Saturday, April 20, 2024
प्रदीप सिंह
प्रदीप सिंहhttps://www.janchowk.com
दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय और जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं।

क्या भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दल अवसान काल की ओर बढ़ रहे हैं?

कर्नाटक चुनाव परिणाम आने के बाद से क्षेत्रीय दलों के सुर बदल रहे हैं। बात-बात में कांग्रेस को कोसने और राहुल गांधी को विपक्षी गठबंधन का नेता न मानने की बात करने वाले अपने स्टैंड चेंज कर रहे हैं। राहुल गांधी का मुखर विरोध करने वाले विपक्षी दल नरेंद्र मोदी को हराने को सत्ता से बाहर करने के लिए उनसे उम्मीद कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि कल तक विपक्षी गठबंधन की बैठकों में बुलाने के बाद भी आने में आनाकानी करने वाले अब कांग्रेस की तरफ आशा भरी निगाह से देख रहे हैं। इसका कारण कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के साथ ही अपने जनाधार को कायम रखने की चुनौती भी, इसका एक बड़ा कारण है। दो आम चुनाव और कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों के परिणामों का विश्लेषण करें तो इस तथ्य की पुष्टि होती है। जनता छोटे दलों के परिवारवाद, अवसरवादिता, पदलोलुपता और भ्रष्टाचार के कारण इनसे ऊबी हुई दिख रही है।

मोटे तौर पर कहा जाए तो अब क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक यात्रा उठान पर नहीं, बल्कि गिरावट की ओर है। उत्तर प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र और कर्नाटक में इसके कुछ संकेत मिल रहे हैं। दीवाल पर लिखी इस इबारत को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सबसे पहले पढ़ा, और कांग्रेस की तरफ सार्वजनिक तौर पर दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया है। पश्चिम बंगाल में अभी हाल ही में हुए उप चुनाव में कांग्रेस की जीत हुई थी, और राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अल्पसंख्यक वोट टीएमसी से खिसक कर कांग्रेस की तरफ शिफ्ट हो रहा है। तबसे टीएमसी में खलबली है और ममता बनर्जी लगातार कांग्रेस से अपील कर रही हैं कि बंगाल को उनके हवाले छोड़कर पूरे देश में वह कांग्रेस के साथ हैं।

कुछ राजनीतिक विश्लेषक यह भी कह रहे हैं कि अब देश में गठबंधन की राजनीति कमजोर हो रही है। भारतीय राजनीति दो ध्रुवीय होने की तरफ फिर से बढ़ रही है। लोकसभा चुनाव की बात की जाए तो 2014 और 2019 के आम चुनाव में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला। जनता ने अपनी तरफ से पूर्ण बहुमत देने में कोई संकोच नहीं किया। इसी तरह उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को देखा जाए तो 2017 और 2022 के चुनाव में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला। अभी हाल में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जनता ने कांग्रेस को पूर्ण बहुमत दिया, और क्षेत्रीय पार्टी जेडीएस का न सिर्फ मत प्रतिशत कम हुआ बल्कि उसके सीटों में भी काफी कमी आई है।

जनता साफ संकेत और संदेश दे रही है कि उसे कमजोर सरकार नहीं चाहिए, जो विकास कार्यों को रोकने या साफ-सुथरा प्रशासन देने की नाकामी के लिए सहयोगी दलों के मोल-भाव को जिम्मेदार ठहराए। दरअसल, अब जनता को बुनियादी सुविधाओं के साथ-साथ गुड गवर्नेंस चाहिए। उसे कोई बहाना नहीं चाहिए। पंजाब में आम आदमी पार्टी की जीत भी इस ओर इशारा करती है।

क्षेत्रीय दलों के उभार का एक बड़ा कारण क्षेत्र विशेष के लोगों की विशिष्ट आकंक्षाएं और सामाजिक-धार्मिक समीकरण रहे हैं। 1989 से शुरू हुए गठबंधन की राजनीति की सीमाओं, समस्याओं और इस तरह के सरकारों की अच्छाइयों और बुराइयों को जनता काफी हद तक समझ चुकी है। क्षेत्रीय और छोटे दलों की राजनीतिक सीमा से भी लोग वाकिफ हो रहे हैं। ऐसे में आम जनता का झुकाव एक बार फिर राष्ट्रीय दलों की तरफ हो रहा है।

