदि जैसे कृषि इनपुट (साधन) की कीमत पर रहा-सहा सरकारी नियंत्रण भी खत्म कर दिया गया। इस वजह से इन वस्तुओं के दाम तेजी से चढ़े, जिससे खेती और अभी अधिक अलाभकारी पेशा बन गई। नवंबर 2016 में लागू की गई नोटबंदी ने ग्रामीण इलाकों में नकदी के प्रवाह को अचानक रोक कर संकट को और भीषण बना दिया।

लेकिन कृषि क्षेत्र में संकट पहले से पैदा हो रहा था। इसका कारण 1991 में अपनाई गई नव-उदारवादी नीतियां हैं। इन नीतियों के तहत कृषि इनपुट पर सब्सिडी में लगातार कटौती की गई, कॉरपोरेट सेक्टर को बीज, खाद और कीटनाशक का उत्पादन करने और उनकी बिक्री के लिए प्रोत्साहित किया गया, जिस वजह से ये चीजें महंगी होती चली गईं। अंतरराष्ट्रीय बाजार के लिए फसल पैदावार को बढ़ावा दिया गया, जिससे किसानों में कर्ज लेकर कॉरपोरेट सेक्टर में बने पेंटेन्ट कराए जा चुके इनपुट के इस्तेमाल का चलन बढ़ा। उधर फसल नष्ट होने या बाजार के उतार-चढ़ाव के कारण किसान अधिक से अधिक कर्ज के जाल में फंसने लगे। उनमें आत्म-हत्या की घटनाएं बढ़ने लगीं। ये सब पहले से हो रहा था।

मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश में तेज रफ्तार से कटौती की, तो उससे समस्या अधिक तीखे ढंग से किसानों और ग्रामीण आबादी को चुभने लगी। उसकी वजह से किसान आंदोलन पर उतरे। कोरोना महामारी के दौरान लॉकडाउन और अर्थव्यवस्था के लगभग ठहर जाने से सूरत अब और डरावनी हो चुकी है। हाल की प्राकृतिक आपदाओं ने भी इसमें योगदान दिया है। ऐसे मौकों पर सरकार की तरफ से नाकाफी मदद ने पीड़ित समूहों में असंतोष पैदा किया है। अपने शासन के शुरुआती वर्षों में सांप्रदायिक भावावेश, उग्र राष्ट्रवाद, और अन्य भावनात्मक मुद्दों से किसानों के बड़े हिस्से को बहकाए रखने में सत्ता पक्ष कामयाब रहा था। लेकिन अब जो परिस्थिति है, उसमें ऐसे तौर-तरीकों का कारगर बने रहना मुश्किल हो गया है।

चूंकि मौजूदा किसान आंदोलन ठोस जमीनी हालात से पैदा हुआ है, इसलिए इसने देश के सत्ता ढांचे और इस सरकार के मूल चरित्र की अभूतपूर्व समझ दिखाई है। जिस तरह भारतीय सत्ता तंत्र पर एकाधिकारवादी (मोनोपॉली) पूंजीवाद का शिकंजा कसता गया है और गुजरे सात वर्षों में जिस तरह क्रोनी-मोनोपॉली पूंजीपति घरानों और सत्ताधारी सांप्रदायिक जमात में अंतःसंबंध प्रगाढ़ हो गए हैं, उसकी जितनी बेहतरीन समझ किसान नेतृत्व ने दिखाई है, वह अन्यत्र दुर्लभ ही है। ये दुर्लभ समझ यह है कि क्रोनी-पूंजीवाद और सांप्रदायिकता एक दूसरे को मजबूत करते हुए बाकी तमाम जन समूहों की कीमत पर अपने स्वार्थ साध रहे हैं। इसके परिणास्वरूप देश के आम जन की गरीबी और दुर्दशा बढ़ रही है।

तो किसानों में यह समझ बनी है कि इस परिघटना को रोकने का अकेला रास्ता पर सड़क पर उतरना और निर्णायक संघर्ष करना है। अपनी इसी समझ और संकल्प शक्ति के बूते किसान आंदोलन ने विवादित कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए सरकार को मजबूर किया। यह ऐसी सफलता है, जिसके बारे में पहले सोचना भी मुश्किल था। यह दरअसल, पिछले तीन दशक में- जब से नवउदारवादी नीतियां देश में अपनाई गईं- पहला मौका है, जब इन नीतियों से उत्पन्न किसी फैसले, नीति, या कानून को वापस लेने पर किसी सरकार को मजबूर होना पड़ा है।

इस सिलसिले में अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक धवले की इस टिप्पणी पर गौर किया जाना चाहिएः ‘सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस संघर्ष ने कॉरपोरेट सांप्रदायिकता के भ्रष्ट अंतःसंबंध, भाजपा-आरएसएस के नेतत्व वाली सरकार, और भारतीय एवं विदेशी कॉरपोरेट लॉबी- जिसके प्रतीक अंबानी-अडानी हैं- के बीच के संबंधों को सीधे पहचाना और उन पर हमला किया है। इसीलिए अंबानी और अडानी के उत्पादों और सेवाओं के राष्ट्रव्यापी बहिष्कार की अपील की गई है, हालांकि इस कार्यक्रम को और व्यापक एवं तीव्र करने की जरूरत है। दरअसल, अपनी मांगों के जरिए किसानों के इस ऐतिहासिक वर्ग संघर्ष ने सीधे नवउदारवादी नीतियों पर हमला किया है।’

