17 मई, 2023 को खरीफ की फसल के लिए पोषण आधारित सब्सिडी को कैबिनेट ने पारित कर दिया। इसके तहत 70,000 करोड़ रूपये यूरिया और 38,000 करोड़ रूपया डाईअमोनियम फॉस्फेट के लिए दिया जायेगा। इस तरह खाद सब्सिडी 1.08 लाख करोड़ रूपये होती है। सबसे ज्यादा सब्सिडी यूरिया के लिए है, 76 रूपये प्रति किग्रा। 2022 में यह 91.96 रूपये प्रति किग्रा था। पोटैशियम पर सब्सिडी 72.74 रूपये से घटकर 41 रूपये प्रति किग्रा रह गई है।
2022 के रबि की फसल के अनुपात में भी यह सब्सिडी कम है। इस संदर्भ में कृषि मंत्री बताते हैं कि वर्तमान में वैश्विक स्तर पर यूरिया, पोटैशियम और फाॅस्फेट के दामों में कमी आई है। ऐसे में सब्सिडी का प्रतिशत तयशुदा होने की वजह से खरीफ फसल के लिए सब्सिडी में कमी दिखाई दे रही है। यह तेल के मूल्यों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार के साथ जोड़कर मूल्य निर्धारित करने जैसा ही मामला है। सब्सिडी को अंतर्राष्ट्रीय बाजार मूल्य से जोड़ दिया गया है।
भारत में 2009-10 के बाद यूरिया की खपत में बढ़ती दिखती है और यह 300 लाख मिट्रिक टन का आंकड़ा छूने लगा था। पिछले तीन सालों से यह 350 लाख़ मिट्रिक टन के आसपास है। उपरोक्त अवधि में डीएपी का आंकड़ा 100 लाख मिट्रिक टन के आसपास बना हुआ है। एनपीके की खपत भी इसी के आसपास है। सरकार इस खपत के लगभग आधे हिस्से के बराबर स्टाॅक रखती है, जिससे कि संकट की स्थिति से बचा जा सके। कृषि मंत्री मनसुख मंडाविया के अनुसार कुल 12 करोड़ किसान हैं जो 1400 हैक्टेयर जमीन जोतते हैं। उनके अनुसार मोदी सरकार प्रति हेक्टेयर 8,909 करोड़ रूपये खाद पर खर्च कर रही है।
खेती में बढ़ते खाद के प्रयोग को संतुलित करने के लिए पोषण आधारित सब्सिडी लायी गई थी। लेकिन, इसका उपयुक्त परिणाम हासिल होता हुआ नहीं दिख रहा है। यूरिया की खपत 2009-10 की तुलना में लगभग 100 लाख मिट्रिक टन की वृद्धि दिखती है। इस वृद्धि का एक बड़ा कारण खाद प्रयोग की तुलना में घटता उत्पादन है। 2000-09 की तुलना में 2010-2017 की तुलना में यह गिरावट 1.8 प्रतिशत की आंकी गई थी। 1962-63 की तुलना में 2018 में नाइट्रोजन एफिसियेन्शी में लगभग 13 प्रतिशत की गिरावट देखी गई।
यदि वैश्विक एफिशियेन्शी 45.3 प्रतिशत से नीचे 34.7 प्रतिशत है।(देखेंः हरीश दामोदरन- यूरिया भारतीय खेती पर भारी क्यों)। यदि भारत का किसान 100 किग्रा यूरिया का प्रयोग करता है तो इसका महज 35 किग्रा ही खेती के उत्पादन में प्रयुक्त हो पाता है। बाकी 65 किग्रा यूरिया पौधों के काम नहीं आ पाता। इस अनप्रयुक्त नाइट्रोजन का एक हिस्सा खेत के नाइट्रोजन वैल्यू में बदलता है। लेकिन, यह नाइट्रेट में बदलकर खेत में नीचे की ओर खिसकता जाता है और साथ ही अमोनिया में बदलकर गैस की शक्ल में वातावरण में घुल जाता है। उत्पाकता बढ़ाने के लिए जरूरी है, नाइट्रोजन अधिकतम खेत में घुले और उससे पौधों को पोषण मिल सके। निश्चय इसके लिए यूरिया के साथ कुछ और तत्वों को मिलाना होगा। एक ऐसा ही प्रयोग नैनो यूरिया के रूप में सामने आया है, जिसका प्रयोग सब्सिडी के साथ किसानों को पिछले कुल सालों से उपलब्ध कराया जा रहा है।
यह नैनो यूरिया तरल रूप में है। इफ्को का दावा था कि इससे उत्पादकता में वृद्धि होगी और यूरिया खपत में कमी आयेगी। ‘डाउन टू अर्थ’ ने अपने अध्ययन में पाया है कि उत्पादकता में बढ़ोत्तरी के मामले नहीं दिख रहे हैं और कई बार किसान इस यूरिया के प्रति फसल का रुख देखते हुए ठोस यूरिया का प्रयोग करने को मजबूर हुए। इसकी वजह से खाद की लागत में वृद्धि हुई।
