Tuesday, April 16, 2024

द केरल स्टोरी: अल्पसंख्यकों को टार्गेट करने वाली एक फूहड़ प्रोपेगेंडा फिल्म

जब मैंने फिल्मकार, फिल्म विश्लेषक और लेखक अजय ब्रह्मात्मज से ‘द केरल स्टोरी’ पर बात की तो उन्होंने कहा, ‘‘मैंने अपने चैनल ‘सिने माहौल’ में फिल्म की समीक्षा की है। दरअसल यह फिल्म एक अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय को टार्गेट करती है। कुछेक मामले जो हुए होंगे धार्मिक परिवर्तन के, उनको आधार बनाकर वह इस समुदाय को लक्षित करती है। वह कहती है कि अगर नहीं रोका गया, तो किसी मुख्यमंत्री ने कभी कहा था कि केरल मुस्लिम स्टेट हो जाएगा। धारणा, इरादा और इंटेंट आप समझ सकते हैं। हिंदी सिनेमा में और आम तौर पर भारतीय फिल्म जगत में जो एक दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी और भक्त समुदाय का उदय हुआ है, वे जिस तरह की फिल्में बनाना चाह रहे हैं, दिखाना चाह रहे हैं और फैलाना चाह रहे हैं, यह उसी मकसद से बनी फिल्म है। यह एजेंडापरक फिल्म है, प्रोपेगेंडा फिल्म है।’’

जब मैंने अजय से पूछा कि क्या जैसा ममता बनर्जी और तमिलनाडु के मल्टिप्लेक्सों ने किया है-कानून-व्यवस्था में खलल का प्रश्न उठाते हुए फिल्म की स्क्रीनिंग रुकवा दी, यह सही है? यह तो अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन माना जाएगा; तो उन्होंने कहा, ‘‘कानून-व्यवस्था तो राज्य का मामला है, इसलिए वे प्रतिबंन्ध लगा सकते हैं। पर निर्माता भी कोर्ट जा सकते हैं। अब कोर्ट क्या फैसला देती है यह देखना होगा।’’

फिल्म की कहानी में कितना तथ्य?

फिल्म के निर्माता विपुल अमृतलाल शाह हैं और निर्देशक सुदीप्तो सेन जिन्होंने सूर्यपाल सिंह के साथ पटकथा लिखी है। अदाह शर्मा, योगिता बिहानी, सोनिया बलानी, सिद्धि इदनानी, देवदर्शिनी, विजय कृष्ण, प्रणय पचौरी और प्रणव मिश्रा ने फिल्म में काम किया है। अदाह को छोड़कर सभी नए ऐक्टर हैं।

फिल्म की मुख्य पात्र है शालिनी उन्नीकृष्णन (अदाह शर्मा)। इस कहानी में बताया गया है कि किस तरह केरल से हज़ारों लड़कियों का धर्म परिवर्तन कर उन्हें आइसिस (इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया, जो अपने को अल-कायदा से जुड़ा बताता है) में रिक्रूट किया जाता है। फिल्म के ट्रेलर में बताया गया था कि यह केरल की 32,000 ऐसी भगाई गई लड़कियों की सच्ची कहानी है, जिन्हें आतंकी बनाया जाता है। जब कई खेमों से फिल्म की आलोचना होने लगी कि इसमें बहुत सारी बातें तथ्यात्मक नहीं हैं और विवाद सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया, तब ट्रेलर में 32,000 गायब लड़कियों को बदलकर 3 लड़कियां कर दिया गया! यह अजीब बात है कि फिल्म में एक डिस्क्लेमर है कि जो यह भी कहता है कि यह कहानी असली घटनाओं से ‘इन्सपायर्ड’ है, पर कोर्ट में कोई सबूत नहीं पेश किये गए। तब यह सच्ची कहानी पर आधारित कैसे है?

