Wednesday, April 24, 2024

असम विधानसभा चुनावों में किस करवट बैठेगा सत्ता का ऊंट?

असम विधान सभा चुनाव नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के इर्द गिर्द होंगे। लेकिन इस कानून की जन्मदाता भारतीय जनता पार्टी इसका नाम लेने से भी बचना चाहेगी और लगातार सफाई देने की मुद्रा में होगी।  

यह कानून जिस दिन लोकसभा से पारित हुआ उसी रात असम में विद्रोह की हालत बन गई थी, एक समय ऐसा लगा कि लोग राज्य सचिवालय को जला देंगे। सीआईएसएफ की भारी तैनाती हुई। जगह-जगह भीड़ को तितर-बितर करने के लिए गोली चलानी पड़ी। गुवाहाटी में ही दो लोग मारे गए। इस तरह की घटनाएं राज्य में कई जगह हुईं। 

आजादी के समय से ही असम में बंगाली शरणार्थी राजनीतिक मुद्दा रहे हैं। इसी मुद्दे को लेकर 1979 में छात्रों के नेतृत्व में व्यापक जन आंदोलन शुरू हुआ जिसका समापन राजीव गांधी की पहल पर 1985 में असम समझौता से हुआ। पर यह मुद्दा समाप्त नहीं हुआ। भारतीय जनता पार्टी ने धर्म के आधार पर हिन्दुओं को शरणार्थी और मुसलमानों को घुसपैठिया कहने का नया चलन शुरू किया और सभी बांग्लादेशी घुसपैठियों को खदेड़ देने का नारा लगाती रही।

इसी पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर एनआरसी की शुरूआत हुई। इस प्रक्रिया में आम लोगों का समर्थन इस उम्मीद पर टिका रहा कि बांग्ला भाषी समूह के वर्चस्व का खतरा टल जाएगा। पर न केवल एनआरसी प्रक्रिया नाकाम हुई, बल्कि सीएए के रूप में ऐसा कानून आ गया जिससे बांग्ला भाषी स्थाई निवासी हो जाएंगे। राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण (एन आर सी) को अद्यतन करने के दौरान आम लोगों की भारी फजीहत हुई, लेकिन राजकोष से डेढ़ हजार करोड़ से अधिक रकम और छह साल से अधिक समय खर्च करने के बाद जो दस्तावेज तैयार हुआ, उसे कोई स्वीकार नहीं कर‌ रहा। 

असमिया लोगों को लगता है कि यह कानून सीसीए अगर लागू हो गया तो उनकी उप-राष्ट्रीय पहचान खत्म हो जाएगी। धर्म के आधार पर लोगों में विभाजन होने लगेगा। असमिया भाषा और संस्कृति पर गंभीर संकट उत्पन्न हो जाएंगे। नागरिकता संशोधन कानून बनने के पहले जब विधेयक सामने आया था तभी से असमिया लोगों के सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन आंदोलन कर रहे थे, लगातार धरना चल रहा था। पर सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने दो वर्षों से अधिक से चल रहे विरोध प्रदर्शनों की कोई परवाह नहीं की और विधेयक को कानून में बदल दिया गया। विरोध में उठी आवाजें समय के साथ मद्धिम होती प्रतीत हो रही हैं पर असमिया समाज में फैली आशंकाएं कमजोर नहीं हुई हैं। 

उल्लेखनीय है कि असम समझौता में 25 मार्च 1971 के बाद आए बांग्लादेशियों को वापस भेजने की सहमति हुई थी। पर सीएए के अनुसार 2014 के पहले आए बांग्लादेशियों को भारतीय नागरिकता दी जानी है। इससे  असम की भाजपा सरकार में साझीदार असम गण परिषद की हालत सांप छछूंदर की हो गई है। उसके मंत्रियों ने पहले तो सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा की, पर उसके सांसद बीरेन बैश्य ने विधेयक के पक्ष में मतदान किया। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के हस्तक्षेप से असम सरकार में अगप के मंत्रियों की वापसी हो गई। लेकिन कई नेता पार्टी छोड़कर चले गए। जो बचे, उनका कोई राजनीतिक वजूद नहीं बचा है। बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ छह साल चले आंदोलन के गर्भ से निकली पार्टी के लिए यह स्थिति शर्मनाक है। असम राजनीतिक स्थिति को समझने के लिए यह पृष्ठभूमि जानना जरूरी है। 

नागरिकता संशोधन कानून की विरोधी भावनाओं के गर्भ से तीन क्षेत्रीयतावादी पार्टियां बनी। आंचलिक गण मोर्चा, असम जातीय परिषद और राइजर दल। आंचलिक मोर्चा के नेता वरिष्ठ पत्रकार अजीत भुइंया कांग्रेस की मदद से राज्यसभा में चले गए। असम जातीय परिषद को असमिया उप राष्ट्रीय पहचान की रक्षा करने के नाम पर असम छात्र संघ और असम युवा छात्र परिषद का समर्थन पर्याप्त है। यही दोनों संगठन छह साल लंबे असम आंदोलन की रीढ़ थे। एक अन्य पार्टी राइजर दल जिसका अर्थ आम आदमी पार्टी है, का गठन भी हुआ है जिसके नेता अखिल गोगोई किसानों व भूमिहीनों को भूमि पट्टा दिलाने के आंदोलन से चर्चित हुए और सीएए विरोधी आंदोलन के समय से अभी तक राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में हैं। उनकी जमानत की अर्जी उसी तरह लगातार नामंजूर होती रही हैं जैसे जेएनयू छात्रा देवांगना कलिता की याचिकाएं।