गठबंधन सरकारों के दौर में क्षेत्रीय दल प्रदेश में ‘स्वतंत्र क्षत्रप’ की हैसियत रखते थे तो केंद्रीय सत्ता में ‘किंगमेकर’ की भूमिका निभाते थे। क्योंकि तब केंद्र सरकार छोटे-छोटे दलों को एकजुट करके ही बनती थी। इसके एवज में पहल तो वह राजनीतिक मोल-भाव करते थे, बड़ा और फला विभाग मुझे चाहिए, और बाद में समय-समय पर अपने व्यक्तिगत हितों के लिए सौदा भी करते थे। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव, बसपा प्रमुख मायावती, राजद के लालू प्रसाद यादव, एनसीपी के शरद पवार, अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल, तेलगुदेशम के एन. चंद्रबाबू नायडू के राजनीतिक मोल-भाव से सब परिचित हैं। इसकी सकारात्मकताओं के साथ गंभीर नकारात्मकताएं सामने आ चुकी हैं। कांग्रेस ने क्षेत्रीय दलों के बहुस सारे एजेंडे का अपना एजेंडा बनाने का प्रयास करती हुई दिख रही है।

अब देखते हैं कि देश में क्षेत्रीय दलों की स्थिति क्या है। उत्तर प्रदेश की बात की जाए तो समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी राज्य में कई बार सत्तारूढ़ रहे। इन दोनों दलों के राजनीतिक धमक का असर केंद्र सरकार तक सुनाई देती थी। लेकिन विगत दो विधानसभा चुनाव से सपा तो विपक्षी दल की हैसियत में है, लेकिन बसपा अपना व्यापक जनाधार खो रही है। बसपा के समक्ष अब अपने मजबूत वजूद को कायम रखने की चुनौती है। बसपा के मतों में गिरवाट दर्ज की जा रही है। पंजाब में यही हाल अकाली दल का है। आम आदमी पार्टी ने अकाली दल की राजनीति और धार्मिक नीति की जड़ें हिलाकर रख दी है। दलितों का बहुलांश वोट हासिल करके सामाजिक आधार पर राजनीति और वोट पाने की सीमाएं भी उजागर कर दी है। कर्नाटक में यही हाल पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा की पार्टी जनत दल (सेकुलर) की है।

महाराष्ट्र की राजनीति में इस समय भारी उठा-पटक का दौर चल रहा है। राज्य में शिवसेना और राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी (NCP) प्रमुख राजनीतिक दल हैं। शिवसेना भाजपा तो एनसीपी कांग्रेस के साथ गठबंधन की सरकार बनाते और चलाते रहे हैं। लेकिन शिवसेना का भाजपा से गठबंधन बिगड़ने के बाद से ही पार्टी का हर समीकरण बदल गया। शिवसेना में बगावत हुई और अब उद्धव ठाकरे अपने शिवसेना के सांगठनिक ढांचे को खड़ा करने के संघर्ष से जूझ रहे हैं। महाराष्ट्र में एनसीपी की स्थिति भी राजनीतिक तौर पर डांवाडोल है। यदि अजीत पवार पार्टी से विद्रोह कर भाजपा में चले जाते हैं, तो उसके सांगठनिक आधार को बड़ा धक्का लगेगा। ऐसे में शरद पवार अपनी बेटी सुप्रिया सुले को राजनीति में स्थापित करने के लिए कांग्रेस में जाने का विकल्प भी चुन सकते हैं।

क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती दलितों और ओबीसी की जातियों का अलग-अलग रूप से राजनीतिक व्यवहार है। यूपी में सपा और बसपा ओबीसी और एससी की एक विशेष जाति की पार्टी के रूप में देखी जाती हैं। दलितों-पिछड़ों की अन्य जातियों का उनसे मोहभंग हुआ और एक उनके एक बड़े हिस्से को अपने साथ करने में भाजपा सफल हुई है। मुसलमान अब राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को एकमात्र विकल्प के रूप में देख रहे हैं। मुसलमानों का क्षेत्रीय दलों पर भरोसा कम हो रहा है। ऐसे में क्षेत्रीय दलों का एक बड़ा वोट बैंक उससे छिन रहा है और भविष्य में अन्य जगहों पर छिन सकता है। जिसके कारण क्षेत्रीय दलों की राजनीति कमजोर पड़ रही है।

(प्रदीप सिंह जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं।)

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