इतिहास कभी मरा नहीं करता, वह केवल प्रतीक्षा करता है-एक अवसर की, एक मूर्ख की, एक समाज की जो अपनी ही गलतियों को भूल जाए। प्लेटो ने “रिपब्लिक” में चेतावनी दी थी कि लोकतंत्र अंततः अपने ही हाथों अपनी कब्र खोदता है, जब लोग स्वतंत्रता को उच्छृंखलता समझ बैठते हैं और एक सर्वशक्तिशाली रक्षक की मांग करने लगते हैं।
ट्रंप की सत्ता में वापसी इसी ऐतिहासिक पुनरावृत्ति का प्रमाण है-ऐसा क्षण जब अमेरिका अपने सबसे खतरनाक दौर में प्रवेश कर चुका है, जहां लोकतंत्र का मुखौटा पहने अधिनायकवाद फिर से गर्जना कर रहा है।
न केवल प्लेटो, बल्कि हेगेल भी हमें यह सिखाते हैं कि हर ऐतिहासिक घटना दो बार घटती है-पहली बार त्रासदी के रूप में और दूसरी बार प्रहसन के रूप में। ट्रंप का पहला कार्यकाल त्रासदी था, जिसने अमेरिका की लोकतांत्रिक नींव को झकझोर दिया। लेकिन उनकी सत्ता में वापसी प्रहसन है-ऐसा क्रूर मजाक, जिसमें लोकतंत्र खुद अपनी हत्या कर रहा है और जनता ताली बजा रही है। यह सिर्फ अमेरिका की नियति नहीं, बल्कि भारत समेत उन सभी देशों को चेतावनी है, जो लोकतंत्र के नाम पर अराजकता और उन्माद को गले लगा रहे हैं।
डोनाल्ड ट्रंप अब अमेरिका के निर्वाचित सम्राट हैं। उनकी वापसी 21वीं सदी में 19वीं सदी का भूत ले आई है-ऐसा युग जब पूंजीवाद बेलगाम था, जब श्रमिकों को मशीनों की तरह निचोड़ा जाता था, जब सत्ता सिर्फ धनपतियों की कठपुतली थी। ट्रंप उसी हिंसक और लूटपाट करने वाले अमेरिका का पुनर्जन्म कर रहे हैं, जहां गरीबों को केवल “अमेरिका फर्स्ट” के नारों से बहलाया जाता है, जबकि असली खेल कॉरपोरेट्स की जेबें भरने का चलता है।
आज ट्रंप का अमेरिका “औद्योगिक राजतंत्र” बन चुका है, जहां न्यायपालिका से लेकर मीडिया तक सबकुछ एक तानाशाह की सनक पर निर्भर है। इतिहास हमें बताता है कि जब कोई राष्ट्र अपने स्वयं के विचारों से भागने लगता है, तो वह आत्म-विनाश के रास्ते पर होता है।
19वीं सदी में अमेरिका ने क्रांति के नाम पर क्रूरता और लोकतंत्र के नाम पर दमन को जन्म दिया था। अब ट्रंप उसी मार्ग पर लौटकर अमेरिका को नए साम्राज्यवादी नरक की ओर धकेल रहे हैं।
ट्रंप के दिमाग में कुछ और नहीं, बस पुरानी दुनिया की जंग लगी तस्वीरें घूम रही हैं। वह दौर जब अमेरिका खुद को दुनियाभर में जबरदस्ती फैलाने में लगा था, जब पूंजीवाद अपने नंगे पंजों से दुनिया को निचोड़ने में लगा था, जब औद्योगिक क्रांति के नाम पर मानव श्रम को मशीनों के नीचे कुचला जा रहा था। ट्रंप उसी युग में जी रहे हैं, जहां विलियम मैकिंले, टैरिफ, रेलमार्गों की विशालता, व्यापारी पूंजीवाद और मैनिफेस्ट डेस्टिनी नाम का दंभ सिर चढ़कर बोलता था।
क्या यह महज संयोग है कि ट्रंप 19वीं सदी के नायकों की जयजयकार कर रहे हैं? नहीं! यह एक सोची-समझी योजना है, जहां वह अमेरिका को फिर से उसी लालच, उसी शोषण और उसी अमानवीय शक्ति-संचयन की ओर धकेलना चाहते हैं। जो इतिहास को जानते हैं, वे समझते हैं कि यह वह युग था जब अमेरिका ने मूल निवासियों की जमीनें हड़पीं, श्रमिकों का खून चूसा और पूंजी के देवताओं के आगे इंसानी जीवन को बलि चढ़ाया। ट्रंप इसी गटर में से नई शक्ति निकालने की कोशिश कर रहे हैं।
लेकिन भारत भी इस खेल से अछूता नहीं है!