इस पृष्ठभूमि में यह कहा जा सकता है कि ये किसान आंदोलन महज एक झांकी है। यह इस बात की झांकी है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में नव-उदारवादी नीतियों के कारण जो बदहाली पैदा हो रही है, उससे इस तरह के और भी जन आंदोलन खड़े हो सकते हैं। इस रूप में देश में मोनोपॉली-क्रोनी पूंजीवाद के खिलाफ वर्ग संघर्ष की स्थितियां ठोस रूप ले रही हैं। मसलन, मोनोपॉली-क्रोनी पूंजीवाद-सांप्रदायिकता का शिकार एक तबका छोटे और मध्यम किराना कारोबारियों का भी है। रिलायंस ग्रुप का जियो मार्ट जिस तरह छोटे किराना वितरकों और दुकानदारों को उनके कारोबार से बाहर कर रहा है, उससे देर-सबेर इस तबके का विरोध प्रदर्शन पर उतरना भी लाजिमी है।

असल में कई जगहों पर इनका विरोध प्रदर्शन देखने को मिला भी है, लेकिन उनका निशाना वहां सरकार और उसकी नीतियां नहीं, बल्कि जियो मार्ट से जुड़े कर्मचारी रहे हैं। यानी ये तबके अपने बिगड़ते भविष्य से असंतुष्ट और आशंकित तो हैं, लेकिन इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है, इसकी पहचान वे नहीं कर पाए हैँ। इसलिए किसानों जैसा उनका आंदोलन खड़ा होगा या नहीं, इस बारे में अभी कुछ कहना मुश्किल है।  

ऐसा संघर्ष सचमुच खड़ा होगा या नहीं, यह इससे तय होगा कि वंचित हो रहे वर्गों को उनकी दुर्दशा के कारणों के प्रति चेतना लाने और उन्हें संगठित करने वाली शक्तियां उभर पाती हैं या नहीं। लेकिन इस तबके और ऐसे कई अन्य तबकों की स्थिति ये साफ संकेत देती है कि देश में आने वाले वर्ष उथल-पुथल भरे हो सकते हैँ। उसका परिणाम क्या होगा, उस बारे में अभी कुछ कहना कठिन है। चूंकि किसानों के संगठन मौजूद थे और उन्होंने गुजरे वर्षों में भी संघर्ष की राह पकड़ी थी, इसलिए वे एक मजबूत आंदोलन खड़ा कर पाए। दूसरे सामाजिक वर्गों में ऐसी राजनीतिक चेतना और संगठन का अभी अभाव है।

किसान संगठित हैं। उनमें एक खास प्रकार की राजनीतिक चेतना है। इसलिए सत्ताधारी जमात की तरफ से उन्हें बदनाम करने की तमाम कोशिशों और सख्त दमन के बावजूद सफलता तक संघर्ष का उनका संकल्प कायम रहा है। इसी कारण आंशिक सफलता से वे सुखबोध का शिकार नहीं हुए। उनमें यह अहसास बना रहा कि तीन कृषि कानूनों की वापसी के बावजूद उनकी मूलभूत समस्याएं हल नहीं होंगी। इसलिए उन्होंने विरोध प्रदर्शन पूर्व घोषित कार्यक्रमों पर कायम रहने का निर्णय लिया है।

इस रूप में कहा जा सकता है कि किसान आंदोलन ने देश की वर्तमान स्थिति में बदलाव की जो उम्मीदें जगाई थीं, उन पर वह न सिर्फ खरा उतर रहा है, बल्कि उन उम्मीदों को उसने और अधिक बल प्रदान किया है। गुजरे दशकों और हाल के वर्षों में देश ने जो दिशा ली, उसके बीच सहज ही यह समझ पुख्ता होती गई है कि अब महज सत्ता की चुनावी अदला-बदली से आम जन की हालत नहीं सुधरेगी। ना ही यह देश सिर्फ सरकार के बदलने से न्याय और खुशहाली की तरफ बढ़ पाएगा। इसके लिए आर्थिक नीति और रूझानो में बुनियादी बदलाव जरूरी है। इस बदलाव का कार्यक्रम पेश करने में चूंकि प्रमुख राजनीतिक दल विफल रहे, इसलिए किसानों को सड़क पर उतरना पड़ा।

अगर अन्य तबके भी किसानों का अनुकरण करें, तभी इस उद्देश्य को प्राप्त करने की दिशा मे सचमुच आगे बढ़ा जा सकेगा। फिलहाल, ऐसा होने के साफ संकेत नहीं हैं। लेकिन अक्सर संघर्ष ठोस परिस्थितियां का परिणाम होता है। आखिर आज जो किसान उम्मीद का केंद्र बने हुए हैं, उनका बड़ा तबका भी कभी सत्ताधारी दल के भावनात्मक मुद्दों के आगोश में था। अगर वे उससे निकल सके, तो देर-सबेर अन्य तबके भी ऐसा करने को मजबूर होंगे, यह उम्मीद रखी जा सकती है। खास बात यह है कि दूसरे समूहों के सामने किसान आंदोलन की मिसाल होगी। इस रूप में किसान आंदोलन एक पथ-प्रदर्शक बन चुका है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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