Tuesday, March 21, 2023

लाल किले से एक बार फिर साबित हुआ झूठ से है मोदी का नाभि-नाल का रिश्ता

Janchowk
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जनचौक ब्यूरो

कल मोदी का भाषण सुना। लगा कि ठीक होने की जगह इनकी झूठ बोलने के बीमारी में इजाफा हो रहा है। प्रधानमंत्रियों या जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों के बयानों पर पहले भी विवाद उठते रहे हैं। उनकी कही बातों का पक्ष और विपक्ष दोनों रहा है। लेकिन मोदी एक ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो आदतन झूठ बोलते हैं और प्रधानमंत्री के पद का देश की जनता को गुमराह करने का काम कर रहे हैं।

अगर आरएसएस आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं था तो इसमें कांग्रेस या किसी और का क्या दोष है। और इसे छुपाने के लिये आप रोज़ सौ झूठ बोलेंगे तो क्या इतिहास में लिखा मिटा पाएंगे।

ज़रूरत है एक मुहिम के तहत इनके झूठ का पर्दाफ़ाश करने की और सच को जनता के सामने रखने की।

ये लाइनें वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत टंडन की हैं जिन्हें उन्होंने अपनी फेसबुक वाल पर दी है। इसके साथ ही उन्होंने कुछ सुझाव भी दिए हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि 15 जनवरी से 30 जनवरी तक एक मुहिम चलाई जाये सोशल और डिजिटल मीडिया में। देश के कई शहरों में जन सभायें और प्रदर्शनियां लगा कर आज़ादी की लड़ाई के गद्दारों का पर्दाफ़ाश किया जाये।

दस्तावेज़, तस्वीरों और ऐतिहासिक तथ्यों को जनता के सामने रख ये बताया जाये कि जब भगत सिंह फांसी पर झूल रहा था तब अंग्रेजों के साथ कौन खड़ा था, किसने की थी चन्द्रशेखर आजाद के खिलाफ मुखबिरी, जब क्रातिकारी जेल जा रहे तो कौन अंग्रेजों का गवाह बन रहा था। इस संबंध में उन्होंने जल्द ही बैठक भी बुलाने की बात कही।

गौरतलब है कि लाल किले पर आयोजित आजाद हिंद फौज की 75वीं बरसी के कार्यक्रम में पीए मोदी ने न केवल ये कहा कि विवेकानंद ने सुभाष चंद्र बोस को शिक्षा दी थी बल्कि आजाद हिंद फौज की स्वघोषित सरकार को देश की पहली सरकार बता दिया और सुभाष को देश का पहला मुखिया। पहली बात तो बिल्कुल ही झूठ है। क्योंकि स्वामी विवेकानंद का 1902 में जब निधन हुआ था तब सुभाष चंद्र महज 5 साल के थे। ऐसे में पांच साल के बच्चे को कोई क्या शिक्षा देगा। इसी के साथ आजाद हिंद फौज की स्वघोषित सरकार को पहली सरकार का दर्जा देना न केवल आजादी की पूरी लड़ाई की विरासत का अपमान है बल्कि लोकतंत्र और उसकी स्थापित संस्थाओं का भी अपमान है।

जिस नेहरू और सुभषा चंद्र बोस के बीच मोदी खाई दिखाना चाहते हैं वो बिल्कुल झूठ बात है। सच्चाई ये है कि दोनों गहरे मित्र थे। और आजाद हिंद फौज के गिरफ्तार सैनिकों के खिलाफ अंग्रेजों द्वारा चलाए गए मुकदमे के दौरान सैनिकों के पक्ष में वकालत करने के लिए नेहरू ने 20 साल बाद फिर से काली कोट पहनी थी और आजाद हिंद फौज डिफेंस कमेटी के अभिन्न हिस्से के तौर पर उन्होंने लाल किले में बनी अदालत की कार्यवाही में हिस्सा लिया था।

इसमें एक बात जो बेहद महत्वपूर्ण और सीधे आप से जुड़ी है उस पर बातचीत किए गए बगैर सुभाष पर बातचीत अधूरी रह जाएगी। जब सुभाष चंद्र बोस देश से बाहर आजाद हिंद फौज बनाकर अंग्रेजों से मोर्चा ले रहे थे उस समय आपके पुरखे वीर सावरकर के नेतृत्व में जगह-जगह कैंप लगाकर अंग्रेजों के लिए सैनिकों की भर्ती का अभियान चला रहे थे। ये सैनिक आखिर क्या करते। उनकी भर्ती सुभाष और आजाद हिंद फौज के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई लड़ रहे रणबाकुंरों की हत्या करने के लिए की जा रही थी।

ऐसे में जबकि हिंदू महासभा, आरएसएस समेत पूरी दक्षिण पंथी जमात नेताजी और उनके मिशन के खिलाफ खड़ी थी। तब उनके वारिस के तौर पर आप नेताजी के सबसे करीब होने का दावा कर रहे हैं। अमूमन तो आपको कोई हक ही नहीं बनता है सुभाष चंद्र बोस से किसी भी रूप में खुद को जोड़ने का। और अगर सचमुच में किसी तरह का आपके और आपके संगठन के भीतर किसी तरह का पुनर्विचार हुआ है तो सबसे पहले आपको अपने पुरखों के लिए गए स्टैंड के लिए माफी मांगनी चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता कि वीर सावरकर को माथे का चंदन बनाइये। और साथ ही सुभाष चंद्र बोस को भी इस्तेमाल कर लीजिए।

1939 के हरिपुरा कांग्रेस में गांधी के विरुद्ध जाकर बोस ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा था और जीता भी था। लेकिन बाद में इस्तीफा देकर वो बाहर चले गए थे और फिर वहीं उन्होंने आजाद हिंद फौज को संगठित करने का फैसला लिया। बावजूद उसके जब रेडियो पर पहली बार बाहर से उन्होंने देशवासियों को संबोधित किया तो सबसे पहले गांधी को ही राष्ट्रपिता कहकर बुलाया। और उन्हीं का दिया गया गांधी का ये नाम देश भर के लोगों की जुबान पर चढ़ गया।

आजाद हिंद फौज के सैनिक सहगल-ढिल्लन-शाहनवाज़ को ब्रिटिश हकूमत कुचल देना चाहती थी लेकिन उस समय की सेकुलर राष्ट्रवादी ताक़तों ने “आज़ाद हिन्द फौज़ डिफेन्स’ कमेटी बनाई। दफ़्तर था 82, दरियागंज, दिल्ली। उस दौरान की कुछ तस्वीरें और आजाद हिंद फौज डिफेंस कमेटी के सदस्यों के नाम जिन्होंने मिलकर उनका मुकदमा लड़ा था। कवि और लेखक अशोक कुमार पांडेय की फेसबुक वॉल से हासिल उसकी कुछ दुर्लभ तस्वीरें हैं जिन्हें यहां दिया जा रहा है:

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