विपक्ष के लिए प्रेरणादायी बन सकता है नेहरू सरकार के खिलाफ किया गया लोहिया का संघर्ष

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किसी भी सरकार की नकेल कसने के लिए विपक्ष का मजबूत होना बहुत जरूरी होता है। लोकतंत्र में यह माना जाता है कि यदि विपक्ष कमजोर पड़ जाता है तो सरकार निरंकुश हो जाती है। आज की बात करें तो प्रचंड बहुमत के साथ बनी मोदी सरकार के सामने विपक्ष नाम की चीज रह नहीं गयी है। ऐसा भी नहीं है कि देश में नेताओं या पार्टियों का कोई अभाव हो गया है। देश को सबसे अच्छा चलाने का दावा करने वाले अनगिनत नेता घूम रहे हैं। हां वह बात दूसरी है कि जब जनहित के मुद्दों या फिर सरकार को घेरने की बात आती है तो ये नेता कहीं नहीं दिखाई देते हैं। लोकसभा चुनाव में भी यही हुआ। जहां विपक्ष को मोदी सरकार को घेरना चाहिए था वहीं प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह विपक्ष को घेरते दिखे। जहां प्रधानमंत्री ने नेहरू परिवार के नाम पर कांग्रेस को घेरा वहीं क्षेत्रीय दलों पर वंशवाद का आरोप लगाकर बैकफुट पर ला दिया। यदि आज मोदी का कोई विकल्प देश में नहीं दिखाई दे रहा है तो विपक्ष के नेताओं में संघर्ष का अभाव और आरामतलबी के साथ सुख सुविधा की ओर भागना ज्यादा हो गया है।
जब बात विपक्ष की आती है तो देश में समाजवाद के प्रेरक डॉ. राम मनोहर लोहिया का नाम सबसे पहले लिया जाता है। वह लोहिया थे जिनके अंदर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को ललकारने का साहस उस समय था जब देश में कांग्रेस ही कांग्रेस दिखाई देती थी। लोहिया ने ही पिछड़ों को एकजुट कर कांग्रेस सरकार को चुनौती पेश कर दी थी।
जो स्थिति आज विपक्ष की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने है। उससे भी बुरी स्थिति विपक्ष की पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के सामने थी। महात्मा गांधी की हत्या के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जिस कांग्रेस के बैनर तले आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी उस कांग्रेस मॉडल को समाप्त कर दिया तथा नयी कांग्रेस को जन्म दिया। जिन नेहरू को पहले कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनाने से कोई ऐतराज नहीं था उन नेहरू ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं को खुला अल्टीमेटम दे दिया था कि या तो वे अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दें या फिर कांग्रेस छोड़ दें। 
आज की तारीख में जो समाजवादी नेता विपक्ष को कमजोर समझ कर जरा से लालच में सत्तारूढ़ पार्टी की ओर लपक लेते हैं उनको यह बात समझ लेनी चाहिए कि उस समय जब देश में प्रचंड बहुमत के साथ कांग्रेस सरकार थी उस समय पंडित नेहरू ने लोहिया को कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव पद का ऑफर दिया था। वह समाजवादी पुरोधा लोहिया ही थे, जिन्होंने पंडित नेहरू के महासचिव पद को ठुकराकर देश को नया विकल्प देने के लिए कांग्रेस को छोड़ने का निर्णय लिया। उस समय लोहिया के साथ ही कांग्रेस छोड़ने वालों में जयप्रकाश के अलावा कई समाजवादी नेता थे।
यह निर्णय लोहिया ने ऐसी परिस्थितियों में लिया था जब वह भी जानते थे कि आजादी की लड़ाई कांग्रेस के बैनर तले लड़ने की वजह से कांग्रेस की छवि लोगों के दिलोदिमाग पर छप चुकी है और उसे हटाना बहुत मुश्किल है। वह यह भी जानते थे कि उनके पास न तो मजबूत संगठन है और न ही खास संसाधन। पर लीक से हटकर चलने वाले लोहिया और उनके साथियों ने लोकतंत्र के हित में उस खतरे का सामना करने का बुलंद फैसला लिया।
लोहिया के इस निर्णय का फायदा यह हुआ कि सभी समाजवादी एकजुट हो गये। सभी समाजवादियों ने मिलकर 1948 में ‘सोशलिस्ट पार्टी’ का गठन किया। यह लोहिया का प्रयास ही था कि 1952 में जेबी कृपलानी की ‘किसान मजदूर पार्टी’ के साथ विलय ‘प्रजा सोशलिस्ट पार्टी’ नाम से एक मजबूत पार्टी बना ली गई। उसूलों से समझौता न करने वाले लोहिया को विभिन्न मतभेदों के चलते 1955 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को छोड़कर फिर से ‘सोशलिस्ट पार्टी’ को जिंदा करना पड़ा। नेहरू की नीतियों का विरोध उनका जारी रहा।
इस बीच जयप्रकाश नारायण का राजनीति से मोहभंग हो गया और 1953 में वे सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर ‘सर्वोदय’ का प्रयोग करने में लग गये।
वह लोहिया का संघर्ष ही था कि उनके प्रयासों से देश के आजाद होने के बाद देश पर एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस को अपने जीते जी बैकफुट पर ला दिया। जिस दिन संसद में लोहिया बोलते थे तो नेहरू को होम वर्क करके आना पड़ता था। समय कम पड़ने पर दूसरे सांसद भी अपना समय लोहिया को दे देते थे।
