आखिर इस समय कांग्रेस किसकी दोस्त और किसकी दुश्मन पार्टी है!

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बेहतरीन और कीमती घड़ी के बल पर समय को गुलाम बना लेने के भ्रम की उम्र बहुत नहीं होती है। काल-चक्र की चाक्रिकता और काल-गति की रैखिकता की सक्रियता अपने-अपने ढंग से जारी रहती है। इस बीच कांग्रेस और राहुल गांधी को उम्मीद की नजर से देखने लगे हैं।

याद कर लेना चाहिए कि अधिकतर लोगों का जी कांग्रेस से उचट गया था। यह भी ध्यान में आ रहा है कि 1934 में खुद महात्मा गांधी कांग्रेस से अलग हो गये थे। डॉ राममनोहर लोहिया के ‘गैर-कांग्रेसवाद’ का भी जबरदस्त प्रभाव पड़ा था, 1967 में नौ राज्यों में कांग्रेस की हार हो गई थी।

इसके कई कारण थे। इमरजेंसी लागू करने के बाद हुए 1977 के आम चुनाव में कम-से-कम उत्तर भारत के मतदाता समाज ने कांग्रेस को पूरी तरह से नकार दिया था। 

ध्यान में होना चाहिए कि 1977 का आम चुनाव इमरजेंसी के उठने के बाद नहीं हुआ था, बल्कि आम चुनाव के परिणाम आ जाने के बाद इमरजेंसी उठाई गई थी। चुनाव परिणाम का मतलब था कांग्रेस की हार। कांग्रेस विरोधी सभी राजनीतिक दलों को मिलाकर सरकार बनाने का बहुमत मिल गया था।

कांग्रेस और उसकी नेता इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर हो चुकी थीं। लेकिन, जनता पार्टी की सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। इसके लिए जवाबदेह कारण बहुत सारे थे, इन कारणों में एक बड़ा कारण राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ से जुड़े सदस्यों की बंटी हुई निष्ठा का सवाल था।

कारण हो या बहाना लेकिन, यह सच है कि जनता पार्टी और उस की सरकार दोनों ही दोहरी सदस्यता के नाम पर टूटी थी। 

जाहिर है कि विषम परिस्थिति में भारत के मतदाता समाज ने कांग्रेस और इंदिरा गांधी को फिर से पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का जनादेश दे दिया। उसके बाद इंदिरा गांधी की शहादत से सहानुभूति की वह लहर उठी कि भारतीय संसद के इतिहास में अब तक के सब से बड़े जनादेश के साथ राजीव गांधी संसद में लौटे।

राजीव गांधी राजनीति में नये थे, सौम्य और सहिष्णु थे। शक्ति, सहिष्णुता और सौम्यता का विरल संयोग व्यक्तित्व के अच्छे गुण होते हैं। ये ‘अच्छे गुण’ कई बार राजनीतिक रूप से बहुत क्षतिकारक साबित होते हैं। मिस्टर क्लीन के संबोधन के साथ शुरू हुई राजीव गांधी की राजनीतिक यात्रा भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिर गये या घेर लिये गये, कुछ भी कहना मुश्किल है।

राजीव गांधी के नेतृत्व में हुए अगले चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी संसदीय पार्टी तो बनी पर बहुमत नहीं मिला। 

राजीव गांधी ने विपक्ष में रहना स्वीकार किया। इसके बाद भारतीय राजनीति में भारी उथल-पुथल का दौर आ गया। अगले चुनाव में राजीव गांधी की शहादत हो गई। ‘गांधी परिवार’ में लगातार दूसरी पीढ़ी के दूसरे व्यक्ति की शहादत से देश स्तब्ध रह गया।

इस चुनाव के परिणाम के बाद पी. वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की अल्पमत सरकार बनी और पांच साल तक चली। महत्वपूर्ण यह है कि राजीव गांधी के बाद ‘गांधी परिवार’ का कोई सदस्य भारत के संवैधानिक पद पर नहीं पहुंचा। हां, नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद राहुल गांधी जरूर संवैधानिक पद पर हैं। 

आजादी के आंदोलन के दौर में मुस्लिम लीग कहती थी कांग्रेस हिंदुओं की पार्टी है। ‘हिंदुओं की पार्टी’ कहती थी कि कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी है। इसी तरह से कांग्रेस के बारे में सभी राजनीतिक दल यही कहते थे, आज भी यही कहते हैं कि कांग्रेस उनके अलावा किसी अन्य की राजनीतिक पार्टी है।

जबकि कांग्रेस का अपने बारे में यही मानना रहा है कि वह न हिंदुओं की पार्टी है, न मुसलमानों की पार्टी, न इसकी पार्टी है न उसकी पार्टी है। सच क्या है?  