हालांकि उत्पादकता वृद्धि के दावे के साथ इफ्को ने श्रीलंका को 2021-22 में 3.06 लाख बोतल नैनो यूरिया भेजा गया जो 2022-23 गिरकर 1.58 लाख ही रह गया। यहां यह ध्यान रखना होगा कि तरल स्थिति में होने की वजह से इसके छिड़काव की लागत भी इसमें जुड़ जाती है। उपरोक्त पत्रिका के अध्ययन बताते हैं कि इससे किसानों की कुल लागत में वृद्धि ही देखी जा रही है। एक ऐसा ही प्रयोग नीम कोटेड यूरिया का चल रहा है। इस यूरिया के पोषक तत्वों के बारे में अधिक पता नहीं चलता है। लेकिन, यह खाद यूरिया के खेती से इतर प्रयोगों को रोकने के लिए किया गया। यूरिया की एक बड़ी खपत प्लाईवुड, टैक्सटाईल में धुलाई का काम, पशुओं के चारा, कृत्रिम दूध बनाने आदि में किया जाता है।
यहां यह ध्यान में रखना होगा कि यूरिया और अन्य खादों के उत्पादन का बड़ा हिस्सा यूरोप के कुछ देशों तक सीमित है। इस साल के जुलाई महीने में कृषि मंत्री का दावा था कि 2025 में यूरिया के मामले में भारत ‘आत्मनिर्भर’ हो जायेगा। भारत में यूरिया का उत्पादन 260 लाख करोड़ टन है। उनके अनुसार 90 लाख टन उत्पादन बढ़ाने का लक्ष्य है। इस तरह, 40 हजार करोड़ रूपये की बचत होगी। लेकिन, सच्चाई यही है कि प्रधानमंत्री मोदी जापान में जी-20 मीटिंग में शामिल होने के दौरान खाद के दामों को विश्व के नेताओं से नियमित करने की अपील कर रहे हैं।
यदि किसानों की खरीद के संदर्भ में देखा जाये तब किसान को 500 एम नैनो यूरिया का प्रति बाॅटल खरीद 240 रूपया पड़ रहा है और सरकार के 2300 रूपये की सब्सिीडी पर 45 किग्रा का बैग 262 रूपया पड़ रहा है। पहली बात, किसानों में नैनो यूरिया की उत्पादकता को लेकर भरोसा नहीं है। दूसरा, छोटे और मध्य किसानों की खेती लागत में इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। यहां किसानों के सामने बाजार में खाद की उपलब्धता ही मुख्य है।
धनी और बड़े किसान फसल उत्पादकता को लेकर बेहद चौकन्ने होते हैं। खेती की उत्पादकता की आशंका की फसल काटने के लिए फसल बीमा कंपनियां सरकार के सहयोग से काम में लगी हुई हैं और ये प्रीमियम के नाम पर किसानों से वसूली कर रही हैं, जिससे किसानों की कुल आय में कमी का एक और कारण भी बन रहा है। 2016-17 की नाबार्ड सर्वे रिपोर्ट बताता है कि 53 प्रतिशत किसान परिवार औसतन 1.04 लाख प्रति व्यक्ति में दबे हुए हैं।
2002-03 से 2012-13 के बीच किसानों की कुल वार्षिक आय में से ऋण का हिस्सा 50 प्रतिशत से बढ़कर 61 प्रतिशत हो गया था। भारत जैसे देश में मौसम में बदलाव, खासकर मानसून की कमी और रबी की फसल की अवधि के पूरा होने के पहले ही लू के चलने से खाद, पानी और कीटनाशक का प्रयोग तेजी से बढ़ता है। किसानों के सामने फसल और उसकी उत्पादकता दोनों को ही बचाने का संकट होता है। इस तरह हम हरित क्रांति की संरचना में उत्पादन की प्रक्रिया को फैलते हुए देख रहे हैं, और साथ-साथ घटती उत्पादकता और बढ़ती लागत की समस्या को भी देख रहे हैं। किसानों का संकट बढ़ रहा है।
जरूरत है खेत की उत्पादकता ही नहीं खेत की संरचना और उसमें श्रम की भागीदारी को बदलने की। मैक्रो आंकड़ों से किसानों के लिए बढ़ती सब्सिडी तो दिखाई जा सकती है, लेकिन किसानों की कुल आय में बढ़ोत्तरी के आंकड़ों में बहुत फर्क नहीं दिखाई देगा। किसानों की आत्महत्या के आंकड़े अपराध ब्यूरों के आंकड़ों में दर्ज होकर सामने आते रहते हैं, लेकिन उसकी वास्तविक तस्वीर तबाह होते गांव और रोजगारहीनता की स्थिति में बेकारी का जीवन जी रहे युवाओं, घटती आय के साथ जी रहे किसान और गांव की महिलाओं के जीवन को देखने से अधिक स्पष्ट होती है।
(अंजनी कुमार टिप्पणीकार हैं।)