अजय कहते हैं, ‘‘प्रोड्यूसर और डायरेक्टर यह बताना चाहते हैं कि यह (मुस्लिम) समुदाय कितना प्रोएक्टिव है और किस तरह से कन्वर्ज़न कराना चाह रहा है। ऐसा कहते हैं कि केरल में कन्वर्ज़न हुआ है, पर उसके वजहों पर जाना चाहिये। यह फिल्म उनकी बात नहीं करती।’’

दहशत फैलाने की कोशिश

फिल्म जब शुरू होती है तो फातिमा से (असली नाम शालिनी) अफगानिस्तान के एक जेल में पूछताछ की जा रही है कि वह आइसिस से कैसे जुड़ी। वह अपनी पूरी कहानी बताती है। कहानी का आधार भाजपा की ‘लव जिहाद’ वाली थ्योरी है। इसलिए दिखाया गया है कि आइसिस का लीडर कुछ मुस्लिम लड़कों को यह कहकर केरल भेजता है कि वे वहां जाकर हिंदू लड़कियों को अपने प्रेम जाल में फंसाएं, उनका धर्म परिवर्तन कराए, उनसे शादी करके उन्हें गर्भवती बनाएं और फिर उन्हें आइसिस में दाखिल करवाएं। फिल्म का ट्रेलर कहता है-“वॉच द लाइव्स ऑफ इनोसेंट गर्ल्स ट्रैप्ड, ट्रान्सफॉर्मड एंड ट्रैफिक्ड फॉर टेरर’’ फिल्म में मुस्लिम लड़कों के संग कुछ मुस्लिम लड़कियां भी आती हैं, जिनमें से एक है फिज़ा, जो शालिनी और उसकी सहेलियों के साथ एक कमरे में रहती है (जो नर्सिंग की पढ़ाई कर रही थीं) और उनका लगातार ब्रेनवॉश करती है।

धर्म को लेकर उसकी इन लड़कियों से काफी बहस होती रहती है-यह साबित करने के लिए कि इस्लाम धर्म सबसे अच्छा है और हिजाब व अल्लाह सबकी रक्षा करते हैं। फिल्म में शालिनी के माता-पिता कम्युनिस्ट दिखाए गए हैं। बाद में एक आइसिस सदस्य अराफ़ात शालिनी को अपने प्रेम जाल में फंसा लेता है, उसका धर्म परिर्वतन कराके उससे शादी करता है। इसका विरोध और उसे अफ़गानिस्तान ले जाकर आइसिस के चीफ को सौंप देता है। वहां उसे केरल की बहुत सारी़ लड़कियां मिलती हैं जो शालिनी की भांति आइसिस की जाल में फंसी हैं। उन्हें आतंकवादी बनने की ट्रेनिंग दी जाती है और उसे मारकर मजबूर किया जाता है कि वह निर्दोषों पर गोली चलाए। शालिनी आतंकवादी बन जाती है और उसे व अन्य लड़कियों को मिलिट्री पर हमला करने को भेजा जाता है। शालिनी पकड़ी जाती है और अफ़गानिस्तान की जेल में पहुंच जाती है।

मुस्लिम विरोधी सिम्बल्स का इस्तेमाल

फिल्म में कुछ सिम्बल्स इस्तेमाल किये गए हैं ताकि कम सोचने की क्षमता वाले भक्त या लम्पट मिजाज़ वाले दर्शक कश्मीर फाइल्स फिल्म की तरह उनका प्रचार करें। मसलन बैकग्राउंड म्यूज़िक कुछ अरबी किस्म की है, फिज़ा द्वारा हिजाब का महिमामंडन होता है, शालिनी के घर में मार्क्स और लेनिन की तस्वीर और कम्युनिस्ट विचारधारा का भारतीय संस्कृति से कोई लेना-देना न होने की बात क्योंकि वह विदेश से आई है, एक बच्चे के द्वारा शालिनी का हिजाब खींचकर जलाना और उसका देखना, आइसिस के आतंकियों का निदोर्षों को मारते समय खून फैल जाना और शालिनी का यह सब देखकर उल्टियां करना और भयाक्रांत होना और उनका ‘अल्लाह हू अकबर’ के नारे लगाकर मार-काट करना।

धर्म परिवर्तन की सच्चाई

अजय कहते हैं, ‘‘क्यों किसी खास धर्म के नागरिक किसी खास समय पर धर्म परिवर्तन करते हैं। धर्म परिवर्तन की जो कहानियां हैं उनके पीछे जाएं तो सबसे बड़ा कारण है आर्थिक, इसके अलावा असमानता और इसके अलावा प्रलोभन-एक अच्छे कैरियर का, एक अच्छी ज़ि़न्दगी का प्रलोभन। अगर कोई पंथ अपने नागरिकों को अच्छा जीवन नहीं दे पा रहा है और वह कहीं घुटन महसूस कर रहा है तो वह दूसरे धर्म में जाता है।