सच है कि कांग्रेस उस महात्मा गांधी से जुड़ा राजनीतिक दल नहीं है, जिस ‘महा-पुरुष’ की हत्या ‘खास विचारधारा’ के बनाये नफरती माहौल में हुई थी। उस ‘खास विचारधारा’ से जुड़े लोग ‘आज के कांग्रेस के महात्मा गांधी’ से जुड़े न होने को ‘आज की कांग्रेस’ की विश्वसनीयता में कमी के तौर पर रेखांकित कर रहे हैं।

आज कांग्रेस महात्मा गांधी से जुड़ा राजनीतिक दल नहीं है, आप का राजनीतिक दल क्या आज गांधी से जुड़ गया है? गजब की बात यह है कि महात्मा गांधी से कांग्रेस के जुड़ाव के अभाव की बात का भी इस्तेमाल ये लोग नफरती माहौल बनाने के लिए ही कर रहे हैं। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘पीएम विश्वकर्मा योजना’ के एक साल पूरे होने के अवसर पर महाराष्ट्र के वर्धा में दिये गये अपने भाषण में कहा कि कांग्रेस को ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ और ‘शहरी नक्सली’ चला रहे हैं। यह हमारा नागरिक दायित्व है कि वह जानने की कोशिश करे कि ये ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ और ‘शहरी नक्सली’ कौन हैं?

वे कह रहे हैं, तो उनके पास कोई-न-कोई सबूत होगा ही। सबूत नहीं हो तो क्या उन्हें यह सब कहना चाहिए! यह पूछनेवाला कोई पत्रकार है? यह नहीं भूलना चाहिए कि वे देश के प्रधानमंत्री हैं। प्रधानमंत्री की हैसियत से उन्हें सब पता होना चाहिए। न हो तो वे कुछ भी हांककर निकल जाना उनको ‘शोभा’ नहीं देता है।

जिन्हें प्रधानमंत्री ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ और ‘शहरी नक्सली’ कह रहे हैं, क्या वे भी कांग्रेस के चलने-चलाने के बारे वैसा ही सोचते हैं! जब प्रधानमंत्री के स्तर से बार-बार ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ और ‘शहरी नक्सली’ की बात उठाई जा रही है, तो नक्सली और नस्ली राजनीति पर खुल कर बात की जानी चाहिए।

ताकि लोगों को साफ-साफ पता चले कि किससे सावधान रहना है, यह ठीक-ठीक तय किया जा सके। 

सहमति और संघर्ष के बीच संगति, सुधार और समन्वय से गति को शक्ति मिलती है। सभ्यता में कई तरह की धारणाएं सक्रिय रहती हैं। महाभारत के प्रसंग तो इस देश के लोगों के संघर्षशील जीवन के चित्त में प्रेरणा का प्रदीप हैं।

कल्पना करे कोई, एक तरफ सुदर्शन-चक्र के साथ वासुदेव और दूसरी तरफ टूटे हुए पहिये के साथ कर्ण! यह ठीक है कि लड़ाई में टूटा हुआ पहिया कभी काम नहीं आता है, लेकिन हमेशा ऐसा हो जरूरी नहीं है। जो अब तक नहीं हुआ है उसी के होने के लिए ही तो संघर्ष होता है।

हमेशा तो अटूट सुदर्शन-चक्र भी काम नहीं आता है। अस्थिर संसार में न समस्या स्थाई होती है, न समस्या का समाधान ही स्थाई होता है। स्थाई यानी अंतिम समाधान की तलाश विध्वंस के मुहाने पर ले जाकर पटक देती है, गवाही हिटलरशाही की ली जा सकती है।

देश हो विदेश सहमति और संघर्ष के बीच संगति, संतुलन, सुधार और समन्वय की प्रवृत्ति खो चुकी आज की लड़ाई में भारी तहस-नहस की पटकथा तैयार हो रही है; क्या पता, क्या होगा! 

इस लड़ाई में टूटा हुआ पहिया लेकर राहुल गांधी पूरी ताकत से सम्मोहक सुदर्शन-चक्र को चुनौती दे रहे हैं। सबसे बड़ा सम्मोहन सत्ता में होता है। सत्ता इस समय भारतीय जनता पार्टी के पास है, यह सत्ता सामान्य सत्ता नहीं है! भारतीय जनता पार्टी के हाथ में सत्ता का मतलब बहुत गहरा है।

चुनावी मौसम में यह लड़ाई भले ही राजनीतिक दिखता है लेकिन वास्तव में यह लड़ाई राजनीतिक से अधिक सामाजिक है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने राजनीतिक लोकतंत्र को साधन माना था और सामाजिक लोकतंत्र को साध्य। यह सच है कि राजनीतिक लोकतंत्र यदि स्वस्थ दिशा में आगे बढ़े तो वह देर-सबेर सामाजिक लोकतंत्र की तरफ लपकता जरूर है।

बड़े लोग अपने बचाव में राजनीतिक लोकतंत्र को तो अ-परिहार्य मानते हैं लेकिन सामाजिक लोकतंत्र और किन्हीं अर्थों में उस से भी अधिक आर्थिक लोकतंत्र को परिहार्य मानते हैं। 

बड़े लोगों का जत्था सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की परिहार्यता की संभावनाओं को जिलाये रखने के लिए राजनीतिक लोकतंत्र को उलझाव फंसाये रखने की कोशिश में बड़े लोगों का जत्था हमेशा लगा रहता है। इन्हीं उलझावों के बांस-काठ से बने राजनीतिक लोकतंत्र का चक्रव्यूह आम लोगों को सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की तरफ लपकने से रोक लेता है।