भारत में भी एक नया ट्रंपवाद उभर रहा है-ऐसा विचार जो विकास की आड़ में जनता को अंधेरे में धकेल रहा है, जो पूंजीपतियों के लिए कानूनों को तोड़-मरोड़ रहा है, जो राष्ट्रवाद का नारा लगाकर असली मुद्दों को गटर में डाल रहा है। जिस तरह ट्रंप अमेरिका को 19वीं सदी में ले जाने का सपना देख रहे हैं, वैसे ही भारत में भी एक तबका देश को प्राचीन गौरव की ओर लौटाने की बात कर रहा है-जहां जनता सिर्फ राजा की प्रजा थी, जहां सत्ता कुछ गिने-चुने लोगों के हाथों में थी, और जहां कानून का मतलब सिर्फ राजा की मर्जी होता था।
आज भारत में भी वही मानसिकता हावी हो रही है, जहां सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग मानते हैं कि उन्हें किसी जवाबदेही की जरूरत नहीं। न्यायपालिका उनके इशारों पर नाच रही है, मीडिया उनके प्रचार की मशीन बन चुकी है, और जनता को हिंदू-मुस्लिम के खेल में उलझाकर असली मुद्दों से भटका दिया गया है। ठीक वैसे ही जैसे ट्रंप ने अमेरिका में किया-गरीबों को “अमेरिका फर्स्ट” का सपना दिखाया और पीछे से अरबपतियों की जेबें भर दीं।
19वीं सदी में अमेरिका ने अपने आप को व्यापारिक पशु के रूप में देखा था। हेनरी स्टील कमेजर ने लिखा था, “जो भी धन बढ़ाए, वह अच्छा है। इसलिए, सट्टेबाजी, विज्ञापन, जंगलों की कटाई और प्राकृतिक संसाधनों का शोषण सब स्वीकार्य था।“ यह बिल्कुल ट्रंप का ही मंत्र है! और अब यही मंत्र भारत में भी दोहराया जा रहा है। जंगलों की अंधाधुंध कटाई, गरीबों की जमीनें हड़पना, छोटे व्यापारियों को खत्म कर कॉरपोरेट्स को फायदा पहुंचाना-यह सब उसी सोच का हिस्सा है।
ट्रंप का यह नया राष्ट्रवाद गरीबों, वंचितों, मेहनतकशों के लिए नहीं, बल्कि नए धनपतियों के लिए है, जो सत्ता के गलियारों में बाकी सबको किनारे कर देना चाहते हैं। भारत में भी यही हो रहा है। सरकारी नीतियां सिर्फ पूंजीपतियों के इशारे पर बनाई जा रही हैं, और जनता को सपने बेचकर उसकी जेबें काटी जा रही हैं।
इतिहास गवाह है कि 1825 से 1901 तक अमेरिका में 20 राष्ट्रपति आए और गए, लेकिन जनता का भरोसा हर बार टूटता गया। सरकारें आईं और चली गईं, क्योंकि हर कोई इस निःशुल्क बाजार और कमज़ोर सरकार के खेल में सिर्फ अपने लिए खेल रहा था। आखिरकार, 20वीं सदी में अमेरिका को मजबूत केंद्रीकृत सरकार बनानी पड़ी, ताकि समाज में संतुलन बना रहे, ताकि गरीबों को भी आवाज़ मिले, ताकि पूरी अर्थव्यवस्था सिर्फ धनी वर्ग की गुलाम न बन जाए।
लेकिन ट्रंप को यह सब नहीं चाहिए। वह चाहते हैं कि सरकारें सिर्फ सत्ता के खेल की कठपुतली बन जाएं, जहां राष्ट्रपति ही राजा हो, जहां सबकुछ उनकी मुट्ठी में हो। आज जब अमेरिका पहले से ही असमानता, बेरोजगारी, पूंजीवाद की बेलगाम रफ्तार और तकनीकी अधिनायकवाद से जूझ रहा है, ट्रंप उसमें आग लगाने की योजना बना रहे हैं।
भारत में भी यही खेल चल रहा है। जिस तरह ट्रंप “अमेरिका ग्रेट अगेन” का नारा देकर जनता को 19वीं सदी की लूट और लालच की ओर ले जा रहे हैं, वैसे ही भारत में भी “विश्वगुरु” बनने की आड़ में आर्थिक असमानता, बेरोजगारी और संस्थानों के पतन को छिपाया जा रहा है। सरकारें कॉरपोरेट्स को फायदा पहुंचाने में लगी हैं, और आम जनता को हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद और प्राचीन गौरव के नारों में उलझाया जा रहा है।
अमेरिका में जनता अब उन संभ्रांत लोगों से ऊब चुकी है, जो ऊंचे टावरों से नीचे देखते हुए उन्हें संस्कृति और नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं। ट्रंप का सत्ता में आना महज़ 19वीं सदी की वापसी नहीं है बल्कि उससे भी बुरा है। क्योंकि इस बार उनके पास केवल रेलमार्ग नहीं, बल्कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, बिग डेटा, सर्विलांस और पूरे तंत्र को तहस-नहस करने की योजना है।
यह आधुनिक साम्राज्यवादी पूंजीवाद की तरफ छलांग है, जहां सब कुछ एक व्यक्ति के हाथ में होगा, जहां कानूनों को अपनी सुविधानुसार तोड़ा-मरोड़ा जाएगा, जहां जनता सिर्फ एक तमाशबीन बनी रहेगी।
भारत में भी यही खतरा है। अगर जनता ने समय रहते अपनी आंखें नहीं खोलीं, तो यह देश भी हाई-टेक साम्राज्यवाद का गुलाम बन जाएगा, जहां लोकतंत्र सिर्फ कागज़ पर रहेगा और असल सत्ता कुछ गिने-चुने धनपतियों के हाथ में होगी। इतिहास हमें यही सिखाता है-ट्रंप जैसा व्यक्ति सुधार नहीं करता, वह तबाही लाता है! भारत के लोग अगर नहीं संभले, तो यही तबाही हमारे दरवाजे पर भी खड़ी होगी!
(मनोज अभिज्ञान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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