अम्बेडकर के समय काफी लोगों ने बौद्ध धर्म धारण कर लिया था, ऐसे ही इस्लाम में काफी लोग गए। हिंदू धर्म में भी काफी लोगों को लाया गया है। किस प्रकार बौद्ध धर्म, जो एक समय भारत में काफी प्रचलित धर्म था, उसको खत्म किया गया और कैसे हिंदू धर्म का वर्चस्व हुआ-ये सब भी कहानियां हैं।’’ हम भी जानते हैं कि कई बार दलितों ने हिन्दू धर्म द्वारा भेदभाव व उत्पीड़न के चलते ईसाई या बौद्ध धर्म को स्वेच्छा से अपनाया है। यही नहीं, कई मुस्लिमों ने भी अलग-अलग कारणों से हिन्दू धर्म अपनाया है, जैसे अदाकारा ज़ुबैदा बेगम, नर्गिस दत्त, पंडित रविशंकर की पत्नी अन्नपूर्णा देवी, उप्र शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष रहे सैयद वसीम रिज़वी, मलयालम फिल्म निर्देशक अली अकबर आदि।

पर लगता तो यह है कि यह कहानी बिना तथ्यों के बुनी गई है और आंकड़े की भी पुष्टि नहीं हो सकी। एक साक्षात्कार में सेन कहते हैं कि 2010 में तत्कालीन मुख्यमंत्री ओमन चांडी ने विधान सभा के पटल पर रिपोर्ट प्रस्तुत की थी कि प्रति वर्ष 2800-3200 लड़किया इस्लाम धर्म अपनाती हैं। पर इस रिपोर्ट का कहीं अता-पता नहीं है। बस 3200 की संख्या को 10 वर्ष से गुणा करके सेन ने अपना क्लेम बना दिया। केरल के मुख्यमंत्री पिनारई विजयन ने अपने बयान में साफ-साफ कहा कि यह झूठा आंकड़ा और लव जिहाद की कहानी सिर्फ केरल की वाम सरकार को दुनिया के सामने नीचा दिखाने के लिए पेश किये गए हैं।

फिल्म के ज़रिये राजनीति?

पर अंधेर तो तब हो गयी जब देश के प्रधानमंत्री मोदी कर्नाटक के अपने चुनावी भाषण में कहते हैं, ‘‘देश को भीतर से खोखला करने की साजिशों पर बनी फिल्म द केरल स्टोरी की इन दिनों काफी चर्चा है। कहते हैं कि वह केवल एक राज्य में आतंकवादी साजिश पर आधारित है। देश का एक राज्य इतना खूबसूरत राज्य जहां के लोक मेहनती और टैलेंटेड हैं। द केरल स्टोरी वहां आतंकी साजिशों का पर्दाफाश करती है। और कांग्रेस इन आतंकियों का साथ दे रही है।’’

मुम्बई में रहने वाली डायलॉग राइटर अंजू पटेल कहती हैं, ‘‘इसके पीछे पॉलिटिक्स है। ये निर्माता, निर्देशक-इन्हें कोई अच्छा नया आइडिया तो आता नहीं, तो सोचा होगा कि बहती गंगा में हाथ धो लें। जब ‘इस्लामोफ़ोबिया’ का नैरेटिव चल रहा है तो कुछ भी फूहड़, तथ्यहीन, प्रोपेगेंडा फिल्म बना लेते हैं और अच्छी कमाई कर लेते हैं। आखिर, प्रधानमंत्री खुद फिल्म को प्रमोट करने में लग गए हैं। चल तो गया न खोटा सिक्का! 43 करोड़ कमा लिये। इसी तरह से मोदी जी ने कश्मीर फाइल्स को भी प्रमोट किया था, और उससे आइडिया मिल गया। अब न जाने कितनी फाइल्स और स्टोरीज़ वाली फिल्में बनेंगी। पैसा भी खूब कमाएंगी।’’

2018 में जेएनयू के साबरमती छात्रावास में सुदीप्तो की फिल्म ‘इन द नेम ऑफ लव-मेलैंकली इन गॉड्स ऑन कंट्री’ की स्क्रीनिंग का जेएनयूएसयू और जेन्डर सेंसिटाइज़ेशन कमिटी की ओर से जबरदस्त विरोध हुआ था। उन्होंने कहा था कि यह लव जिहाद का नैरेटिव गढ़कर साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने वाली फिल्म है। इस बार तो जेएनयू प्रशासन की मदद से द केरल स्टोरी की टीम को एबीवीपी ने बुलाया और स्क्रीनिंग हुई। छात्रों ने इस बार भी विरोध किया। पर मध्य प्रदेश में फिल्म टैक्स फ्री है और उत्तर प्रदेश में भी। और भी भाजपा-शासित प्रदेशों में ऐसा होगा। 2024 तक ये चलेगा। ममता बनर्जी ने तो पहले ही आगाह कर दिया कि बंगाल फाइल्स भी तैयार की जा रही है। अंत में शायद भाजपा शासित और गैर-भाजपा राज्यों में सरकार का अलग-अलग रवैया रहेगा। ये भी नए तरीके का संघवाद है!