इस देश के आम लोगों को साथ लेकर ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी लोकतंत्र को राजनीतिक चक्रव्यूह से बाहर निकालकर सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की तरफ बढ़ना चाहते हैं।

इस देश के आम लोगों को साथ लेकर आगे बढ़ने का ही वह प्रसंग है, जिसके चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राहुल गांधी पर अनाप-सनाप, यानी कभी बिना नापे और कभी नाप तौलकर, आरोप मढ़ते रहते हैं। 

भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता और प्रवक्ता के कंठ से इन की ही प्रतिध्वनियां सुनाई देती रहती है। कभी ‘शहरी नक्सली’ तो कभी ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ जैसी अपरिभाषित शब्दावली के माध्यम से नफरती और निरर्थक बयान देते रहते हैं।

प्रसंगवश निरर्थकता के इस्तेमाल की सार्थकता यह होती है कि लोग अपनी धारणा के मुताबिक उसमें अर्थ भर लेते हैं। यानी ऐसे बयान चमचमाते हुए खाली डब्बे की तरह होते हैं। यह खाली डब्बा इतना आकर्षक और सम्मोहक होता है कि लोग इसे पकड़ लेते हैं।

नफरती माहौल से निकले जहरीले हीन-विचार इसमें भरते रहते हैं। कामयाबी तब मिलती है, जब मतदाता मत-बटन दबा देता है। पोस्ट ट्रुथ इरा या कह लें सत्योपरांत समय में तनिक-सी असावधानी होते ही कब आदमी अपने ही विरुद्ध जोरदार बयान जारी करने लगता है, उसे पता भी नहीं चलता है।

राहुल गांधी के खिलाफ ‘शहरी नक्सली’ और ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ जैसी बात कहकर कहीं और किन्हीं अर्थों में अपने खिलाफ ही तो वे नहीं बोल रहे होते हैं, संदेह होता है। 

यह स्वतः प्रमाणित है कि जिसका जन्म हुआ है वह मरेगा। सुदर्शन-चक्र का चक्रव्यूही-सिद्धांत बताता है कि इसी तरह से जो मरता है, वह निश्चित ही जन्म लेता है। टूटा हुआ पहिया बताता है कि मरे हुए का जन्म लेना स्वतः प्रमाणित नहीं होता है। सुदर्शन-चक्र और टूटा हुआ पहिया में इसी बात पर संघर्ष की विभिन्न पटकथाएं लिखी जाती रही हैं। 

इस अर्थ में ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी हजारों साल से चली आ रही वर्चस्वशाली वर्ण-व्यवस्था और विषमता-वर्धक आर्थिक नीतियों के खिलाफ लड़ रहे हैं।

कांग्रेस और राहुल गांधी के संघर्ष में रेंज में यह महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस प्रत्यक्ष रूप से पांच साला सत्ता की लड़ाई में है और राहुल गांधी अ-प्रत्यक्ष रूप से आम लोगों को साथ लेकर नई सभ्यता की लड़ाई को आगे बढ़ा रहे हैं।

इस अर्थ में राहुल गांधी की राजनीति बहु-आयामी और प्रगतिकामी है। 

असल में राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की वैचारिकी के अनुसार भारतीय जनता पार्टी भी प्रत्यक्ष रूप से पांच साला सत्ता और अ-प्रत्यक्ष रूप से बड़े लोगों को साथ लेकर पुरानी और एक-आयामी सभ्यता की लड़ाई में लगी हुई है। इस अर्थ में राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की राजनीति एक-आयामी और प्रतिगामी है। 

आजकल राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग भी डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का उल्लेख करने लगे हैं। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर कहते थे, देश के दो दुश्मन हैं, ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद।

आज की राजनीति में ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दोनों से कौन लड़ रहा है, और वह भी एक साथ! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी?

इस सवाल का जवाब तलाश का इरादा हो तो आज के राजनीतिक संघर्ष का चाल-चरित-चेहरा कुछ समझ में आ सकता है। जवाब तलाशने की एक दृष्टि शायद यह हो सकती है कि आज मुख्य रूप से भारत का राजनीतिक संघर्ष पुरानी, एक-आयामी प्रतिगामी शक्ति और नई, बहु-आयामी और प्रगतिकामी शक्ति के बीच का संघर्ष है।

राजनीति का सत्ता संघर्ष भी जारी है और सभ्यता संघर्ष भी जारी है। 

आज करें या कल! अंततः तय करना ही होगा, बार-बार खुद से भी पूछना होगा कि इस संघर्ष में हम किधर हैं। ध्यान रहे, चाह कर भी कोई निष्पक्ष नहीं हो सकता है; मुंह खोलते ही नहीं, मौन रहने पर भी आपको किसी-न-किसी पक्ष में घसीट लिया जायेगा।

इसलिए, अपना पक्ष तय कर ही लेना होगा। तय तो यह भी करना होगा कि आखिर इस समय कांग्रेस किसकी दोस्त पार्टी है और किस की दुश्मन पार्टी है!  

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)  

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