सबसे दिलचस्प उन बंगाली हिन्दुओं की स्थिति है जिन्होंने नागरिकता मिलने की उम्मीद में पिछली विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भाजपा को वोट दिया था,पर एनआरसी प्रक्रिया में भारी फजीहत झेली और आज भी अनिश्चितता में दिन काट रहे हैं क्योंकि नागरिकता संशोधन कानून की नियमावली  नहीं बनी है और भाजपा ने अगर चुनावों के दौरान इसका नाम भी लिया तो असमिया वोटर बुरी तरह बिदक जाएंगे। इस लिहाज से कांग्रेस बेहतर स्थिति में दिखती है। वह एनआरसी और सीएए का उल्लेख कर बंगाली मुसलमानों को गोलबंद कर सकेगी जो पहले से उसके वोटर रहे हैं।

 कांग्रेस का बंगाली मुसलमानों की पार्टी यूडीएफ से गठबंधन भी है जिसके नेता बदरुद्दीन अजमल इत्र के बड़े व्यापारी हैं और  कई बार लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं। कांग्रेस को केवल चार बगान क्षेत्रों में कठिनाई का सामना करना पड़ेगा जो क्षेत्र पहले कांग्रेस की जेब में हुआ करता था, पर अब आरएसएस के कामों की वजह से भाजपा की ओर खिसक गया है। फिर भी उनमें करीब बीस प्रतिशत आबादी ईसाइयों की है जो कांग्रेस की ओर जा सकते हैं। बोडो जनजातीय क्षेत्र में 12 विधानसभा क्षेत्र हैं जिनमें स्थानीय पार्टियों से साझीदारी करना दोनों मुख्य गठबंधनों की भी मजबूरी है। पहाड़ी जनजातियों के स्वायत्तशाषी क्षेत्र में जरूर भाजपा ने पैठ बना ली है।

विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी भाजपा और अगप का एक साथ होना तो तय है क्योंकि भाजपा के बाहर अगप का कोई वजूद नहीं बचा। विपक्ष में कांग्रेस के नेतृत्व में वाम दलों समेत पांच दलों ने महागठबंधन बनाया है जिसे असम की जातीय संरचना को देखते हुए मजबूत मुकाबले की स्थिति में माना जा रहा है। लेकिन जातीय परिषद और राइजर दल में भी चुनावी गठबंधन हो गया है और यह गठबंधन बोडो जनजाति एवं पहाड़ी जनजाति क्षेत्र में स्थानीय संगठनों से गठबंधन करने की कोशिश में हैं। यह गठबंधन राष्ट्रीय दलों के गठबंधन के सामने क्षेत्रीयतावादी गठबंधन प्रस्तुत करने वाला है। वैसे असम के चुनावों पर बंगाल की राजनीति का भी प्रभाव पड़ता है। इस बार सीएबी की वजह से यह प्रभाव कहीं अधिक होगा। 

असम विधानसभा में 126 सदस्य होते हैं। वर्तमान विधानसभा में भाजपा का सहयोगी दलों के साथ 83 क्षेत्रों पर कब्ज़ा है। लेकिन आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा व कांग्रेस दोनों गठबंधन पचास-पचपन सीट जीतते नजर आते हैं। वैसे दोनों गठबंधनों के नेता सार्वजनिक सभाओं में आगामी चुनाव में 80 से 100 सीटें जीतने का दावा कर रहे हैं। 

इस लिहाज से असम जातीय परिषद और राइजर दल जीत के बारे में दावे करने के बजाए अपने मुद्दे उठाने पर अधिक जोर दे रहे हैं। जातीय परिषद जहां असमिया अस्मिता,भाषा संस्कृति की चर्चा कर रही है, वहीं राइजर दल सभी भूमिहीनों को जमीन देने की भाजपा सरकार के पुराने आश्वासन का उल्लेख करते हुए इस काम में सरकार की बदनियती का आरोप लगा रही है। 

कुल मिलाकर असम विधानसभा के चुनाव में कांटे की टक्कर होने जा रही है। यह भी तय होने जा रहा है कि आसाम में क्षेत्रीयतावादी राजनीति चलेगी या उसकी विदाई हो जाएगी।

(अमरनाथ झा वरिष्ठ पत्रकार हैं और पटना में रहते हैं। इस समय वह असम के दौरे पर हैं और वहीं से उन्होंने यह रिपोर्ट भेजी है।)

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