आतंकवाद पर कलात्मक फिल्में भी बनी हैं, जैसे, मणिरत्नम की ट्रिलोजी रोजा, बॉम्बे, और दिल से। इन फिल्मों में बहुत सारे प्रश्नों खासकर प्रेम, आतंकवाद और उनके आपसी जटिल संबंधों को उठाया गया है। कुछ कमियां जरूर हो सकती हैं पर कहीं भी अंधी देशभक्ति या हिंसा को जायज़ नहीं ठहराया गया और प्रेम की अहमियत और धार्मिक कट्टरपंथ के चलते उसमें पैदा होने वाली दरारों को बारीकी से दर्शाया गया है।

अमेरिका और जर्मनी में भी हुआ था

बहुत लोग नहीं जानते होंगे कि हॉलीवुड में भी एक ऐसा दौर आया था जब उसे अपने को ज़िंदा रखने के लिए कई ज़ॉनर्स में कम्युनिस्ट-विरोधी फिल्में बनानी पड़ी थीं। ये दौर था 1940 के उत्तरार्द्ध से लेकर 1950 तक। इसे मकार्थिस्म ईरा कहा जाता है। उस समय अमेरिका में एक नैरेटिव बुना गया कि कम्युनिस्ट अमेरिका पर कब्ज़ा कर लेंगे-खासकर तमाम सरकारी संस्थाओं पर।

पूरे देश में कम्युनिस्टों के खिलाफ घृणा और संदेह का वातावरण पैदा किया गया था। जे एडगर हूवर की लिखी वॉक ईस्ट ऑन बीकन (1952) और बिग जिम मकलेन (1952) ऐसी ही प्रोपेगेंडा फिल्में थीं। दूसरी ओर कम्युनिस्ट फिल्मों पर निगरानी चल रही थी जिसके लिए एक कमिटी एचयूएसी बनाई गई थी। इसके ज़रिये फिल्मों का विश्लेषण किया जाता था कि कहीं वे कम्युनिज़्म को तो नहीं बढ़ा रहे। ऐसी फिल्मों को ब्लैकस्टि किया जाता था।

1938 में नाज़ी प्रचार मंत्रालय ने भी फिल्म उद्योग को हिदायत दी थी कि एंटी-सेमेटिक विषयवस्तु चुनकर फिल्में बनाएं। द रॉथ्स चाइल्ड्स, ज्यू सस और द इटर्नल ज्यू कुछ ऐसी फिल्में थीं, जो यहूदियों के खिलाफ घृणा फैलाने का काम करती थीं। इन्हें कॉन्सेन्ट्रेशन कैम्पों में सैनिकों को दिखाया जाता था ताकि वे यहूदियों के प्रति और भी निर्दयी और खूंखार बन जाएं।

कुछ इसी तरह का प्रोजेक्ट हमारे देश में चलाया जा रहा है, और यह एक खास धार्मिक समुदाय के विरुद्ध टार्गेट किया गया है। पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? यदि किसी समझदार व शिक्षित व्यक्ति को ऐसी फिल्में भातीं हैं तो उसकी बुद्धि और संवेदना पर तरस आना चाहिये, क्योंकि ये किसी दृष्टि से फिल्म कहलाने लायक नहीं है। और, यदि लोग समझते हैं कि एक मुस्लिम लड़की तीन वयस्क लड़कियों को इतनी आसानी से बरगला सकती है, तो उन्हें भी हिन्दू महिलाओं के विवेक पर तनिक भी भरोसा नहीं है। पर सुदीप्तो अपनी ऑडियेंस को ऐसा ही बताना चाहते हैं। बैन तो नहीं, ऐसी फिल्मों का बायकाट होना चाहिये।

(कुमुदिनी पति महिला अधिकार कार्यकर्ता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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