लोहिया ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की फिजूलखर्ची पर अंगुली उठाते हुए कहा था कि देश की 30 करोड़ जनता तीन आने पर निर्भर है और देश के प्रधानमंत्री को अपने ऊपर खर्च करने के लिए प्रतिदिन 25 हजार रुपये चाहिए। तब उनकी तीन आना बनाम 15 आना बहस बहुत चर्चित रही थी। इसी तरह का फिजूलखर्च आजकल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कर रहे हैं। राजनीतिक रूप से पतन की ओर जा रहे समाजवादियों को यह समझ लेना चाहिए कि यह सब करने में उन्होंने अपने मूल सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया।  यह लोहिया का ही प्रयास था कि वंचित तबकों के साथ ही उपेक्षित वर्ग से भी नेता निकल कर राष्ट्रीय पटल पर छाने लगे। वह बात दूसरी है कि बाद में इन नेताओं ने लोहिया के वंचित तबके को जाति से जोड़कर समाजवाद को जातिवाद और वंशवाद की ओर धकेल दिया।
मजबूत संगठन औेर संसाधन के अभाव में लोहिया और अन्य समाजवादियों की पहले आम चुनाव में हार हुई। हां यह जरूर हुआ कि इस हार से सभी समाजवादी पार्टियां एकजुट हो गईं। यह वह दौर था जब कई सोशलिस्ट लोहिया का सिद्धांत नहीं पचा पा रहे थे। इस बात से खफा होकर लोहिया ने 1955 में पीएसपी छोड़कर फिर से सोशलिस्ट पार्टी के वजूद को बनाना शुरू कर दिया।
इसके बाद वे घूम-घूम कर तमाम पिछड़ी जातियों के संगठनों को जोड़ने लगे। यह लोहिया का ही प्रयास था कि उन्होंने बीआर अंबेडकर से मिलकर उनके ‘ऑल इंडिया बैकवर्ड क्लास एसोसिएशन’ को भी सोशलिस्ट पार्टी में विलय के लिया मना लिया। दिसंबर 1956 में अंबेडकर का निधन होने से लोहिया की अंबेडकर को अपने साथ जोड़ने की मुहिम अधूरी ही रह गई।
यह लोहिया का संघर्ष ही था कि राम मनोहर लोहिया के प्रयासों के चलते 1967 में कांग्रेस पार्टी सात राज्यों में चुनाव हार गई और पहली बार विपक्ष कांग्रेस को टक्कर देने की हालत में दिखने लगा था। इसके बाद उन्होंने जयप्रकाश नारायण को भी राजनीति की मुख्य धारा में लाने का निर्णय लिया। पर इसे देश का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि 12 अक्टूबर को लोहिया चल बसे।
राम मनोहर लोहिया का यह प्रयास लगभग एक दशक बाद रंग लाया जब 1975 में देश में इमरजेंसी लगने पर जयप्रकाश नारायण राजनीति की मुख्यधारा में वापस लौटे। भले ही जेपी क्रांति के बाद 1977 जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनी हो पर समाजवादियों की इस एकजुटता के सूत्रधार लोहिया ही थे।  
देश में लोकतंत्र की स्थापना का बहुत बड़ा श्रेय लोहिया को जाता है। 1947 में जब देश को आजादी मिली तो कई पश्चिमी देशों को लगता था कि भारत लोकतंत्र के रास्ते पर ज्यादा दिन नहीं चल पाएगा इसका बड़ा कारण यह था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए देश में विपक्ष भी होना चाहिए पर देश में विपक्ष नहीं दिखाई नहीं दे रहा था।
देश को विपक्ष देने के लिए कई दिग्गजों ने सत्ता का मोह छोड़कर नेहरू की नीतियों से लोहा लिया। इन दिग्गजों में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के कई निर्णयों को चुनौती दी। इन दिग्गजों में राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण मुख्य रूप से थे।
बताया जाता है कि लोहिया गांधी से पहले नेहरू से ज्यादा प्रभावित थे। या कहा जाए कि नेहरूवादी थे। हां बाद में नेहरू से उनका मोहभंग हो गया और वह गांधी के सिद्धांतों और नीतियों की ओर आकर्षित होने लगे।
1939 के बाद तो नेहरू और लेाहिया के संबंधों में खटास होने लगी थी। संबंध खराब होने की बड़ी वजह की शुरुआत दूसरे विश्वयुद्ध में भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों के पक्ष में लड़ने से शुरू हुई थी। दरअसल दितीय विश्व युद्ध में लोहिया भारतीय सैनिकों के अंग्रेजों के पक्ष में लड़ने के पक्ष में नहीं थे पर नेहरू इस विश्व युद्ध में अंग्रेजों का साथ देने के हिमायती थे और यह हुआ।
जो लोग विभाजन का जिम्मेदार गांधी को बताते हैं उनको लोहिया की ‘विभाजन के गुनहगार’ किताब पढ़नी चाहिए। उन्होंने इस किताब में बताया है कि दो जून 1947 को हुए विभाजन को लेकर बैठक में उन्हें व जयप्रकाश नारायण को विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में बुलाया गया था। उन्होंने लिखा है कि मानो नेहरू और पटेल पहले से सब कुछ तय कर आए हों। जब महात्मा गांधी ने विभाजन का विरोध किया तो नेहरू और पटेल ने कांग्रेस के सभी पदों से इस्तीफा दे देने की धमकी दे डाली। तब गांधी को भी विभाजन के प्रस्ताव पर मौन सहमति देनी पड़ी। मतलब वह विभाजन के गुनाहगार बन गये।

(चरण सिंह नोएडा से निकलने वाले दैनिक राष्ट्रीय पहल के संपादक पद पर कार्यरत हैं।)

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